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अपभ्रंश भारती 15-16
घत्ता- आकाश की ओर उन्मुख, सरल, ताल-तमाल वृक्षों से आच्छादित मार्ग वाले, अनेक प्रकार के हाथी व सिंह से आश्रित, हरिणों से सुन्दर लगने वाले ऐसे वन में हरिषेण पहुँचा।
(1.12) (हरिषेण व जंगल के पशुओं में परस्पर आदरभाव तथा हरिषेण का तापसवन में गमन)
उस भीषण जंगल के आवास स्थल में उनको देखकर भी हरिषेण के मन में आदर का अभाव नहीं था। उछलता कूदता हुआ गिरि-कन्दराओं को देखता है। पुनः आगे मधुर जलयुक्त तालाबों व सुगन्धित-गन्ध वाले कमल-पुष्प के उद्यानों को देखता है। जो भी पशु कहीं से आये हुए हैं वे उसका मनोहर रूप देखकर शान्त हो जाते हैं।
. जो रथ, हाथी, घोड़े, वाहन आदि साधनों पर छत्र व ध्वजा सहित जाता था वह हरिषेण अब उसके कर्म के अधीन अकेला ही पैरों से पृथ्वी पर घूम रहा है। समतल व ऊँचे नीचे तथा दुर्लघ्य और कठिनता से पार किये जाने वाले जंगल वफाओं को पार करता है। तब शान्त चित्त व भयरहित मन वह शतमन्य (तपस्वी) के आश्रम की तरफ गया।
घत्ता- जो अपने ऐश्वर्य के एक भी साधन को नहीं छोड़ता है वह हरिषेण तापसवन को शोभित किये हुए स्थित था। सूर्य किरण के समान प्रकाशयुक्त वचनों से 'जीव' कवि इस प्रकार अपने उपदेश में गायन करते हैं।
कड़वक 2. 1. का. धवलुब्भ 2. क. ग्पवरिहि कड़वक 5. 1.क. वलु (ध छूट गया है।) कड़वक 7. 1. क. महु (क. 1.9.4 में भी पहु ही है।) कड़वक 8. 1.क. तकिउ (शब्दक्रम परिवर्तन) कड़वक 9. 1. जइ न भमइ क प्रति में छूट गया हैं, ख प्रति से लिया गया है। कड़वक 10. 1. पुणु क. प्रति में छूट गया है, ख से लिया गया है। 2. क. णच्चंतविहि कड़वक 11. 1.क. लयल 2. क. कडति