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अपभ्रंश भारती 15-16
जहिं वंछइ णियमणम्मि जम्मण धरु
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कुरुभूमि व सुणिच्च सुहदाइणि । जिणवाणि व सव्वहँ मणतोसिणि । णं जसवित्ति - बुह - गिह- पंकिया । जाहि णिएवि महामुणि लुब्भइ । णं पुरि कमलासणहु सहोयरि ।
बहुवाणियजुय णं मंदाइणि रंगभूमि णं णवरसपोसिणि
सायरपुत्ति व रयणहिँ लंकिय सइँ चित्तु व परणरहँ णर बुज्झइ चउ - गोउर- दुवार लग्गंबरि सालत्तयवेढिय वरभामिणि परिहा - जलयर - जीव- सुहायरि किं वण्णिज्जइ जहिँ पुणु सुरवरु घत्ता- तहिँ णीड़-सयाणउ बहुगुणठाणउ राणउ बलु पालंकु पुणु । बे-पक्खहिँ णिम्मलु गयलंछणमलु सयलालउ सो णमिय- जिणु ॥ 7 ॥
आवट्टिय जहिँ लया बहुअरि । वंछइ णियमणम्मि जम्मण धरु ।
महाकवि रइथू
धणकुमारचरिउ 1.7
वह उज्जयिनी नगरी विविध प्रकार के व्यापारियों से
युक्त
है, मानो जलबहुला
मन्दाकिनी - गंगा ही हो। वह कुरु- भोगभूमि की तरह नित्य सुखदायिनी है अथवा मानो, नवरसों को पोसनेवाली नाट्यशाला ही हो। जिनवाणी के समान जो सभी के मन को सन्तुष्ट करनेवाली है अथवा, मानो, रत्नों से अलंकृत सागरपुत्री लक्ष्मी ही हो। अथवा मानो, वह यशोवृत्तिवाले बुधजनों के गृहों की पंक्ति ही हो। जहाँ के व्यक्ति अपने चित्त के समान ही दूसरों के चित्त को समझते हैं और जिसे देखकर महामुनि भी लुब्ध हो उठते हैं ।
वह उज्जयिनी उत्तम चार गगनचुम्बी गोपुर-द्वारों से युक्त है। मानो, वह कमलासनब्रह्मा की नगरी की सहोदरी पुरी ही हो। वह विशाल तीन कोटों से वेष्टित है। वहाँ जलचरजीवों को सुख प्रदान करनेवाली परिखा है, जहाँ बहुत आवर्त और लताएँ हैं । उस नगरी का क्या वर्णन किया जाय, जहाँ इन्द्र भी जन्म लेने की इच्छा अपने मन में धारण करता हो ।
घत्ता- वहाँ नीति-निपुण, गुण-स्थान, प्रजापालक, दोनों पक्षों से उज्ज्वल (अर्थात् कुल - जाति से उच्च ), अपयशरूपी लाँछन- मलरहित, सम्पूर्ण कलाओं के घर के समान तथा जिनदेव को नमस्कार करनेवाला ( अवनिपाल नामका ) राजा राज्य करता था ॥ 7 ॥