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अपभ्रंश भारती 15-16
अक्टूबर 2003-2004
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गौतम स्वामी रास - महाकवि ब्रह्म जिनदास संपा.- डॉ. प्रेमचन्द राँवका
15वीं शताब्दी के संस्कृत-हिन्दी भाषा-साहित्य के प्रसिद्ध महाकवि ब्रह्म जिनदास द्वारा रचित 'गौतम स्वामी रास' अपभ्रंश भाषा की अन्तिम कड़ी गुजराती राजस्थानी मिश्रित (मरु गुर्जर) का खण्ड काव्य है; जो तत्कालीन प्रचलित रास काव्यात्मक लोक-शैली में निबद्ध है। इस रास-काव्य में भगवान महावीर के प्रमुख शिष्य इन्द्रभूति गौतम गणधर के पूर्व भव एवं वर्तमान जीवन का आख्यान चित्रित हुआ है। रास का पूर्वार्द्ध इन्द्रभूति गौतम के पूर्व भव से सम्बन्धित है। पूर्व भव में लब्धिविधान व्रत (भाद्रपद शु. 1,2,3) का विधिवत् पालन करने से गौतम वर्तमान भव में अपने समय का श्रेष्ठतम विद्वान बनता है।
रास के उत्तरार्द्ध में इन्द्र वेदपाठी गौतम से उसकी विद्वत्ता की परीक्षा करता है। भगवान महावीर की धर्म-सभा में पहुँचने पर, भगवान महावीर के उत्तुंग मान-स्तम्भ के देखने मात्र से गौतम का अभिमान दूर हो जाता है और उसकी शंकाओं का सहज ही समाधान हो जाता है। तब गौतम भगवान महावीर की अनुपम दिव्यध्वनि को धारण करनेवाले प्रथम गणधर बन जाते हैं। उन्हें उसी समय मन:पर्यय ज्ञान की उपलब्धि हो जाती है और भगवान महावीर की देशना से जन-जन को आप्लावित कर केवलज्ञान प्राप्तकर स्वयं भी इस संसार से मुक्त हो सिद्ध-पद को प्राप्त करते हैं। इस रास के कुल 132 पदों में, दूहा, भास जसोधरनी, वीनतीनी, अंबिकानी, आनन्दानी, माल्हंतडानी आदि अपभ्रंश काव्य के छन्दों का प्रयोग हुआ है। यहाँ गौतम स्वामी रास की सम्पादित रचना का मूलापाठ प्रस्तुत है