Book Title: Apbhramsa Bharti 2003 15 16
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

View full book text
Previous | Next

Page 101
________________ 00 अपभ्रंश भारती 15-16 ॥वस्तु॥ श्री वीर जिणवर, वीर जिणवर, पाय प्रणमेसुं॥ सरसति स्वामिणि विनवू, बुधि सार हं वेगिमांगु॥ श्री सकलकीरति पाय प्रणमीनें मुनि भुवनकीरति गुरु सार वांदउ। रास करीसुं अति निरमलो, गौतम स्वामी देव। ब्रह्म जिनदास कहे रुवडौ, जनमि जनमि करूं सेव॥1॥ ॥भास जसौधरनी॥ महावीर स्वामी पूछीया, श्रेणिक गुणवंत। गौतम स्वामी तणउ चरित, कहो जयवंत।।1।। जम्बूद्वीप मझारिसार, भरत खेत्र जिम जाणो। कासी देस मझारि सार, वाणारसीय पखाणो॥2॥ विस्वसेन तीणें नयरि राय, राज्य करे सविशल। विसालाक्षीय राणी नाम, सौभाग्य रूप माल ॥3॥ राजा मोह धरे अपार, सुख भोगवे चंग। क्रीडा विनोद करे अपार, आपणै मन रंग॥4॥ एक वार बहु रूप सार, होइ सरस अपार। सभा सहित राजा सांभलि, रीझयो सविचार।।5।। गौखि बैठी राणी सुंदरी, जावि वलि सार। रूप दीखा तिहा अत्ति घणां, मोह उपनो अपार ।।6।। चंचल मन कीयौ आपणौ, बोलवीय दासी। एक चमरा दूजि रंगिजाणि, राणी बोलइ आसी।।7।। विणय सीक्ष हवै भोगवू, स्वेछा मुणो आज। रूप जीवन सफल करूं, छांइ एह राज॥8॥ राज भुवनि जन्म जार, आलि चौखौ बंदी खाणो। इहां थका आपुंण नीसरूं, उपाय करी जाणौ ॥9॥ सूक्ष्म वस्त्र तव आणीयु, राणी रूप कीघौ। चंदन कुंकुम पूर जाणि, विलेपन दीघौ॥10॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112