Book Title: Apbhramsa Bharti 2003 15 16
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 104
________________ अपभ्रंश भारती 15-16 मुनिवर मन अचल जिम मेर, चलै नही स्वामी निरमलाए। वली उपसर्ग मांड्यौ घनघोर, ध्यान मूकै सोहजलोए ॥2॥ चारि पहर लगें कीया उपसर्ग, निरर्थक हुइ ते पापिणीए। तव नाठी चोर जिम वाणी, पाप जोड्यो अभागिणीए॥3॥ तिणे अवसरि उग्यौ दिनराऊ, जाणे कुंकुम पीजरयोए। पुन्यवंत आव्या तिहां गुणवंत, महादेव कीयो भाव धरियोए॥4॥ जयजयकार हुवौ अपार, चरण कमल दुई बांदीयाए। हरष बदन हुवा सहु कोइ, भाव सहित गुरु पूजीयाए॥5॥ ते पापिणी गइ परदेश, कोढिणी हुइंय अभागिणीए। दुख पाम्या तिन्हु घनघोर, पांचमै नरकि पडि पापिणीए॥6॥ छेदन भेदन दुख अपार, एक जिह्वा किम बोलीयेए। इम जांणी तम्हे मणी करो पाप, पापे दुरगति तोलियेर ।।7। सतर सागर भागेव्यो तिहां आयु, पाप बलि अति घणोए। तिहां थकां नीसरिया ते जीव जाणि, मांजर हुवा श्रेणिक सुणोए॥8॥ मांजर मरी सुकर जांणि, सुकर मरां स्वांन छुवाए। श्वान मरी कूकडा वली थोर, समदाइ करमें मूवाए॥9॥ अवंती देश माहिं सविशाल, घोष गांम छे रूवडोए। ते तीन्हीं जीव गुणछीण, कुणंबीय घरिते अवतरीयए।।10।। ऊंधान्य कुणबी तणो नाम, एक बेटी तेह घरिहुइए। एक पुत्र तणी हुई घीह, एक जवांई बेटी सहीए॥1॥ उपना पुढे घन विणास, कुटंब विणास हुवौ घणोए। निरधार हुई ते अबला बाल, सुख गयौ बहु तेह तणोए॥12॥ सन्नि सन्नि मोटि हुइ जारिए दुख पाम्या बहु अति घणाए। एक कांणी एक कालीयवानि, एक कूजी फल पाप तणाए॥13॥ भूखे पीडी ते घनघोर, तिहां थकी देशांतरि गइए। जिहां जिहां जाइ तिहां दुख, सुख नहीं पुन्य विण सहीए॥14॥

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