Book Title: Apbhramsa Bharti 2003 15 16
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती शोध-पत्रिका अक्टूबर, 2003-2004 15-16 जैनविद्या संस्थान आ महावीरजी अपभ्रंश साहित्य अकादमी दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी राजस्थान Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती __ वार्षिक शोध-पत्रिका अक्टूबर, 2003-2004 सम्पादक डॉ. कमलचन्द सोगाणी श्री ज्ञानचन्द्र खिन्दूका सम्पादक मण्डल श्री नवीनकुमार बज श्री महेन्द्रकुमार पाटनी श्री अशोक जैन श्री ज्ञानचन्द बिल्टीवाला डॉ. जिनेश्वरदास जैन डॉ. प्रेमचन्द राँवका प्रबन्ध सम्पादक श्री नरेन्द्र पाटनी मंत्री, प्रबन्धकारिणी कमेटी दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी सहायक सम्पादक सुश्री प्रीति जैन प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी जैनविद्या संस्थान प्रबन्धकारिणी कमेटी दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी (राजस्थान) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्षिक मूल्य 30.00 रु. सामान्यत: 60.00 रु. पुस्तकालय हेतु मुद्रक जयपुर प्रिण्टर्स प्रा. लि. जयपुर पृष्ठ संयोजन आयुष ग्राफिक्स जयपुर मोबाइल : 9414076708 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची क्र. सं. विषय लेखक का नाम पृ. सं. प्रकाशकीय सम्पादकीय पउमचरिउ में डॉ. हुकमचन्द जैन 'राम का व्यक्तित्व' दीसंति सव्व णं बुह कियए महाकवि रइधू अपभ्रंश के जैन कवि श्री नीरज शर्मा धनपाल और उनका 'भविसयत्त कहा' : एक विवेचन ‘णायकुमारचरिउ' में देश-वर्णन डॉ. श्रीरंजनसूरिदेव देसु सुरम्मइ अत्थि महि महाकवि रइधू करकण्डचरिउ में भाषा-सौष्ठव डॉ. त्रिलोकीनाथ ‘प्रेमी' अपभ्रंश के जैन रासा-काव्य _डॉ. गदाधर सिंह परम्परा और प्रयोग Lord Krishna In JainKrishna-Katha Literature क इराय जीवकिउ हरिसेणचरिउ Dr. Yogendra Nath Sharma 'Arun' जहिं वंछइ णियमणम्मि कविराय जीव सम्पा.-अनु. - श्रीमती स्नेहलता जैन महाकवि रइधू महाकवि ब्रह्म जिनदास सम्पा.- डॉ. प्रेमचन्द राँवका 11. गौतमस्वामी रास Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती (शोध-पत्रिका) 1. 3. सूचनाएँ पत्रिका सामान्यतः वर्ष में एक बार, महावीर निर्वाण दिवस पर प्रकाशित होगी। पत्रिका में शोध-खोज, अध्ययन-अनुसन्धान सम्बन्धी मौलिक अप्रकाशित रचनाओं को ही स्थान मिलेगा। रचनाएँ जिस रूप में प्राप्त होंगी उन्हें प्रायः उसी रूप में प्रकाशित किया जाएगा। स्वभावतः तथ्यों की प्रामाणिकता आदि का उत्तरदायित्व रचनाकार का होगा। यह आवश्यक नहीं कि प्रकाशक, सम्पादक लेखकों के अभिमत से सहमत हों। रचनाएँ कागज के एक ओर कम से कम 3 सेण्टीमीटर का हाशिया छोड़कर सुवाच्य अक्षरों में लिखी अथवा टाइप की हुई होनी चाहिए। अस्वीकृत/अप्रकाशित रचनाएँ लौटाई नहीं जायेंगी। रचनाएँ भेजने एवं अन्य प्रकार के पत्र-व्यवहार के लिए पता सम्पादक अपभ्रंश भारती अपभ्रंश साहित्य अकादमी दिगम्बर जैन नसियाँ भट्टारकजी सवाई रामसिंह रोड जयपुर - 302 004 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय अपभ्रंश भाषा और साहित्य में रुचि रखनेवाले अध्येताओं के लिए 'अपभ्रंश भारती' का यह (15-16वाँ) अंक प्रस्तुत करते हुए प्रसन्नता है। भारतीय आर्यभाषाओं की श्रृंखला में 'अपभ्रंश' का स्थान एक ओर प्राकृत तथा दूसरी ओर हिन्दी आदि आधुनिक आर्यभाषाओं को जोड़नेवाली कड़ी के रूप में है। अपभ्रंश तत्कालीन जन-जीवन के लोक-व्यवहार की महत्त्वपूर्ण भाषा रही है। भाषाविकास के क्रम में ऐसी अवस्था आती है जब जनभाषा/जनबोली साहित्यिक भाषा बन जाती है। ईसा की दो शताब्दी पूर्व की जनभाषा अपभ्रंश ने ईसा की छठी शताब्दी तक आते-आते एक साहित्यिक भाषा के रूप में अपनी पहचान बनाली। लगभग एक हजार वर्ष तक इस भाषा में विपुल मात्रा में साहित्य रचना हुई। उस अपभ्रंश भाषा और उसके साहित्य के अध्ययन-अध्यापन के लिए सन् 1988 में दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी द्वारा 'अपभ्रंश साहित्य अकादमी' की स्थापना की गई। _ अकादमी द्वारा अपभ्रंश के अध्यापन के लिए पत्राचार के माध्यम से 'अपभ्रंश सर्टिफिकेट पाठ्यक्रम' तथा 'अपभ्रंश डिप्लोमा पाठ्यक्रम' अखिल भारतीय स्तर पर संचालित हैं। अपभ्रंश भाषा में अध्ययन-अध्यापन को सुगम बनाने के लिए 'अपभ्रंश रचना सौरभ', 'अपभ्रंश काव्य सौरभ', 'अपभ्रंश अभ्यास सौरभ', 'अपभ्रंश : एक परिचय', 'प्रौढ़ अपभ्रंश रचना सौरभ, भाग-1', 'प्रौढ़ प्राकृत अपभ्रंश रचना सौरभ, भाग-2', 'अपभ्रंश ग्रामर एण्ड कम्पोजिशन (अंग्रेजी)', 'अपभ्रंश एक्सरसाइज बुक (अंग्रेजी)', 'अपभ्रंश पाण्डुलिपि चयनिका' आदि पुस्तकें भी प्रकाशित की गईं हैं। अपभ्रंश भाषा से सम्बन्धित लेखन को प्रोत्साहन देने के लिए 'स्वयंभू पुरस्कार' भी प्रदान किया जाता है। जिन विद्वान् लेखकों के लेखों ने पत्रिका के इस अंक को यह रूप प्रदान किया उनके प्रति आभारी हैं। पत्रिका के सम्पादक, सहयोगी सम्पादक एवं सम्पादक मण्डल धन्यवादाह हैं। इस अंक के पृष्ठ-संयोजन के लिए आयुष ग्राफिक्स, जयपुर तथा मुद्रण के लिए जयपुर प्रिण्टर्स प्राइवेट लिमिटेड जयपुर भी धन्यवादाह हैं। नरेशकुमार सेठी अध्यक्ष नरेन्द्र पाटनी मंत्री प्रबन्धकारिणी कमेटी, दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी (v) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयंभू पुरस्कार दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी ( राजस्थान) द्वारा संचालित अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर द्वारा अपभ्रंश साहित्य से सम्बन्धित विषय पर हिन्दी एवं अँग्रेजी में रचित रचनाओं पर 'स्वयंभू पुरस्कार' दिया जाता है । इस पुरस्कार में 21,001/( इक्कीस हजार एक रुपये) एवं प्रशस्ति पत्र प्रदान किया जाता है। - - पुरस्कार हेतु नियमावली तथा आवदेन पत्र प्राप्त करने के लिए अकादमी कार्यालय, दिगम्बर जैन नसियाँ भट्टारकजी, सवाई रामसिंह रोड, जयपुर - 4, से पत्र-व्यवहार करें। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय “हिन्दी साहित्य के आदिकालीन इतिहास का स्वर्णयुग अगर कोई माना जा सकता है तो वह है- अपभ्रंश का जैन साहित्य। अपभ्रंश भाषा और उसका साहित्य एक जन-आन्दोलन है जिसमें एक नई परम्परा, लोक-परम्परा की शुरुआत होती है।" ___ “सामान्य चरित्रों को रचना का नायक बनाकर अपभ्रंश के कतिपय जैन कवियों ने भावी हिन्दी साहित्य के समक्ष एक मानदण्ड स्थापित किया। धनपाल की 'भविसय-तकहा' इसी प्रकार की एक रचना है।" “धनपाल ने अपभ्रंश साहित्य को दो रचनाएँ दीं- 'भविसयत्तकहा' एवं 'बाहुबलिचरिउ'।" “धनपाल को अपनी काव्य-प्रतिभा पर घमण्ड था। अपने आपको वे सरस्वती का पुत्र (सरसइ बहल्लद्ध महावरेण) कहते थे। डॉ. हरमन याकोबी इनका समय दसवीं शती मानते थे। प्रो. भायाणी ने 'भविसयत्तकहा' की भाषा को देखकर इसको स्वयंभू के बाद तथा हेमचन्द्र से पहले की रचना बताया है। राहुलजी के अनुसार ये सम्भवतः गुजरात के निवासी थे। राहुलजी इनका समय 1000 ईसवी मानते हैं।" ___ “धनपाल भारतीय साहित्य की परम्पराओं, भारतीय संस्कृति के भी पुरोधा हैं। तभी तो वे माँ-बेटे की भावनाओं को पारम्परिक ढंग से वाणी देते हुए भी उसे आधुनिक चेतना का पर्याय बना देते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि कालान्तर में इनका और इनकी इस रचना का प्रभाव सूरदास आदि कवियों पर तो पड़ा ही, साथ ही आधुनिककालीन कथा-साहित्य भी धनपाल और ‘भविसयत्तकहा' से अप्रभावित नहीं रह पाया।" ___ "रस-निरूपण, छन्द-निर्मिति, अलंकार-आयोजन के साथ-साथ परम्परा से अलग हटकर लोकजीवन से चरित्रों का चयन, उनकी कथा, शब्द-चयन-समता, चित्रात्मक भाषा, उक्ति-वक्रता धनपाल की इस रचना को हिन्दी साहित्य की अमर कृति बना देती है।" “रामकथा संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं में प्रचलित रही है। आदि कवि वाल्मिकी ने राम को आदर्श मानव, जैन कवियों ने उन्हें भव्यपुरुष एवं तुलसीदास ने भगवान के रूप में स्वीकार किया है, अतः राम का व्यक्तित्व बहुआयामी हो गया है।" "जैन परम्परा में रामकथा को प्रस्तुत करनेवाले महाकवि विमलसूरि हैं। उन्होंने अपने प्राकृत ग्रन्थ 'पउमचरियं' में राम को एक साधारण मानव की दृष्टि से चित्रित किया है। आचार्य रविषेण ने संस्कृत ग्रन्थ 'पद्मपुराण' में राम के सर्वांगीण सौन्दर्य को चित्रित किया है। उन्हें दया, करुणा, प्रेम, शील, शक्ति का खजाना माना है। ‘पउम (vii) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरिउ' में स्वयंभू ने इसी जैन परम्परा को अपनाया है, अत: उन्होंने राम के व्यक्तित्व में लगभग ये ही गुण वर्णित किये हैं, किन्तु उनकी शैली एवं दृष्टि में विशिष्टता है।" “महाकवि पुष्पदन्त (ईसा की नवीं-दसवीं शती) द्वारा प्रणीत ‘णायकुमारचरिउ' अपभ्रंश के धुरिकीर्तनीय काव्यों में अन्यतम है।" “महाकवि ने अपने इस अपभ्रंश काव्य में कई देशों का वर्णन किया है जिनमें मगध देश स्थित राजगृह, कनकपुर, पाटलिपुत्र, कुसुमपुर, मथुरा, कश्मीर, उर्जयन्त पर्वततीर्थ, गिरिनार, गजपुर, पाण्ड्यदेश, उज्जैन, मेघपुर, दन्तीपुर आदि उल्लेख्य हैं। इन देशों या स्थानों का भौगोलिक और सामाजिक जीवन अतिशय मनोरम एवं हृदयावर्जक है।" " 'करकण्डचरिउ' की काव्य-भाषा परिनिष्ठित अपभ्रंश है। सौन्दर्य के विविध उपा-दानों का समुचित प्रयोग करके उसके कवि ने उसे भाव और परिस्थिति के अनुरूप बनाकर अपने प्रबन्ध को सामान्य सहृदय के लिए भी सहज और सरस बना दिया है। मुहावरों और सभी प्रकारेण सार्थक शब्दों के प्रयोग से उसे जीवन्त बनाने का सफल प्रयास किया है। शब्द की लक्षणा-व्यंजना शक्तियों के द्वारा उसमें अर्थ-चमत्कार भरा है तो सादृश्यमूलक अलंकारों के नूतन तथा मौलिक प्रयोगों से उसके सौष्ठव को उन्नत कर दिया है। विविध भावों, अनुभावों, स्थितियों एवं दृश्यों के चित्रण में उसकी काव्य-भाषा सर्वत्र सशक्त एवं समृद्ध बनी है। सचमुच मुनि कनकामर वीतरागी महापुरुष ही नहीं, काव्य और काव्य-भाषा के मर्मज्ञ विद्वान और मनीषी भी हैं।" । "जिस प्रकार राजाश्रित कवियों ने अपने आश्रयदाताओं की प्रशंसा में रासो और चरित-ग्रन्थों की रचना की है, उसी प्रकार जैन मुनियों ने भी अपने धार्मिक सिद्धान्तों की व्याख्या करने, धार्मिक पुरुषों के चरित-गान द्वारा धर्म का वातावरण निर्मित करने तथा अपने तीर्थ-स्थानों के प्रति भक्ति-भावना बढ़ाने के उद्देश्य से इन रासो-ग्रन्थों की रचना की है।" "जैन मुनियों एवं कवियों ने धार्मिक और पौराणिक चरित्रों को आधार बनाकर ही अधिकांश रासो ग्रन्थों का प्रणयन किया है। पौराणिक और ऐतिहासिक चरित्र को आधार बनाकर जो रास-ग्रन्थ लिखे गये हैं उनमें बाहुबलि और नेमिनाथ पर रचित रचनाओं की संख्या अधिक है। इन रासो ग्रन्थों में मानव-हृदय को स्पन्दित करने की जो क्षमता है वही इनकी लोकप्रियता का आधार है।" “रासा-साहित्य का महत्त्व जैन आचार्यों एवं कवियों के लिए कितना था इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि दसवीं से लेकर अठारहवीं शताब्दी तक सैकड़ों की संख्या में रास-ग्रन्थों की रचना हुई है। यदि दिगम्बर और श्वेताम्बर विद्वानों द्वारा लिखित विभिन्न भाषाओं के सभी रास-ग्रन्थों का आकलन किया जाये तो उनकी संख्या 1000 से अधिक होगी। श्वेताम्बर कवियों द्वारा रचित अधिकांश रास (viii) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्य प्रकाश में आ गये हैं, किन्तु दिगम्बर विद्वानों के रास-काव्य अभी भी बेठनों में बँधे सुधी समीक्षकों की प्रतीक्षा में हैं। " “उपलब्ध जैन रास - काव्यों में सबसे पहली जो रचना प्राप्त होती है वह है- उपदेश रसायन रास। इसके रचयिता श्री जिनदत्तसूरि हैं। ये श्री जिनवल्लभसूरि के शिष्य थे। उपदेश रसायन रास का रचनाकाल विक्रम सम्वत् 1171 है। इसमें कुल 80 छन्द हैं । " "अपभ्रंश भाषा में रचित 'हरिसेणचरिउ' के रचनाकार हैं- जीव कवि । हरिषेण पर आधारित इस चरिउकाव्य की चार सन्धियों में मानव जीवन के उदात्त मूल्यों की सफल अभिव्यक्ति हुई है। माँ-बेटे की लौकिक कथा पर आधारित यह काव्य लोकचेतना को विकसित करने तथा चिन्तनशील मानव की अन्तश्चतेना को सनातन सत्य की ओर अग्रसर करने में निःसन्देह एक अद्वितीय काव्य सिद्ध होता है।” " पन्द्रहवीं शताब्दी के संस्कृत-हिन्दी भाषा-साहित्य के प्रसिद्ध महाकवि ब्रह्म जिनदास द्वारा रचित 'गौतमस्वामी रास' अपभ्रंश भाषा की अन्तिम कड़ी गुजरातीराजस्थानी मिश्रित (मरु गुर्जर) का खण्ड-काव्य है जो तत्कालीन प्रचलित रास काव्यात्मक लोकशैली में निबद्ध है। इस रास - काव्य में भगवान महावीर के प्रमुख शिष्य इन्द्रभूति गौतम गणधर के पूर्वभव एवं वर्तमान जीवन का आख्यान चित्रित हुआ है । ” " गौतम भगवान महावीर की अनुपम दिव्यध्वनि को धारण करनेवाले प्रथम गणधर बन जाते हैं। उन्हें उसी समय मन:पर्यय ज्ञान की उपलब्धि हो जाती है और भगवान महावीर की देशना से जन-जन को आप्लावित कर केवलज्ञान प्राप्त कर स्वयं भी इस संसार से मुक्त हो सिद्ध पद को प्राप्त करते हैं। इस रास के कुल 132 पदों में दूहा, भास जसोधरनी, वीनतीनी, अम्बिकानी, आनन्दानी, माल्हतडानी आदि अपभ्रंश काव्य के छन्दों का प्रयोग हुआ है । " अपभ्रंश भाषा के अध्ययन-अध्यापन के साथ ही अपभ्रंश के अप्रकाशित ग्रन्थों की पाण्डुलिपियों का सम्पादनन-अर्थानुवाद एवं प्रकाशन करना भी अपभ्रंश साहित्य अकादमी की प्रमुख प्रवृत्ति रही है। इसी क्रम में कवि जीव द्वारा रचित काव्यरचना 'हरिसेणचरिउ' का श्रीमती स्नेहलता जैन द्वारा सम्पादित अंश एवं उसके अर्थ का तथा डॉ. प्रेमचन्द राँवका द्वारा सम्पादित महाकवि ब्रह्म जिनदास की रचना 'गौतमस्वामी रास' का इस अंक में प्रकाशन किया जा रहा है। हम इनके आभारी हैं। जिन विद्वान् लेखकों ने अपने लेख भेजकर इस अंक के प्रकाशन में सहयोग प्रदान किया उनके प्रति आभारी हैं। संस्थान समिति, सम्पादक मण्डल एवं सहयोगी कार्यकर्त्ताओं के भी आभारी हैं। पृष्ठ - संयोजन के लिए आयुष ग्राफिक्स, जयपुर तथा मुद्रण के लिए जयपुर प्रिण्टर्स प्राइवेट लिमिटेड, जयपुर भी धन्यवादार्ह हैं। डॉ. कमलचन्द सोगाणी (ix) Page #11 --------------------------------------------------------------------------  Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 अक्टूबर 2003-2004 पउमचरिउ में 'राम' का व्यक्तित्व - डॉ. हुकमचन्द जैन भारतीय साहित्य में जिन महापुरुषों ने जन-मानस को अधिक प्रभावित किया है उनमें राम का व्यक्तित्व प्रमुख है। राम-कथा जन-जीवन में प्रारम्भ से ही इतनी प्रचलित रही है कि विभिन्न युगों के कवियों ने विभिन्न भाषाओं में उनके व्यक्तित्व को कई दृष्टिकोणों से प्रस्तुत किया है। रामकथा संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं में प्रचलित रही है। आदि- कवि बाल्मिकी ने राम को आदर्श मानव, जैन कवियों ने उन्हें भव्यपुरुष एवं तुलसीदास ने भगवान के रूप में स्वीकार किया है। अतः राम का व्यक्तित्व बहुआयामी हो गया है। जैन-परम्परा में रामकथा को प्रस्तुत करनेवाले महाकवि विमलसूरि हैं। उन्होंने अपने प्राकृत ग्रन्थ ‘पउमचरियं' में राम को एक साधारण मानव की दृष्टि से चित्रित किया है।' आचार्य रविषेण ने संस्कृत ग्रन्थ 'पद्मपुराण' में राम के सर्वांगीण सौन्दर्य को चित्रित किया है। उन्हें दया, करुणा, प्रेम, शील, शक्ति का खजाना माना है। 'पउमचरिउ' में स्वयंभू ने इसी जैन-परम्परा को अपनाया है। अतः उन्होंने राम के व्यक्तित्व में लगभग ये ही गुण वर्णित किये हैं। किन्तु उनकी शैली एवं दृष्टि में विशिष्टता है। पराक्रमी बालक - पउमचरिउ में राम के व्यक्तित्व का विकास उनकी युवावस्था Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 से प्रारम्भ होता है। कुमार-काल में वे जब पिता के स्थान पर स्वयं जनक की सहायता के लिए चल पड़ते हैं और कहते हैं- 'तात्! मेरे रहते हुए आपका युद्ध में जाना उचित नहीं है।' उनके इस कथन से एक ओर पिता के प्रति अगाध प्रेम का पता चलता है तो दूसरी ओर उनके पराक्रम और उत्साह का भी। आदर्श पुत्र - राम एक आदर्श पुत्र के रूप में दिखाई देते हैं। वे विकट से विकट परिस्थिति में भी पिता की आज्ञा-पालन करते हैं। राम-वनवास के वचनों को सुनकर लक्ष्मण क्रोध से तिलमिला उठते हैं, तब दशरथ किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं। इस पर राम दशरथ को आदर्श पुत्र के लक्षण बताते हए कहते हैं - _ 'पुत्र का पुत्रत्व इसी में है कि वह कुल को संकट-समूह में नहीं डालता, वह अपने पिता की आज्ञा धारण करता है और विपक्ष का प्राण नाश करता है, गुणहीन और हृदय को पीड़ा पहुँचानेवाले पुत्र शब्द की पूर्ति करनेवाले पुत्र से क्या? आप तप साधे, शक्ति को प्रकाशित करें। हे पिता! मैं वनवास के लिए जाता हूँ।' स्नेही गृहस्थ - पारिवारिक जीवन में राम परिवार के सभी सदस्यों से स्नेह करनेवाले हैं। पिता के समान ही राम अपनी माता अपराजिता और दशरथ की अन्य रानियों से स्नेह रखते हैं। कैकेयी ने जब राम के लिए वनवास माँगा तो राम के मन में उसके प्रति तनिक भी आक्रोश नहीं हुआ। वे पिता की आज्ञा मानने को सहर्ष तैयार हो जाते हैं। वे माँ अपराजिता को भी बहुत स्नेह करते हैं। वनवास जाते समय वे माँ को ढाँढस बँधाकर तथा अन्जाने में की गई भूलों के लिए क्षमा माँगकर वनवास के लिए रवाना होते हैं। . राम का अपने भाइयों के प्रति भी बहुत स्नेह है। इसीलिये उन्होंने भरत को राजसिंहासन सहर्ष दे दिया। उनके हृदय में क्षणमात्र भी रोष या ईर्ष्या नहीं हुई कि मेरे छोटे भाई को राज्य मिल रहा है! भरत जंगल में जाकर उन्हें वापस चलने लिए अनुनय-विनय करता है किन्तु राम उन्हें मर्यादा का उपदेश देते हुए लौटा देते हैं। राम दूसरी बार भी उन्हीं के सिर पर राजपट्ट बाँधते हैं। लक्ष्मण के प्रति तो उनका अथाह प्रेम है जिसकी परीक्षा भी अत्यधिक कठिन है। इस बात का प्रमाण यह है कि लक्ष्मण को वन में अपने साथ ले जाना। लक्ष्मण के शक्ति लगने पर राम विलाप करते हुए कहते हैं - 'प्रिय! यम (मृत्यु) ने तुम्हारा और हमारा क्या कुछ नहीं किया? कहाँ तो माता गई और नहीं मालूम पिताजी कहाँ गये हैं? हे विधाता! तुम्हीं बताओ इस प्रकार भाइयों का विछोह कराकर तुम्हें क्या मिला? तुम्हारी कौनसी कामना पूरी हो गयी?'' इस प्रकार का विलाप लक्ष्मण के प्रति अगाध प्रेम का द्योतक है। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 सबसे महत्त्वपूर्ण प्रसंग यह है कि लक्ष्मण की मृत्यु हो जाने पर राम लक्ष्मण के शव को अपने कन्धे पर डालकर घूमते रहते हैं।' इससे बढ़कर राम का स्नेह क्या हो सकता है? यह विचार सभी जैन राम - कथाओं में मिलता है, किन्तु जैनैतर कथाओं में नहीं मिलता जो भ्रातृत्व प्रेम के रूप में राम के व्यक्तित्व को निखारता है। 3 पत्नी के प्रति भी राम के व्यक्तित्व में अपनी आदर्श मर्यादा और असीम प्रेम के साथ लोकापवाद के कारण नफरत या हेय भावना भी दिखाई देती है। जब रावण सीता का हरणकर ले जाता है तब राम सीता की प्राप्ति के लिए करुण - क्रन्दन करते हैं - 'अरे! मेरी कामिनी के समान सुन्दर गतिवाले गज क्या तुमने मेरी मृगनयनी को देखा है ? ' " रामचरित्र मानस के राम भी इसी तरह पूछते हुए व्याकुल हैं - हे खगमृग ! हे मधुर श्रेणी! तुम देखी सीता मृगनैनी ? सीता के प्रति अगाध प्रेम का एक प्रसंग और है । लक्ष्मण के पूछने पर राम के मुँह से केवल इतना निकलता है सीता वन में नष्ट हो गई है। उसकी वार्ता और कोई नहीं जानता । " मर्यादा रक्षक सीता के लिए किये गये राम के करुण - क्रन्दन में जहाँ प्रेम है वहाँ दूसरी तरफ सीता- निर्वासन और अग्नि परीक्षा के प्रसंग में कठोरता, आदर्शवादिता, नैतिकता एवं मर्यादा आदि गुण उनके व्यक्तित्व में श्रेष्ठता लाते हैं । - राम निष्ठुर बनकर सीता को राजभवन से निर्वासित कर भयंकर जंगल में छुड़वा देते हैं। इसलिये कि अयोध्या की कुछ स्त्रियों ने अपने पति के सामने यह तर्क प्रस्तुत किया कि यदि इतने दिनों तक रावण के यहाँ रहकर आनेवाली सीता राम को ग्राह्य हो सकती है तो एक - दो रात अन्यत्र बिताकर घर लौटने में पतियों को आपत्ति क्यों हो?" इस बात को लेकर नगर में सीता विषयक अपवाद फैलता है। राम मर्यादा की रक्षा लिए सीता का निर्वासन कर देते हैं। राम का चरित्र और अधिक उजागर तब होता है जब उनका मन दूषित हो जाता है। राम के मानस पटल पर अन्तर्द्वन्द्व की रेखाएँ उभर आती हैं वे सोचते हैं - वे बड़ी कठिनाई में हैं। यदि सीता सती भी हो तो इस लाँछन को कौन टाल सकता है कि वह रावण के घर रहकर आयी है !" फिर भी राम दृढ़तापूर्वक लक्ष्मण को कहते हैं- नहीं, नहीं! सीता को नहीं रख सकते, चाहे तुम कितना ही प्रतिवाद करो । राम के व्यक्तित्व में अन्तर्द्वन्द्व एवं दृढ़ता स्वयंभू की मौलिक देन है जो मानस एवं रामायण के राम में नहीं मिलते हैं। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 शरणागत-वत्सल- राम के व्यक्तित्व में शरणागत-वात्सल्य का भी एक बहुत बड़ा गुण है जिसके मन में दया का सागर तरंगित है। विभीषण भाई को छोड़कर राम की शरण में आता है तो राम उसे गले लगाकर कहते हैं- मैं तुम्हें लज्जित नहीं होने दूंगा और समग्र लंका का राज्य तुम्हें दूंगा। रावण का सिर तोड़कर में उसे कृतान्त का अतिथि बनाऊँगा। मानस एवं रामायण के विभीषण को राम से यह स्पष्ट आश्वासन नहीं मिलता कि मैं रावण को मारकर राज्यश्री तुम्हारे हाथों में सौपूँगा। यह पउमचरिउ में राम के व्यक्तित्व का विशेष गुण है जो उसके व्यक्तित्व को आलोकित करता है। राम हनुमान, अंगद, सुग्रीव आदि के प्रति कृतज्ञ हैं। यह मानकर नहीं कि ये सब अपने-अपने कर्तव्य निभा रहे हैं! बल्कि ये बेचारे अपनी शक्ति की सीमा को पारकर मुझ पर उपकार कर रहे हैं। इसीलिये सीता की सूचना देने पर राम हनुमान को गले लगाते हैं। जब राम वन-मार्ग में बढ़ते हैं तो उन्हें सुरति-युद्ध दिखायी देता है। राम उसे देखकर हँस देते हैं किन्तु उनके मन में किसी प्रकार के कुविचार नहीं आते हैं। यह उनके आत्म-संयम की कठोर परीक्षा है। उपकार, दया, सोचने की क्षमता ये उनके व्यक्तित्व का विकास करते हैं। वे मार्ग में गिरे हुए गृद्ध-पक्षी को मोक्ष पहुँचाते हैं। सुग्रीव की मित्रता निभाने के लिए विट सुग्रीव को मारते हैं। छल-कपट, दाव-पेंच, धोखाधड़ी उनसे लाखों कोस दूर रहते हैं। सीता-निर्वासन के समय राम जितने कठोर एवं शंकास्पद है उससे कई गुना सरल, मृदु एवं क्षमाभावी भी हैं। सीता के निर्दोष प्रमाणित होने पर वे उससे क्षमायाचना करते हुए कहते हैं- क्षुद्र निन्दकों के छल-छन्द में पड़कर मुझसे बड़ी भूल हो गई है। मैंने तुम्हारा अपमान किया है और बहुत दु:ख दिया है। हे परमेश्वरी, एकबार मुझ पर दया करके मेरा अपराध क्षमा कर दो। इस प्रकार सामाजिक क्षेत्र में राम ने कदम-कदम पर मर्यादा एवं आदर्श का निर्वाह किया है। साहसी एवं पराक्रमी- युद्ध के पूर्व राम अंगद को रावण के पास दूत बनाकर भेजते हैं ताकि नीति के विरुद्ध कोई कार्य न हो। राम का समुद्र से रास्ते के लिए प्रार्थना करना यह भी नीति एवं मर्यादा के अनुरूप है, यदि वे चाहते तो बलात् ये कार्य करवाया जा सकता था। किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। ऐसा करने से मर्यादा, धैर्य एवं नीति का निर्वाह नहीं किया जा सकता जिससे राम का व्यक्तित्व दब सकता था। किन्तु अधिकतर राम-कथाकारों ने राम के व्यक्तित्व को दबने से बचाया है। लक्ष्मण पर जब Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 शक्ति का प्रहार होता है उस समय राम का हृदय तिलमिला उठता है, किन्तु धैर्य का अवलम्बन लेते हुए लक्ष्मण को जीवित करते हैं। वे लक्ष्मण की प्रेरक शक्ति के रूप में दिखाई देते हैं। वे कभी भी अनुचित मंत्रणा नहीं देते। इस प्रकार युद्ध-क्षेत्र में राम नीतिमर्यादा एवं धैर्य के अथाह समुद्र हैं। रावण की मृत्यु होने पर राम के व्यक्तित्व की एक और विशेषता दिखाई देती- साधारण व्यक्ति तो अपने शत्रु के नष्ट होने पर अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए भागते हैं किन्तु राम ऐसा नहीं करते, वे लपककर सीता के लिए नहीं जाते अपितु भाई के विछोह पर विभीषण के आँसू पौंछते हैं। उन्हें भविष्य के लिए आश्वस्त करके रावण की अन्त्येष्टि क्रिया सम्पन्न कराते हैं। मन्दोदरी एवं अन्य जनों को राम उपदेश देते हैं जिससे वे वैराग्य धारण कर लेते हैं। मेघनाद, कुम्भकर्ण सभी दीक्षित हो जाते हैं। यह विचारधारा जैन रामकथा में किसी न किसी रूप में अवश्य पाई जाती है। किन्तु जैनेतर रामकथाओं में पात्रों का दीक्षित होना नहीं पाया जाता। . इस प्रकार युद्ध-क्षेत्र में राम में मर्यादा, आदर्शवादिता, धैर्य, उत्साह, वीरता, सहिष्णुता आदि गुण दिखाई देते हैं। धर्मपरायण- धर्म के क्षेत्र में राम लक्ष्मण से हमेशा आगे रहते हैं। मुनियों पर किये गये उपसर्गों को दूर करने में भी राम अधिक क्रियाशील दिखाई देते हैं। ‘पुराण कथाओं में भी उनकी अधिक जानकारी एवं रुचि है। वह स्थल बड़ा ही सुन्दर है जहाँ राम सीता को वट वृक्ष आदि उन सभी वृक्षों का नामपूर्वक संकेत करते हैं जिनके नीचे तीर्थंकरों ने केवलज्ञान प्राप्त किया था। किसी भी कार्य को करने के पूर्व या बाद में राम जिन-पूजा या जिनस्तुति में संलग्न दिखाई देते हैं। विट सुग्रीव का विनाश एवं सुग्रीव से मित्रता स्थापित करने के तुरन्त पश्चात् जिनस्तुति इन शब्दों में करते है- जय हो, तुम्हीं मेरी गति हो, तुम्हीं मेरी मति हो, तुम्हीं मेरे शरण हो, तुम्हीं मेरे माँ-बाप हो, तुम्हीं मेरे बन्धु हो।' राम के व्यक्तित्व में कही-कहीं अज्ञानता एवं मोह भी दिखाई देता है, जैसे- लक्ष्मण की मृत्यु पर राम अत्यधिक विलाप करते हुए पागल की तरह उसके शव को छ: महीने तक लेकर भटकते रहते हैं, तब उन्हें देवताओं के द्वारा प्रतिबोधित किया जाता है। ऐसी ही कथा उद्योतन सूरीकृत 'कुवलयमालाकहा' में भी आती है जिसमें वणिक् सुन्दरी अपने पति की मृत्यु के बाद शव को छ: माह तक लेकर भटकती रहती है। अन्त में शव में कीड़े लगने पर एवं परिजनों के द्वारा समझाने पर दाह-संस्कार करती है।" शव में सड़ान्ध आना एवं कीड़े लगना तथा मोह एवं अज्ञान का नष्ट होने जैसी ही एक कथा ‘रयणचूडरायचरियं' में शंखपुर के विष्णुश्री के दृष्टान्त में आती है जिसमें शव में सड़ान्ध एवं कीड़े लग जाते हैं। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 राम के व्यक्तित्व को अत्यधिक उन्नत करने के लिए कुछ आसक्तिजन्य भाव भी दर्शाये हैं- अग्नि-परीक्षा के बाद सीता का राम के साथ आने में आनाकानी करने पर उनका मूर्च्छित होना, सीता के साध्वी बनने पर राम द्वारा मुनि पर झपटना, इत्यादि। फिर शीघ्र ही राम को ज्ञान हो जाता है और वे वैराग्य की ओर अग्रसर हो जाते हैं। चन्द्रमा कलंक से युक्त होने पर भी अत्यधिक सुन्दर है। उसी प्रकार राम का व्यक्तित्व भी गुणों का अथाह समुद्र है भले ही उसमें कुछ मानवीय कमजोरियाँ दिखायी हों। रविषेणाचार्य, पद्मपुराण भाग-1, प्रस्तावना डॉ. जगदीशचन्द्र जैन, प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृष्ठ-534 महाकवि स्वयंभू, डॉ. संकटाप्रसाद उपाध्याय पुत्तहो पुत्तत्तणु एत्तिउं जे। जं कुलुं ण चडाइ वसण पुजे। जं णिय-जणणहो आणा-विहेउ। जं करइ विवक्खहो पाण-छेउ। किं पुत्ते पुणु पयपूरणेण गुण-हीणे हियय-विसूरणेण॥ पउमचरिउ, महाकवि स्वयंभू, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, भाग-2, सन्धि 22.9.6-8. एउ वयणु भणेप्पिणु सुह-समिद्ध। सइँ हत्थे भरहहो पटु-वद्ध॥ प.च. 24.10.6 कहिँ तुहुँ कहिँ हउँ कहिँ पिययम कहिँ जणेरि कहिँ जणणु गउ। हय-विहि विच्छोउ करेप्पिणु कवण मणोरह पुण्ण तउ॥ प.च. 67.3.13 तहों आयइँ अवर वि करन्तहों णिय खन्धे हरि-मडउ वहन्तहों। भाइ-विओय-जाय-अइ-खामहों अद्ध वरिसु वोलीणउ रामहों। प.च. 88.10.12 हे कुञ्जर कामिणि-गइ-गमण। कहें कहि मि दिट्ठ जइ मिगणयण॥ प.च. 39.12.4 वणे विणट्ठ जाणई। न को वि वत्त जाणई। प.च. 40.12.9 पर-पुरिसु रमेवि दुम्महिलउ देन्ति पडुत्तर पइ-यणहो। किं रामु ण भुञ्जई जणय-सुअ वरिसु वसेंवि घरें रावणहों॥ प.च. 81.3.10 अण्णु णिएइ अणु अणु वोल्लावइ। चिन्तइ अण्णु अण्णु मणे भाव।। हियवइ णिवसइ विसु हालाहलु। अमिउ वयणे दिट्टिहें जमु केवलु। महिलहें तणउ चरिउ को जाणइ उभय-तडइँ जिह खणइ महा-णइ। वही 81.5.2-4 11. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 12. णिय-णेह-णिवद्धउ आवडइ, जइ वि महा-सइ महु मणहों। को फेडेंवि सक्कइ लञ्छणउ जं घरे णिवसिय रावणहों ।। प.च. 81.5.10 महाळ मचरिउ 81.8.4 14. भणइ रामुँ ‘णउ पइँ लज्जावमि णीसावण्ण लंक भुञ्जावमि॥ सिरु तोडमि रावणहों जियन्तहों। संपेसमि पाहुणउ कयन्तहों॥' प.च. 57.12.2-3 15. पउमचरिउ, 23.11.3-7 16. जं अवियप्पें मइँ अवमाणिय। अण्णु वि दुहु एवड्डु पराणिय। तं परमेसरि महु मरुसेज्जहि। एक्क-बार अवराहु खमेज्जहि ।। प.च. 83.16.2-3 17. पउमचरिउ, 32.4-5 18. . जय तुहुँ गइ हुँ मइ तुहुँ सरणु। तुहुँ माय-वप्पु तुहुँ बन्धुजणु।। प.च. 43.19.5 19. आचार्य उद्योतन सूरि, कुवलयमालाकहा, वणिक् सुन्दरी कथा, पृष्ठ-225 डॉ. प्रेमसुमन जैन, कुवलयमालाकहा का संस्कृतिक अध्ययन, भूमिका, पृष्ठ-70 20. हुकमचन्द जैन, रयणचूडरायचरियं का समालोचनात्मक सम्पादन एवं अध्ययन। (अप्रकाशित शोध प्रबन्ध) सह-आचार्य एवं अध्यक्ष जैनविद्या एवं प्राकृत विभाग सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर (राज.) Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 अपभ्रंश भारती 15-16 दीसंति सव्व णं बुह कियए इह सव्वहँ दीवहँ दीउ वरु जम्बूणाम पढमह पवरु। तासु मज्झि सुदंसणु मेरु ठिउ णं णियकरु ति उब्भियउ किउ। गयमंडलु वरकंकणघडिउ परिहिउ णं तारय-मणि-जडिउ। णियहत्तिएँ णं सो इम कहइ. मा अण्णु दीउ गारउ वहइ। महु संपयाइँ कोउ म करइ अरु हउँ कासु सिरिं संचरइ। इय रायउ वि सो अज्ज थिउ लवणंबुहि सेवइ णाइँ भिउ। तहु दाहिणि दिसि भारहि विसए जणवउ जि अवंती तहिँ वसए। जहिँ सरवर सररुह-अंकियए दीसंति सव्व णं बुह कियए। पयवाहिणि जहिँ णं विउसकहा पक्खालिय रय-मल-सेयवहा। जहिँ सालिखेत्त कण-भर-णमिया पावसकालि पुणु उग्गमिया। जलु रसि वि धण सव्वय चरहिँ पामरयण सुक इव जहिँ सहहिँ। जहिँ गावि-महिसि वणि रइ करहिँ गोरस-पूरिय णिच्च जि रहहिँ। घत्ता- तहिँ णयरपसिद्धी धण-कण-रिद्धी उज्जेणी णाम भणिया। देसिय जण सुहयर बहुसोहायर कणयंकिण णं वर ठाणिया॥6॥ महाकवि रइधू, धण्णकुमार चरिउ, 1.6 - यहाँ समस्त द्वीपों में प्रधान 'जम्बूद्वीप' नाम का महान् द्वीप है। उसके मध्य में सुदर्शन मेरु स्थित है। (वह ऐसा प्रतीत होता है) मानो उस द्वीप ने अपना हाथ ही ऊँचा कर दिया हो। अथवा मानो, उस जम्बूद्वीप का मेरु रूपी हस्त- गज-मण्डल, गज-दन्तरूपी वरकंकणों से घटित हो। अथवा मानो, वह तारे रूपी मणियों से गोलाकार जड़ा हुआ हो। अथवा मानो, वह (द्वीप) इस मेरुरूपी हस्त को उठाकर यह कह रहा हो कि 'अन्य कोई भी द्वीप गर्व को धारण न करे।' 'मेरी सम्पदा की बराबरी कोई न करे' और मैं (सर्वश्रेष्ठ हूँ, अतः मैं) किसकी शोभा का अनुकरण करूँ? इस प्रकार सुशोभित वह जम्बूद्वीप आज भी स्थित है। लवणसमुद्र उसकी भृत्य के समान सेवा करता है। उसके दक्षिणदिशा स्थित भरतक्षेत्र में अवन्ती नाम का जनपद बसा है। जिसमें चारों ओर कमलों से अलंकृत सरोवर दिखाई देते हैं। मानो, वे बुद्धिमानों की कृतियाँ ही हों। वहाँ अमृतजलयुक्त निर्मल नदियाँ प्रवाहित हैं, मानो, विद्वानों की अमृत-कथाएँ ही हों, जो कर्मरूपी रजोमल को प्रक्षालित किया करती हैं। जहाँ वर्षाकाल में स्वतः ही बार-बार उगनेवाले धान के खेत बालों के भार से नम्रीभूत हैं, जलाशयों के चारों ओर जहाँ गाय-बछड़े चरा करते हैं, जहाँ पामरजन शुकों के समान (मधुरवाणी बोलते हुए) सुशोभित रहते हैं। जहाँ वनों में गायें-भैंसे क्रीड़ाएँ किया करती है और जो नित्य ही गोरस-दुग्ध से परिपूर्ण रहती हैं। घत्ता - वहाँ प्रसिद्ध एवं धन-धान्य से समृद्ध उज्जयिनी नाम की नगरी कही गई है। वहाँ के निवासीजन बहुशोभायुक्त एवं सुखी हैं। ऐसा प्रतीत होता है, मानो, वह नगरी स्वर्ण से अंकित श्रेष्ठ इन्द्रपुरी ही हो॥6॥ अनु.- डॉ. राजाराम जैन Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 अक्टूबर 2003-2004 अपभ्रंश के जैन कवि धनपाल और उनका 'भविसयत्तकहा' : एक विवेचन - श्री नीरज शर्मा हिन्दी साहित्य के आदिकालीन इतिहास का स्वर्ण युग अगर कोई माना जा सकता है तो वह है- अपभ्रंश का जैन साहित्य। अपभ्रंश भाषा और उसका साहित्य एक जनआन्दोलन है जिसमें संस्कृत, पालि, प्राकृत की समस्त परम्पराओं को नकारकर एक नई परम्परा, लोक-परम्परा की शुरुआत होती है। यद्यपि अपभ्रंश जैन साहित्य में संस्कृत ग्रन्थों में उपलब्ध राम, कृष्ण, उनसे जुड़े हुए महापुरुषों, अन्य पुरुषों-नारियों की कथाएँ ही प्रस्तुत हैं, किन्तु ये कथाएँ लोक की कथाएँ हैं जो परम्परित काव्य तथा परम्परित पद्धति से अलग हटकर प्रस्तुत हैं। इन सभी कथाओं में महान-से-महान चरित्र अन्ततः जैन धर्म में दीक्षित हो निर्वाण प्राप्त करते हैं। वस्तुतः यह दीक्षा और निर्वाण मानव कल्याण की भावना से प्रेरित है। यही कारण है कि जैन साहित्य आन्दोलन अपने काल में जन-आन्दोलन बन उठा। ___अपभ्रंश जैन साहित्य में संस्कृत, पालि, प्राकृत साहित्य के केवल परम्परित चरित्रों को ही नहीं लिया गया, अपितु सामान्य जीवन से भी उन्होंने चरित्रों को चुना। सामान्य चरित्रों को रचना का नायक बनाकर अपभ्रंश के कतिपय जैन कवियों ने भावी हिन्दी साहित्य के समक्ष एक मानदण्ड स्थापित किया। धनपाल की 'भविसयत्तकहा' इसी प्रकार की एक रचना है। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 प्राचीन साहित्य में 'कथा' शब्द साधारण कहानी और अलंकृत काव्यरूप इन दोनों अर्थों में प्रयुक्त है। कहानी के अर्थ में वे सभी रचनाएँ इसके अन्तर्गत आ जाती हैं जिनमें कथा-तत्त्व का समावेश हो। हितोपदेश, पंचतन्त्र, महाभारत, रामायण, पुराणों के आख्यान, वासवदत्ता, कादम्बरी, गुणाढ्य की बृहत्कथा आदि कथा साहित्य है। यही नहीं चरितकाव्यों ने भी अपने को 'कथा' घोषित किया, परन्तु संस्कृत के आचार्यों ने कथा का विशिष्ट अर्थ लगाया है। उनके अनुसार यह एक काव्य-रूप है। भामह और दण्डी दोनों ने इसका अर्थ अलंकृत गद्य-काव्य से लिया है। आचार्य भामह ने इसी श्रेणी के एक काव्य रूप 'आख्यायिका' का भी उल्लेख किया है। उनके अनुसार सुन्दर गद्य में रचित सरस कहानीवाली रचना आख्यायिका है।' ___आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने आचार्यों के कथन के वास्तविक मर्म को उद्घाटित करते हुए निष्कर्ष निकाला कि- 'कथा में कल्पना की गुंजाइश अधिक होती है और आख्यायिका में कम। एक की कहानी काल्पनिक होती है और दूसरी की ऐतिहासिक। परवर्ती आलंकारिकों ने कादम्बरी को 'कथा' कहा है और 'हर्षचरित' को 'आख्यायिका'। काल्पनिक कहानी में सम्भावना पर बल दिया जाता है और ऐतिहासिक कहानी में नायक के वास्तविक जीवन में घटित तथ्य की ओर। परन्तु संस्कृत से इतर भाषाओं में कथा पद्य में लिखी जाती थी। प्राकृत में लिखी सबसे पुरानी कथा गुणाढ्य की 'बृहत्त्कथा' है। यह पूरा कथा-ग्रन्थ अप्राप्य है पर इसके एक अंश के अनुवाद के रूप में बुद्धस्वामी का 'कथासरितसार' प्राप्त है। इन सभी कथा ग्रन्थों का मूल उत्स गुणाढ्य की बड्डकहा (बृहत्कथा) है जिसकी मूल कथा पद्यबद्ध थी और वहीं से प्राकृत भाषा में पद्यबद्ध कथाओं के लिखने की परम्परा शुरु होती है। ऐसा आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का विश्वास है। द्विवेदी जी का मानना है कि धनपाल की 'भविसयत्तकहा' इसी कड़ी का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। यह मान्य है कि धक्कड़ वंश में जन्मे धनपाल की माँ का नाम धणसिरि (धनश्री) और पिता का नाम माएसर (मायेश्वर) था। धनपाल ने अपभ्रंश साहित्य को दो रचनाएँ दीं'भविसयत्तकहा' और 'बाहुबलिचरिउ'। धनपाल को अपनी काव्य-प्रतिभा पर घमण्ड था। अपने आप को वह सरस्वती का पुत्र (सरसइ बहल्लद्ध महावरेण) कहते थे। डॉ. हरमन याकोबी इनका समय 10वीं शती मानते थे। प्रो. भायाणी ने 'भविसयत्तकहा' की भाषा को देखकर इसको स्वयंभू के बाद तथा हेमचन्द्र से पहले की रचना बताया है। राहुलजी के अनुसार ये सम्भवतः गुजरात के निवासी थे। राहुलजी इनका समय 1000 ईसवी मानते हैं। श्रुतपंचमी व्रत के फल के दृष्टान्त के रूप में धनपाल ने 'भविसयत्तकहा' की रचना की। इसे प्रथम व्यवस्थित कृति माना जाता है। कथा का पहला भाग शुद्ध घरेलू ढंग की Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 कहानी है जिसमें दो विवाहों के दुःखद पक्ष को उजागर किया गया है। इसमें वणिक - पुत्र भविष्यदत्त की गाथा है जो अपने सौतेले भाई बन्धुदत्त से छले जाने पर भी अन्त में जिन - महिमा के कारण सुखी होता है। 11 'भविसयत्तकहा' एक पद्यबद्ध रचना है । कवि ने स्वान्तः सुखाय सर्वजनहिताय के लिए दो खण्डों और बाईस सन्धियों में इस ग्रन्थ की रचना की है दुई खंड बईसहँ संधिहिं, परिचिंतय निजहेतु - निबंधहिँ । इस कथा की उल्लेखनीय विशेषता है- लौकिक कथा रस का समावेश और लौकिक चरित की स्थापना । काव्य ग्रन्थों की परम्परागत पद्धति थी- ख्यातवृत्त राजाओं के चरित्र के उद्घाटन की। इस परम्परा को तोड़कर धनपाल ने एक मध्यम वर्ग के सामान्य वणिक - पुत्र की कथा कहकर लौकिक नायक के चरित्रांकन की परम्परा का सूत्रपात किया । इस ग्रन्थ की दूसरी विशेषता है- धर्म के आवरण में लौकिक तथा साहसिक प्रेमकथा का सफल निर्वाह । अपने पति अथवा पुत्र आदि की हितकामना हेतु स्त्रियाँ अनेक प्रकार . के व्रत-उपवास - पूजा-प्रार्थना आदि करती हैं, आकाशद्वीप तथा देवद्वीप जलाती हैं। यह पद्धति आज भी लोक-जीवन का आवश्यक अंग बनी हुई है। इस कृति में भी माँ कमलश्री के श्रुतपंचमी व्रत का फल भविष्यदत्त को हर प्रकार से सफल बनाता है। लोक कथा और धार्मिक कथा को एकसाथ मिलाकर जहाँ कवि पाठक को लोक कथा के सहज रूप से सराबोर करना चाहता है वहीं आध्यात्मिक रस से उबुद्ध भी। यह जैन कवियों की अपनी विशेषता रही है। यह रचना इस बात की साक्षी है कि धनपाल को गृहस्थ जीवन की गहरी अनुभूति थी। फलस्वरूप गृहस्थ जीवन की मार्मिक झाँकियों के सहारे धनपाल ने नारी जीवन की पीड़ा, सन्त्रास, प्रेम, उपेक्षा, सौतियाडाह, ईर्ष्या, कटुता, वात्सल्य, वियोग़ का अत्यन्त मनोहारी दृश्य प्रस्तुत किया है। पति-उपेक्षिता कमलश्री की पीड़ा का अन्त नहीं। उसके जीवन का एकमात्र सहारा उसका अपना पुत्र भी देशान्तर जाना चाहता है और वह भी सौत - पुत्र बन्धुदत्त के साथ। पुत्र भविष्य से सशंकित यात्रा का विरोध करने में उसका कण्ठावरोध हो जाता है, आँखों से आँसू ढलने लगते हैं और वह विगलित वाणी में कह उठती है कि- हा ! पुत्र मैंने तो स्वप्न में भी इसकी कल्पना न की थी । यथा तं णिसुणेवि सगग्गिर - वयणी । भणए जणेरि जलद्दिय - णयणी । हा इउ पुत्त! काइँ पइँ जंपिउ । सिविणंत रिवि णहिं महु जंपिउ ॥ 2.10।। ऐसी स्थिति में वह अपनी वेदना को वाणी प्रदान करते हुए कहती है- एक तो तुम्हारा बाप कुपित होकर ऐसा दुस्सह दाह दे रहा है, ऊपर से तुम जाने को कहते हो, भला Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 अपभ्रंश भारती 15-16 इस हृदय को कौन शरण देगा- एक्कु अकारणि कुविय-वियप्पें। दिण्णु अणंतु दाहु तउ बप्पें । अण्णुवि पइँ देसंतरु जंतहो। को महु सरणु हियइ पजलंतहो। 2.10।। उपर्युक्त अंश जहाँ एक सामान्य-सा कथन दिखाई देता है वहीं धनपाल का काव्यकौशल और उनकी अभिव्यंजना भंगिमा इस कथन के पीछे छिपी गहरी संवेदना को उजागर कर देती है। सौत सरूपा की कुटिलता को याद करते हुए पुत्र भविष्यदत्त को समझाते हुए वह कहती है कि सरूपा बन्धुदत्त को भी प्रेरित कर खल बनायेगी। वह अवश्य तुम्हारा अमंगल करेगा तथा लाभ की चिन्ता करते हुए तुम्हारा मूल भी चला जाएगा जइ सरुव दुट्ठत्तणु भासइ। बन्धुअत्तु खल वयणहिं वासइ। जो तट करइ अमंगलु जंतहो। मूलु विजाइ लाहु चितंतहो। 2.11॥ कमलश्री सरूपा तथा बन्धुदत्त के कुटिल चरित्र को दृष्टि में रखकर भविष्यदत्त को अनेक प्रकार का उपदेश देती है। यहाँ माँ की करुणा के साथ-साथ एक प्रकार का सामाजिक कर्त्तव्यबोध तथा उसका दायित्त्वपूर्ण निर्वाह भी है। वह पुत्र को उपदेश देते हुए कहती है- 'शूर और पण्डित वही है जो यौवन-विकार और रस के वश में नहीं होता। कामदेव से चलायमान नहीं होता, खण्डित वचन नहीं बोलता। दूसरे का धन और परस्त्री ग्रहण नहीं करता। प्रभु को सम्मान देता है, दान करता है। यह कहते-कहते वह अपने दुःखमय दिन याद कर कह उठती है कि मुझे भूल न जाना जोव्वण-वियार-रस-वस-पसरि, सो सूरउ सो पण्डियउ। चल मम्मण वयणुल्लावएहिं, जो परतियहिं ण खण्डियउ। 2.18॥ निश्चय ही देखने से यह एक माता का पुत्र के लिए उपदेश है। पर कमलश्री भारत की हर माँ को अपने में समेटे हुए है। इसलिये यह केवल उपदेशपरक काव्य नहीं अपितु जीवन-जगत् का यथार्थ चित्र उकेरनेवाला काव्य है। धनपाल का यह ग्रन्थ रसात्मक-बोध की दृष्टि से भी अन्यतम है। इसमें वात्सल्य, शृंगार, करुण, वीर, रौद्र रसों के साथ-साथ सभी रसों का परिपाक है, किन्तु प्रधानता है- वात्सल्य और करुण रस की। और इस रस का सम्भाषण होता है भक्ति रस में। करुण रस से ओत-प्रोत वह दृश्य अधिक मार्मिक बन पड़ा है जहाँ भविष्यदत्त देखता है कि जाने किस अभिशाप के कारण तिलक द्वीप फूलों से लदा है पर उसे सूंघनेवाला कोई नहीं। फलों से लदकर डालियाँ झुक आई है पर उन्हें तोड़कर खानेवाला कोई नहीं। किस विडम्बना से सरोवर निर्जन पड़े हैं, पनघट पर पनिहारिनों के नुपूरों की गूंज नहीं, वहाँ मात्र चुप्पी है Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 जाइँ विरंतराइँ चिरु पाणिय-हारिहु तित्थईं। .. ताइँ वि विहिवसेण हूअ णीसद्द सु-दुत्थइँ। 3.7॥ नारी-सौन्दर्य के वर्णन में शृङ्गार, भविष्यदत्त की आपत्तियों-विपत्तियोंवाले स्थल पर करुण रस, युद्ध-वर्णन में वीर तथा अन्त में निवृत्ति तथा मोक्षवाले प्रसंगों में शान्त रस द्रष्टव्य है। करुण रस की प्रस्तुति में धनपाल वाल्मीकि के निकट दिखाई देते हैं। ऐसे अनेक स्थल इस कथा-काव्य में जगह-जगह हैं। चरित्र-चित्रण एवं वस्तु-वर्णन में कवि सफल सिद्ध हुआ है। नगर-वर्णन में वह नगर को स्वर्ण-खण्ड बताता है। प्रकृति के आलम्बनवत चित्रण के समय वह उसकी मार्मिक छवि अंकित करता है। नारी सौन्दर्य का नख-शिख चित्रण करते हुए वह उसे युवकों के हृदय को बेधनेवाला कामदेव का भाला बताता है- ‘णं वम्मह भल्लि विधणसील जुणाण जणि'। कवि के युद्ध-वर्णन में वीर रस का ओजपूर्ण संचार भी है। चरित्रांकन में कवि ने पात्रों को वर्ग-चरित्र (टाइप) में विभक्त कर कुछ नवीनता लाने का प्रयास किया है। सभी प्रकार के साधु-असाधु पात्रों में अच्छाइयाँ तथा बुराइयाँ दोनों विद्यमान है। सरूपा कुटिल होने पर भी कोमल भावनाओं से शून्य नहीं है। वह अपने न करने योग्य कर्मों पर पश्चात्ताप करती है। कमलश्री शुद्ध हृदय की महिला है। उसका चरित्र उत्तम है पर उसे भी सौतियाडाह है। बन्धुदत्त कुटिल तथा भविष्यदत्त उदात्त पात्रों के रूप में चित्रित हैं। अलौकिक शक्तियों की सहायता केवल साधु पात्र ही प्राप्त कर पाते हैं। कवि ने यहाँ पर रचना को आदर्श की ओर मोड़ना चाहा है। छन्दों में मात्रिक तथा वर्णिक दोनों का प्रयोग है, यह कडवकबद्ध रचना है जिसके अन्त में घत्ता दिया गया है। मुख्य छन्दों में संखनारी भुजंगप्रयात, लक्ष्मीधर, चामर, पज्झटिका, अडिल्ला, दुवई, मरहट्ठा, प्लवंगम, कलहंस और गाथा प्रमुख हैं। - कथा में प्रस्तुत अलंकारों में उपमा, उत्प्रेक्षा, श्लेष, स्वभावोक्ति विरोधाभास आदि का विशेष प्रयोग हुआ है। इसकी भाषा साहित्यिक अपभ्रंश है। इस भाषा में स्वयंभू और पुष्पदन्त की अलंकृत भाषा का-सा प्रवाह है गयं णिफ्फलं ताम सव्वं वणिज्ज। हुवं अम्ह गोतम्मि जज्जावाणिज्ज। ण जता ण वित्तं ण गितं ण गेह। ण धम्मं ण कम्म, ण जायं, ण देहं । ण पुत्त कलत्तं, ण इटुं ण दिटुं। गयं गयउरे, दूर-देसे पइटें 13.26॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 काव्य में प्रकृति का चित्रण केवल काव्य की अनिवार्यता ही नहीं अपितु प्रकृतिचित्रण के सामने कवि उससे प्रेरण, उल्लास और आनन्द प्राप्त कर स्वयं का तादात्म्य स्थापित करता है और मानव हृदय की विविध भावात्मक अनुभूतियों को प्रकृति के सहारे उद्दीप्त करता है। धनपाल ने स्वाभाविक रीति से प्रकृति के आलम्बन और उद्दीपन रूप को प्रस्तुत किया है। प्रिया से बिछुड़ जाने पर भविष्यदत्त को असहनीय दुःख की अनुभूति होती है। फलस्वरूप वह मूर्छित हो जाता है। ऐसे अवसर पर कवि अपनी कल्पना के सहारे वन की बयार को थपकी देते हुए देखता है दूसह पियवि ओय संतत्तउ मुच्छइ पत्तउ। सीयल मारूएण वणि वाइउ तणु अप्पाइउ। 7.8॥ उपर्युक्त पंक्ति में प्रकृति के उद्दीपन रूप का चित्रण हुआ है। धनपाल के काव्य में आलम्बन के रूप में भी प्रकृति का चित्रण विद्यमान है। संध्या का एक चित्र देखिये एहइ पडिवण्णि करालि कालि गहभूयजक्खरक्खसवभालि। वणि विसम बिएसि विचिन्तु पन्तु तह वि हुअकंपु कमल सिरि पुत्त। 4.4॥ __ अपभ्रंश जैन कवियों की विशेषता रही है- विषय अनुरूप भाषा निर्मिति की। और इसके लिए आवश्यकता होती है उपयुक्त ध्वनि और शब्दों के चयन की। धनपाल के भविसयत्तकहा में गतिपुर और पुराणपुर के राजाओं का वर्णन मेरे इस कथन का साक्षी है। धनपाल की भाषा अवधी बोली है, यद्यपि भविसयत्तकहा की भाषा शास्त्रीय भाषा नहीं पर- उस पर साहित्यिक प्रभाव है। धनपाल की भाषा में कसावट भी है और संस्कृत के शब्दों के प्रति झुकाव भी, इसलिये यह साहित्यिक भाषा सिद्ध होती है। कतिपय विद्वानों ने भविसयत्तकहा की भाषा को ग्राम्य कहा है। इसका कारण है- 'ह' का प्रयोग। इस सन्दर्भ में याकोबी कहते हैं- 'हो' के बदले 'हुँ' या 'ही' का प्रयोग पश्चिमी अपभ्रंश की विशेषता है। यह सच है कि भाषागत प्रवृत्तियों के विभिन्न शब्द रूप भविसयत्तकहा में दिखाई देते हैं पर काव्य रचना का झुकाव परिनिष्ठत अपभ्रंश की ओर ही है जिसमें भाषागत परिवर्तन के रूप स्पष्ट हो चुके थे। वस्तुतः काव्य-भाषा सामान्य भाषा से अलग होती है। काव्य भाषा का लक्ष्य अन्तस और संवेदना की सघनतम प्रस्तुति तो होती ही है साथ ही उसे ऐसे रूप में प्रस्तुत करने का भी लक्ष्य होता है ताकि पाठक को कथा यथार्थ प्रतीत हो फलस्वरूप रचनाकार को चित्रात्मक भाषा का सहारा लेना पड़ता है। धनपाल इसमें पीछे नहीं। धनपाल ने जिन वस्तुओं एवं नगरों का वर्णन किया है उसमें उनका हृदय साथ-साथ चलता प्रतीत होता है। फलस्वरूप ऐसे वर्णन चित्रों से भरपूर हैं। गजपुर नगर का एक वर्णन द्रष्टव्य है Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 15 तहिं गयउरु णाउ पट्टणु जण जणियच्छरिउ । गणु मुवि सग्गखंडु महि अवयरिउ ।। 1. 5 ।। वहाँ गजपुर नाम का नगर है जिसने मनुष्यों को आश्चर्य में डाल दिया है, मानो, गगन को छोड़कर स्वर्ग का एक खण्ड पृथ्वी पर उतर आया है। कवि ने थोड़े-से शब्दों में गजपुर की समृद्धि और सुन्दरता को अभिव्यक्त कर दिया है । " गहन वन का वर्णन करता हुआ कवि कहता है दिसामंडलं जत्थ णाउं अलक्खं, पहायं पि जाणिज्जए जम्मि दुक्खं ।।4.3॥ कथा की लोकोक्तियों, सूक्तियों और देशी शब्दों के बहुत से प्रयोग हिन्दी में मिलते हैं। यथा 'किं घिउ होइ विरोलिए पाणिए' - क्या पानी विलोने (मंथने) से घी प्राप्त हो सकता है ? कथानक रूढ़ियों की दृष्टि से भी 'भविसयत्तकहा' महत्त्वपूर्ण रचना है। किसी काल्पनिक द्वीप की यात्रा, समुद्र में तूफान से भटकाव, उजाड़ प्रदेश में सुन्दरी की प्राप्ति, राक्षस द्वारा विध्वंस आदि प्रमुख कथानक रूढ़ियाँ हैं। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैन अपभ्रंश साहित्य के विकास और स्वरूपनिर्धारण तथा अपभ्रंश भाषा के निखार में धनपाल का अविस्मरणीय महत्त्व है। वे एक तरफ लोक की वेदना को आत्मसात कर उसे वाणी प्रदान करते हैं, दूसरी तरफ अपने कर्तृत्व के सहारे वे अपने धर्म को लोक-मन का धर्म बना देते हैं। और वे लोक-मन के अच्छे पारखी भी सिद्ध होते हैं। धनपाल भारतीय साहित्य की परम्पराओं, भारतीय संस्कृति के भी पुरोधा हैं। तभी तो व माँ-बेटे की भावनाओं को पारम्परिक ढंग से वाणी देते हुए भी उसे आधुनिक चेतना का पर्याय बना देते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि कालान्तर में इनका और इनकी इस रचना का प्रभाव सूरदास आदि कवियों पर तो पड़ा ही, साथ ही आधुनिककालीन कथा साहित्य भी धनपाल और 'भविसयत्तकहा' से अप्रभावित नहीं रह पाया । रस-निरूपण, छन्द-निर्मिति, अलंकार - आयोजन साथ-साथ परम्परा से अलग हटकर लोक-जीवन से चरित्रों का चयन, उनकी कथा, शब्द चयन क्षमता, चित्रात्मक भाषा, उक्ति-वक्रता धनपाल की इस रचना को हिन्दी साहित्य की अमर कृति बना देती है । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 2. 3. काव्यालंकार, पृष्ठ 125-28 हिन्दी साहित्य का आदिकाल, डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी, पृष्ठ 32 अपभ्रंश साहित्य- प्रोफेसर हरिवंश कोछड़, पृष्ठ 98 c/o श्री राजमणि शर्मा चाणक्यपुरी, सुसुवाही वाराणसी- 221 005 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 अक्टूबर 2003-2004 17 'णायकुमारचरिउ' में देश-वर्णन - विद्यावचस्पति डॉ. श्रीरंजनसूरिदेव महाकवि पुष्पदन्त (ईसा की नवीं-दसवीं शती) द्वारा प्रणीत ‘णायकुमारचरिउ' अपभ्रंश के धुरिकीर्तनीय काव्यों में अन्यतम है। इस चरित-काव्य का नायक राजपुत्र नागकुमार (प्रा. → णायकुमार) है। उसके माता-पिता पृथ्वीदेवी और जयन्धर कनकपुर के रानी और राजा थे। सजा जयन्धर के दूसरी रानी भी थी- विशालनेत्रा। नागकुमार के सौतेले भाई का नाम श्रीधर था, जो रानी विशालनेत्रा का पुत्र था। नागकुमार सौतेले भाई श्रीधर के विद्वेषवश अपने पिता द्वारा निर्वासित कर दिया जाता है। नागकुमार अपनी निर्वासनावधि में अनेक देशों का भ्रमण करता है और अपने पराक्रम द्वारा अनेक राजाओं, राजकुमारों तथा राजपुरुषों को प्रभावित करता है, अनेक राजकुमारियों को अपनी विवाहिता बनाता है। अन्ततोगत्वा पिता द्वारा आमन्त्रित होकर वह पुनः अपने नगर (मगधदेश स्थित कनकपुर नामक नगर) लौट आता है, जहाँ समारोहपूर्वक उसका राज्याभिषेक किया जाता है। नागकुमार पिता द्वारा प्राप्त राज-काज को कुशलतापूर्वक सम्भालता है। जीवन के अन्तिम भाग में वह संसार से विरक्त होकर मुनि- दीक्षा धारण करता है और तपोविहार करते हुए मोक्षगामी होता है। महाकवि ने अपने इस अपभ्रंश काव्य में कई देशों का वर्णन किया है, जिनमें मगध देश-स्थित राजगृह, कनकपुर, पाटलिपुत्र, कुसुमपुर, मथुरा, कश्मीर, ऊर्जयन्त पर्वत-तीर्थ, गिरिनगर, गजपुर पाण्ड्यदेश, उज्जैन, मेघपुर, दन्तीपुर आदि उल्लेख्य हैं। इन देशों या स्थानों Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 अपभ्रंश भारती 15-16 का भौगोलिक और सामाजिक जीवन अतिशय मनोरम और हृदयावर्जक है। इनमें कतिपय देश ऐतिहासिक हैं और कतिपय मिथकीय कल्पना पर आधृत हैं। ज्ञातव्य है, ऐतिहासिक सत्य और मिथकीय कल्पना की बुनावट से ही किसी काव्य या महाकाव्य या युगविशेष की कथा की रचना होती है। महाकवि ने अपनी कल्पनाशक्ति से कुछ देशों और नगरों का विशद वर्णन उपस्थित किया है और कुछ का केवल प्रासंगिक उल्लेख मात्र किया है। प्रस्तुत आलेख में भी महाकवि के ही रचना-प्रकार का अनुसरण किया गया है। मगधदेश- मगधदेश की भौगोलिक स्थिति के बारे में पुष्पदन्त निर्देश करते हैंइस संसार के मध्य लोक में सूर्य-चन्द्र से प्रकाशित विशाल जम्बूद्वीप है, जिसके मध्य में सुदर्शन नाम का मेरु है। वहाँ अपने प्रिय आहार कसेरु-कन्द के लिए जमीन खोदते हुए वराह विचरण करते रहते हैं। उसी मेरु की दक्षिण दिशा में भरत क्षेत्र है जिसमें सुप्रसिद्ध मगधदेश अवस्थित है। आधुनिक या वर्तमान हिंसाबहुल मगधदेश से भिन्न उस समय के मगधदेश में अनेक पद्मसरोवर थे, जिनमें पद्म-पराग से रंजित हाथी पौंडते रहते थे। वहाँ कल्पतरुओं से सघन वन नन्दन वन जैसे थे। धान की पकी फसलों से भरे खेत दूर-दूर तक फैले हुए थे। वहाँ दूधजैसे जल से भरे सरोवरों में हंसों और बगुलों की पंक्तियाँ सरोवर को सम्मान देती-सी प्रतीत होती थीं। वहाँ की कामधेनु जैसी गायें घड़ों घृतमय दूध देती थीं और कृषि-सम्पदा न केवल मनुष्यों, अपितु समस्त जीवों के लिए पोषाहार सुलभ करती थी। फसलों की बालियाँ सघन और पुष्ट दानोंवाली होती थीं। वहाँ के पथिक दाख के मण्डप में विश्राम कर और स्थलपद्मों । पर सोकर अपनी मार्ग-क्लान्ति मिटाते थे। वे पथिक कृषक-स्त्रियों की मधुर वाणी से आकृष्ट होकर स्वर-लुब्ध मृग की भाँति बीच रास्ते में ही रुक जाते थे। महिषों के सींगों से छिली हुई ईख के डण्डों से मधुर रस चूता रहता था। मरकतमणि के समान हरे पंखों वाले सुगे आम के गुच्छों पर बैठे दिखाई पड़ते थे (1.6)। इस प्रकार युगचेता महाकवि पुष्पदन्त ने मगधदेश के वर्णन में वहाँ की उन्नत कृषिसम्पदा के साथ ही सघन वन, सजल सरोवर, फूल-फल, दूध-दही, परितुष्ट पशु-पक्षी आदि पर्यावरण के प्राकृतिक तत्त्वों को अपनी सूक्ष्मेक्षिका से लक्षित किया है, और फिर मधुरभाषिणी कृषक-स्त्रियों द्वारा उस देश के पथिकों का वाचिक समादर होता था, इस ओर भी महाकवि ने संकेत किया है। अवश्य ही, महाकवि को लोकजीवन के आसंग में प्रकृति के निरीक्षण की सातिशय सूक्ष्म दृष्टि प्राप्त थी। राजगृह- मगधदेश में राजगृह नगर की ऐतिहासिक प्रसिद्धि रही है। इसे प्राचीन मगध-जनपद के राजधानी होने का गौरव प्राप्त है। इसका अन्य नाम 'गिरिव्रज' है। अपभ्रंश Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 19 कवि आचार्य पुष्पदन्त इस नगर का 'मानवीकरण' अलंकार द्वारा मनोरम बिम्ब-विधान करते हुए लिखते हैं- . स्वर्ण और रत्नों की राशि से निर्मित तथा स्वर्गीय सुषमा से मण्डित राजगृह मगधदेश का उत्तम नगर है। वह पुराकाल में ऐसा लगता था, जैसे- देवेन्द्रों द्वारा बलपूर्वक पकड़ रखने पर भी उनके हाथ से छूटकर धरती पर आ गिरा हो। इस नगर में अनेक पद्मसरोवर थे, जिनमें खिले हुए कमल राजगृह नगर के नेत्र जैसे थे। हवा से जब पद्मवन हिलते थे तब वह नगर नृत्य करता-सा प्रतीत होता था और वहाँ के लतागृह नगर के लुका-छिपी खेलने के आश्रय के समान थे। वहाँ के शुभ्र जिन-मन्दिर नगर के हास-उल्लास जैसे थे। कामबाण से आहत कामुक कबूतरों की चीख के ब्याज से वह नगर चीत्कार करता-सा प्रतीत होता था। परिखा (खाई) में भरा हुआ जल उस नगर के परिधान के समान था। सफेद परकोटों से वह नगर चादर ओढ़े हुए-सा लगता था। नगर के विमानोपम भवनों के शिखर आकाश चूमते हुए तथा चन्द्रमा की अमृतधारा पीते हुए-से दिखाई पड़ते थे। कुंकुम की छटा से नगर-भूमि रतिभूमि जैसी बन गई थी जिससे रतिसुख की व्यंजना हो रही थी। सजी हुई मोतियों की लड़ियाँ नगर के मुक्ता-द्वार के समान दृष्टिगत होती थीं। वह नगर पंचरंगे ध्वजों से रंग-बिरंगा लग रहा था। उस रमणीक नगर में चारों वर्गों के लोग परस्पर समभाव के साथ निवास करते थे (1.7) । यह बात और है कि महाकवि पुष्पदन्त द्वारा वर्णित ‘राजगृह' और आज के 'राजगीर' में कोई साम्य नहीं है। महावीर और बुद्ध की शान्ति-वाणी से जिस नगर का कणकण मुखर बना रहता था उसे आज केन्द्रीय सरकार ने हिंसाकारी आयुधों के निर्माण का केन्द्र बना दिया है। कनकपुर- महाकवि पुष्पदन्त ने कनकपुर को मगध जनपद का ही नगर माना है। किन्तु, अवश्य ही यह कवि-कल्पित नगर ही है। महाकवि की काव्य-भाषा में सुवर्ण-निर्मित कनकपुर के भवनों में बहुरंगे मणि-माणिक्य जड़े हुए थे। मणियों में सूर्यकान्तमणि, चन्द्रकान्तमणि, मरकतमणि, स्फटिकमणि और इन्द्रनील मणियों की बहुलता थी। सूर्यकान्तमणि नगर-भूमि को तप्त करती थी। चन्द्रकान्तमणि से झरते जल से वहाँ की भूमि आर्द्र हो जाती थी। मरकतमणि की कान्ति से नगर की भूमि हरी दिखाई पड़ती थी और स्फटिक मणि से श्वेत वर्ण की। इन्द्रनील-मणि वहाँ की भूमि पर अपनी नीली आभा बिखेरती थी। इस प्रकार वह नगर इन्द्रपुरी को भी मात करता था (1.14)। __ पुष्पदन्त की साहित्यिक कला-चेतना में कल्पना का सर्वोपरि स्थान है। कल्पनाशक्ति के माध्यम से ही काव्यकार ने कनकपुर की नूतन सृष्टि और अभिनव रूप-विधान का सामर्थ्य प्राप्त किया है। कनकपुर में मणियों की कल्पना द्वारा महाकवि ने ऐसी मानसिक काव्य-सृष्टि की है जिसमें समृद्धतर स्थापत्य सौन्दर्य की मोहक रमणीयता का प्रीतिकर विनियोग हुआ है। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 पाटलिपुत्र / कुसुमपुर- प्राचीन पाटलिपुत्र ही वर्तमान पटना नगर है जो बिहार राज्य की राजधानी है। संस्कृत, प्राकृत, पालि, अपभ्रंश, हिन्दी आदि प्रमुख भाषाओं के अतिरिक्त अनेक उपभाषाओं में भी पाटलिपुत्र का वर्णन अनेक रूपों में किया गया है। जैन संस्कृति से तो पाटलिपुत्र विशेष रूप जुड़ा हुआ है। पाटलिपुत्र का अपर नाम कुसुमपुर था। इस ऐतिहासिक तथ्य को महाकवि पुष्पदन्त ने भी रेखांकित किया है । पुष्पदन्त के वर्णन के अनुसार पाटलिपुत्र अथवा कुसुमपुर राजनीतिक महत्त्व का नगर था, जो प्रायः शत्रुओं का रणांगण बना रहता था ( 4.9 - 10 ) । शत्रुओं द्वारा कुसुमपुर को घेरे जाने का बिम्बात्मक वर्णन पुष्पदन्त की अपभ्रंश काव्य-भाषा में द्रष्टव्य है 20 पडिवक्खरइयकडमद्दणेहिं, धुयधवलधयावलिसंदणेहिं । हिलिहिलिहिलंतहयवरथडेहिं, हणुहणुभणंतदूसहभडेहिं । गरुया गउडनरेसरेण, अरिदमणे दुट्ठे दाइएण । कुसुमउरु णिरुद्धउ जममुह छुद्धउ णरवरकोंतिहिं घट्टियउ। हरहिमकणकंतिहिं मयगल दंतिहिं पेल्लिवि कोट्टु पलोट्टियउ। 4. 7। पुष्पदन्त लिखते हैं कि कुसुमपुर में उद्यानों की बहुलता थी जिनमें हंस, मयूर, कोकिल, कपोत, सुग्गे और भौरे विचरण करते थे। केतकी को बाहर से साँप ने भले ही लपेट रखा था, पर उसके अन्तरंग को तो भौंरों ने ही जाना था । कुसुमपुर का उद्यान इन्द्र के नन्दनकानन जैसा था। महाकवि को भौंरों की प्रकृति और प्रवृत्ति का सूक्ष्म ज्ञान था। तभी तो वे लिखते हैं कि आम की कलियों पर भौंरा नहीं बैठता - अंबइयह महयरु णउ णिसण्णु ( 8.1), और चमेली पर अनुरक्त होकर वह प्रमत्त भाव से उसी के चक्कर लगाता है, किन्तु पुष्पों की विभूति प्रकट करनेवाली जूही के कड़वे और रसभंग करनेवाले अंगों को भ्रमर कभी नहीं चूमता। इस सन्दर्भ में महाकवि की छान्दसप्रवाहिनी मूल काव्यभाषा आस्वादनीय हैजो जाइह रत्तउ भइ पमत्तउ दरिसियकुसुमविहूइयहिं । घत्ता घत्ता सो कयरसभंगइँ कडुयहिं अंगइँ भमरु ण चुंबइ जूहियहिं। 8.1।। महाकवि द्वारा उपन्यस्त सौन्दर्यमूलक चित्रों में चिन्तन की गरिमा, सुष्ठु शब्द - चयन, सादृश्य-विधान एवं अलंकार - योजना तथा स्थापत्य - कौशल का महिमामय प्रयोग आदि उदात्तता के नियामक अन्तरंग और बहिरंग तत्त्वों का सन्निवेश बड़ी ही समीचीनता से हुआ है। उपर्युक्त देशों और स्थानों के प्रत्यक्ष और विशद वर्णन में महाकवि ने जितनी अभिरुचि ली है उतनी अन्य देशों के सम्बन्ध में नहीं दिखाई है। उन सबका वर्णन प्रायः नाम और इतिवृत्तात्मक है। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 मथुरा जैसे पौराणिक नगर का भी प्रत्यक्ष वर्णन आचार्य पुष्पदन्त ने नहीं किया है। नागकुमार के युद्धाभियान के क्रम में उन्होंने मथुरा नगर का केवल नामोल्लेख किया है, उसकी किसी भौगोलिक या स्थापत्य-सम्बन्धी विशेषता का चित्रण नहीं किया है। कश्मीर देश की भी केवल नाम-चर्चा ही की गई है। महाकवि के वर्णन से यह संकेत अवश्य मिलता है कि कश्मीर कला-साधकों और सौन्दर्यवादियों का देश रहा है। वहाँ की राजकुमारी त्रिभुवनरति 'आलापिनी' वीणा के वादन में अतिशय प्रवीण थी और नाम के अनुरूप वह त्रिभुवनमोहिनी सुन्दरी थी। वह साक्षात् वागीश्वरी ही थी। स्वयं विधाता को भी उसके रूप-वर्णन में झिझक मालूम होती थी सुय तिहुयणरइ किं वण्णिज्जइ, तं वण्णंतु विरंचि वि झिज्जइ। सा वीणापवीण सुहयारी, णं वाईसरि परमभडारी। घत्ता- जो णिवसुयहि वि दिहि जणइ आलावणियइँ सुंदरि जिणइ। णियणयणोहामिय-सिसुहरिणी, सा पिययम होसइ तहों घरिणी।।5.7॥ अर्थात् 'आलापिनी' वीणा बजाने में कुशल उस बालमृगाक्षी सुन्दरी राजकुमारी को 'आलापिनी' वीणा बजाकर जो सन्तुष्ट कर पायेगा, वह उसी की प्रियतमा गृहिणी होगी। नागकुमार को त्रिभुवनरति के बारे में जानकारी मथुरा में ही मिली थी। एक बार जब वह मथुरा के नन्दनवन जैसे उपवन में विचरण कर रहा था तभी उसने वहाँ संगीतकला के 'मर्मज्ञ पाँच सौ वीणावादकों को देखा। उनमें से जालन्धर के राजकुमार ने उसे कश्मीर की राजकुमारी त्रिभुवनरति की शर्त से अवगत कराया था (5.7)। संगीतशास्त्र में बताया गयाहै कि 'आलापिनी' वीणा का दण्ड रक्त चन्दन की लकड़ी का बना होता था, जिसकी लम्बाई नौ मुष्टि और परिधि दो अंगुल की होती थी। इसमें बारह अँगुल परिधि के दो तुम्बे लगते थे। यह तीन तारोंवाली 'त्रितन्त्री' वीणा थी और अंगुलियों से बजाई जाती थी। _युद्ध-यात्रा के क्रम में ही नागकुमार पर्वत-स्थित ऊर्जयन्त तीर्थ भी गया था, जहाँ उसे विषैले आम्र वृक्षों का वन मिला था। वहाँ विषमूर्च्छित भौंरों से वनभूमि काले रंग की हो गई थी और नर-कंकालों से अटी पड़ी थी। ऊर्जयन्त पर्वत के सम्बन्ध में पुष्पदन्त ने लिखा है कि उस पर्वत पर देव-देवियाँ क्रीड़ा करते थे। वहाँ अनेक मुनियों ने केवलज्ञान और मोक्ष प्राप्त किया था। वहाँ पर्वत-गुफा में नागकुमार ने ब्राह्मणी के रूप में स्थापित अम्बिका यक्षिणी के दर्शन किये थे, जहाँ बेमौसम आम के पेड़ों में आम्र-फलों के गुच्छे लटके रहते थे। वह अम्बिका देवी शिशुओं के भय का निवारण करनेवाली देवी के रूप में प्रसिद्ध थीं(7.1 एवं 11)। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 नागकुमार ने ऊर्जयन्त पर्वत से गिरिनगर की युद्ध-यात्रा की थी। पुनः वहाँ से चलकर उसने गजपुर और अलंघनगर को अपने अधीन किया था। उसके बाद वह मेघपुर, दन्तीपुर आदि देशों की यात्रा पर गया था। इन सभी देशों का महाकवि पुष्पदन्त ने भौगोलिक वर्णन नहीं किया है। इनका केवल कथाक्रम में कथावस्तु के विस्तार की दृष्टि से उल्लेख हुआ है। नागकुमार की युद्धयात्रा के क्रम में पाण्ड्य देश, उज्जयिनी आदि अन्य कई देशों की भी चर्चा महाकवि ने की है, किन्तु वहाँ के स्थानगत वैशिष्टय की कोई भी बात नहीं है। उज्जयिनी के विशेषण में महाकवि ने केवल इतना ही लिखा है कि वह नगरी निरन्तर सैकड़ों सुखों की श्रेणीभूत है णिवसंतें संतें संतयाहँ, उज्जेणिहिं सेणिहिं सुहसयाहँ। 8.7॥ - किष्किन्ध-मलय प्रदेश के मेघपुर नगर के प्रतापी राजा मेघवाहन इन्द्र का ही प्रतिरूप था। उसकी पुत्री तिलकासुन्दरी रति के समान रूपवती और नृत्यकला-कुशला थी। उसकी प्रतिज्ञा थी कि जो श्रेष्ठ पुरुष उसके नृत्य करते समय उसकी पदगति को समझकर तदनुकूल मृदंग बजा सकेगा वही उसका पति होगा। नागकुमार ने राजकुमारी के नृत्य में उसकी पदचाप से मिलाकर मृदंग पर थाप लगाई। राजकुमारी ने नागकुमार के रूप-गुण पर मुग्ध होकर उसे अपना पति मान लिया। विवाह होने पर दोनों की जोड़ी सीता और राम जैसी प्रतीत हुई। इस प्रसंग को महाकवि की ललित काव्य-भाषा में देखें पयचलणमिलिउ वाइउ मुयंगु, जोइउ वलेवि मुद्धइँ अणंगु। तो दिण्ण कण्ण जाइउ विवाहु, सिरिसंगें णं तुट्ठउ विवाहु। थिउ रामइँ सहुँ रामहिरामु, णावइ सीयइँ सहुँ देउ रामु।। 8.8॥ महाकवि पुष्पदन्त ने देश-दर्शन के क्रम में तोयावलि द्वीप का भी वर्णन किया है, जो पूर्णत: मायानगर के समान था। ऊर्जयन्त तीर्थ की वन्दना के समान ही नागकुमार ने तोयावलि द्वीप में भी जिन-वन्दना की थी। वह गुणरूपी रत्नों के निधान तथा संसार-कानन को दग्ध करनेवाले अग्निदेव के समान थे (8.10)। ___णायकुमारचरिउ' भोगौलिक और राजनीतिक इतिहास का उल्लेखनीय ग्रन्थ है। इसके रचयिता महाकवि पुष्पदन्त ने कथा के ब्याज से भौगोलिक और राजनीतिक इतिहास के अनेक तथ्यों को उपन्यस्त किया है। पुष्पदन्त द्वारा वर्णित देश, क्षेत्र, नगर, ग्राम आदि के वर्णनों से तत्कालीन भौगोलिक अवस्थिति का ज्ञान तो होता ही है, राजनीतिक परिस्थिति का भी पता चलता है। काव्यकार द्वारा यथा-प्रस्तुत वर्णन में तत्कालीन मगध जनपद की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विशेषताओं की सूचना उपलब्ध होती है। ‘णायकुमारचरिउ' की Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 कथा मुख्यतः इस काव्य के चरित्रनायक नागकुमार की युद्धयात्रा की कथा है। जादू-विद्या का नगर- कल्प तोयावलि द्वीप की कथा तो विस्मयजनक है। उस द्वीप में सुवर्णनिर्मित नयनाभिराम जिनमन्दिर था। उसके समीप सत्पुरुष के समान वटवृक्ष विराजमान था, जिसकी जड़ें दृढ़ता से जमी हुई थीं। श्लेषमूलक अलंकार-बिम्ब का आश्रय लेते हुए महाकवि ने वटवृक्ष का रोचक मानवीकरण किया है। वटवृक्ष उस सत्पुरुष के समान था जिसके वंश का मूलपुरुष चिरस्थायी और यशस्वी होता है, जो अहेतुक उपकार करता है। जैसे कवि सत्पुरुषों की प्रशंसा करते हैं वैसे ही वटवृक्ष कपियों द्वारा सेवित था; मूल पद ‘कइसेविज्जमाणु' है, जिसके सभंग श्लेषार्थ ‘कवि-सेवित' और 'कपि-सेवित' दोनों ही हैं। जैसे सत्पुरुष द्विजों को फलदान करता है वैसे ही वह वटवृक्ष पक्षियों को अपने फल का दान करता था; द्विज शब्द भी विप्रवाचक और पक्षीवाचक है। जैसे सत्पुरुष दीन-दुखियों को अपने धन से सन्ताप-रहित करता है वैसे ही वह वटवृक्ष पथिकों के श्रमताप को अपनी छाया द्वारा दूर करता था (8.9)। उस अद्भुत वटवृक्ष से रगड़कर हाथी अपने गण्ड-स्थलों की खाज मिटाया करते थे। उस वृक्ष पर कुछ कन्याएँ उतरती थीं। वे अपने ऊपर होनेवाले अत्याचारों के लिए गुहार करती थीं। एक सुभट हाथ में गदा लिये उनकी रक्षा करता था। इसी क्रम में महाकवि ने आहारविद्या और संवाहिनी-विद्या की चर्चा की है। आहार-विद्या भोजन सुलभ कराती थी और संवाहिनी-विद्या आकाश में उड़कर देश-देशान्तर में जाने की शक्ति प्रदान करती थी। विद्या प्रदान करनेवाली देवी का नाम सुदर्शना था। इस प्रकार, महाकवि पुष्पदन्त ने नागकुमार की युद्धयात्रा के माध्यम से तत्कालीन भारतीय देशों और जनपदों, नगरों और ग्रामों, पर्वतों और जंगलों आदि को कथा की आस्वाद्यता के साथ रुचिर-विचित्र शैली में उपन्यस्त तो किया ही है, अनेक ऐतिहासिक साक्ष्यों की सामग्री भी परिवेषित की है, जिसका सांस्कृतिक दृष्टि से अनुशीलन स्वतन्त्र शोध का विषय है। 1. भारतीय संगीतवाद्य, डॉ. लालमणि मिश्र, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली। पी.एन. सिन्हा कॉलोनी भिखना पहाड़ी, पटना Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 देसु सुरम्मइ अत्थि महि घत्ता- इय भासिय लोयहिँ ठिय तियलोयहिँ जंबूदीउ जो पढमु तहिँ। तासु जि भरहंतरि खंडिय सुरसरि देसु सुरम्मउ अस्थि महि॥छ॥ जहिँ गाम वसहिँ बहुविउलराम जहिँ जण णिवसहिँ परिपुण्णकाम। जहिँ ढिक्करंति वसह वि भमंति गाविहिँ समाण धण्णइँ चरंति। जहिँ माहिसाइँ दुद्धइ घणाइँ जहिँ सहल सकुसुमइँ वरवणा। गोवलियाइँ जहिँ रमिउ रासु तं पेच्छिवि सुरवरु महइ वासु। जहिँ खीरहिं पउ पालंति णारि सवियारु ण जंपहिँ सीलधारि। पुंडुच्छुवणइँ जहिँ रसु बहंति णडयण इव ते णिच्च जि सहति। णिरवद्दउ जणु जहिँ सव्वकाल मच्छं धिवि णउ सरि खिवहिँ जाल। तहिँ पोयणपुरु णयरु वि पहाणु णं विहिणा णिम्मिउ धम्मठाणु। जहिँ फलहिँ विणामिय उववणाइँ ते सहहिं णाइँ सज्जणजणाइँ। जहिँ खाइय तह पाणिउँ धरंति णं णयरहु दासित्तणु करंति। जहिँ विविहरयणदित्तउ विचित्तु पायारु जत्थ रवि णाइँ छित्तु। गोउर चयारि णं वयण सोह णयरहु संजाया अरिउ खोह। हिमवंतकूडणिह जहिँ घराइँ गमणु ण लद्धउ पुणु रविकराईं। महाकवि रइधू पासणाहचरिउ, 6.1 - इस प्रकार भाषित तीनों भेदों में स्थित एवं लोकों में प्रथम जो जम्बूद्वीप है उसके गङ्गा से विभाजित भरत-क्षेत्र की भूमि में सुरम्य नाम का (एक) देश है। वहाँ अनेक विपुल आरामोंवाले ग्राम बसते हैं, जिनमें परिपूर्ण इच्छाओंवाले नागरिकजन निवास करते हैं, जहाँ वृषभ ढिक्कारते हुए घूमते हैं और गायों के साथ धान्य चरा करते हैं। जहाँ पर घना दूध देनेवाली भैंसें हैं, जहाँ पर फलों एवं फूलों से युक्त श्रेष्ठ उद्यान हैं, जहाँ ग्वालिनों रास रचा जाता है, उसको देखकर इन्द्र भी वहाँ रहने की इच्छा करते हैं। जहाँ नारियाँ पौसरे बैठाकर प्रजा-पालन करती हैं, जहाँ शीलधारी नर विकारपूर्वक नहीं बोलते। (जहाँ) पुंड्र (गन्नों) के खेत रस बहाते रहते हैं और नित्य नटजनों के समान शोभायमान होते हैं। जहाँ लोग सदैव निरुपद्रव रहते हैं। जहाँ धीवर भी सरोवर में जाल नहीं डालते। वहाँ (सुरम्य नामक देश में) पोदनपुर नाम का प्रधान नगर है, मानो विधि ने धर्मस्थान का निर्माण किया हो। जहाँ के उपवन फलों से झुक गये हैं, जिससे वे (गुणों से विनम्र) सज्जनजनों के समान शोभायमान हैं। जहाँ अतिशीतल जल से पूरित सरिता और सरोवर, व्रतों को माननेवाले शान्त प्रकृतिवाले व्यक्तियों के समान हैं। जहाँ की गहरी खाइयाँ पानी को इस प्रकार धारण करती हैं मानो नगर का दासीपना कर रही हो। जहाँ विविध प्रकार के रत्नों से दीप्त विचित्र प्राकार हैं, जो सूर्य के द्वारा स्पर्श की जाती हैं। जहाँ के चार गोपुर नगर की मुख-शोभा के समान हैं और शत्रओं को क्षोभ उत्पन्न करनेवाले हैं। हिमवन्त कटके समान जहाँ ऊँचे-ऊँचे भवन जिनकी ऊँचाई के कारण सूर्य-किरणें भी गमन नहीं कर पातीं। अनु.- डॉ. राजाराम जैन Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 अक्टूबर 2003-2004 25 करकण्डचरिउ में भाषा-सौष्ठव - डॉ. त्रिलोकीनाथ 'प्रेमी' शब्दों के संगठित स्वरूप को भाषा कहते हैं। शब्द स्थूल होते हैं और भाव सूक्ष्म । इस प्रकार निराकार को आकार में व्यवस्थित करना असाधारण प्रक्रिया है । अभिव्यक्ति इसी का परिणाम है और अभिव्यक्ति में भाषा का सहयोग सर्वोपरि है। भाषा ही भावों-विचारों का संवहन करती है। अतः शब्द ही हमारी अभिव्यक्ति के साधन हैं और अर्थ साध्य । यही शब्द एवं अर्थ काव्य का सर्वस्व है- 'शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्'- भामह । परिस्थिति, पात्र और रसानुरूप शब्दों के प्रयोग में ही काव्य-भाषा का सौष्ठव एवं कलापूर्ण आकर्षण समाहित है । इन शब्दों के प्रयोग और निर्माण में कवि पूर्ण स्वतन्त्र होता है । उसका लोकानुभव जितना अधिक होगा, भाषा का सौन्दर्य उतना ही ललित होगा । शब्द के तीन गुणों का संकेत आचार्यों ने किया है- नाद-गुण, चित्र गुण तथा अर्थ- गुण । आवश्यकतानुसार कुशल कवि इसके लिए तत्सम तद्भव, देशी-विदेशी सभी प्रकार के शब्दों का प्रयोग करता है और अपेक्षा होने पर उन्हें घिसकर अपनी अनुभूति के अनुरूप ढाल भी लेता है। इस प्रकार वह भाषा का अनुकर्त्ता ही नहीं, स्रष्टा भी होता है। भाषा कवि की अपनी शैली पर निर्भर करती है और इस दृष्टि से वह बदलती भी रहती है, किन्तु अपभ्रंश के इन कथा - काव्यों में भाषा के दो रूप दीख पड़ते हैं- एक, जिसमें संस्कृत - प्राकृत के कवियों की भाषा को अपनाया गया है, जिसमें शब्दों - अलंकारों की बहुलता Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 अपभ्रंश भारती 15-16 है। फलतः वह क्लिष्ट हो गई है। यह शिक्षित-वर्ग की भाषा का रूप है। दूसरी ने इस परम्परा का परित्याग कर स्वतन्त्र रूप को अपनाया है, जिसमें छोटे-छोटे प्रभावोत्पादक वाक्य, शब्दों की आवृत्ति एवं उनके लोक-प्रचलित स्वरूप, वाग्धाराओं तथा लोकोक्तियों और मुहावरों का प्रयोग किया गया है। यह भाषा सरल, चलती हुई एवं अधिक प्रवाहमयी है तथा लोक-जीवन की छाप को लिये हुए है। मुनि कनकामर ने अपने 'करकण्डचरिउ'' में इसी लोक-भाषा अपभ्रंश का प्रयोग किया है। फिर, इन कथा-काव्यों और चरिउ-काव्यों के रचयिता मुनि एवं आचार्य पद-यात्री होने से लोक-जीवन तथा संस्कृति से सीधे जुड़े रहते थे। अपने धर्म का प्रचार करना इनका प्रथम कर्तव्य था। इसी से इन्होंने लोक-भाषा अपभ्रंश को ही अपनाया, जिससे ये जनता के सम्पर्क में भी बने रहे और अपने ध्येय की पूर्ति भी कर सके। प्रस्तुत कृति में कवि द्वारा प्रयुक्त भाषा में देशी शब्दावली का समुचित विन्यास उपलब्ध होता है जिनका उच्चारण लोक के लिए सरल होता था, यथा- कुंजर, मणि, किंकरु, देव, मुणिवरु, वहिणि, भामिणि, सुअ, मंगलु, कुडु, किंकिण, कामिणी, वंदीजण आदि। अनेक शब्द हिन्दी में पर्याप्त समता रखते हैं- । हुयउ (1.4.10) डाल (1.6.5) रुक्खहो (1.14.3) आगइ (1.14.4) पुक्कार (2.1.9) वत्त (2.1.13) गुड सक्कर लड्डू (2.7.1) भग्गा (3.15.10) अहीर (8.6.5) थालु (9.2.6) कप्पड (10.20.6) 'ण' का प्रयोग मिलता है, यथा- णयन, वयण, तणउ, णिकिट्ट आदि। संयुक्त व्यंजनों में 'द्वित्व' का प्रयोग मिलता है, यथा- रत्त, मुत्ता, पुत्त, सव्व, दिव्व, धम्म, आसत्त, मेत्ति, कप्प आदि। 'ह' का प्रयोग भी मिलता है, यथा- मेह, मुह, णाह, जलहर, पयोहर, दीह, वल्लह, क्रोह आदि। 'व' का प्रयोग मिलता है, यथा- कवोल, विवरीउ, दीव आदि। 'य' का प्रयोग मिलता है, यथा- सयल, पयण्ड, खेयर, मायंग, सायर, भुयंग, गयण, धरणीयल आदि। 'स' का प्रयोग मिलता है, यथा- सेय, हरिसु, जोईसरु आदि। काव्य में प्रयुक्त लोक-प्रचलित अनेक शब्दों के उदाहरण इस प्रकार हैं, यथाताउ, अमिय, सुउ, पइट्ठ, विज्जु, खणु, पडु, रज्जु, संगरु, विज्जा, सोक्ख आदि। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 27 कहीं-कहीं कवि ने 'अइ' के प्रचलित रूप को अपनाया है, यथा- कइलासु, दइव, वइरिय आदि। शब्दों की इस प्रवृत्ति से भाषा में कोमलता तथा लालित्य का समावेश हो गया है। शब्दों की पुनरुक्ति से काव्य में अद्भुत सौन्दर्य की सृष्टि हुई है। कवि कहीं सर्वनाम और कहीं क्रिया-विशेषण की पुनरावृत्ति करता है। इस प्रकार स्थान विशेष का समग्र चित्र अंकित हो जाता है और इसमें उसे पूर्ण सफलता मिली है। इस चित्रण-कौशल के साथ कथा की गतिशीलता भी बनी रहती है। अत: इसे पुनरुक्ति-दोष नहीं कहा जा सकता। प्रथम सन्धि में अंग-देश का वर्णन करते हुए कवि स्थान-सूचक सार्वनामिक विशेषण का अनेक बार प्रयोग करता है जहिँ सरवरि उग्गय पंकयाइँ, णं धरणिवयणि णयणुल्लयाइँ। जहिँ हालिणिरूवणिवद्धणेह, संचल्लहिँ जक्ख ण दिव्व देह॥ जहिँ बालहिँ रक्खिय सालिखेत्त, मोहेविणु गीयएँ हरिणखंत। जहिँ दक्खइँ भुंजिवि दुहु मुयंति, थलकमलहिँ पंथिय सुहु सुयंति। जहिँ सारणिसलिलि सरोयपंति, अइरेहइ मेइणि णं हंसति ॥ 1.3.6-10 अर्थात् जहाँ के सरोवरों में कमल उग रहे हैं, मानो धरणी के मुख पर सुन्दर नयन ही हों। जहाँ किसान-स्त्रियों के रूप में स्नेहासक्त होकर दिव्य देहधारी यक्ष निश्चल हो गये हैं। जहाँ बालिकाएँ चरते हुए हरिणों के झुण्डों को अपने गीत से मोहित करके धान के खेतों की रक्षा कर लेती है जहाँ पथिक दाख का भोजनकर अपनी यात्रा के दुःख से मुक्त होते हैं और स्थल-कमलों पर सुख से सो जाते हैं। जहाँ की नहरों के पानी में कमलों की पंक्ति अति शोभायमान होती है, जैसे मानो मेदिनी हँस उठी हो। यहाँ 'जहिं' की पाँच बार आवृत्ति की गई है और वर्ण्य-विषय का बार-बार कथन करके उससे सम्बद्ध अनुभवों को समाविष्ट करने का प्रयत्न दिख पड़ता है। इससे तत्कालीन समाज और अंग-देश की समृद्धि का भी परिचय मिलता है। यह आलंकारिक भाषा का सौन्दर्य सचमुच अनूठा है। इसी प्रकार 9वीं सन्धि में चम्पा के उपवन में मुनि शीलगुप्त के आगमन पर उन्हें देखने के लिए जाती हुई नगर की स्त्रियों के हृदय के उत्साह का चाक्षुष-बिम्ब ही जैसे सर्वनाम की पुनरुक्ति के सहारे साकार हो गया है। इससे चित्रण में अलग ही प्रभावोत्पादकता समाहित हो गई है क वि माणिणि चल्लिय ललियदेह, मुणिचरणसरोयहँ बद्धणेह। क वि णेउरसदें रणझणंति, संचल्लिय मुणिगुणं णं थुणंति। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 क वि रमणु ण जंतउ परिगणेइ, मुणिदसणु हियवएँ सइँ मुणेइ। क वि अक्खयधूव भरेवि थालु, अइरहसइँ चल्लिय लेवि बालु। 9.2.3-6 स्नेह में मिलन-आतुरी का प्रस्तुत बिम्ब बड़ा व्यंजक तथा भावपूरित है। इसी भाँति सातवीं सन्धि में करकण्ड के सिंहल-द्वीप में पहुंचने पर वहाँ के ऐश्वर्य का वर्णन पुनरुक्ति से द्विगुणित हो गया है (7.5.5-7)। रतिवेगा के विलाप में प्रयुक्त पद-योजना उसके अन्तस् की करुण-दशा एवं रोदनध्वनि को साकार कर देते हैं हा वइरिय वइवस पावमलीमस किं कियउ। मइँ आसि वरायउ रमणु परायउ किं हियउ। हा दइव परम्मुहु दुण्णय दुम्मुहु तुहुँ हुयउ। हा सामि सलक्खण सुट्ठ वियक्खण कहिँ गयउ। महो उवरि भडारा णरवरसारा करुण करि। दुहजलहिँ पडंती पलयहो जंती णाह धरि। 7.11.9-14 यहाँ 'हा', 'वइरिय', 'दुम्मुह', 'सामि', 'वियक्खण', 'णरवरसारा' आदि शब्दों में उसके हृदय की वेदना की अभूतपूर्व अभिव्यक्ति हुई है। फिर एक विवाहिता एवं पतिव्रता नारी के लिए उसके पति के अतिरिक्त है ही कौन? तभी तो वह कहती है महो उवरि भडारा णरवरसारा करुण करि। और वह भी अपने हाथ से पकड़कर बचाने के लिए निवेदन करती है। यहाँ विरहिणी रतिवेगा के खीझ, आक्रोश, दीनता, समर्पण और निवेदन न जाने कितने भावों को कवि ने समाहित कर भाषा की व्यंजना में चार चाँद लगा दिये हैं। यह लोक-जीवन की अनुभूति बिना सम्भव ही नहीं। इससे मुनि कनकामर की लोक-जीवन में गहन पैठ स्पष्ट होती है। धाड़ीवाहन और करकण्ड के युद्ध के बीच आकर पद्मावती पिता-पुत्र को एक-दूसरे का परिचय कराकर रोकती हुई, पति के पास खड़ी होती है (3.20), चम्पा-नरेश उसे देखते हैं- यह मोहक बिम्ब भला किसके हृदय को तरलकर भावों से नहीं भरेगा! यहाँ नयनों के मौन संवाद में हिये के अनगिन भावों की ही अभिव्यक्ति नहीं हुई है, अनगिन उपालम्भ और गिलवे-शिकवे ही नहीं कह दिये गये हैं, बल्कि इतने लम्बे विछोह की अकथ व्यथा भी व्यंजित हो गई है और अन्त में पति-पत्नी के रिश्ते की पवित्रता, गम्भीरता एवं निष्कलंकता का मर्म भी भली प्रकार स्पष्ट हो गया है, यह कवि की भाषा-शैली का ही लालित्य है सा दिट्ठिय चंपणरेसरेण, गंगाणइ णं रयणायरेण। 3.20 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 शब्दाडम्बर-रहित सरल और संयमित भाषा में जहाँ कवि ने गम्भीर भाव अभिव्यक्त किये हैं वहाँ उसकी शैली अधिक प्रभावी हो गई है। नौवीं सन्धि के चौथे कड़वक में रोती हुई स्त्री के विलाप का कारण जानकर जब करकण्ड संसार की असारता तथा क्षणभंगुरता का प्रतिपादन करता है, वहाँ इस प्रकार की भाषा-शैली के दर्शन होते हैं- 'धिक् धिक् यह मर्त्यलोक बड़ा असुहावना है। शरीर का भोग ही मानव के दुःख का कारण है। यहाँ समुद्र के तुल्य महान् दुःख हैं तथा भोगों का सुख मधु - बिन्दु के समान है, अत्यल्प है। हाय यहाँ मानव दु:ख से दग्ध-शरीर होकर बुरी तरह कराहता हुआ मरता है। ऐसे संसार में निर्लज्ज और विषयासक्त मनुष्य को छोड़ और कौन प्रीति कर सकता है ? 29 इसी प्रकार अनित्य - भावना के निरूपण में ( 9.6) नारी के संकेत भी वैराग्योत्पत्ति काही मूल है, क्योंकि जिस प्रकार हथेली पर रखते ही पारा गल जाता है उसी प्रकार नारी विरक्त होकर क्षणभर में चली जाती है जड़ सूयइ करयलि थिउ गलेउ, तह णारि विरत्ती खणि चलेइ । हथेली पर पारे की तरह कहकर नारी के क्षणिक संग-सुख की प्रभावी व्यंजना यहाँ हुई है। वीतरागी कवि का यह अप्रस्तुत विधान बड़ा सार्थक तथा उसकी प्रवृत्ति के अनुरूप सर्वथा सटीक है। भाषा को भावानुरूप बनाने के लिए कवि ने ध्वन्यात्मक शब्दों का भी प्रयोग किया है। इससे भाव की उत्कृष्ट व्यंजना तो हो ही गई है, वातावरण का संज्ञान भी तत्सम्बन्धी ध्वनि-बिम्ब से हो जाता है। चौथी सन्धि में जब हाथी सरोवर में कमल लेने आता है तब उसके कानों की झलमल ध्वनि, जल के हिलने की ध्वनि, सूँड में जल भरकर इधर-उधर उडेलने की उसकी प्रक्रिया तथा कमलों को तोड़ने की ध्वनि से एक अनूठे वातावरण का सृजन हो जाता है सरोवरे पोमइँ लेवि करिंदु, समायउ पव्वउ णाइँ समुहु । झलाझल कण्णरएण सरंतु, कवोलचुएण मएण झरंतु । सुपिंगललोयणु दंतहिँ संसु, चडावियचावसमुण्णयवंसु । दूरेहकुलाइँ सुदूरे करंतु, दिसामुह सुंडजलेण भरंतु । 4.6.4-6 यहाँ ध्वनि-बिम्ब तो उपस्थित हुआ ही है, दो-दो शब्दवाले छन्द में भी उसकी लय एवं गति में एक आकर्षण आपूरित हो गया है। तीसरी सन्धि के 18वें कड़वक युद्ध वातावरण का चित्र दर्शनीय है। ऐसे अनेक ध्वन्यात्मक शब्दों का सफल प्रयोग यहाँ देखे ही बनता है, यथा- गुलगुलंत, हिलहिलंत, धरहरंत, फरहरंत, थरहरंत ( 3.14), भज्जंति, गज्जंति, तुहंति, फुहंति, मोडंति, तारंति ( 3.14), बुक्करंति (4.5) ; भुंभुक्कड़, खलखल (4.24), फुक्करिवि (5.27 ) आदि । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 भाषा के उत्कर्ष एवं विषय को आकर्षक बनाने के लिए कवि छोटे-छोटे हृदयस्पर्शी वाक्यों एवं सुभाषितों का प्रयोग करता है। इस सूक्त्यात्मक विधान से जहाँ भाषा में सौन्दर्य का समावेश हुआ है वहाँ वर्णन या कथन में भी लोच आ गया हैं- संसार में सभी प्राणी लोभ के वशीभूत होकर काम करते हैं । फिर, प्रायः यह भी नहीं देखते कि कार्य कैसा है ? यहाँ मातंग करकण्ड का पालन करता है और उसे सभी प्रकार की विद्याएँ सिखाता है, क्योंकि इस प्रकार उसे मुनि के श्राप से मुक्ति मिलेगी और वह पुनः विद्याधर हो जायेगा। इस प्रकार यह सूक्ति बड़ी सार्थक और सटीक है 30 लोहेण विडंविउ सयलु जणु भणु किं किर चोज्जइँ णउ करइ । 2.9.10 इसी प्रकार छठी सन्धि के पाँचवें कड़वक में माधव - मधुसूदन के वैर के दृष्टान्त में माधव के दीन-हीन हो जाने पर किसी के द्वार पर न जाने की भावना से कहता है- अपने कौरों का विष खाकर मर जाना अच्छा, पर दुर्जन के घर किंकर होना अच्छा नहीं- इसमें उसके स्वाभिमान का भाव निहित है वरि कवलहिँ खाइवि विसु मुयउ, ण दुज्जणघरि किंकर हुयउ । 6.5.6 ऐसे ही किउ विज्जावंतहो संगु जेण, सुहसंपइ लब्भइ णरहो तेण । 2.13.1 - विद्यावान का संग मनुष्य को सुख-सम्पत्ति का लाभ पहुँचाता है । विद्या विहीन - को कभी अपना मित्र नहीं बनाना चाहिये । जगि करुणवंतु अइमण्णणिज्जु, कह होइ ण सज्जणु वंदणिज्जु ! 6.6.3 जगत् में करुणावान् सज्जन क्यों न अति मानवीय और वन्दनीय होवें ! - सो सुअणु परायउ असइ भोज्जु, उवयारु करइ किर कवणु चोज्जु । 7.15.6 जो सज्जन पुरुष पराया भोजन करता है, वह उसका उपकार करे, इसमें आश्चर्य ही क्या है? किं किं ण करइ मयणअंधु ! 10.7.5 कामान्ध मनुष्य क्या-क्या नहीं करता ! मुहावरे तथा लोकोक्तियों के प्रयोग से करकण्डचरिउ की काव्य-भाषा जीवन्त हो गई है। इसे भाषा में स्वत: ही एक लोच एवं संजीवनी-शक्ति का प्रादुर्भाव हो जाता है। भाषा को समर्थ बनाने में मुहावरे तथा लोकोक्तियों का उपयोग बड़े महत्त्व का है। लोकोक्ति में सागर भरने की प्रवृत्ति काम करती है। चूँकि अपभ्रंश के अधिकांशतः कवि आचार्य या मुनि होने के कारण पदयात्री होने से लोक-जीवन और संस्कृति से सीधे जुड़े होते हैं। लोकोक्ति लोक-जीवन की आचार संहिता होती है। अनुभव और अभ्यास का नवनीत उसकी बेजोड़ निधि होता है। लोकोक्ति का रूप संज्ञा Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 की भाँति तथा मुहावरे का क्रिया की भाँति होता है। मुहावरा वह गठा हुआ वाक्यांश है जिससे कुछ लक्षणात्मक अर्थ निकलता है। ये लोक-जीवन के प्रचलित वे सिक्के हैं जिनका मूल्य कभी नहीं बदलता। इनके प्रयोग से कवि की अभिव्यंजना-कुशलता का परिचय मिलता है। करकण्डचरिउ में यद्यपि इनका प्रयोग बहुत अधिक नहीं हुआ है, लेकिन जो हुआ है उसमें एक संजीदगी और व्यंजकता लक्षित होती है। ___ चौथी सन्धि के 15वें कड़वक में 'चिंताविवण्णु थिउ मंदसउ' - फीका मुख होना तथा 'करु वयणे णिवेसिवि णिउ थियउ' - हाथ पर मुँह रखकर बैठना के द्वारा करकण्ड की चिन्तामग्न मानसिकता को व्यक्त किया गया है। सिंहासन के ऊपर की गाँठ को तुड़वाने पर जो विकृति जिन-प्रतिमा में आ गई उससे उसका चिन्तामग्न तथा उदास हो जाना स्वाभाविक है। क्योंकि इसे वह धार्मिक अपराध-बोध से स्वीकार करता है। इसी सन्धि में 17वें कड़वक में देव के आत्म-परिचय में भूधरों को चूर-चूर करने की बात उसकी शक्ति के प्रदर्शन के निमित्त पर्याप्त है- 'मुसु-मूरमि भूधर विप्फुरंत'। . पाँचवीं सन्धि के 14वें कड़वक में हाथी के क्रोध एवं आक्रोश को व्यक्त करने में उसका मुख मोड़कर सेना को देखना बड़ा सटीक है, जो इस मुहावरे के द्वारा ही साकार हो सका है- 'अवलोइय करिणा मुहु वलेवि'। ऐसे अनेक सार्थक मुहावरों का प्रयोग इस कृति में हुआ है, यथा1. पयभारें मेइणि णिद्दलंतु- पृथ्वी को रौंदना .. (5.14.4) 2. हेट्ठामुहुँ लज्जइँ हुउ खणम्मि- लज्जा से मुँह नीचा करना (5.16.8) 3. धरणियले णिवडिउ सिरु धुणंतु- सिर धुनना (6.7.4) 4. परिफुरियउ तं महो वयणे- मुख पर रंग आ गया (6.9.6) 5. करयलकमलहिँ सुललियसरलहिँ उरु हणइ- छाती पीटना (7.11.7) 6. हियवइँ तक्खणे संचडिउ- हृदय पर चढ़ गया (7.14.10) 7. हणंति दो वि कुक्खिया- कोंख को कूटना (9.3.6) 8. कर मउलिवि सव्वउ तहिँ थियाउ- हाथ मलना (10.24.6) काव्य की अभिव्यक्ति में भाषा की शब्द-शक्तियों का भी अपना महत्त्व होता है। कथन में वक्रता तथा चमत्कार की सृष्टि इन्हीं के द्वारा होती है। ये शक्तियाँ तीन कही गई हैंअभिधा, लक्षणा और व्यंजना। अभिधा का प्रयोग सामान्य कथनों में होता है। पर, काव्य की दृष्टि से लक्षणा और व्यंजना ही अधिक प्रयोजनीय हैं। अस्तु, 'लक्षणा' शब्द की वह शक्ति है जिसके द्वारा मुख्यार्थ की बाधा होने पर रूढ़ि या प्रयोजन को लेकर मुख्यार्थ से सम्बन्ध रखनेवाला अन्यार्थ लक्षित होता है। ऐसे शब्द को लाक्षणिक शब्द तथा उसके अर्थ को Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 लक्ष्यार्थ कहते हैं। यथा- कवि धाड़ीवाहन के गुणों का वर्णन करता हुआ कहता है- उसका हाथ धन देने के लिए पसरता तो था, किन्तु उसका धनुष प्राणी का वध करने के लिए सरसंधान नहीं करता था धणु देवएँ पसरइ जासु करु, णउ पाणिवहेव्वई धरइ सरु। 1.5.5 - यहाँ न तो हाथ अपने आप धन देने के लिए पसरता है और न धनुष स्वयं वाणसंधान करता है, बल्कि करनेवाला तो राजा है। इस प्रकार कथन करके कवि ने चमत्कार पैदा कर दिया है। यह चमत्कार लक्षणाजन्य होने से यहाँ लक्षणा-शक्ति है। फिर, 'पसरना' (पसारना, फैलाना) शब्द पैरों के सम्बन्ध में प्रयुक्त होता है, हाथों के साथ नहीं। यहाँ कवि अधिक से अधिक हाथों को बढ़ाकर धन देने की बात कहता है। इसी से लक्षणा-शक्ति है। ___ दूसरी सन्धि के 18वें कड़वक में प्रयुक्त 'बुज्झु' शब्द में लक्ष्यार्थ है। इसका प्रयोग मन-बुद्धि से भली प्रकार समझने तथा निर्णय लेने के लिए किया गया है। करकण्ड को वणिक ने जो उच्च पुरुष की कहानी सुनाई उसके मर्म को हृदयंगम करने के विचार से इस शब्द का प्रयोग हुआ है। अत: लक्षणा-शक्ति हैएह उच्च कहाणी कहिय तुज्झु, गुण सारणि पुत्तय हियइँ बुज्झु । 2.18.8 मदनावली के चित्रपट को देखते ही करकण्ड के हृदय में मदन का वाण प्रविष्ट हो गया तहिं रूउ सलक्खणु तेण दिट्ठ, णं मयणवाणु हियवएँ पइट्ठ । 3.4.10 मदन (कामदेव) का शरीर तो पुष्पों का बना होता है, वह दिखलाई नहीं देता,. बल्कि उसका प्रभाव इन्द्रियों के माध्यम से मनुष्य के शरीर पर होता है। यहाँ हृदय में बाण के प्रविष्ट होने का तात्पर्य राजा के आसक्त होने से है। इसी से लक्षणा-शक्ति है। जब मदनावली और करकण्ड का विवाह होता है माता पदमावती आ जाती है। विवाह से गद्गद होकर वह उसे आशीर्वाद देती है चिरु जीवहि णंदण पुहइणाह, कालिंदी सुरसरि जाव वाह। 3.9.4 अर्थात् जब तक गंगा-जमुना की धार बह रही है, चिरंजीव हो। गंगा-जमुना तो युगों से बह रही है और बहती रहेगी। लेकिन कोई व्यक्ति युगों तक जीवित नहीं रह सकता। लेकिन माता-पिता और गुरुजनों की ऐसी ही कामना होती है, इसी से ऐसा आशीर्वाद दिया जाता है कि बहुत दिनों तक चिरंजीव रहे। इसलिये लक्षणा-शक्ति है। रतिवेगा से बिछुड़ने के बाद समुद्र में कनकप्रभा उसे देखकर मुग्ध हो गई। इसी भाव की अभिव्यक्ति के लिए कवि ने 'हियवइँ संचडिय' (7.14) अर्थात् वह उसके हृदय पर चढ़ गया, उसको पसन्द आ गया, अत: उसकी अनुरक्ति के भाव को यह कहकर व्यक्त किया गया है। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 इसी प्रकार ‘हुओ घरु बुद्धिसमिद्धिहे जो वि' ( 8.6.7 ) अर्थात् सुआ बुद्धिसम्पत्ति का घर हो रहा था तथा 'भत्तीभरेण मणु जासु भिण्णु' (10.5.8) अर्थात् उसका मन भक्ति के भार से भर रहा था, में लक्षणा - शक्ति का प्रयोग हुआ है । 33 जब अभिधा तथा लक्षणा अपना-अपना अर्थ स्पष्ट करके विरत हो जाती हैं, किन्तु फिर भी वक्ता का अभिप्राय स्पष्ट नहीं होता तब शब्द की व्यंजना-शक्ति का प्रश्रय लिया जाता है। इससे प्राप्त अर्थ को व्यंग्यार्थ और शब्द को व्यंजक कहा जाता है । यथाजब करकण्ड मदनावली के चित्र पर मुग्ध हो गया तब उस मनुष्य ने इतनाभर कहा- वह कमलदलाक्षी शशिवदना आपके करतल को अपने कर पल्लव में ग्रहण करे - सा कमलदलच्छी सासिवयण तउ करयलु करपल्लवे धरउ । 3.7.10 यहाँ कर को कर में धरने का तात्पर्य विवाह होने (पाणिग्रहण) से है। इसी की व्यंजना भी गई है। ऐसे ही दूसरी सन्धि के चौथे कड़वक में शरीर को तृणवन- 'तणुवणे' कहकर इसकी क्षणभंगुरता का संकेत किया गया है। इसी में मुनि द्वारा विद्याधर के लिए 'भगोड़े' (भग्ग) शब्द का प्रयोग करके उसकी निराशाजन्य मनः स्थिति की व्यंजना की गई है। प्रबन्ध-काव्य में अलंकार - योजना का भी विशेष महत्त्व है। भावों की स्फुट अभिव्यक्ति और वस्तु के उत्कर्ष चित्र या बिम्ब को अभिव्यंजित करने के लिए अलंकार आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी हैं। यदि कल्पना भावों को जगाती है तो अलंकार उन्हें रूप प्रदान करते हैं। ये भाव के पीछे-पीछे चलते हैं। वास्तव में सीधी-सादी बात में आकर्षण कम दिखाई देता है, अलंकार-योजना से उसका चमत्कार बढ़ जाता है। इसी से काव्य-भाषा में इनका महत्त्व है। कवि अपनी उक्ति को मनोहर तथा अधिक प्रभावपूर्ण बनाने के लिए भावों में अलंकारों का प्रयोग करता है। इसके लिए वह अप्रस्तुत विधान का प्रश्रय लेता है । इन अप्रस्तुतों का भाव तथा परिस्थिति के अनुकूल होना परमावश्यक है। इनकी सार्थकता इसी में है कि ये भाषा के प्रयोग में स्वतः आ जाये । प्रयत्नपूर्वक लाये गये अलंकारों से भाषा बोझिल हो जाती है। प्रस्तुत काव्य में वे सहज आये हैं और शब्दालंकार तथा अर्थालंकार दोनों प्रकार के हैं। इनके अप्रस्तुत - विधान में परम्परागत उपमानों के साथ नूतन एवं मौलिक उपमानों के प्रयोग भी दर्शनीय हैं। तभी तो भावाभिव्यंजना तथा वस्तु-नियोजन में सौष्ठव आपूरित हो गया है। शब्दालंकारों प्रयोग किया है, यथा कवि ने अनुप्रास के अतिरिक्त श्लेष तथा यमक अलंकार का भी के वि संगामभूमीरसे रत्तया, सग्गिणीछन्दमग्गेण संपत्तया । 3.14.8 यहाँ 'सग्गिणी' शब्द में श्लेष है अर्थात् कोई वीर संग्राम-भूमि में अनुरक्त, स्वर्ग Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 अपभ्रंश भारती 15-16 वासिनी अप्सराओं के अभीष्ट मार्ग को प्राप्त हुए। श्लेष से कवि ने स्रग्विणी छन्द का भी नाम-निर्देश किया है, जिसमें उसने रचना की है। इसी प्रकार ‘सूरु' तथा 'पहर' में श्लेष अलंकार है, यथा ता एत्तहिं रवि अत्थइरि गउ, बहुपहरहिं णं सूरु वि सुयउ। 10.9.4 अर्थात् इतने में सूर्य अस्त हो गया। बहुत पहरों के बाद थका सूर्य मानो सो गया हो या बहुत प्रहारों से मानो शूरवीर सो गया हो- सूरु= सूर्य, शूरवीर; पहर= पहर, प्रहार। __ प्रकृति, नगर-वर्णन आदि में कवि अपनी मौलिक उद्भावना से ऐसे अप्रस्तुतों (उपमानों) का विधान करता है कि पाठक एकदम नये धरातल पर पहुंचकर नये अनुभव से संपृक्त हो उठता है। उसकी कल्पनाशक्ति बड़ी प्रबल है। एकसाथ अनेक उत्प्रेक्षाओं की वह झड़ी-सी लगा देता है जिससे नये-नये बिम्ब उपस्थित हो जाते हैं। क्षणमात्र में गुण, धर्म एवं रूप-साम्य को द्योतित करनेवाले अनेक उपमान उसे सूझ जाते हैं। उसकी सूक्ष्म निरीक्षण क्षमता और मौलिकता पर दंग रह जाना पड़ता है। सिंहासन की गाँठ के टूटते ही जलवाहिनी के निकलने पर कवि की उत्प्रेक्षाओं का बिम्ब दर्शनीय है गुरुघायवडणे णिग्गय फुलिंग, णं कोहवसइँ अहिजलणलिंग। तहे गंठिहे वयणहो बहलफार, ता णिग्गय तक्खणि सलिलधार। पढमउ भुंभुक्कड़ णिग्गमेइ, णं मेइणि भीएँ उव्वमेइ। णिग्गंती बाहिरि सा विहाइ, महि भिंदिवि फणिवइघरिणि णा। परिसहइ सा वि भूमिहिँ मिलंति, गंगाणइ णं खलखल खलंति। पसंरतिएँ ताएँ खणेण भव्वु, तं भरियउ लयणु जलेण सव्वु । णं अमियकुंडु बहुरसजलेण, णं धम्मसारु थिउ जलछलेण। 4.14.2-8 अर्थात् टाँकी की भारी चोटें पड़ने से चिनगारियाँ निकलने लगीं, मानो शेषनाग के क्रोधवश जल उठने के चिह्न हों। फिर मुख से भुक-भुक करती हुई भारी जल की धार निकली मानो मेदिनी भय से वमन करने लगी हो; मानो पृथ्वी को भेदकर नागेन्द्र की गृहिणी निकल पड़ी हो। भूमि में मिलकर वह ऐसी शोभायमान हुई मानो गंगा नदी खलखला रही हो। उसने एक क्षण में ही सारे लयण को जल से भर दिया मानो वह बहुत रसों के जल से भरा अमृतकुण्ड हो अथवा जल के बहाने से धर्मसार भरा हो। ये सभी उपमान नूतन और मौलिक हैं। इसी प्रकार चम्पा नगरी का वर्णन अनेक उपमानों से खिल उठा है। वहाँ जिनमन्दिर ऐसे शोभायमान हैं मानो अभंग पुण्य के पुंज हों जिणमन्दिर रेहहिं जहिं तुंग, णं पुण्णपुंज णिम्मल अहंग। 1.4.3 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 यह नव्यता जैन धर्म के अनुरूप बड़ी भव्य है। घर-घर रेशमी पताकाओं के उड़ने के लिए मानो आकाश में श्वेत सर्प सलवला रहे हों, की परिकल्पना अनूठी है __णं सेयसप्प णहि सलबलंति। यहाँ गत्यात्मक सौन्दर्य अवलोकनीय है। उत्प्रेक्षाओं के बहुलश: प्रयोग से ऐसा लगता है जैसे करकण्डचरिउ के कवि की इसमें अधिक रुचि है। उसे उत्प्रेक्षाओं का कवि कहा जा सकता है। परम्परागत उपमानों के सन्दर्भ में भी उसकी कल्पना अनूठी है, यथा जहिं सरवरि उग्गय पंकयाइँ, णं धरणिवयणि णयणुल्लया। 1.3.6 कभी नहरों में खिले कमलों को देखकर मेदिनी के हँसने की परिकल्पना करता है। जहिं सारणिसलिलि सरोयपंत्ति, अइरेहइ मेइणि णं हसंति। 1.3.10 .. पद्मावती के नख-शिख वर्णन में परम्परागत उपमानों का यथावत् आकलन किया गया है। लेकिन सिर पर लहलहाते काले केशों के लिए उसकी सूझ एकदम नूतन है, मौलिक है अलिणीलकेस सिररुह घुलंति, मुहइंदुभयइँ णं तम मिलंति। 1.16.14 मानो मुख-चन्द के भय से अन्धकार काँप रहा हो। 'मुख ससि डर रोइसि अंधारा'- विद्यापति की उक्ति जैसे यहीं से ली गई है। 'करकण्ड के जन्म लेने पर कवि की एक ही उपमेय के लिए तीन-तीन उपमानों की परिकल्पना सचमुच प्रशंसनीय है, ऐसे पुत्र को पाकर माता अपने सारे कष्टों को भूल जाय, इसमें आश्चर्य ही क्या? तें जायएँ तहे वीसरिउ दुक्खु, णं अडविहे जायउ कप्परुक्खु। णं मेइणि भिंदिवि महिहरिंदु, णं जायउ णियकुलणहि छणिंदु। 2.1.3-4 और जब अकस्मात् काले रंग का मातंग उसे उठा लेता है तब वह कल्पना करता है मानो काले नाग के फन पर मणि चमक रही हो तहिं करयलि थक्कउ सोह देइ, णं फणिवइमत्थइँ मणि सहेइ। 2.1.8 ऐसे ही 20वें कड़वक में जब हाथी जल से भरे घट को सूंड में लेकर चलता है तब कवि की सूझ निराली ही परिलक्षित होती है और गतिशील बिम्ब बन जाता है- मानो पूर्णचन्द्र पर्वत के शिखर पर चल रहा हो स पुण्णउ कुंभु करेण करंतु, छणिंदु णं पव्वयसिंगु सरंतु। 2.20.5 पुन: तीसरी सन्धि के 7वें कड़वक में करकण्ड-मदनावली के विवाह के उपरान्त वर द्वारा वधु के मुख-पट को उघाड़ा गया मानो उसके मन के मोह-पटल को उघाड़ दिया गया हो Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 अपभ्रंश भारती 15-16 घाडि महवडु विहिं जणाहँ, णं मोहपडलु तग्गय मणाहँ । मूर्त का यह अमूर्तिकरण तो एकदम नूतन है। सचमुच कवि की कल्पना बहुत ऊँची उड़कर सटीक उपमान खोज लाती है। गंगाजी के जल की कुटिल धार ऐसी शोभायमान थी मानो श्वेत भुजंग की महिला जा रही हो सा सोहइ सियजल कुडिलवंति, णं सेयभुवंगहो महिल जंति । 3.12.6 यह भी नूतन कल्पना ही है और गत्यात्मक सौन्दर्य की सृष्टि करती है। सर्वांग सौन्दर्य की व्यंजना के लिए कवि स्वर्ग के टुकड़े की कल्पना करता है - एत्थत्थि अवंती णाम देसु, णं तुट्टिवि पडियउ सग्गलेसु । 8.1.6 यहाँ अवन्ति नाम का देश है मानो स्वर्ग का एक टुकड़ा टूटकर आपड़ा हो खिले हुए कमलों से युक्त सरोवर को निहारकर कवि अद्भुत कल्पना करता हैमानो आकाश अपने सुन्दर तारामण्डल - सहित पृथ्वी पर आ गया हो कमलायरु रेहइ अइसुतारु, णं धरहिँ समागउ णहु सुतारु । 10.2.3 और जब धनदत्त नाम का गोप उसमें घुसकर कमल तोड़ लेता है तब कवि की सूझ के सौन्दर्य पर ‘वाह-वाह' कहे बिना नहीं रहा जा सकता। वह कहता है- सरोवर में से कमल क्या तोड़ा, मानो उसका सिर काट लिया हो! जैसे सिर के कट जाने से मानव या किसी जीव की आकृति विकृत हो जाती है, वैसे ही सरोवर रूपहीन हो गया जल पइसिवि लइयउ पोमु तेण, णं खुडिउ सरोवर सिरु खणेण । 10.2.8 काव्य के अन्त में करकण्ड जब मुनि के उपदेशों से तपश्चरण ग्रहण करता है और अपने सिर के घुँघराले केशों को उखाड़कर फेंकने लगता है तब कवि कल्पना करता हैमानो, सलबलाते भुजंगों को फेंक रहा हो, सिर से अलग हुए काले घुँघराले बालों के लिए इस अप्रस्तुत - विधान में कैसी सटीक व्यंजना है, देखे ही बनती है। एक ओर करुणाजन्य दुःख है तो दूसरी ओर केशों की गतिशील सुन्दरता । निसन्देह कवि की कल्पना-प्रवणता पर मुग्ध होना ही पड़ता है उप्पाडिय कुंतल कुडिलवंत, णं कम्मभुवंगम सलवलंत । 10.23.9 इस प्रकार हम देखते हैं कि कवि ने उत्प्रेक्षा अलंकार का बहुलशः प्रयोग किया है, चाहे वह नगर या प्रकृति का निरूपण हो, चाहे रूप अथवा वैराग्य की स्थिति का चित्रण । उसने सर्वत्र नये और मौलिक उपमानों की परिकल्पना की है। इनकी एक विशेषता यह है कि ये लोक-जीवन में से उतने ग्रहीत नहीं है जितने प्रकृति के अन्तर्वाह्य परिवेश में से । परम्परा हटकर इनका चयन वीतरागी महापुरुष की भाँति एकदम नये सन्दर्भों में किया गया है। यह Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 इस महाकवि की सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति एवं कारयित्री - प्रतिभा की अद्वितीय सूझ है। इसके काव्य के सौन्दर्य को भी एक नूतन आयाम प्रदान किया है। इसलिये इस कवि को उत्प्रेक्षाओं का अनूठा कवि कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं । वस्तुतः उत्प्रेक्षा में कल्पना को अधिक स्वातन्त्र्य और विकसित रूप से स्फुट भाव-भूमि मिलती है, जिसमें कोई रोक-टोक नहीं होती, जहाँ वह कल्पना को जगाने में सहायक होती है, कहीं भावों की उन्मुक्त अभिव्यंजना के लिए स्पष्ट एवं स्फीत बिम्ब सामने लाती है। 37 अन्य सादृश्यमूलक अलंकारों में यहाँ उपमा और रूपक का भी ऐसा ही सजीव एवं सौन्दर्यवर्धक नियोजन हुआ है । यथा- उजाड़ उपवन को मूर्ख मनुष्य के समान कहना, जिसका न तो कोई मत होता है और स्वयं भी वह नीरस होता है, कितना सटीक और सार्थक है, दर्शनीय है तादि उaaणु ढंखरुक्खु, मयरहियउ णीरसु णाइँ मुक्खु । 1.14.2 ऐसे ही राजमहल को हिमवन्त के शिखर के सामन कहकर एक साकार बिम्ब ही खड़ा कर दिया है तें दिट्ठ रायणिकेउ तुंगु, अझ्मणहरु णं हिमवंतसिंगु । 3.3.3 और मदनावली की विरहजन्य कृश देह को कृष्ण पक्ष की चन्द्र-रेखा की उपमा देना भी अतीव सार्थक है विहलंघल गयकल झीणदेह, कसणम्मि पक्खि णं चंदलेह । 3.6.5 किन्तु, राजा के चुनाव हेतु निकलनेवाले हाथी की उपमा सचमुच नव्यतम और उन्मेष-शालिनी है- हाथी मस्ती से चल रहा है, वह कान हिला रहा है तथा अपनी सूँड डुला रहा है, जैसे कोई प्रेमी अपनी विलासिनी के घर से निकल रहा हो - घराउ विणिग्गउ वारणु तुंगु, विलासिणिगेहहो णाइँ भुयंगु । 2.20.3 विद्याधरी का अपने प्रिय मदनामर खेचर को देखकर प्रेम - विह्वल होने की हृदयस्पर्शी व्यंजना उपमा के प्रयोग से ही चित्रित हो सकी है- वह पवन से आहत केली के समान काँप उठी, एकसाथ प्रेम मिश्रित आशंका से प्रकम्पित होना प्रथम मिलन की नैसर्गिकता को दृष्टि - गोचर कर रहा है डिय वायाहव केलि व कंपविय । संसार के प्रति अनासक्ति और वैराग्य की मन:स्थिति में दुःखों को समुद्र के समान तथा भोगों को मधु - बिन्दु के सदृश कहना बड़ा स्वाभाविक और मनोवैज्ञानिक हैरयणायरतुल्लउ जेत्थु दुक्खु, महुबिन्दुसमाणउ भोयसुक्खु । 9.4.8 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 पर स्तनों के लिए पीव से भरे हुए फोड़ों, सदृश की अभिव्यक्ति तो भोग के प्रति घृणा-भाव से भर देती है गुणुदीसइ कवणु उरोरुहाहँ, परिपूरिय पूयएँ वणणिहाहँ। जिन-प्रतिमा के सिंहासन की गाँठ को तुड़वाने पर करकण्ड की उद्विग्न मानसिकता का चित्र मालोपमा के सहारे अतीव व्यंजक बन गया है, जैसे- वज्र के प्रहार से महीधरेन्द्र, सैन्यभग्न हो जाने से सुरेन्द्र और केशरी के नखों से विदीर्ण हाथी खिन्न हो जाता है। उदास मन हो जाने से जैसे उसकी सारी तन-मन की शक्ति लुप्त हो जाती है, वह आत्मग्लानि से कराह उठता है, ये सारे भाव चित्रित हो गये हैं णं कुलिसणिहाएँ महिहरिंदु, णं भग्गएँ वले थिउ सुरवरिंदु, णं मयगलु केसरिणहविभिण्णु, थिउ णरवइ तहिं दुक्खेण खिण्णु। 4.15.3-4 इनके अतिरिक्त अनेक परम्परायुक्त उपमानों को भी कवि ने यहाँ प्रयुक्त किया है, लेकिन नूतन प्रकार से जिससे व्यंजना में उत्कर्ष आ गया है, यथा-- मुहकमलु संजायउ रतुप्पलसरिसु। 3.13.10 मुख रक्त-कमल के समान लाल हो गया। यह क्रोध के अनुभाव की सुन्दर अभिव्यक्ति है। इसी प्रकार ऐरावत की सूंड के समान दीर्घ भुजशाली करकण्ड के शक्ति छोड़ने पर उसकी अद्भुत बहादुरी एवं साहस की निदर्शना हुई है अइरावइकरदीहरभुएह। लयण के ऊपर की वामी को चूड़ामणि के समान कहने में अपना अलग ही आकर्षण हैतहो लयणहो उप्परि गिरिवरम्मि, चूड़ामणि णं मउडहो सिरम्मि। 4.4.4 . हाथी की रीढ़ को चढ़ाए हुए चाप के समान कहना उसके शक्तिशाली रूप को चित्रित करता है . चडावियचावसमुण्णय वंसु। 4.6.6 विद्याधरों को चन्द्रमा के समान सुन्दर और सूर्य के समान तेजस्वी कहना निश्चय ही सार्थक है ससिकंतदिवायरपउरधाम। 5.4.2 वैराग्य होने पर करकण्ड का स्त्रियों को तृणवत् गिनना सहज है तिणसमउ गणिवि अंतेउराइँ। 10.23.10 रूपक अलंकार का प्रयोग भी प्रस्तुत काव्य में स्थान-स्थान पर बड़ा भव्य एवं Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 39 उत्कर्षमय है। यथा- प्रथम सन्धि के 6ठे कड़वक में पद्मावती को देखने पर उसे कामरूपी वृक्ष की एक फली हुई डाल कहना निसन्देह किसी विशेष अभिप्राय से आपूरित है और वह अभिप्राय है काम-विमुग्ध होने का। तभी तो काम की डाल को फली-फूली कहकर यौवन से गौरवान्वित बताया गया है कामविडविपरिफलियडाल। 1.6.5 इसी प्रकार शरीर पर तृणवन का आरोप उसकी क्षणभंगुरता को अभिव्यक्त करने के लिए सार्थक प्रयोग है कोहाणलु सामहि सामिसाल, मा पसरउ तणुवणे सयलकाल। 2.4.7 ___ - क्रोध की अग्नि से यह स्वतः भस्म हो सकता है। भगवान् जिनेन्द्र की स्तुति में उन्हें सर्वशक्तिवान् कहकर नमन करना सांसारिक जीव को उचित ही है, क्योंकि वे कर्मरूपी वृक्ष को काटनेवाले कुठार हैं- 'कम्मविड विछिंदण कुठार'। पापरूपी भुजंग को दमन करनेवाले दिनेश हैं- 'पावतिमिरफेडणदिणेस'। रागरूपी भुजंग के दमन करने के लिए मंत्र हैं- 'राय भुवंगमदमणमत्तं'। मदनरूपी ईख की पिराई के लिए उत्तम यंत्र हैं- 'मयणइक्खुपीलणसुजंत्त'। सज्जनों के मनरूपी सरोवर के राजहंस हैं- 'भवियणमणसर रायहंस'। इन सभी अमूर्त का मूर्तिकरण द्रष्टव्य है। इसी प्रकार 9वीं सन्धि के 18वें कड़वक में मुनि शीलगुप्त को क्रोधरूपी अग्नि के बुझाने के लिए मेघ कहना- ‘कोहाइजलणविद्दमणमेह'। कामरूपी किरात के हृदय के शल्य- 'कामकिरायहो हिययसल्ल'। मोहरूपी भट को पराजित करने के लिए मल्ल- मोहभडहो पडिखलणमल्ल- में भी अमूर्त का मूर्तिकरण पूज्य सन्दर्भ में सटीक है। ऐसे ही धर्मरूपी वृक्ष को पोषित करने हेतु व्रतरूपी जल से सींचना अतीव सारगर्भित है धम्मतरु वयजलइँ सिंचियउ, वड्ढेइ सुत्थियउ। धर्म और तपश्चरण की स्थिति में इनका प्रयोग बड़ा प्रेरक और उपदेशात्मक है, यथा- मुक्तिरूपी वधू- ‘सासयवहु' (9.23.10), चिन्तारूपी अग्नि- 'चिंताणल' (10.6.4), कर्मरूपी भुजंग- ‘कम्मभुवंगम' (10.23.8) एवं निर्वाणरूपी विलासिनी'णिव्वाणविलासिणि' (10.25.7)। अस्तु, निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि करकण्डचरिउ की काव्य-भाषा परिनिष्ठित Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 अपभ्रंश है। सौन्दर्य के विविध उपादानों का समुचित प्रयोग करके उसके कवि ने उसे भाव और परिस्थिति के अनुरूप बनाकर अपने प्रबन्ध को सामान्य सहृदय के लिए भी सहज तथा सरस बना दिया है। मुहावरों और सभी प्रकारेण सार्थक शब्दों के प्रयोग से उसे जीवन्त बनाने का सफल प्रयास किया है। शब्द की लक्षणा-व्यंजना शक्तियों के द्वारा उसमें अर्थ-चमत्कार भरा है तो सादृश्यमूलक अलंकारों के नूतन तथा मौलिक प्रयोगों से उसके सौष्ठव को उन्नत कर दिया है। विविध भावों, अनुभावों, स्थितियों एवं दृश्यों के चित्रण में उसकी काव्य-भाषा सर्वत्र सशक्त एवं समृद्ध बनी है। सचमुच मुनि कनकामर वीतरागी महापुरुष ही नहीं, काव्य और काव्य-भाषा के मर्मज्ञ विद्वान् और मनीषी भी हैं। करकण्डचरिउ, कवि कनकामर, सम्पादक- डॉ. हीरालाल जैन, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली। 49-बी, आलोक नगर आगरा - 282 010 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 अक्टूबर 2003-2004 41 अपभ्रंश के जैन रासा-काव्य परम्परा और प्रयोग __- डॉ. गदाधर सिंह ‘रास' के लिए रास, रासो, रासक, रासु, रासड, रासा आदि अनेक पयार्यवाची शब्द प्राप्त होते हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार जिनमें नरोत्तम स्वामी मुख्य हैं, वीर-रसपूर्ण काव्य को ‘रासो' और वीर रस से भिन्न भावनाओं को वहन करनेवाले काव्य को 'रास' कहते हैं। ‘रास और रासान्वयी काव्य' के सम्पादक-द्वय सर्वश्री डॉ. दशरथ ओझा एवं दशरथ शर्मा ने नरोत्तम स्वामी के मत से असहमति व्यक्त करते हुए कहा है कि- "रास, रासक और रासो एकार्थवाची हैं। इनमें कोई भेद नहीं।' इन विद्वानों ने अपने निर्णय का आधार ‘भरतेश्वर बाहुबलीरास', रेवंतगिरि रास', 'नेमिरास', 'आबूरास', 'कलि रास', 'चन्दनबाला रास', ‘समरा रास' आदि को बनाया है जिनमें रासहं, रासउ, रासो, रास, रासक आदि शब्द किसी विशेष भावना का द्योतन न कर सामान्य अर्थ में ही व्यवहृत हुए हैं। इन दोनों मतों में सम्पादक-द्वय का सिद्धान्त अधिक परिपक्व प्रतीत होता है। रास-परम्परा का प्रारम्भ अपभ्रंश-युग से बहुत पूर्व ही हो चुका था। इसका उल्लेख 'अग्निपुराण', 'विष्णुपुराण', 'भागवतपुराण' आदि पुराण-ग्रन्थों में प्राप्त होता है। इस समय तक अपभ्रंश में साहित्यिक रचनाओं का प्रणयन प्रारम्भ नहीं हुआ था। इन पुराण-ग्रन्थों में नृत्य एवं गान के अर्थ में 'रास' प्रचलित थे। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 . अपभ्रंश भारती 15-16 रास' शब्द का उद्भव कब हुआ और इसका सबसे प्राचीनतम उल्लेख किस ग्रन्थ में हुआ है, इसका उत्तर देना बड़ा कठिन है। बाण के हर्षचरित' में रासक पदों का उल्लेख हुआ है अश्लील रासक पदानि गायन्त्यः॥ हर्ष के जन्म के समय स्त्रियों द्वारा अश्लील रासक-पदों का गायन हुआ था। इन अश्लील पदों को सुनकर विट ऐसे प्रसन्न हो रहे थे मानो उनके कानों में अमृत चुवाया जारहा हो। इस कथन से यह कहा जा सकता है कि ये रासक-पद अश्लीलता की सीमा तक पहुँचे हुए शृंगार-रसपरक होते थे। सम्भव है, कुछ ऐसे भी रासक पद हों जो अश्लील न हों, किन्तु ये गेय अवश्य थे इसमें सन्देह नहीं। ‘हर्ष' में 'रासक' को 'मण्डली-नृत्य' के अर्थ में भी ग्रहण किया गया है। हर्ष के जन्म के समय रास-मण्डलियाँ घूम-घूमकर नृत्य करती चल रही थीं। उनके घूमने के समय ऐसा लग रहा था मानो आवत-समूह घूम रहा हो- . सावर्त इव रासक मण्डलैः॥' 'हरिवंश पुराण' में "हल्लीसक क्रीड़ा' का उल्लेख ‘मण्डल-नृत्य' के रूप में हुआ है। शरद् ऋतु की शुभ्र ज्योत्स्ना को देखकर कृष्ण के हृदय में 'हल्लीसक नृत्य' करने की इच्छा जगती है और इस प्रकर गोपियों के साथ वे विविध प्रकार की क्रीड़ाएँ करते हैं तास्तु पंक्तीकृताः सर्वा रमयन्ति मनोरमम्। गायन्त्यः कृष्णचरितं द्वन्द्वशो गोप कन्यकाः। एवं स कृष्णो गोपीनां चक्रवालैरलंकृतः। शारदीषु स चन्द्रासु निशासु भुभुदे सुखी॥ इसी क्रीड़ा को 'हल्लीसक' कहते हैं क्योंकि हल्लीसक में भी मण्डली नृत्य होता है। 'रास' के लिए 'हल्लीसक' शब्द का प्रयोग अन्य किसी भी पुराण-ग्रन्थ में प्राप्त नहीं होता। वात्स्यायन के 'कामसूत्र' में इसका उल्लेख अवश्य मिलता है। कामसूत्र में 'हल्लीसक' के साथ-साथ ‘रासक' शब्द भी प्रयुक्त है हल्लीसक क्रीडनकैर्गायनैयनैर्लाटरासकैः। रागलोलार्द्र नयनैश्चन्द्रमण्डल वीक्षणैः॥ इसकी टीका यों दी गई है "हल्लीसक क्रीडनकैरिति। हल्लीसक क्रीडनं येषु गीतेषु।" Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 यथोक्रम मण्डलेन य यत्स्त्रीणां नृत्तं हल्लीसकं तु तत्। नेता तत्र भवेदेको गोपस्त्रीणां यथा हरिः। लाट रासकैरन्योन्यदेशीयैः। तेषां अत्यत्वाद्गीतविशेषणमेतत्॥ इस टीका से ज्ञात होता है कि 'हल्लीसक' में स्त्रियाँ मण्डल बनाकर नृत्य करती थीं। 'जय मंगला' की इस टीका को आचार्य हेमचन्द्र ने अपने ‘अभिधान चिन्तामणि' नामक ग्रन्थ में उद्धृत किया है। उन्होंने अपने ‘देशीनाममाला' में 'हल्लीसक' का अर्थ 'रासक' भी बताया है। भोज के 'सरस्वतीकण्ठाभरण' के अनुसार 'हल्लीसक नृत्य' तालबन्धविशेषयुक्त 'रास' कहलाता था। तद्विदं हल्लीसकमेव तालाबन्धविशेषयुक्तं रास एवेत्युच्यते। 'सरस्वती कण्ठाभरण' के टीकाकार शंकर ने लिखा है अष्टौ षोडशद्वात्रिंशद्यत्र नृत्यन्ति नायकाः। पिण्डीबन्धानुसारेण तन्नृतंरासकं स्मृतम्॥ - अर्थात् आठ, सोलह या बत्तीस मनुष्य जहाँ पिण्डी-बन्ध बनाकर नृत्य करें वही 'रास' कहा जाता है। 'हरिवंश' के बाद 'विष्णु पुराण' में रासलीला का विस्तृत वर्णन है। उस समय तक 'रास-नृत्य' का पूर्ण विकास हो गया होगा। इस पुराण में शरद की शुभ्र रजनी में कृष्ण का गोपियों के साथ 'रास-मण्डल' बनाकर नृत्य करने का बड़ा भावपूर्ण चित्रण हुआ है। इस नृत्य में प्रत्येक प्राणी का हाथ कृष्ण के हाथ में रहता था हस्तेन गृह्य चक्रकां गोपीनां रासमण्डलम् । चकार तत्कर स्पर्श निमीलतंदृगं हरि॥' नृत्य के साथ-साथ गीत भी इसकी विशेषता थी रास गेयं जगौ कृष्ण। ‘हरिवंश पुराण' के 'हल्लीसक' और 'विष्णु पुराण' की रासलीला का व्यापक और विस्तृत वर्णन श्रीमद्भागवत् की 'रासपञ्चाध्यायी' में हुआ है।' आगे चलकर भी रास को नृत्य-विशेष के ही अर्थ में समझा जाता रहा। 'वीसलदेव रासो' में रास में गीत, वाद्य Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 अपभ्रंश भारती 15-16 तथा नृत्य-- तीनों के उपयोग की बात कही गयी है सरसती सामरणी करउ हउ पसाउ। रास प्रगासउँ बीसल-दे-राउ ।। खेलाँ पइसइ माँडली। आखर आखर आणाजे जोड़ि। xxx गावणहार मांडइ र गाई। रास कइ (सम) यह बँसली बाई॥ ताल कइ समचइ घूघटी। माँहिली माँडली छीदा होइ॥ बारली माँडली . माधणा। रास प्रगास ईणी विधि होइ।। इस विवेचन से स्पष्ट है कि 'रास' एक प्रकार का लोक-नृत्य था जिसमें मण्डली बाँधकर स्त्री-पुरुष वाद्य की ताल पर गीत के साथ नृत्य करते थे। आज भी 'संथाल-नृत्य' और ‘भाँगड़ा-नृत्य' इसी प्रकार के नृत्य विशेष हैं। लोक-मानस का झुकाव इस नृत्य विशेष की ओर अधिक देखकर साहित्य ने एक विशेष विधा के रूप में इसे स्वीकार कर लिया और कालान्तर में यह भाव-विशेष की सीमा में न बँधकर विविध भावों का समर्थवाहक बना। अतः ‘रास' का उद्भव विशुद्ध साहित्य से न होकर लोक-नृत्य से हुआ है, यह निर्विवाद है। साहित्य और काव्य शास्त्र में 'रास' को तीन अर्थों में ग्रहण किया गया है- 1. नृत्य के अर्थ में, 2. रूपक-भेद के रूप में और 3. छन्द-विशेष के रूप में। 'कर्पूरमंजरी' (4.10) में 'दण्डरास' का और ‘उपदेश रसायन रास' में 'तालरास' और 'लउडरास' का उल्लेख हुआ है तालरासु विदिति न रयणिहिं। दिवसि वि लउडारसु सहुं पुरिसिहि॥" चौदहवीं शताब्दी में लिखित 'सप्तक्षेत्रि रासु' में दो प्रकार के रास का वर्णन हैताला रास और लकुट रास। 'ताला रास' भाटों द्वारा पढ़ा जाता था और ‘लकुट रास' नृत्य के साथ-साथ क्रीड़ित होता था। सम्भव है, इसमें दो छोटे-छोटे डण्डे भी रहते हों। तीछे तालारास पडइ बहु भार पढ़ता। अनइ लकुट रास जोहइ खेला नाचंता ।। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 45 समरा रास (सं. 1376) द्वारा ज्ञात होता है कि 'लकुट रास' में गीत-नृत्य के साथ अभिनय भी होता था जलवटु नाटकु नवरंग ए रास लउड रास ए।" नृत्य करते समय नृत्यांगनाओं की घाघरी में लगे हुए घुघरू झमक-झमक उठते थे खेला नाचइ नवल परे घाघरि रवु झमकइ। अचरिउ देषिउ धामि यह कह चित्तु न चमकइ॥4 इस प्रकार 'रासक' नृत्य के एक भेद के रूप में साहित्य में गृहित था। इसी का क्रमश: विकास हुआ और आचार्य हेमचन्द्र के समय में आकर इसने 'गेय काव्य' की प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली। आचार्य हेमचन्द्र ने 'रासक' को अपने ‘काव्यानुशासन' में गेय काव्य के अन्तर्गत स्थान दिया है। उनका 'रासक' से तात्पर्य सम्भवत: नाटकों के बीच गाये जानेवाले 'गीतों से था। आचार्य श्री ने 'माणिका', 'रामाक्रीड' आदि गेय उपरूपकों के अभिनय के लिए 'भाष्यते' शब्द का प्रयोग किया है ऋतुवर्णन संयुक्तं रामाक्रीडंतु भाष्यते॥5 'सन्देश रासक' में भी ‘भासियई' शब्द आया है जिसकी व्याख्या में कहा गया है“वस्तुतः भाँडों द्वारा नौटंकियों में गाये जानेवाले गीतों के लिए 'रासक' शब्द प्रयुक्त हुआ है।' आचार्य क्षेमेन्द्र ने ‘रासक' का अर्थ ग्वालों की क्रीड़ा तथा भाषा में शृंखलाबद्ध रचना होना लिखा है क्रीडासुगोदुदामशृंखलिके॥" हेमचन्द्र के शिष्य रामचन्द्र ने 'नाट्य दर्पण' में 'रासक' का लक्षण हेमचन्द्र के लक्षण से कुछ भिन्न रूप में प्रस्तुत किया है, किन्तु उन्हें भी उसका नृत्य-गीतवाला रूप मान्य है षोडशं द्वादशाष्टौ वा यस्मिन् नृत्यन्ति नायिकाः। पिण्डी बंधादि विन्यासे रासकं तदुदाहृतम। पिण्डनात् तु भवेत पिण्डी गुम्फनाच्छंखला भवेत् । भवेनाद् भेद्यको जातो लता जालापनोदतः। कामिनीभिर्गुवीमर्तुश्चेष्टितं यत नृत्यते। रामाइवसन्तभासाद्य स शेषो नाट्यरासकः॥ 'रासक' को रूपक का एक भेद मान जाता रहा है। भरत के 'नाट्यशास्त्र' में लास्य-नृत्य के दस अंगों का उल्लेख तो है, किन्तु उनमें 'रासक' का उल्लेख नहीं है Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 अपभ्रंश भारती 15-16 गेयपदं स्थित पाठ्यभासीनं पुष्पगण्डिका । प्रच्छेदकत्रिमूढारंत्यै सैन्धवं च द्विमूढकम् ॥ उत्तमोत्तमकं चैव उक्त प्रत्युक्तमेव च । लास्ये दमविधं ह्येतदङ्गनिर्देश लक्षणम् ॥ 'अग्निपुराण' (अध्याय - 328) नाटक के 27 भेदों में रासक का उल्लेख हुआ किन्तु पुराणकार ने उसकी व्याख्या या उसका कोई लक्षण वहाँ प्रस्तुत नहीं किया । 'दशरूपक' की 'अवलोक टीका' में नृत्य के सात भेदों- डोम्बी, श्री, गदितं, माण, माणी, प्रस्थान, रासक-इनमें रासक का उल्लेख हैं किन्तु इसे रूपक के भेद के रूप में नहीं लिया गया है। अभिनवगुप्त की 'अभिनव भारती' में भी 'रासक' का सम्बन्ध नृत्य - गीत से जोड़ा गया है, किन्तु वहाँ भी इसे उपरूपक नहीं माना गया है। आगे चलकर 'रासक' को उपरूपक के भीतर परिगणित कर लिया गया। आचार्य विश्वनाथ ने स्पष्ट रूप में 'रासक' को उपरूपक के भीतर स्थान दिया है। 'साहित्य दर्पण' में उपरूपक के 18 भेद माने गये हैं तोटक, नाटिका, सट्टक, शिल्पिक, कर्ण, दुर्मल्लिका, प्रस्थान, माणिका, माणी, गोष्ठी, हल्लीसक, काव्य, श्री, गदित, नाट्यरासक, रासक, उल्लोप्यक और प्रेक्षण | 'रासक' एक छन्द-विशेष के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है। आचार्य हेमचन्द्र ने इसका लक्षण प्रस्तुत करते हुए लिखा है- दामात्रानो रासके दै अर्थात् रासक छन्द में 18 मात्रा + ल ल ल= 21 मात्राएँ होती हैं और 14 पर यति होती है । 'रासक' से मिलता-जुलता एक. 'आभाणक' छन्द भी है जिसमें भी 21 मात्राएँ होती हैं। प्रारम्भ में ये दोनों एक ही छन्द थे, किन्तु बाद में ये भिन्न-भिन्न हो गए । 'सन्देशरासक' में इन्हें अलग-अलग बताया गया है। 'रासक' छन्द 'सन्दर्भ रासक' का मुख्य छन्द है और इसका तृतीयांश इसी छन्द में लिखा गया है। ऐसा ज्ञात होता है कि प्रारम्भ में 'रासक' नामधारी सभी काव्य ग्रन्थ इसी छन्द में लिखे जाते थे, किन्तु कालान्तर में जब यह विशेष काव्य रूप बन गया तब छन्द का बन्धन ढीला हो गया और यह भिन्न-भिन्न छन्द में रचा जाने लगा । श्री जिनदत्त सूरि की 'चर्चरी' में 21 मात्राओं का रासक छन्द प्रयुक्त है किन्तु उन्हीं का 'उपदेश रसायनरास' 16 मात्राओं के 'पञ्झटिका' छन्द में है। इसी प्रकार 'बीसलदेव रास' में भी किसी अन्य गेय छन्द का प्रयोग है। विरहाङ्क ने अपने ‘वृत्तजातिसमुच्चय' (4137, 38 ) में दो प्रकार के रासक छन्द माने हैं- प्रथम कई द्विपदी अथवा विस्तारित के योग से रासक बनता है और अन्त में 'विचारी' होता है अथवा दूसरे में अडिल्ल, दोहा, घत्ता, रड्डा अथवा ढोला छन्द हुआ करते हैं। स्वयंभू ने (स्वयंभू छन्दस 8.42 ) में रासक का लक्षण देते हुए लिखा है कि जिस काव्य में घत्ता, हड्डणिया, पद्धडिया तथा दूसरे सुन्दर छन्द आवे तथा जो जनसाधारण को मनोहर Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 से प्रतीत हो, वह रासाबन्ध है। इसका तात्पर्य यह है कि 'रासक काव्य' छन्द - विशेष के बन्धन मुक्त गए थे और उनमें विविध प्रकार के छन्द प्रयुक्त होने लगे थे । प्रारम्भ में इन काव्यों का कलेवर छोटा होता था और इसी कारण ये अभिनेय भी होते थे, किन्तु आगे चलकर इनका कलेवर बड़ा हो गया और चरित-ग्रन्थों से स्पर्धा करने लगे। फलतः चरित-ग्रन्थों की तरह ये भी खण्डों में विभाजित होने लगे और इनमें विभिन्न छन्द स्वच्छन्दता से प्रयुक्त होने लगे। 'पृथ्वीराजरासो' इसी प्रकार का 'रास काव्य' है । जैन रासा - साहित्य 47 रासा - साहित्य का महत्त्व जैन आचार्यों एवं कवियों के लिए कितना था, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि दसवीं से लेकर अठारहवीं शताब्दी तक सैकड़ों की संख्या में रास-ग्रन्थों की रचना हुई है। यदि दिगम्बर और श्वेताम्बर विद्वानों द्वारा लिखित विभिन्न भाषाओं के सभी रास-ग्रन्थों का आकलन किया जाये तो उनकी संख्या 1000 से अधिक होगी। श्वेताम्बर कवियों द्वारा रचित अधिकांश रास-काव्य प्रकाश में आ गए हैं किन्तु दिगम्बर विद्वानों के रास-काव्य अभी भी बेठनों में बँधे सुधी समीक्षकों की प्रतीक्षा में हैं । जैन कवियों द्वारा लिखित रास-काव्य-परम्परा का प्रथम पुष्प कौन है, यह बताना आज बड़ा कठिन है। आचार्य देवगुप्त के 'नवतत्त्व प्रकरण' के भाष्य में भाष्यकार अभयदेव सूरि (सं.- 1128) ने दो रास-ग्रन्थों की सूचना दी है अनयोश्च विशेष विधिर्मुकुट सप्तमी सन्धि बान्ध माणिक्य | प्रस्तारिका प्रतिबन्ध रासाकाम्यामवसेय इति ।। " अर्थात् चतुर्दशी का भक्त श्रावक 'मुकुट सप्तमी' एवं 'माणिक्य प्रस्तारिका' नामक रासो काव्यों का सेवन करें। श्री अभयदेव सूरि का समय अनुमानतः वि. सं. 1167 के आस-पास है । अतः इन दोनों रासो काव्यों की अवस्थिति 11वीं शताब्दी में रही होगी । उपदेश रसायन रास उपलब्ध जैन रास - काव्यों में सबसे पहली जो रचना प्राप्त होती है वह है- उपदेश रसायन रास। 2" इसके रचयिता श्री जिनदत्त सूरि हैं। ये श्री जिनवल्लभ सूरि के शिष्य थे। उपदेश रसायन रास का रचना काल विक्रम सम्वत 1171 है। इसमें कुल 80 छन्द हैं। श्री जिनदत्त सूरि संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश तीनों के विद्वान थे। इनकी तीन रचनाएँ उपलब्ध हैं- 1. उपदेश रसायन रास, 2. काल स्वरूप कुलक तथा 3. चर्चरी । ग्रन्थ की समाप्ति पर कवि ने कहा है कि जिनदत्त कृत इहलोक तथा परलोक के लिए सुखकारी रसायन को जो श्रवणरूपी अंजलि से पीते हैं, वे मनुष्य अजर-अमर हो जाते हैं Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 इह जिणदत्तु वएस रसायणु इह-परलो यह सुक्खह भायणु । कण्ण जलिहि पियंति जि भव्वइं ते हवंति अजरामर सव्वई ।। 80 ।। इस रास में पञ्झटिका-पद्धटिका छन्द का प्रयोग हुआ है। अम्बा देवी रास एवं अन्तरंग रास अपभ्रंश भारती 15-16 ग्यारहवीं शती में लिखित इन रास ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है किन्तु इन ग्रन्थों के अवलोकन का सौभाग्य अभी तक किसी को प्राप्त नहीं हुआ है। बारहवीं - तेरहवीं शती राससाहित्य रचना के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इस काल में विविध भावनाओं से समन्वित अत्यन्त सुन्दर-सुन्दर रास-काव्यों का प्रणयन जैन कवियों ने किया। इनमें भरतेश्वर बाहुबलि घोर रास (वज्रसेन सूरि, वि.सं. 1241 बुद्धिरास, शालिभद्र सूरि ), चन्दबालारास (कवि आसगु, वि.स. 1271 लगभग), नेमिनाथ रास ( सुमति गणि) इत्यादि महत्त्वपूर्ण हैं। 18वीं शती तक रास - काव्यों के प्रणयन की धारा अनवरत रूप से प्रवाहित होती रही। इन काव्यग्रन्थों का महत्त्व कथ्य की दृष्टि से तो है ही, भाषा एवं शिल्प के स्वरूप के अध्ययन की दृष्टि से भी बहुत अधिक है। जैन रासा - काव्यों का जीवन-दर्शन जिस प्रकार राजाश्रित कवियों ने अपने आश्रयदाताओं की प्रशंसा में रासो और चरित-ग्रन्थों की रचना की है, उसी प्रकार जैन मुनियों ने भी अपने धार्मिक सिद्धान्तों की व्याख्या करने, धार्मिक पुरुषों के चरित- गान द्वारा धर्म का वातावरण निर्मित करने तथा . अपने तीर्थ-स्थानों के प्रति भक्ति-भावना बढ़ाने के उद्देश्य से इन रासो-ग्रन्थों की रचना की है। ये रासो-ग्रन्थ ऐतिहासिक भी हैं और कल्पना - प्रसूत भी, किन्तु कल्पनाजन्य रास ग्रन्थों की संख्या अत्यल्प है। जैन मुनियों एवं कवियों ने धार्मिक और पौराणिक चरित्रों को आधार बनाकर ही अधिकांश रासो ग्रन्थों का प्रणयन किया है। पौराणिक और ऐतिहासिक चरित्र को आधार बनाकर जो रास ग्रन्थ लिखे गए हैं उनमें बाहुबलि और नेमिनाथ पर रचित रचनाओं की संख्या अधिक है। इन रासा -ग्रन्थों में मानव हृदय को स्पन्दित करने की जो क्षमता है वही इनकी लोकप्रियता का आधार है । प्रारम्भ में इन रासा - काव्यों का कलेवर क्षीण हुआ करता था । सम्भवतः अभिनेयता को दृष्टि में रखकर ही ऐसा किया जाता था । ये रास मन्दिरों में नृत्य-गीत के साथ अभिनीत होते थे, किन्तु आगे चलकर बड़े-बड़े रास-काव्य लिखे जाने लगे। इस प्रकार रास काव्यों Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 49 में कवि की दृष्टि यद्यपि धार्मिक एवं नैतिक उपदेश देने पर अधिक रहती थी, फिर भी चरित्रों के मनोवैज्ञानिक पक्षों के उद्घाटन की ओर भी वह कम सजग नहीं रहती थी। इस कारण ये रास काव्य चरित-काव्यों के अत्यधिक निकट आ गए। कुल मिलाकर विषय-सुख की नि:सारता सिद्धकर वैराग्य एवं मोक्ष की ओर मनुष्य के मन को उन्मुख करना इन रास काव्यों का लक्ष्य है। चरित्र ही जीवन है और संसाररूपी विषय-सिन्धु से पार करने के लिए धर्म ही सुदृढ़ जलयान है। धर्म आत्मा का स्वभाव है और इस स्वभाव को प्राप्त करना ही ज्ञान, ध्यान एवं तपश्चरण का सार है। रत्नत्रय को धारण कर आत्म-कल्याण की साधना की ओर अग्रसर करने की प्रेरणा प्रदान करना ही इन रासा ग्रन्थों का लक्ष्य है। . दर्प का वह स्वर जो हेमचन्द्र के व्याकरण में सुनाई पड़ा था, उसकी प्रतिध्वनि भी इन रासा ग्रन्थों में सुनाई पड़ती है परस आस किणि काण कीजइ, साहस सइंवर सिद्धि वरीजइ। हीउँ अनय हाथ हत्थीयार, एहजि वीर-तणउ परिवार ॥2 - दूसरों की आशा क्यों की जाय? साहस से स्वयं ही सिद्धि को वरण करना चाहिए। अनय (अन्याय) के विरुद्ध लड़नेवाला हृदय और हाथ में हथियार ही तो वीरों का परिवार होता है। आसक्तिपूर्ण मानव को वीरत्व एवं नैतिकता के खुले वातावरण में सांस लेने की प्रेरणा ये रासा-ग्रन्थ देते हैं। शृंगार की पंकिल भूमि से ऊपर उठकर शान्ति की मधुमति भूमिका में आत्मा को प्रतिष्ठित करना ही रासोकारों का उद्देश्य है। रासा और रासान्वयीकाव्य, सं.- डॉ. दशरथ ओझा और दशरथ शर्मा, प्रकाशकनागरी प्रचरिणी सभा, काशी, सं. 2016, पृष्ठ-2 हर्षचरित, बाणभट्ट, प्र.- निर्णय सागर प्रेस, मुम्बई, पंचम संस्करण, पृष्ठ-132 वही, पृष्ठ-130 हरिवंश, 20.25, 35 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 11. 12. 13. 14. 15. कामसूत्र- जयमंगला टीका, संपा.- देवदत्त शास्त्री, प्र.- चौखम्भा संस्कृत सिरीज, वाराणसी, 1964, ईसवी, पृष्ठ-377 वही, श्री विष्णुपुराण 5.13.50 वही, 5.13.51 श्रीमद्भागवत, स्क. 10, अध्याय-3, श्लोक-20 बीसलदेव रासो, नाल्ह, संपा.-सत्यजीवन शर्मा, प्र.-नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, पृष्ठ-5 उपदेश रसायन रास, जिनदत्त सूरि, संगृहीत-रास और रासान्वयीकाव्य प्र.- नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, पृष्ठ-8 सप्तक्षेत्रि रासु- प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह, पृष्ठ-52 समरारास-वही, पृष्ठ-36 वही, काव्यानुशासन, हेमचन्द्र, 8.4 हिन्दी साहित्य का वृहत् इतिहास, सम्पादक- डॉ. राजबली पाण्डेय, प्रकाशकनागरी प्रचरिणी सभा, काशी, प्रथमावृत्ति, पृष्ठ-414 अनेकार्थ संग्रह-कोष, हेमचन्द्र नाट्यदर्पण, प्र.-ओरियण्टल इन्स्टीट्यूट, बड़ौदा- 1929 ई., पृष्ठ-214 नवतत्त्व प्रकरण भाष्य, अभयदेव सूरि, पृष्ठ-51 अपभ्रंश काव्यत्रयी, सं.- ला.म. गाँधी, प्रकाशक- ओरियण्टल इंस्टीट्यूट, बड़ौदा, सन् 1927 ई. में संकलित रास और रासान्वयी काव्य, सम्पादक- डॉ. दशरथ ओझा और डॉ. दशरथ शर्मा, प्रकाशक- नागरी प्रचरिणी सभा, काशी, सं.-2016 पृष्ठ-61 भरतेश्वर बाहुबलि रास, शालिप्रभप्रसूरि, पद संख्या-106 17. 18. 19. 20. 22. अध्यक्ष, स्नातकोत्तर भोजपुरी विभाग वीर कुँवरसिंह विश्वविद्यालय, आरा, बिहार Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37949 Rait 15-16 3706 2003-2004 51 LORD KRISHNA IN JAIN-KRISHNA KATHA LITERATURE with special reference to Rițțhanemi Caria Dr. Yogendra Nath Sharma 'Arun' LORD KRISHNA IN JAIN-KRISHNA-KATHA-LITERATURE with special reference to Rițşhanemi Caria There is no doubt that the ancient culture and tradition of learning in India, has shown light to the whole world in discovering the human-values. In India, we have two great epics of the world, one is "Ramayana" by Adimahakavi Valmiki and the other is "Mahabharat' by Mahakavi Ved Vyas. Both these epics have a great impact on the Indian society as well as on the whole world, as is characterized by the fact that both of these confine themselves more to external action than to internal feelings. The most important and valuable part of Mahabharat is "Gita-updesh' i.e. teachings of Lord Krishna to Arjuna in the battle field of Kurukshetra, through which, Lord Krishna speaks about the Philosophy of life and the Reality of "Bhakti' "Karma' and "Gayan'. The Incarnation Theory i.e. 'Avatarvad Truly speaking, the theory of Incarnation i.e. 'Avatarvad' is the Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 379421 YT 15-16 foundation- stone of "Bhagvad Gita' which is very important and popularly known part of the Mahabharat. According to this theory of incarnation, Lord Vishnu, incarnates as and when there is "Unrighteousness' i.e. "Adharam' on the earth. Like "Bhagavata' Purna (IX, 24, 56); in "Gita' too, there is a mention of the 'Avtar' i.e. the incarnation of Lord Vishnu. "यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत! अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानंसृजाम्यहम् !!"। i.e."Yada-Yada hi dharmasya galnir bhavati bharta abhyutthanam adharmasya tadatmanam srjamyaham." "Whenever there is a decline of righteousness and rise of unrighteousness, O Bharat (Arjuna), then I send forth (create incarnate) Myself.' According to Hindu-Mythology, "Avatar' means descent. The Divine, comes down on the earthly plain to raise it to a higher level. God descends and man rises. The purpose of the "Avatar' is to inaugurate a new world, a new "Dharma'. By his teaching and example, He shows how a human being can raise himself to a higher grade of life. "Gita' speaks about the cause of 'Avatar' as: "परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्! er sitenuaterfer Fraifa yt-n!!!''2 i.e. ""Paritranaya Sadhunam, Vinasaya cha duskritam. Dharma samsthapanarthaya, Sambhavami yuge-yuge". "For the protection of the good, for the destruction of the wicked and for the establishment of righteousness, I come into being from age to age.' According to Hindu-Mythology, it is the function of God as Vishnu, the protector to establish right, when wrong prevails." This incarnation theory is the basis of all the Hindu-worshippers of Lord Vishnu. This theory of incarnation i.e. "Avatarvad' is so much popular Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 379491 R 15-16 53 throughout India that every human being believes in God Vishnu, taking "Avatar" as when there is unrighteousness on earth. According to Hindu-faith, the Avatar fulfils a number of functions in the cosmic process. The concept is based on the belief that there is no opposition between spiritual life and life in the world. According to "Avatarvad', Lord Vishnu takes birth like an ordinary man on this earth and does "Leela', i.e. actions to establish the "Dharma' with "Truth'. There are ten "Avatars' of Lord Vishnu, the most popular two being Lord Rama and Lord Krishna. "Vishnu Puran' gives the details of Lord Vishnu's Avatar as "Krishna' with the story of Krishna, the son of Shri Vasudeva and Devaki. “ततोऽरिवल जगत्पदम बोधयाच्युत भानुना! dacht ga h e t faxri Elc4-7!!” i.e. ""tatoakhil jagtpadma bodhayachuta bhanuna. Devaki purva mansyayma vibhutam mahatmana." "Then, to fulfil the wishes of world, Lord Vishnu descended on earth as sun, from the womb of Devaki.' "Vishnu Puran' clears that Lord Vishnu Himself comes to earth as the son of Vasudeva and Devaki, but He Keeps them aware of His divine self too: "फुल्लेन्दीवर पत्राभं चतुर्बाहुमुदीक्ष्यतम! spt achaerei ori peranach gc6f97:!!''s i.e. ""Fullendivar patrabham chatur bahumudikshytam. Shrivats vakshasam jatam tustavak dumdubhih." "Like the beauty of bloomed lotus, having four arms and the sign of Shrivats on the chest, when Lord Vishnu descended on earth, Vasudeva prays Him.' The great Indian Philosopher Dr. S.RadhaKrishnan writes "Krishna as an Avatar or descent of the Divine into the human world discloses the condition of being to which the human souls should The birth of the birthless means the revelation of the mystery in the soul of man." Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 379UT SR 15-16 It is worth mentioning here that incarnation of Lord Vishnu in Rama is called "Ansha-avatar' i.e. partial incarnation with only 12 "Kalas' i.e. Degrees or Anshas, while that of Krishna is called "PurnaAvatar' i.e. total incarnation with all the 16 "Kalas' i.e. Degrees or Anshas. Also, Rama is called ""Marayada Purshottam", while Krishna is called ""Leela Purshottam". Both of them, as "Narain' or "Brahma', act as an ordinary human being for the establishment of Dharma and to fight out the evil on the earth. Thus, Hindu-society regards this incarnation theory to be a process of ascent of "Nar' (Human being) to the supreme "Naraina' (the God, i.e. Vishnu) as in Mahabharat (Udyoga-Parva) and afterwards in several books.8 The Mahabharat: Source of Krishna-Katha The great and the oldest, as well as, longest epic poem "Mahabharat' has got its significance not only for India, but for the whole world. The renowned scholar of Indian-Philosophy Monier-Williams speaks very high of this unique epic poem of India- "The great Epic, however, is not so much a poem with a single subject as a vast encyelopaedia or the source of Hindu-Mythology, legendary history, ethics, and philosophy." Though, there are many references, available in Rig Veda regarding Krishnalo, but for the first time, a very vast and detailed description of Krishna has been made in the Mahabharat; wherein Krishna is a friend of the Pandavas; is a successful politician and above all, the incarnation of Lord Vishnu. It is also worth mentioning here that for the first time, a comprehensive life-story of Krishna is made available in "Harivansh Purana', which is a supplement of the epic Mahabharat.11 The lifestory of Krishna is also available in Brahma Purana, Vishnu Purana; Bhagvata Purana; Brahma Vaivart Purana and Agni Purana, though, quite different in all the Puranas. Indeed this oldest epic of India, the Mahabharat has truly been a source of inspiration for Indian-society. The well known and renowned scholar of Hindu-Mythology, C. Raj Gopapachari speaks very high of Mahabharat- ""The Mahabharat discloses a rich civilization and a highly evolved society which, though of an older world, Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 379421 Yra 15-16 55 strangely resembles the India of our own time, with the same values and ideals."12 The Mahabharat portraits Krishna in four main images. (1) the Scholar of Vedas, (2) renowned Politician as well as diplomat, (3) an outstanding Hero of the battle field, (4) outstanding Philosopher and teacher of religion. "वेद वेदांग विज्ञानं बलं चाप्यधिकं तथा! zuri alan fent sentita farge:anmarça!!''13 i.e. "Ved vedang vigyanam balam chapyadhikam tatha. Nranam Lokehiko-anyosti vishishtha keshavadrate.' · All these images have been popular amongst the poets later on, too. The main source of the story of Krishna is definitely the Mahabharat and its supplement called "Harivansh Puran'. A well known scholar of Krishna-Katha Dr. Sarojini Kulshrestha writes in this regard- ""Very detailed description of Sri Krishna has been made in Mahabharat and Harivansh, a supplement of it. Harivansha depicts the early life of Krishna where as in Mahabharat, later half of the life of Krishna is depicted. The whole of Krishna's story is available in "Bhagavat Puran'."14 The Bhagavat Sect accepts Krishna as "Purna-avtar' i.e. total incarnation of Vishnu- "Ta aitohol: : burg 4017 Folej i.e. "Ete Chanshkalah Punsha Krishantu Bhagwan Swayam', where as all other, including Rama, are called "Ansha-avatar' i.e. partial incarnation of Vishnu's. Thus, the story of Krishna has been very widely accepted and depicted in literature in almost all the Indian languages by the poets from time to time. Tradition of Krishna-Katha in Indian Literature Undoubtedly, the origin of Indian Krishna-Katha-tradition is the great epic of Ved-Vyasa's "Mahabharat' and its supplement, called ""Harivansha Puran'. Besides, "Mahabharat', this tradition goes a long way with other "Puranas' like Bhagwata-Purana; Padma Purana; Vishnu Purana; Brahma Purana; Devi Bhagwata; Agni Purana and Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 37942 T 15-16 Brahma-Vaivarta Purana; though most important are the two i.e. Bhagavata Purana and Harivansha Purana. 16 This very rich tradition of Krishna-Katha i.e. the story of Lord Krishna has been honoured and accepted whole-heartedly by the poets krit, Apbharamsa and Hindi, along with all the modern languages in India. The Theory of "Shalaka-Purusha' in Jainism Jainism has a very unique tradition of "Shalaka-Purush', according to which, there are "63' (Sixty Three) most revered and great persons, whom Jains pay their highest regards and offer "PUJA' likewise the supreme god in Hinduism. These sixty three "Shalaka Purush' are as under: 1) 24 Tirthankars: The highest and top most persons. 2) 12 Chakravartees. 3) 9 Baldevas; 9 Vasudevas and 9 Prati Vasudevas. According to this theory, Rama and Krishna are in the gin and 9th set of Baldev, Vasudev and Prati Vasudev, and hence, the life story of these two, became acceptable to the Jain-poets, who took the basis from "Ramayana' and "Mahabharat' but depicted the life-story as per the principles of Jainism with alterations to suit them. Because of this ""'Tri Shasthi-Shalaka-Purush" theory of Jain Religion, the Jains could accept "Rama and Krishna' as their "Pujaya Purush', alongwith Tirthankar Rishabhadev and Tirthankar Mahavira and other twenty two Tirthankars with all the twelve chakravrtees etc. The names of all these sixty three "Shalaka Purushas' are as follows: 24 Tirthankars (1) Rishabh, (2) Ajita, (3) Sambhava, (4) Ahinandan, (5) Sumati, (6) Padmaprabha, (7) Suparshava, (8) Chandraprabh, (9) Suvidhi, (10) Pushapadanta, (11) Sheetal, (12) Shreyansa, (13) Vasupujaya, (14) Vimal, (15) Anant, (16) Dharma, (17) Ashanti, (18) Kuntudhar, (19) Malli, (20) Munisuvarta, (21) Nami, (22) Arishasthnemi, (23) Prashava Nath and (24) Vardhman Mahavir. Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 379991 HR 15-16 12 Chakravaties (1). Bharat, (2) Sagar, (3) Magadh, (4) Sanat Kumar, (5) Shanti, (6) Kuntum, (7) Aar, (8) Shubhom, (9) Mahapadama, (10) Irisen, (11) Jay and (12) Bhramdutt. 9 Baldevas, 9 Vasudevas and 9 Prati Vasudevas in each set of three as follows: 1) Baldevas (i) Aial, (ii) Vijal, (iii) Bhadda, (iv) Suprabh, (v) Sudhan, (vi) Anand, (vii) Nandan, (viii) Padam i.e. Ram, (ix) Balram 2) Vasudevas (i) Tivitha, (ii) Divitha, (iii) Shyambhu, (iv) Purisuttam, (v) Purishsheeh, (vi) Purishpundariya, (vii) Dutt, (viii) Narayan i.e. Laxman, (ix) Krishna. 3) Parti Vasudevas (i) Ashwagreeva, (ii) Tarak, (iii) Merak, (iv) Madhukaitavh, (v) Nishumbh, (vi) Bali, (vii) Prahlad, (viii) Ravan and (ix) Jarasandh. Because of this very unique tradition of these ""TrishasthiShalaka-Purushas", the whole concept of Jain-Rama-Katha and JainKrishna-Katha is changed. Jain poets have accepted both Rama-Katha and Krishna-Katha, but there is very much difference, as compared to that of Ramayana and Mahabharat. This is why, the character of Rama and that of Krishna has been totally different from the Hindu tradition in Jain tradition. Both Rama and Krishna perform Puja i.e. Worship of Lord Rishabh Dev, the first Tirthankar and visit temples as well as other places of Jainworship The Jain Tradition of Krishna-Katha Whatever ethical differences were there, the Jain poets have accepted both Rama-Katha and Krishna-Katha with a sense of deep devotion and made them source of Jain Philosophy, Religion, Society, Politics and Arts in their times. The Jain doctrine of "Ahimsa' i.e. Non-violence, truth i.e. "Satya', Love i.e. "Prem', have been so nicely mixed with the story of Krishna, that the Jain-Krishna-Katha has become totally different to that of the Hindu-Krishna-Katha. Still, it is Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 37949'raf 15-16 very much relevant from the point of view of the History of Indian literature, as well as, the development of Jain Philosophy and Ethics. We have a very rich tradition of Krishna-Katha in Jain literature, but, unforunately, very few books are available today, because, the old manuscripts could not be preserved, when the invaders invaded this country, destroying the treasure of old books and manuscripts. - The oldest known epic, named as "Harivansh-Purana' written by Mahakavi Jinsen in 841 Vikarmi i.e. 784 A.D. Dr. H.C. Bhayani gives a detailed list of Jain tradition of Krishna-Katha literature in Prakrit-Apbhramsa, as well as in Sanskrit as under :17 Work Language 1. Pauma Caryiya Prakrit Not available Prakrit Not available Apbhramsa Author Theme 1. Vimalsuri 1. Ramayana (1st or 3rd cnetury) 2. Harivansha 2. Viaddha 2. Harivamsha (Vidagdha) 3. Bhadda (Bhadra) Harivamsha 4. Bhaddasa Krishna (Bhadrasva) Balachorita Not available Sanskrit Not available Prakrit 5. Pushpandant Harivamsha Uttar Purana Prakrit 6. Coumuha Harivamsha Not available Apbhramsa (Chaturmukh) 7. Jinasen (783-84) Harivansha Harivansa Purana Sanskrit 8. Gunabhadra Harivansa Uttar Purana Sanskrit (C-850) Another Jain scholar Dr. Devendra Kumar Jain also gives a detailed account of Jain-poets, who have written "Harivansha' i.e. the story of Krishna in Sanskrit, Prakrit and Apbhramsa language. 18 (1) Dharmakirti, (2) Shrutakirti, (3) Sakalkirty, (4) Jaisagar, (5) Jinadasa and (6) Mongras wrote epic-poems in Sanskrit named "Harivansha Purana'. Othe Jain-poets viz. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 379491 R 15-16 59 (1) Shri Bhushan, (2) Shubh Chandra, (3) Vadichandra, (4) Jayanand, (5) Vijayagani, (6) Dev-Vijay, (7) Devprabh, (8) Dev Bhadra and (9) Shubh-Vardhan alos wrote epic-poems named "Pandava Purana' in Sanskrit. Some other viz Sooracharya, Udaiprabha, Kirtiraj, Gunvijay, Hem Chandra, Bhoj Sagar, Tilakacharya, Vikaram Narsingh, Harisen and Nemidatta wrote books named "Neminath Charita', also in Sanskrit, depicting the character of Krishna in one or the other way, alongwith Tirthankar Neminath. Jain poets who wrote their epic poems in Prakrit are (1) Ratnaprabh, (2) Guna Vallabh and (3) Guna Sagar. And lastly, the Jain poets; who wrote Jain-Krishna-Katha in Apbhramsa are (1) Mahakavi Swayambhu Dev, (2) Dhawal, (3) Yash-Kirti, (4) Shurta-kirti, (5) Hari Bhadra and (6) Rayeedhu. This clearly goes to establish the popularity and acceptability of Hindu-Krishna-Katha amongst Jains. Apart from this, Mahakavi Jinasen, Gunabhadra, Hem Chandra and Pushpadant are the renowned Jain poets, who have made the "Krishna-Katha' from the Mahabharat, a part of their epic, called ""Mahapuranas", composed in Sanskrit, Prakrit and Apbhramsa. Still, numerous manuscripts, entitled "Harivansha Puuana', "Aristanemi Charit' or "Nemi Charit', "Pandava Purana' and "Pandava Charit' are there in the old treasure of temples and museums throughout India, which need a special and immediate attention of Researchers in India and abroad. Jain Poets and Hindu Krishna-Katha It is notable that the Jain-poets, though accepted the "KrishnaKatha' from the "Mahabharata' and the other "Puranas' such as "Bhagwat Purana' and "Vishnu Purana', made some very vital and important changes in the traditional story and also in the characters. I would like to mention some very very vital changes, that have altered the basic colour and concept of Jain "Krishna-Katha'. (1) The Birth of Krishna According to Hindu-mythology, Lord Krishna was born, as an incarnation of "Vishnu', on the gih day of "Bhadrapada', month in Dark-half i.e., "Astami tithi, Krishna paksha, Bhadrapad masa' in Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 37947 97 15-16 "Dwapar Yug'. This august day is celebrated by the Hindus as ""Krishna Janamastami" throughout India and abroad. But the Jain poet Mahakavi Swayambhu Dev, in his epic "Rithanemi Chariu' has changed this date. “भद्दवहो चंदिणि - बारहमए दिणे सुहिहिं दिंतु अहिमान-सिंह! उप्पणु जगद्दणु असुर विमद्दणु कंस हो मत्था, सूल जिह!!''।" i.e. ""Bhaddavaho chandini-barahmaye dine suhihin dintuahima-sinha. Uppanau jagddnu asur vinaddnu kansaho matha-sool jih". ""Krishna was born on twelfth day of Suklapaksha of Bhadra like a knife in the fore-head of Kansa". Thus, the Jain poets have changed the established fact of Krishna's birth amongst the Hindus. (2) Number of Devaki's Sons According to Hindu-story of Krishna, Devaki, wife of Vasudev and sister of Kamsa, the ruler of Mathura, gave birth to eight sons and Krishna was the last of them i.e. gih son of Vasudev and Devaki, who killed Kamsa.20 But the Jain poets have changed this mythological concepts of Hindu Krishna-Katha, saying that Krishna was the seventh son of Vasudev and Devaki. Mahakavi Pushpadant, in his epic work ""Mahapurana" declares Krishna to be the 7th son of Devaki. “अणत्त लहेप्पिणु वुट्टि सोक्खु, छह चरमदेह जाहिंति मोक्खु! Hry, h3 claş, argca, HEB DHE 49263!!” 78 Tue hi hafa HGR3, ARUT charts at 317413!!21 i.e. ""Annatt laheppinu wudhi sokhu, Chhah charamdeh jahinti mokhu. Sattamu sua hosai vasuava, jar sandhua kansahu dhumkeu". And ""Kanhu masi sattami saja you, maran kankhiru kansnadyahu". ""With pleasure and worldly achievments, Six sons (of Devaki) will attain "Moksha' (Death). The seventh son of Vasudev would kill Kamsa". "Likewise, Swayambhu Dev in his epic "Rithanemi Chariu' accepts this concept of Jain-poets, saying Krishna 7th son of Devaki, Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 39991 yraf 15-16 61 “सत्तमउ तुहारउ रणे खयगारउ, महुराहिव-मगहाहिवहं! Afs-fuifE TUIGETE GETUIGETE ETHş ufers OperaE!!"22 i.e. ""Sattamau tuharau rane khaygarau mahurahiv-magahahivaham. Mahi-nini-rayandadhaham, pattnibandham Tosai pathiu pathavahom." ""O Devaki! Your "seventh' (son) would kill the king of Mathura (Kansa) and Magadh (Jarasandh)". Though, Jain-poets have made so many changes in the traditional story of Krishna from "Mahabharat' and from different "Puranas' of Hindus, but the original source of the story is Mahabharat. Dr. Vishnu S. Sukathankar speaks as- ""These are really speaking, narratives covered by the Mahabharat of Hindus."23 Here, I would like to mention that inspite of their differences with the Hindus and Hindu-mythology, the Jain poets accepted the "Hindu' Names, as well as, most of the episodes of "Mahabharat' in their original form. For example, Swayambhu Dev calls "Krishna' as 'जगद्दणु' (Janardan), 'नारायणु' (Narayana). 'हरि'(Hari) 'गोविंदु' (Govinda), 'विण्हु' (Vishnu), 'वासुएव' (Vasudev), 'उविंद' (Upendra), 'माहव' (Mahava), ATTEST' (Madhusudan). This shows their knowledge of "Mahabharat' and also respect towards Hindu-mythology. Most of the Jain poets wrote in Apbhramas language, which was the language of Hindus, Bodhas, Muslims and Jains. The Jain-religious books have been written in Prakrit- Apbhramsa, which inc different Puranas, charitas, strotas, Aakhayans, Kathas to popularize Jainism by Digamber Jain poets.24 Adi Mahakavi of Apbhramsa: Swayambhu Dev Mahakavi Swayambhu Dev is regarded as "the Adi Mahakavi of Apbhramsa' as Mahakavi Valmiki is regarded ""Adikavi of the world". Though Swayambhu Dev was Jain, but he was not a "fanatic' poet to follow his religion blindly. This is why, he shows great regards to Hindu-religion and Hindu-Gods too. He owes to Goddess "Saraswati', the highest goddess of learing as well as to Hindu scholars as under: Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37792 YR 15-16 "तहिं अवसरि सरसइ धीरवइ! करि कव्वु दिण्ण मई विमलमइ!! इंदेण समप्पियउ वायरणु! रसु भरहेण वासें वित्थ रणु!! fürctur G. Tel. Teta! afstofa 3 richia!! बाणेण समप्पिउ धणधणउ! तं अक्खरडंबरू उप्पणउ!!''25 i.e. "Tahim avasari sarsai deervai, kari kavuv dinnmayin vimalami. Inden samappiyayu vayaranu. Rasu bharhen vasen vitharanu. Pingalen chhand-paya-patharu. Bambhahe damdinihin alankaru Banen samappiu ghanghanau. Tam akhardambaru uppanau". At that time "Saraswati blessed the poet asking to start his poem with that wisdom, given by her to him. Indra gave him Vyakaran (Grammer); Bharat gave him "Rasa', Vyasa taught him to enlarge the story; Pinglacharya gave him metre of the poetry; Bhamah and Dandi taught him "Alankar-shastra'. (figures of speech); Banabhatta gave him the glossary." This shows the greatness of Swayambhu Dev, who pays his best regards to his predecessors for their debt on him, without any reservation or religious bias. Dr. H.C. Bhayani, a renowned critic and scholar says- ""Puspandanta, who along with caturmukha and Swayambhu constitutes the big trio of Apbhramsa poetry, mentions him besides caturmukha, Harsa and Bana, and speaks reverently of him as a great Acarya surrounded by thousands of friends and relatives. "26 Mahakavi Swayambhu Dev has earned highest respect as a Jain-poet by the scholars. Dr. Kailash Chandra Shastri holds him to be "Valmiki' and "Vyas' of Apbhramsa "Ramakatha' and Krishna Katha' respectively, who has his influence upon every poet in Indian-Literature after him.27 Mahakavi Swayambhu Dev is the author of Jain Krishna-Katha-epic ""Rithanemi Chariu", also called "Jain-Mahabharat'. Krishna in Jain Krishna-Katha As already explained, Jain poets accepted "Rama' and "Krishna' as "Shalaka Purush' and not as incarnation of Vishnu, like Hindus. This has made the characters of Rama and Krishna totally different Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 379991 R 15-16 from those of "Ramayana', "Mahabharat' and "Harivansh Purana' or other "Puranas' of Hindu-tradition. But, because the original source of Krishna-Katha is undoubtedly the "Mahabharat', the Jain Poets could not change the basic character of Krishna. Basically Mahakavi Swayambhu Dev has painted the character of Krishna as a "Supernatural Power' having highly divine virtues to protect the common man from evils and sin, side-by-side to destory the wicked elements which make mankind suffer in this world. In his famous epic poem "Rithanemi Chariu', Swayambhu Dev goes to paint a very dynamic character of Krishna and also of Balram, his brother. We find three fold character of Krishna in Jain literature, which includes (1) Childhood actions called the ""Bal-leela", (2) Political advisor of "Pandavas' especially of "Arjun', the beloved friend as well as devotee of Krishna and (3) Diplomatic wisdom of Krishna. Surprisingly, the Jain poets did not touch the actions of Krishna's young age i.e. his love with Radha and other Gopikas of Gokul and also ""Rass-Leela", which has been a prime attraction of KrishnaKatha to the Hindus. I would like to elaborate these three folds of the Krishna's character here giving examples from the epic poem of Mahakavi Swayambu Dev. (1) Childhood Action i.e. "Bal-Leela' of Krishna As I have already explained, Jain poets are of the view that Krishna was born on 12th day of "Bhadra' month in "Bright half i.e. "Shukla Pakasha' and not on the 8th day of "Dark half of the same month. Also, they are of the opinion that Krishna was the "Seventh' son of Devaki, and not the "Eighth' as said in Mahabharat and other Hindu-Puranas. Still, some popular episodes of Krishna's childhood have been depicted by the Jain poet Swayambhu Dev, nearly same as we find them in "Harivansha' or "Bhagwat Purana', which clearly shows the impact of Hindu-Krishna-Katha on Swayambhu Dev. But, Swayambhu Dev in his "Rithanemi Chariu' calls "Kamsa', the ruler of Mathura, as a "disciple' of Vasudev who gave his sister "Devaki' to Vasudev as "Guru-Dakshina'. Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 This relationship of Vasudev and Kamsa is very strange, and it is no where found in "Mahabharat' or in any Hindu Book. Mahakavi Swayambhu Dev says "कुरुवंसुप्पण्णी ससपडिवण्णी देवइ णिय समाण परिगणेवि ! दिज्जइ वएव हो, जिण-पय-सेवहो, कंसे गुरू - दक्खिण्ण भणेवि !!”28 "Kuru-vanshuppanni saspadivanni devai niy saman pariganevi, Dijjai vasuavaho, jin paysevaho, Kamsa gurudakkinn bhanevi". ""Born in Kuru-vansha, Devaki has been given as his sister, to Guru Vasudev, a servant of Jina's feet, by Kamsa as Gurudakshina". i.e. अपभ्रंश भारती 15-16 This is really very typical that "Kansa' being a disciple of Vasudev, first gave his sister to him and afterwards, killed his six sons and alos wanted to kill the seventh son "Krishna', who was saved by Vasudev. As in "Mahabharat' and "Bhagwat Purana', Vasudev took newly born child i.e. Krishna from Mathura to Gokul to replace him with the daughter of Nanda and Yashoda. Same episode is here in "Rithanemi Chariu' by Swayambhu. Here Jain poet Swayambhu hints that child Krishna is nothing but the "Incarnation of Vishu' with all his signs. "सयसीह-परक्कमु अतुलबलु ! सिरि-लच्छण-लंक्षिय-वच्छयलु !! सुहलक्खण लक्खालंकियउ ! विहडेवि पओलि कवाड गउ !! णारायण, चलणं गुट्ठ- हउ ! विहडे वि पओलि कवाड गउ ! ! हरि देप्पिणु लइय जसोय सुय! हलहरू वसुएव कयत्थ किय!!'' 29 ""Sayaseh-parkkamu atul balu. Siri lachhan-lankshiy-vachhyalu. Suhlakkhan-lakkhalankiyau. Atthuttarsaya-vamankiyau. Narayan-chalangutth-hau Vihadevi payoli-kavad gaue Hari deppinu layai jasoy-sua. Halharu vasuava kayathakiya." ""Having power of hundred lions and having sign of Laxmi on his chest with auspicious pictures with 108 names, born Krishna. The doors of the prison were opened by the leg of Narain (Krishna). Then Vasudev took Yashoda's daughter, giving his son. Both Balbhadra and Vasudev were obliged thus." i.e. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37942 Hra 15-16 Jain poet Swayambhu, accepts almost every incident of Krishna's .childhood as depicted in Hindu Puranas, espcially in ""Harivansha" and ""Bhagwat Purana", which is evident from the 5th chapter i.e. "Sarga' of his epic poem ""Rithanemi Chariu". 30 This clearly shows the impact of Mahabharat on Jain-Krishna-Katha. I would like to quote only one famous incident of a demon lady called 'Pootana' sent by Kamsa to kill Krishna from Mathura to Gokul. The demon lady Pootna had posion on her breasts and wanted to kill the baby-Krishna by feeding him. Here, Jain-poet Swayambhu Dev hints at the Supernatural power and Being of Krishna, when the demon lady requested Krishna to forgive her. “वासुएउ वसुएव हो णंदणु! हरि-उविदं-गोविंद जणद्दणु! . पउमणाइ माहव महुसूयण! कंस हो तणिय विज्ज हउं पूयण!! T54 U UW HUISHU Arf! Turqut-au-uht forarfe!!”'31 i.e. "Vasuau vasuavho nadanu, Hari-uvid-govind janaddanu Paumnai mahav mahusuyan, Kansho toniy vijj haun pooyon. Gaiya na aimi, Jami na marahi, thanvan veyan-pasaru nivarahi." "O, Vasudev, son of Vasudev, Hari, Upendra, Govind, Janardana, Padmanath, Madhava, Madhusudana, I am a Vidya, sent by Kansa, don't kill me. I will not return here any more. Forgive me this time, O Lord." This episode goes to prove that Jain Krishna Katha has an impact of Mahabharata to a great extent, though Jainism is opposed to the theory of incarnation. Mahakavi Swayambhu Dev also depicts the famous "Govardhan Leela" in which Krishna saves the local residents of Gokul from the curse of Indra, the god of rains, by holding up the large mountain named 'Govardhan' on his finger. 32 Likewise, 'Swayambhu Dev depicts "Kaliya Naga-leela" in which Krishna kills a dreaded cobra in river yamuna, named "Kaliya Naga" and thus, saves the people.13 Both Balarama and Krishna kill Kamsa at Mathura. Swayambhu Dev takes very much interest in this episode, because Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 Kamsa is a symbol of violence i.e. 'Himsa', the greatest sin on earth and the poet preaches the basic ideal of Non-violence. 66 Thus, we find that there is no much change in the character of Krishna in Jain Krishna-Katha with that of the Mahabharata and Bhagwat Purana, so far the childhood of Krishna is concerned, except some minor changes in poetic-description of the story. Jain poet like Jin Sena, Gunbhadra, Pushpadanta and Swayambhu Dev treat "Jarasandh" as the main enemy of Krishna being 9th "Prati Narayan". 2) Political advisor of the Pandavas After killing Kamsa, the ruler of Mathura, both Balarama and Krishna marry Rewati and Satyabhama respectively. Thus, the first chapter of Krishna's character is over and the second one of a young politician begins. When Jarasandh came to know about the death of his son-in-law Kamsa, through his daughter, the wife of Kamsa, Jarasandh invaded on Krishna to take revange of this killing. Jain Poet Swayambhu Dev, being a strong supporter of 'Ahimsa' i.e. Non-violence, imagines a unique situation here which proves Krishna, a true politician and well-wisher of his fellowmen. When Krishna thought that Jarasandh was very much powerful and the fight with him would prove disastrous for the poor and innocent people of Mathura; Krishna decided to leave Mathura with his followers to Dwarika34. In this way, Krishna saved his men from inevitable destruction and violence too. Here, both Balarama and Krishna lived peacefully in Dwaravati. Thus, Jain poet Swayambhu depicts Krishna as a matured politician, who could save his men from the sure destruction of war. In 'Mahabharat' too, Krishna is not in favour of war and he tries his best best to avoid it. At this stage, Swayambhu Dev brings in Pandavas, who having been deceived in 'gambling', are victims of their treachery. The Pandavas come to Dwarawati and "seek the help" and advice of Krishna. "गए पंडव दारावइहे थिय! गोविदें सुहि पडिवत्त किय!!'' 35 i.e. "Gaye Pandav daravaihe they, govinde suhi padivatta kiy." Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 379991 HR 15-16 67 "Then Pandavas went to Dwarawati and asked Govind to advise them." Here, Krishna comes as a true politician and well-wisher of Pandavas. He sends an emissary to avoid the war between brothers, the Pandavas and Kauravas, but does not succeed in his mission. Once again, Krishna sends a messenger to have Karna back with Pandavas in Kurukshetra-war of Mahabharat. Jain poet treats Krishna as a true diplomat here, when he persists Karna to be with his brothers, rather than with the Kauravas, under the leadership of Duryodhan. Though Karna refuses to oblige Krishna, but this is truly a displomatic approach of Krishna 36 According to Jain Krishna-Katha, the character of Krishna has been of a true Friend, Philosopher and Guide from the beginning to the end of Mahabharata-war. After the war, Krishna pays due respects to everybody from both Camps, whether he is winner or looser and returns to Dwarawati. Krishna, in Jain Krishna-Katha, kills Jarasandh, who also fought in the Kurukshetra-war with Kauravas against Krishna and Pandavas. Because, in Jain tradition of 63 'Shalaka Purushas' Krishna and Jarasandh are 9th Narain and Prati-narain respectively, Krishna kills Jarasandh. ghanto-osa Mie HHA PURA CET HIEVİŞ! 31EF 37 gifUTS AMTE HTET HTEUTS!!??37 i.e. "Kuru-pandav delehin sammattahin ran-ras vahay shanain. Abhittai uttar dahinahin magah mahav sahnain." "After the Kaurava-pandavas war has been fought to an end, Madhava i.e. Krishna killed the king of Magadha, i.e. Jarasandh with his army". Thus, Krishna has become the Hero of Jain-Krishna-Katha which is different from that of the Mahabharata of Hindus, in which Krishna kills Kamsa, the ruler of Mathura. 3) Diplomatic Wisdom of Krishna The Jain tradition of Krishna-Katha, has depicted the character of Krishna in a very strange and different manner, showing him as a Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 'Diplomatic' person, who wants to capture the power from his brother. According to Jain tradtion, Krishna is brother of Nemi, the 22nd Tirthakar in Jain-mythology. When Krishna, after the Kurukshetra-war between Pandavas and Kauravas, returns back to Dwarawati, he realizes that his brother Nemi is much more powerful than him and it would be difficult for him to defeat his brother Nemi to become the ruler, Krishna is very much worried and he plans to divert the thinking of Nemi by hook or by crook. Krishna does praise his brother Nemi to gain his confidence. 68 "मणइ जगद्दणु कवउसणेहउ ! हउ धण्णउ जसु भायरू एहउ!!' "Mani Janaddanu Kavau sanehau have jasu Bhayaru ahau". "I, Janardana, have love towards my brother, whom I consider to be my fortune." 9938 i.e. Thus, praising his brother Nemi, the natural king-designate, Krishna wins his faith and then plays a trick to gain the kingship. According to his diplomatic plan, Krishna puts forth a proposal before his elder brother Nemi, for his marriage. "अहो अहो कामपाल जगसार हो! विज्जइ पाणिगहण कुमार हो!!” " i.e. "Aho aho kampal jagsaraho, Vijjai pani-gahan kumarho." "The Kamadeva, the ultimate aim of the world, is winner and wants to make the Kumar Nemi marry.' "1 On the auspicious day of marriage of Nemi, Krishna sends some persons from the forests, who had very pitiable look. Nemi gets moved and decides to become a Samnyasi. Thus, Krishna gets the throne and Nemi becomes a saint, accepting Jainism. This move of Krishna is considered as his diplomatic win to get the throne, but to me this seems a deliberate attempt of Jain poets to undermine the moral character of Krishna and to elevate the status of Nemi, who is the 22nd 'Tirthankar of Jains'. Thu, we may have a definite conclusion that the Jain-KrishnaKatha-literature by the Jain poets did have an impact of Mahabharata and other Hindu Puranas on it, but due to their religious and mythological tradtions, the Jain poets could not accept Krishna as God or incarnation of Vishu, the Lord of Hindus. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 69 Every Jain-poet takes the story of Krishna from the oldest origin i.e. the Mahabharata and also from Bhagavata-Purana, Vishnu Purana, Brahma Purana etc; but everyone narrates the story in the colour of Jainism. Dr. Sankata Prasad Upadhyay came to the conclusion that 'Every element of Jainism has been narrated in Rithanemi Chariu by Swayambhu Deb and in doing so, the poet never cared to have the nobility of the character of Krishna be saved.40 Whenever, the poet finds place, he throws light on Jain-Philosophy and Jain-Religion, forgetting, the flow of original story. Thus, it is very interesting to note that though the Jain tradition of poets, is apposed to Hindu traditions of incarnation of God Vishnu; Poets depict the story of Krihna's childhood and Kurukshetra-war, but in their own style. Jain-Krishna-Katha has been a source to popularize the Jainism amongst the masses by the Jain poets. In this regard, I would like to cite some examples, so that it may be clear to the readers, how the Jain poets adopted Hindu-traditions and the stories of Lord Rama and Krishna, to spread the religious thinking in the masses. Renowned scholar Dr. Sankata Prasad Upadhyay writes- "The atmosphere in all the Jain mythological-epics is coloured by the Jain-Ideals and Jain-Philosophy. Almost evey character ultimately becomes the follower of Jainism".41 Mahakavi Swayambhu Dev, when begins the epic-poem "Rithanemi Chariu", prays the 22nd Tirthankaer' NEMI and not the goddess Sarswati, like Hindu poets. “पंणमामि णेमितित्थंकर हो! हरिबल-कुल- णहयल - ससहर हो !!’42 "Panamani nemitithankarho. Hari Bal-kul-nahayal-sashar ho." "I pray to tirthankara Nemi, who is like a moon in the sky of the Narayana and Balbhadra's lineage". i.e. The most significant thing is that there is No description of killings of any animal by any king in hunting because Swayambhu Dev has firm faith in 'Ahimsa', the prime doctrine of Jainism.43 According to Jain tradition of Digambara Sect, when Tirthankar is born, his mother has 16 dreams in the following night. Swayambhu Dev describes these 16 dreams by the mother of Tirthankara Nemi in his epic poem 'Rithanemi Chariu'. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 379491 Hra 15-16 "चंदकंतपह-धवलियधामे, जामिणि जामे पच्छिम जाए! Terrichtaf forçlTG HIMERA fauts façs frang!!?-- i.e. "Chandkantapah-dhavaliyadhame jamini jame pachhim jae. Pallankavari niddagayae solah sivinain dithain sivae." "Shivadevi dreamt sixteen dreams in the last phase of night in her glorious palace which was looking white in the light of Chandra Kant mani i.e. Jewel". At anthor place, Swayambhu Dev depicts Kunti worshipping 'Rishabh Jin', the first Tirthankar in Jain temple with her sons, the pandavas. Swayambhu Dev speaks of Panch Mahavratas: Anu Vratas, Gun-vratas; Charitrya and Samyakatva; which are the main ideals of Jainism. Thus, we can very safely say that Jain poets have accepted 'Mahabharat' and other Hindu Puranas for the Krishna-Katha because it was very much popular among the masses throughout the country, but used it for spreading their religious ideals and their philosophy among the common masses. In this way, the oldest epic of India, the Mahabharata has been a strong basis for the Jain poets to spell their mythological and religious thinking into poetry. Bhagavad Gita: Adhyay-4, Shlok-7 (Gita Press, Gorakhpur) IBID: Adhyay-4, Shlok-8 Bhagavad Gita: S. Radhn Krishnan, Page 155 Vishnu Purana: Fifth Book/Third Chapter/Shloka-2 (V/III/2) IBID: Shloka-8 (V.III.8) Bhagavada Gita : S. Radhakrishnan, Page 156 “वासुदेवार्जुनौ वीरौ समवेतो महारथौ, नर नारायणौ देवौ पूर्व देवाविति श्रुतिः" (ZETT 48, 49,19) i.e. "Vasudevarjunau veerau samvetau maharathau, Nar Naryhanau devau poorvadevairiti shvutihi, "Mahabharat, (Udyogparva, 49,19) Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37999 15-16 71 8. 9. 4. 16. 17. Bhartiya Ishwarvad: Pandey Ramavatar Sharma, Page-446 (Hindi Book) Indian Wisdom : Monier Monier Williams, Page-370 Rigveda: 8/85/1-7, 1/11/16/7; 8/95/1-15 and 4/16/13. Adhunic Krishna Kavya: Dr. Ram Sharan Gaur, Vibhuti Pub. Delhi, Page-43 Mahabharat: C. Rajagopalachari, Bhartiya Vidya Bhawan, Mumbai, Page-6 Mahabharat: Sabha Parva. 38/19 Hindi Sahitya main Krishna: Dr. Sarojini Kulshrestha, Rajya Shri Prakashan, Mathura, Page-5 Bhartiya Krishna Kavya Aur Soorsagar: Dr. Nagendra, Surya Prakashan, New Delhi, Page 1 Mahakavi Swayambhu: Dr. Sankata Prasad, Bharat Prakashan Mandir, Aligarh-1969, Page-65 Paum Chariu: Ed. Dr. H.C. Bhayani, Bhartiya Vidya Bhawan, Mumbai, Page-16-17 (Introduction) Rithanemi Chariu: Ed. Dr. Devendra Kumar Jain, Page-34 (Introduction) Rithanemi Chariu: Ed. Dr. Devendra Kumar Jain, Jadav Kand, 4/11 Hindi Sahityamain Krishna: Dr. Sarojini Kulshresth, Page-6 Mahapurana of Pushpadant: Ed. Dr. P.L. Vaidya, Manik Chand Digamber Jain Granthmala, Mumbai, 1941, Sandhi 84, 16/3-4 and 85/1-7 Rithanemi Chariu: Ed. Dr. Devendra Kumar Jain, 1/4/10 Mahabharat (Adiparva): Ed. Dr. V. Sukarthankar, Bhandarkar Orinetal Research Instt. Puna, 1927, Page-25 (Introduction) Mahakavi Swayambhu: Dr. Sankata Prasad Upadhyay, Page-7 Rithanemi Chariu: Ed. Dr. Devendra Kumar Jain, 1/1/4-7 Paum Chariu: Ed. Dr. H.C. Bhayani, Page-29-30 (Introdcution) Rithanemi Chariu: Ed. Dr. Devendra Kumar Jain, Page-7 (Introduction) 19. 20. 25. 26. 27. Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 2 2 2 2 2 3 28. 29. 30. 31. 32. IBID V/7/15-18/8 33. 34. 35. 36. 37. 38. 39. 40. 41. 42. 43. 44. Rithanemi Chariu: Ed. Dr. Devendra Kumar Jain, IV/5 IBID IV/1-4/9-10/13-14 IBID V/1-2 Rithanemi Chariu: Ed. Dr. Devendra Kumar Jain, V/5/5 to 10 अपभ्रंश भारती 15-16 IBID V/13-16/4 and VI/2/11-16/3 Rithanemi Chariu: Ed. Dr. Devendra Kumar Jain, VIII/14/1-16/ 15 Adi Purana: Ed. Dr. P.L. Vaidya, 33/7 IBID, 35/15 Rithanemi Chariu: Ed. Dr. Devendra Kumar Jain, 92/1 IBID-96/5/4 Rithanemi Chariu: Ed. Dr. Devendra Kumar Jain, 96/6 and 96/ 13 Mahakavi Swayambhu Dr. Sankata Prasad Upadhyay, Page 211 IBID, Page-94 Rithanemi Chariu: Ed. Dr. Devendra Kumar Jain, 1/1/1-2 Mahakavi Swayambhu Dr. Sankata Prasad Upadhyay, Page 180 Rithanemi Chariu: Ed. Dr. Devendra Kumar Jain, 1/8/3 Retd. Principal 74/3, New Nehru Nagar ROORKEE-247667 (INDIA) Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 अक्टूबर 2003-2004 कइराय जीवकिउ 'हरिसेणचरिउ' अपभ्रंश भाषा में रचित 'हरिसेणचरिउ' के रचनाकार हैं ‘जीव कवि'। इनके विषय में विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है। प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रतिलिपि की प्रशस्ति में प्रतिलिपिकार का समय सम्वत् 1551 (ईस्वी 1494) है, अत: जीव कवि का समय सम्वत् 1551 से पूर्व तो है ही। कवि के व्यक्तित्व सम्बन्धी प्रामाणिक सामग्री के अभाव में भी काव्य के अनुशीलनात्मक अध्ययन से विदित होता है कि वे विविध विद्याविज्ञ एवं पूर्ववर्ती साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान थे। सामाजिक जीवन के विविध पक्षों को लोक-भाषा में व्यक्त करके जीवन मूल्यों के प्रति लोक को जागृत करने में कवि सफल हुए हैं। इनका काव्य सभी रसों से आप्लावित तथा विभिन्न अलंकारों से सुशोभित है। हरिषेण पर आधारित इस चरिउकाव्य की चार सन्धियों में मानवजीवन के उदात्त मूल्यों की सफल अभिव्यक्ति हुई है। “माँ-बेटे की लौकिक कथा पर आधारित यह काव्य लोकचेतना को विकसित करने तथा चिन्तनशील मानव की अन्तश्चेतना को सनातन सत्य की ओर अग्रसर करने में निःसन्देह एक अद्वितीय काव्य सिद्ध होता है। इसलिये यह काव्य मात्र हरिषेण का ही चरित्र नहीं है बल्कि भारतीय जीवन के इतिहास और संस्कृति का आकर ग्रन्थ है।" Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 अपभ्रंश भारती 15-16 हरिसेणचरिउ - कविराय जीव ओम् नमो वीतरागाय। जिणसासणे दुरियपणासणे अहो जण कण्णु मुहुत्तउ देहु। विमलुज्जलु तउणिम्मलु इहु हरिसेणहो चरिउ सुणेहु ।। पणवेप्पिणु जिणवरू तवविमलु सुरमउड णिहिट्ठ चरणजुयलु। रिसि वंदिवि उत्तम जोयधरा जे असुहकम्म निन्नासयरा। 5. अणुभोवंताह दुरियदलणा लइ चिंतमि का वि धम्मसवणा। धणविहउ नत्थि किंपि वि करमि जं देवि सुपत्तहो उत्तरम्मि। 10 चिंतंतु रत्तिदिणु झीणतणु तउ करिवि न सक्कमि दीणमणु। विहु एयहु वि इक्कुवि णाहि किउ नवि दाणि न संजमि णिय विट्ठउ। अप्पाणउ वंचिउ मूढएण जण धणयर वासा लुद्धएण। अन्नुवि कइ वाउ समुव्वहमि वुहयणे अप्पाणउ उवहसमि। नवि याणमि छंदु न वायरणु नवि गेउ न लक्खणु न विकरणु। नवि सुललिय वाणि णविय हरिसु कइ सीहहं जंवू सम सरिसु। परलोय कज्जि णवि कित्तिमउ पणवमि पमेसरु परमपउ। पइ जिणवरणाह धुणताह पावक्खउ होइ सुणताह। 15 रइ मइ सुइ सुहु आरोउ धणु अह सुरवइ भवणि भोयरवणु। पणवंतह पई तिहुयणतिलउ पाविज्जइ सिद्धि सुक्खणिलउ। घत्ता- विमलुजले सच्छ सुणिम्मले जो अवगाहेवि तवजल ण्हाउ। जिणचलणिहि मुणिवरवयणिहि तहो संपत्तु तित्थ फल साउ॥1॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 संपा. - अनु. - 75 हरिषेणचरित श्रीमती स्नेहलता जैन ( ओम् नमो वीतरागाय । ) हे मनुष्यों! पापों का विनाश करनेवाले अर्हत्देव के शासन में कानों को दो घड़ी का समय दो । निर्मल, उज्ज्वल व तपश्चर्या से विशुद्ध इन हरिषेण का चरित्र सुनो। तपस्या से निर्मल, देवों के मुकुट से घर्षित चरणयुगल है जिनके ऐसे जिनवर को प्रणाम करके उत्तम योग के धारी, अशुभ कर्मों का विनाश करनेवाले मुनिवर का स्तवन करके (मुझ) भोगते हुये के पापों को नष्ट करने के लिए लो मैं कुछ धर्म सुनने के लिए विचार करता हूँ से आहत मैं और कुछ भी नहीं कर सकता जो सुपात्र के लिए देकर पार उतर सकूँ। रात-दिन यही चिन्ता करता हुआ कृशकाय व शोकग्रस्त मन वाला मैं तप करने के लिए भी समर्थ नहीं हूँ। इन दोनों में से मैंने एक भी नहीं किया। ना ही दान में और ना ही संयम में स्वयं को प्रविष्ट किया । जन, धन, घर और वस्त्र के लोभ से मुझ मूर्ख ने अपने आप को ठगा । मूर्ख कवियों के शब्दों को मैं ढोता हूँ तथा पण्डित लोगों में मैं हँसी करवाता हूँ। ना मैं छन्द शास्त्र जानता, न शब्द शास्त्र, ना ही गीत, न वस्तु का स्वरूप और न विक्षेपण । वानर, सिंह और गीदड़ के तुल्य मैं ना ही सुन्दर वाणी जानता हूँ और ना ही प्रसन्नता जानता हूँ । इतर जन के लिए करने योग्य कार्य से कीर्तिवान् नहीं हुआ मैं उत्कृष्टपदवी परमेश्वर को प्रणाम करता हूँ। हे जिनवर स्वामी! आपकी स्तुति करते हुए और सुनते हुए जीव के पापों का नाश होता है। हे त्रिभुवन तिलक ! आपको प्रणाम करनेवालों को प्रीति, बुद्धि, निर्मलता, शान्ति, निरोगता, धन और इन्द्र के भवन में रमणीय भोग तथा सुख के आश्रय अणिमा आदि शक्तियाँ प्राप्त होती है। घत्ता - जिसने विशुद्ध, दीप्त, स्वच्छ तथा पूर्णरूप से निर्मल तपश्चर्या रूपी जल में अवगाहन कर स्नान किया है, जिनवर की प्रथा व मुनिवर के वचनों में उसको तीर्थों का मधुर फल सम्यक् रूप से प्राप्त हुआ है। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 अपभ्रंश भारती 15-16 (1.2) रणे धणउ जिणिवि दहवयण पहु पुप्फवइ विमाणि आरूढु लहु। कंचण मणि रयण फुरंतियहे लंकहि सवडम्मुहु जंतु णहे । पेक्खइ गिरिसिहरि समुज्जलई धवलज्ज कुंभ ससि णिम्मलई। तं णियवि पवुल्लिउ दहवयणु विभउ जणंतु वियसिय वयणु। 5. इउ काइ ताय अच्चुभुयई गिरिसिहरिहि कुसुमई संभुयइं। तो भणइ पियामहु तुट्ठमणु इउ णवहि वच्छ तुहु पणयतणु। णवि आयइ कुसुमइ संभुयइ जिणभवणइं धवलुद्धअ' द्धयइ। घत्ता - गिरि विवरहि पव्वसिहरिहिं जगि सक्रियत्थे हरिसेणेण। सुहदेसिहिं रम्मपएसिहिं किय महि भवण णिरंतरेण ॥2॥ (1.3) अलिउल घण कज्जलु किसणतणु पुणु भणइ दसासणु तुट्ठमणु। को पुणु एहउ सकियत्थ णरु वित्थरिउ जासु जगे जसु पवरु। किय भवण निरंतरु जेण महि तहु तणिय कित्ति महु ताय कहि। तो भणइ सुमालि रहसभरिउ सुणि दहमुह हरिसेणहो चरिउ। पणवेवि सिद्ध पुणु कहमि कह कंपिल्ल नयरि वहुजण वसह। कंचण मणि रयण विसालसिरी रिद्धिए सविसेसइ धणयपुरी। णिउ नामि विसद्ध परिवसइ रिउ सिन्नु पयावहो जसु ल्हसइ। अहिमाणि दाणि विक्कमिअ जउ परदार परम्मुह सच्चरउ। तहो वप्प महाइवि गुणपवरा अंतेउर उत्तिम रूवधरा। तहे तणइउ अरिजय सिरिणिलउ उप्पण्णु पुत्तु जग कुलतिलउ।. 10. घत्ताह्न में जम्मेन्तेण पवहतेण वहरि घरह उप्पायउ तासु। सुहि वियसिय वंधव हरिसिय तें हरिसेणु नाउ किउ तासु॥3॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 77 (1.2) (रावण के आश्चर्य का दादा सुमालि द्वारा समाधान) राजा रावण युद्ध में धनद को जीतकर पुष्पक विमान के ऊपर शीघ्र चढ़ा। वह स्वर्ण, मणि एवं रत्नों से प्रकाशित हुई लंका के सम्मुख जाता हुआ आकाश में चन्द्रमा के सदृश स्वच्छ व श्वेत कलश के समान अत्यन्त उज्ज्वल पर्वत के शिखरों को देखता है। उनको देखकर रावण ने आश्चर्य उत्पन्न करने वाला विकसित वचन कहा हे तात! पर्वत के शिखर पर पुष्प उत्पन्न होने वाला यह अद्भुत आश्चर्य क्या है? तब सन्तुष्टचित्त दादा कहते हैं- हे वत्स! झुके हुये शरीर से तुम इनको प्रणाम करो। ये उत्पन्न हुए पुष्प नहीं हैं, ये जिनालय में हिलती हुई श्वेत ध्वजाएँ हैं। __ घत्ता- जग में सत्कर्म में स्थित एवं बाधा रहित हरिषेण ने अपने सुन्दर व मनोहर देश व प्रदेश में पर्वत की कन्दराओं पर व पर्वत शिखरों पर जिनमन्दिर बनवाये हैं। (1.3) (रावण द्वारा दादा से हरिषेणचरित्र सुनाने के लिए कहने पर दादा सुमालि द्वारा कथा प्रारम्भ) भ्रमरसमूह एवं काजल के समान प्रगाढ़ कृष्णवर्ण शरीर तथा सन्तुष्टमन रावण पुनः कहता है- निश्चय से ऐसा कौन समर्थ पुरुष है जिसका श्रेष्ठ यश जग में फैला हुआ है। जिसने पृथ्वी पर लगातार जिनमन्दिर बनवाये हैं। हे तात! आप उनका यश मुझे बतावें। तब प्रसन्नता से भरे हुए सुमालि कहते हैं, हे दशमुख! तुम हरिषेण का चरित्र सुनो __सिद्धों को प्रणाम कर मैं सम्पूर्ण कथा कहता हूँ। स्वर्ण, मणि एवं रत्नों की विशाल शोभा एवं समृद्धि में असाधारण धनपुरी कपिल नगरी में बहुत लोग निवास करते हैं। वहाँ विसद्ध (विशेषशब्द- सिंहध्वज) नामक राजा रहता है, जिसका प्रताप दुश्मन के सैन्य समुदाय तक प्रकट होता है। जो अभिमानी, दानी, पराक्रमी तथा परस्त्री से विमुख चरित्रवान् है। उसकी महादेवी वप्रा रनिवास में श्रेष्ठ गुण व सुन्दर रूप धारण करनेवाली है। उसके कोमल शरीर, शत्रुजयी, ऐश्वर्यवान तथा कुल व जग का आभूषण पुत्र उत्पन्न हुआ। घत्ता- जन्म लेते ही जिसके प्रभाव से दुश्मन के घर में डर पैदा हुआ, मित्र प्रफुल्लित हुए, सम्बन्धी आनन्दित हुए, इसीलिये उसका नाम हरिषेण किया गया। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 (1.4) हरिसेणु कुमारु कालु गमइ सहु वयस जुवाणहि सहुं रमइ। कीलइ वर मुरविहि पेक्खणेहि गंधव्व गेयउ दिक्खणेहि। आरंभ परक्कम णाडएहि उच्छित्त चलण संधाडएहि। मद्दल मउ दच्छण्णाणिएहि दावइ पउग पडिहाणिएहि। 5. आलावणि तिसर वीण मुणइ तं मिल्लिवि कणय दंड गुणइ। असि मुसल मुसुंढि सुत्ति वरइ नहि भामिवि झिंदुल्लउ धरइ। जाणइ परहत्थ दच्छ गमणु णह लंधणु विज्ज रवेत्त करणु। गारुडू निमित्तु सामुहुँ तहा सुय राय सत्थ सम्बन्ध कहा। दप्पु धुरवर तुरंग दमइ कीलीकिलु जलु जंति रमइ। 10. घत्ता - वर भवणिहि मणि रयणिहि कुंडल मउड सोहसिय सारु। नर विंदहि मत्त गयंदहिं रमइ भोय हरिसेणु कुमारु॥5॥ (1.5) इत्थंतरि पुन्न पवहियह पडिवण्ण दियह अट्ठाहियहु। तो वप्पाएव पइट्ठमणे आएसु देइ निय भिच्चजणे। संजुत्तहु जिणवररहु तुरिउ मणिकंचण रयणहिं विप्फुरिउ। सोवण्णदंड धयधुयधवलु वर किंकिणि घंटारवमुहलु। जिण पडिम सुसोहिउ विमलपहु जें णयरहो मज्झे भमइ रहु। 5. घत्ता - पयसियवहु चंदणरसिण लहु वर भवणिहि सोह करेहु। पइसंतहो जिणवरणाहहो अग्गइ कंचण कलसग्गेहु॥5॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 (1.4) (हरिषेण कुमार की युवावस्था की क्रीड़ाएँ) हरिषेण कुमार युवावस्था को प्राप्त होने पर समवयस्कों के साथ क्रीड़ा करता है। तमाशे में देखने पर मृदंग के साथ गन्धर्व-गीत से कीलित कर देता है। निपुण, ज्ञानी व प्रतिभाशाली वह प्रयत्न व बलपूर्वक उठे हुए दोनों चरणों की नाट्यकला से मुरज सहित जीवों के आचार-विचार दिखाता है। __ आलापनी व तीसर वीणा (बजाने का) अपने मन में विचार करता है। फिर उसको छोड़कर बाणों की छड़ियों को गिनता है। खड्ग, मूसल, मुसंढि व सीप का वरण करता है। उनको आकाश में गैंद की तरह घुमाकर ग्रहण करता है। लकड़ी के उपकरण से गमन क्रिया में दक्ष वह आकाश व नगरों को लाँधने की विद्या, (साँप के विष को उतारने वाला) गारुड़मंत्र, सामुद्रिक शास्त्र तथा शुभराग से सम्बन्धित कथा शास्त्रों को जानता है। पराक्रम से धुरा को वहन करने में धुरन्धर वह घोड़ों को वश में करता है तथा किलकारी मारकर जलयंत्र से क्रीड़ा करता है। घत्ता- मणि कुण्डल की शोभा को अच्छी तरह प्राप्त वह श्रेष्ठ हरिषेणकुमार मणि रत्नों से निर्मित सुन्दर भवन में जनसमूह एवं मतवाले हाथियों सहित भोगों को भोगता है। (1.5) (रानी वप्रा का अष्टाह्निका पर्व पर जिनरथ घुमाने का आदेश) इसी बीच पुण्य बहानेवाला अष्टाह्निका के दिन आये। तब मन में आनन्दित वप्रादेवी प्रसन्न मन से अपने आश्रित जनों को आदेश देती है। जो जिनप्रतिमा से सुशोभित रथ नगर के बीच स्वच्छ मार्ग पर घूमता है उस स्वर्ण, मणि एवं रत्नों से जगमगाते हुए स्वर्णदण्ड, हिलती हुई श्रेष्ठ श्वेतध्वजा, क्षुद्रघण्टिका व घण्टों के तुमुल कोलाहल वाले जिनवर के रथ को शीघ्र जोतो। घत्ता- अत्याधिक दीप्त चन्दन आदि द्रव्यों से जिनालयों में शीघ्र शोभा करो। प्रवेश करते हुए जिनस्वामी के आगे स्वर्णकलश धारण करो। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 5. घत्ता 5. 10. अपभ्रंश भारती 15-16 (1.6) अणिक्कुवि जोव्वण अहिय सिया णामेण लच्छि नरवइहि पिया । सइ इंदहो कामिणी जह वरइ पहु ताय समाणु भोय रमइ । सा काम किसोयरी मिगनयणा उत्तंग पउहर ससिवयणा । अणुराय राय समाणुउ नरवइहि चित्तु वसि ताइ किउ । जावि र लिट्ठियउ पहु विण्णत्तु सामि महु भमउ रहु । उन्भमि पिय रहि सोहग्गधउ जे होइ सवत्तिहि मज्झि जउ । तहि पण भंगु णवि तेण किउ भामहि रहु नरवइ वुत्तु इउ । एत्थंत्तरि वप्पहि घरे कहिय वत्त वरु लच्छिहि दिन्नु । तें वयणें अइ दुस्सहणें णावइ तहे उरु सत्तिहि भिन्नु ॥6॥ (1.7) तिं परिहव वयणु सुणेवि खणे उम्माहउ वप्पहि जाउ मणे । अणवर अंसु धारहिं मुयइ विद्दाणी विवण देह रुअइ । मुहकमलु निवेसिवि वामकरे हिम हयसु कमलिणि जिहव सरे । नीससिवि सदुक्ख पुणु भणड़ को माइ कुडिल चित्तइ मुणइ । अविवेइय राएं काइ किउ पहु मिल्लिवि कुच्छिय पहेण थिउ । इत्तउड कालु अविछिन्न पहु' महु पढमु भवंतउ आसि रहु । सो एवहि मज्झ भग्गु पसरु सा कामिउ लच्छिहे तेण वरु । इव्वहि मई काइ जियंतियई अवमाण माण परिचत्तियई । जइ पढमु भवीसइ रहिण जिणु तो होसइ मज्झि पवित्ति पुणु । अह न भमइ निच्छउ करिवित्थिया दुविहे आहार णिवित्ति किया । घत्ता - णिच्छिय मइ वज्जिय रइ मुक्का हरण भरण सातण्ह । विद्दाणिय कोमाणिय दुद्दिणइ नाइ ससि जोन्ह ॥ 7 ॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 (1.6) (विसद्ध राजा की दूसरी पत्नी लक्ष्मी द्वारा अपने सौभाग्य-सूचक रथ को पहले घुमवाना) राजा के एक दूसरी भार्या भी थी जो तारुण्य में अधिक प्रखर व नाम से लक्ष्मी थी। जैसे इन्द्र अपनी कान्ता का वरण करता है वैसे ही राजा उसके साथ भोग भोगता है। वह सुन्दर युवती, मृगनयनी, उन्नतपयोधरा और चन्द्रमुखी थी। अनुराग और राग से उसने राजा का चित्त अपने वश में कर लिया। ___ स्वामी को आनन्दोत्साह में स्थित जानकर उसने निवेदन किया कि हे स्वामी! मेरा रथ घूमे। सौभाग्य सूचक रथ में पति के परिभ्रमण करने पर निश्चय से सौत के बीच मेरी जीत होती है। तब राजा ने उसके साथ प्रेम भंग नहीं किया औ यह कहा कि रथ घुमाओ। घत्ता- इसी बीच में लक्ष्मी के लिए दिये हुए वरदान का समाचार किसी ने वप्रा के घर में कहा। उन अति असहनीय वचनों से उसकी छाती मानों त्रिशुल से विदारित हुई। (1.7) (मान से रहित वप्रादेवी का आहार त्याग करना) पराभव के इस कथन को सुनकर क्षणमात्र में वप्रादेवी के चित्त में अत्यन्त पीड़ा उत्पन्न हुई। शोकातुर व म्लानशरीर वह निरन्तर आँसूओं की धारा छोड़ती है और रोती है। तालाब में हिम से आहत कमलिनी की तरह वह मुखकमल को बायें हाथ पर स्थापित कर निश्वास लेकर दुःख सहित पुन: कहती है कि मायावी के कुटिल हृदय को इस प्रकार कौन जानता है। अविवेकी राजा ने यह क्या किया? सुपथ को छोड़कर निन्दित पथ में स्थित हुआ। इतने समय से मार्ग में मेरा रथ लगातार पहले घूमता रहा है। उस कामुक लक्ष्मी के लिए उसके द्वारा जो अभीष्ट है इस समय वह मुझ पराजित का प्रभात है। अब तिरस्कार व मान से परित्यक्त मेरा जीवित रहने से क्या प्रयोजन? यदि रथवान पहले जिनवर को घुमावेगा तो मेरी पुनः प्रवृत्ति होगी और नहीं घूमता है तो निश्चित रूप से अपने को स्थित करके मेरी दो प्रकार के आहार से निवृत्ति की गयी। घत्ता- प्रेम से रहित, ग्रहण व पोषण की वाँछा से त्यक्त मुझ निस्तेज का दुर्दिनों के चन्द्र प्रकाश के सदृश कौनसा मान रहा। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 5. 10. 5. अपभ्रंश भारती 15-16 घत्ता (1.8) एत्थन्तरि कलगुण पत्त धरु धणुवेय गेय लक्खण पवरु । गुरु पासहो आइउ णिय भवणि हरिसेणें दिट्ठ ताम जणणि । उम्मुक्क कडय णिब्भूसणिय पेक्खेवि माइ विवणम्मणिय । सिरु लाइव चलणिहि ताहि ट्ठिउ कहि परिहउ तउ कि' अंबि किउ । को जलणि जलंत नरु चडिउ को अज्जु कयंतहो मुहि पडिउ । किं विसहर वयणिहि छुछु करु अवलोइउ कालें को वि नरु । कहि वाहि दवत्ति महियइ धरि फेडेमि माइ जे तुज्झु अरि । मासु विणि भुअदंडयरा महु माणुस मित्ते कवणधरा । घत्ता - पहरंतवि अइवलवंतवि रणि जमरायहो दरिसमि पंत्थू । हयले भुअणे महीयलि को तउ परिहउ करण समत्थू ॥8॥ (1.9) विद्दाणिय नलिणि व विणु जलेण आसासिय पुत्त वयणज्जलेण । मणि हरिस विसाउ समुव्वहइ हरिसेणहो वत्त माय कहइ । नवि महुयर परिहउ नविय अरि परिहविय पुत्त हउ तउ पियरि । इत्तउड कालु अविच्छिन्न पहु महु पढमु भवंतउ आसि रहु । इव्वहि पुणु भग्गउ महु पसरु सकामिउ लच्छिहि तेण वरु । किउ णिच्छउ महिमहि कज्जि मइं नवि हउं लज्जावमि पुत्त पई । तउ वयणे निसुणि काइ करमि किं तल पीयालि पइसरमि । अहि तोडिवि जिम मुणाल दलमि किं सेसहो फण कडप्पु मलमि। किं मेरु महागिरि उद्धरमि किं धरणि ससायर वसि करमि । किं निवडइ गरलु भुअंगमहो खउ आणमि थावर जंगमहो । वुल्लिज्जइ जं नउ किज्जइ अलिउ न भासमि पयडउ वुत्तु । जइ न भमइ' महु रह अग्गड़ तो हउं अणसणि मरमि णित्तु ॥9॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 83 (1.8) (माँ की तिरस्कृत अवस्था देख हरिषेण का क्रोधित होना) तब इसी बीच मनोहर गुणों का धारी धर्नुविद्या व गीत गाने की कला के विषयों में श्रेष्ठ गुरु के पास से आये हुए हरिषेण ने अपने भवन में माँ को देखा। कड़े आदि आभूषणों से रहित उदासचित माँ को इस प्रकार देखकर उसके चरणों में सिर लगाकर स्थित हुआ (और बोला) हे माता कहो- किसने आपका तिरस्कार किया है? कौन मनुष्य जलती हुई आग में चढ़ा है। कौन आज यमराज के मुख में गिरा है। किसने सर्प के मुख में हाथ डाला है। कौन मनुष्य मृत्युराज के द्वारा देखा गया है। मुझको शीघ्र कहो कहो, हे माँ जो तुम्हारा दुश्मन है मैं उसको पकड़ कर नष्ट करता हूँ। जिसके दोनों भुजदण्ड है उस मेरे जैसे मनुष्य का इस धरती पर क्या महत्त्व है? तुम्हारे वचनों को सुनकर मैं क्या करूँ? क्या नीचे पाताल में प्रवेश करूँ अथवा कमल-नाल की तरह तोड़कर टुकड़े-टुकड़े कर दूं। क्या शेषनाग के फण समूह को मसल दूँ। क्या महान मेरुपर्वत को ऊपर उठा लूँ। क्या पृथ्वी और चन्द्रकिरणों को वश में कर लूँ। क्या साँप का जहर नीचे गिर गया है उसके नाश के लिए चलने वाले पहाड़ को लाऊँ। घत्ता- प्रहार करते हुए अत्यधिक बलवान को भी युद्ध में यमराज के लिए रास्ता दिखाता हूँ। नभतल और पृथ्वीतल रूप इस लोक में तुम्हारा पराभव करने में कौन समर्थ है? (1.9) (विसद्ध के द्वारा किये गये तिरस्कार से वप्रा का अनशनपूर्वक मरण करने का कथन) जलरहित कमलिनी की तरह म्लान मन पुत्र के वचनजल से आश्वस्त की गई माँ मन में हर्ष व शोक को धारण करती है और हरिषेण को अपनी बात बताती है। ना ही मेरा कोई अन्य तिरस्कार करने वाला है और ना ही वैरी। हे पुत्र! मैं तुम्हारे पिता के द्वारा तिरस्कृत हूँ। इतने समय से मार्ग में मेरा रथ लगातार घूमता रहा है। उस कामुक लक्ष्मी के लिए उस राजा के द्वारा जो अभीष्ट है वही निश्चित रूप से अभी मेरे पराजित होने का प्रभात है। इसके लिए मैंने निश्चय से ऐसा गौरव कार्य किया है कि मैं तुमको शर्मिन्दा नहीं होने दूंगी। घत्ता- जो बोला जाता है वैसा ही किया जाता है। व्यक्त की गयी बात के लिए मैं झूठ नहीं बोलती। यदि मेरा रथ पहले नहीं घूमता है तो निरन्तर अनशनपूर्वक मरूँगी। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 अपभ्रंश भारती 15-16 (1.10) तं णिसुणिवि जणणिहे दुक्खहउ उक्खय विसाणु जह मत्तगउ। दंडाहउ जह भुअंगु वलइ पसरंतु रोसु पुणु पुणु' खलइ। करु करिहि णिसामिवि परिभमइ रोसाणलु हियडइ विज्झवइ। चिंतइ कुमारु वि तो विवण मणु कह ताए सहु आढत्तु रणु। 5. जासु वि घरि इक्कहि वीसमिउ किउ तासु वि विरुवउ ववहरिउ। किं पुणु जणेरु पिय परमगुरु कह तह सवडम्मुहु वूढ करु। कहि एहइ संकडि हउं पडिउ नवि रिउ पवर चक्के समोवडिउ। असि फरसु कुंत भड थड निवहो नर सिर कवंध नच्चंतयहो। उद्धाइवि रहस समुन्भरिउ नवि हरिय गय कुंभिहि उवडिउ। एत्तहि पिउ एत्तहे मायडिया विहि किं समाणु मइ थट्टि किया। 10. घत्ता- परिहउ किउ जइ वि सहमि पिउं तो फुडू जणणिहि होइ विपत्ति। हय जम्महो दुक्खिय कम्महु तो महु विहलिय जग्गिय रति ।।10॥ (1.11) चिंतेवि एम हरिसेणु मणि गउ चंपारन्नि पइट्ठ खणि। वहु तरु गिरिकंदरि णिज्झरिहि कप्फाडिहि लयण' लायहरेहि। विल्लीलय तरु वावय गहणु नवि सूरु न दीसइ नवि गयणु। वम्मिय सिह रुग्गय नयवि अहि फणिमणि उज्जोए भमइ महि। कत्थइ वहु वानर वुक्करहिं कत्थइ मइंद सय गुंजरहि। कत्थइ दिसि धूम धार तउ तरु संघहो ट्ठिय लग्गु दउ। कत्थइ भुंडिणि दाढालएहि वाराह खयाल लयालएहि। कत्थइ करिवर पसरु पहु कडमड करंति' तरुवरह वहु। 10 कत्थइ अजयर सुंसुं करिउ कत्थइ तरच्छू लल्लुय रडिउ। कत्थइ गिरि तरु मूलेहि सहिउ आरण्ण महिस सिंगु ल्ललिउ। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 85 (1.10) (हरिषेण के मन में माता व पिता के पक्ष को लेकर अर्न्तद्वन्द्व) यह सुनकर माँ के दुःख से आहत वह हरिषेण सींग उखड़े हुए मतवाले हाथी के समान व लाठी से प्रहारित साँप की तरह दुर्जनों के प्रति बार-बार अपने क्रोध को फैलाता हुआ अपने में लौटता है। हाथ में हाथ रखकर भटकता है और हृदय की क्रोधग्नि को बुझाता है। उसके बाद भी शोक सन्तप्त हरिषेणकुमार मन में सोचता है कि पिता के साथ किस प्रकार युद्ध प्रारम्भ हो। जिसके घर में एक के द्वारा भी असमानता की गयी है उसके ही घर में कुत्सित आचरण किया गया है। जब निश्चय से पिता प्रिय व परम गुरु है फिर किस तरह उनके सामने विचार करने वाला बनूँ। इस समय मैं किस संकट में पड़ गया हूँ कि अत्यन्त प्रिय के चक्र के सम्मुख ही बढ़ा हुआ हूँ। - राजा के तलवार, फरसे व भाले सहित नाचते हुए व प्रसन्नता से भरे हुए योद्धाजन समूह के रूण्ड-मुण्ड वेग से जाकर नूतन हरितवर्ण हाथी के गण्ड स्थल पर झुक गये हैं। एक तरफ पिता है तो एक तरफ माँ है। दोनों ने समान रूप से मुझे आनन्दित किया है। ___घत्ता- यदि पिता के द्वारा किये गये तिरस्कार को सहन करता हूँ तो स्पष्ट रूप से माता का मरण होता है। जन्म से ही दयनीय, भाग्य से दुःखी तो भी विह्वलता युक्त मेरे लिए रात में जागी है। (1.11) (हरिषेण का चम्पानगरी के जंगल में पहुँचना तथा चम्पानगरी के जंगल का वर्णन) हरिषेण मन में इस प्रकार विचार कर शीघ्र चम्पानगरी के जंगल में पहुँच गया। वहाँ अनेकवृक्षों, पर्वत-कन्दराओं, झरनों, गुफाओं वल्ली-लतागृहों एवं गहन गुच्छ-वनस्पति की लता व वृक्षों के व्याप्त होने से ना ही सूर्य दिखायी देता था ना ही आकाश। कवचधारी रुग्ण साँप झुककर तथा फण की मणि के प्रकाश सहित शेषनाग पृथ्वी पर घूम रहे थे। कहीं पर अनेक वानर हूँ हूँ कर रहे थे। कहीं पर बहुत सारे शेर गरज रहे थे। कहीं पर वृक्ष समूह पर दावाग्नि लगी थी जिससे दसदिशाओं में धूआँ फैला हुआ था। कहीं पर बड़ी बड़ी दाढ़ों से युक्त सूकर व सूकरी कन्दराओं में अपने स्वर में लीन थे। कहीं पर हाथी रास्ते में फैले हुए वृक्षों पर बहुत उत्पात कर रहे थे। कहीं पर अजगर तूं तूं कर रहे थे। कहीं पर लक्कड़बग्घा अस्पष्ट आवाज में चिल्ला रहे थे। कहीं पर पर्वत व वृक्ष के नीचे जंगली भैसे सींग से क्रीड़ा कर रहे थे। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 अपभ्रंश भारती 15-16 घत्ता- तरु मग्गिहि गयण वलग्गिहि सरल तमाल ताल सच्छण्णु। वहुविह गय सीह निसेविउ हरिणहि भाविउ एहउ वणु हरिसेणु वण्णु॥11॥ (1.12) तं पेक्खिवि भीसणि अडइ वणे हरिसेणहो गण्णु वि नाहि मणे। लघंतु जोइ गिरि कंदरई पुणु अग्गइ पेक्खइ सरवरई। सुह सलिलइ सिय कुसुमुज्जलई उववणइं गंध सय परिमलइं। पेक्खेवि मणोहरु रूउ तसु उवसमहिं जे वि कत्थाय पसु। जो जंतउ रह गय वाहणेहि धय छत्त तुरंगम साहणेहि। सो इव्वहि कम्म वसेण तहि इक्कल्लउ चलणहि भमइ महि। सम विसम दुलंघइ दुत्तरई काणणई खयालइ उत्तरइ। अविउल चित्तु मणि विगय भउ सयमण्णुहि यासउ तेण गउं। 10 घत्ता- इक्कंगु वि सियइ न मुव्वइ थिउ तावस वणु भूसिउ णाइ। रवि वयणउ किरणउ भासियउ जीविउ किंपि उदेसिं गाइ॥12॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 घत्ता- आकाश की ओर उन्मुख, सरल, ताल-तमाल वृक्षों से आच्छादित मार्ग वाले, अनेक प्रकार के हाथी व सिंह से आश्रित, हरिणों से सुन्दर लगने वाले ऐसे वन में हरिषेण पहुँचा। (1.12) (हरिषेण व जंगल के पशुओं में परस्पर आदरभाव तथा हरिषेण का तापसवन में गमन) उस भीषण जंगल के आवास स्थल में उनको देखकर भी हरिषेण के मन में आदर का अभाव नहीं था। उछलता कूदता हुआ गिरि-कन्दराओं को देखता है। पुनः आगे मधुर जलयुक्त तालाबों व सुगन्धित-गन्ध वाले कमल-पुष्प के उद्यानों को देखता है। जो भी पशु कहीं से आये हुए हैं वे उसका मनोहर रूप देखकर शान्त हो जाते हैं। . जो रथ, हाथी, घोड़े, वाहन आदि साधनों पर छत्र व ध्वजा सहित जाता था वह हरिषेण अब उसके कर्म के अधीन अकेला ही पैरों से पृथ्वी पर घूम रहा है। समतल व ऊँचे नीचे तथा दुर्लघ्य और कठिनता से पार किये जाने वाले जंगल वफाओं को पार करता है। तब शान्त चित्त व भयरहित मन वह शतमन्य (तपस्वी) के आश्रम की तरफ गया। घत्ता- जो अपने ऐश्वर्य के एक भी साधन को नहीं छोड़ता है वह हरिषेण तापसवन को शोभित किये हुए स्थित था। सूर्य किरण के समान प्रकाशयुक्त वचनों से 'जीव' कवि इस प्रकार अपने उपदेश में गायन करते हैं। कड़वक 2. 1. का. धवलुब्भ 2. क. ग्पवरिहि कड़वक 5. 1.क. वलु (ध छूट गया है।) कड़वक 7. 1. क. महु (क. 1.9.4 में भी पहु ही है।) कड़वक 8. 1.क. तकिउ (शब्दक्रम परिवर्तन) कड़वक 9. 1. जइ न भमइ क प्रति में छूट गया हैं, ख प्रति से लिया गया है। कड़वक 10. 1. पुणु क. प्रति में छूट गया है, ख से लिया गया है। 2. क. णच्चंतविहि कड़वक 11. 1.क. लयल 2. क. कडति Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 अपभ्रंश भारती 15-16 जहिं वंछइ णियमणम्मि जम्मण धरु - कुरुभूमि व सुणिच्च सुहदाइणि । जिणवाणि व सव्वहँ मणतोसिणि । णं जसवित्ति - बुह - गिह- पंकिया । जाहि णिएवि महामुणि लुब्भइ । णं पुरि कमलासणहु सहोयरि । बहुवाणियजुय णं मंदाइणि रंगभूमि णं णवरसपोसिणि सायरपुत्ति व रयणहिँ लंकिय सइँ चित्तु व परणरहँ णर बुज्झइ चउ - गोउर- दुवार लग्गंबरि सालत्तयवेढिय वरभामिणि परिहा - जलयर - जीव- सुहायरि किं वण्णिज्जइ जहिँ पुणु सुरवरु घत्ता- तहिँ णीड़-सयाणउ बहुगुणठाणउ राणउ बलु पालंकु पुणु । बे-पक्खहिँ णिम्मलु गयलंछणमलु सयलालउ सो णमिय- जिणु ॥ 7 ॥ आवट्टिय जहिँ लया बहुअरि । वंछइ णियमणम्मि जम्मण धरु । महाकवि रइथू धणकुमारचरिउ 1.7 वह उज्जयिनी नगरी विविध प्रकार के व्यापारियों से युक्त है, मानो जलबहुला मन्दाकिनी - गंगा ही हो। वह कुरु- भोगभूमि की तरह नित्य सुखदायिनी है अथवा मानो, नवरसों को पोसनेवाली नाट्यशाला ही हो। जिनवाणी के समान जो सभी के मन को सन्तुष्ट करनेवाली है अथवा, मानो, रत्नों से अलंकृत सागरपुत्री लक्ष्मी ही हो। अथवा मानो, वह यशोवृत्तिवाले बुधजनों के गृहों की पंक्ति ही हो। जहाँ के व्यक्ति अपने चित्त के समान ही दूसरों के चित्त को समझते हैं और जिसे देखकर महामुनि भी लुब्ध हो उठते हैं । वह उज्जयिनी उत्तम चार गगनचुम्बी गोपुर-द्वारों से युक्त है। मानो, वह कमलासनब्रह्मा की नगरी की सहोदरी पुरी ही हो। वह विशाल तीन कोटों से वेष्टित है। वहाँ जलचरजीवों को सुख प्रदान करनेवाली परिखा है, जहाँ बहुत आवर्त और लताएँ हैं । उस नगरी का क्या वर्णन किया जाय, जहाँ इन्द्र भी जन्म लेने की इच्छा अपने मन में धारण करता हो । घत्ता- वहाँ नीति-निपुण, गुण-स्थान, प्रजापालक, दोनों पक्षों से उज्ज्वल (अर्थात् कुल - जाति से उच्च ), अपयशरूपी लाँछन- मलरहित, सम्पूर्ण कलाओं के घर के समान तथा जिनदेव को नमस्कार करनेवाला ( अवनिपाल नामका ) राजा राज्य करता था ॥ 7 ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 अक्टूबर 2003-2004 89 गौतम स्वामी रास - महाकवि ब्रह्म जिनदास संपा.- डॉ. प्रेमचन्द राँवका 15वीं शताब्दी के संस्कृत-हिन्दी भाषा-साहित्य के प्रसिद्ध महाकवि ब्रह्म जिनदास द्वारा रचित 'गौतम स्वामी रास' अपभ्रंश भाषा की अन्तिम कड़ी गुजराती राजस्थानी मिश्रित (मरु गुर्जर) का खण्ड काव्य है; जो तत्कालीन प्रचलित रास काव्यात्मक लोक-शैली में निबद्ध है। इस रास-काव्य में भगवान महावीर के प्रमुख शिष्य इन्द्रभूति गौतम गणधर के पूर्व भव एवं वर्तमान जीवन का आख्यान चित्रित हुआ है। रास का पूर्वार्द्ध इन्द्रभूति गौतम के पूर्व भव से सम्बन्धित है। पूर्व भव में लब्धिविधान व्रत (भाद्रपद शु. 1,2,3) का विधिवत् पालन करने से गौतम वर्तमान भव में अपने समय का श्रेष्ठतम विद्वान बनता है। रास के उत्तरार्द्ध में इन्द्र वेदपाठी गौतम से उसकी विद्वत्ता की परीक्षा करता है। भगवान महावीर की धर्म-सभा में पहुँचने पर, भगवान महावीर के उत्तुंग मान-स्तम्भ के देखने मात्र से गौतम का अभिमान दूर हो जाता है और उसकी शंकाओं का सहज ही समाधान हो जाता है। तब गौतम भगवान महावीर की अनुपम दिव्यध्वनि को धारण करनेवाले प्रथम गणधर बन जाते हैं। उन्हें उसी समय मन:पर्यय ज्ञान की उपलब्धि हो जाती है और भगवान महावीर की देशना से जन-जन को आप्लावित कर केवलज्ञान प्राप्तकर स्वयं भी इस संसार से मुक्त हो सिद्ध-पद को प्राप्त करते हैं। इस रास के कुल 132 पदों में, दूहा, भास जसोधरनी, वीनतीनी, अंबिकानी, आनन्दानी, माल्हंतडानी आदि अपभ्रंश काव्य के छन्दों का प्रयोग हुआ है। यहाँ गौतम स्वामी रास की सम्पादित रचना का मूलापाठ प्रस्तुत है Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00 अपभ्रंश भारती 15-16 ॥वस्तु॥ श्री वीर जिणवर, वीर जिणवर, पाय प्रणमेसुं॥ सरसति स्वामिणि विनवू, बुधि सार हं वेगिमांगु॥ श्री सकलकीरति पाय प्रणमीनें मुनि भुवनकीरति गुरु सार वांदउ। रास करीसुं अति निरमलो, गौतम स्वामी देव। ब्रह्म जिनदास कहे रुवडौ, जनमि जनमि करूं सेव॥1॥ ॥भास जसौधरनी॥ महावीर स्वामी पूछीया, श्रेणिक गुणवंत। गौतम स्वामी तणउ चरित, कहो जयवंत।।1।। जम्बूद्वीप मझारिसार, भरत खेत्र जिम जाणो। कासी देस मझारि सार, वाणारसीय पखाणो॥2॥ विस्वसेन तीणें नयरि राय, राज्य करे सविशल। विसालाक्षीय राणी नाम, सौभाग्य रूप माल ॥3॥ राजा मोह धरे अपार, सुख भोगवे चंग। क्रीडा विनोद करे अपार, आपणै मन रंग॥4॥ एक वार बहु रूप सार, होइ सरस अपार। सभा सहित राजा सांभलि, रीझयो सविचार।।5।। गौखि बैठी राणी सुंदरी, जावि वलि सार। रूप दीखा तिहा अत्ति घणां, मोह उपनो अपार ।।6।। चंचल मन कीयौ आपणौ, बोलवीय दासी। एक चमरा दूजि रंगिजाणि, राणी बोलइ आसी।।7।। विणय सीक्ष हवै भोगवू, स्वेछा मुणो आज। रूप जीवन सफल करूं, छांइ एह राज॥8॥ राज भुवनि जन्म जार, आलि चौखौ बंदी खाणो। इहां थका आपुंण नीसरूं, उपाय करी जाणौ ॥9॥ सूक्ष्म वस्त्र तव आणीयु, राणी रूप कीघौ। चंदन कुंकुम पूर जाणि, विलेपन दीघौ॥10॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 91 कस्तुरीय तीलक कीयौ, फूलें सिणगारी। वस्त्राभरण पहिरावीया, सूती डोल्हारे॥11॥ झीणौ वस्त्र उठीडी करी, दीप तणो झंबाल। ते तीन्ही जणी नीसरी, लहुवी पोलियगार ।।12।। जौगिणी तणो रूपं धरीय, मिली जोगिणी मझारी। भक्ष अभक्ष न गिणइ जाणि, क्रिया निज हारी॥13॥ सीयल लोपे ते पापिणी, उंच नीच नवि गणे। जे नर मिलेइ मिथ्यातिणी, ए सवै गुणहीण॥14॥ इणिं परि देशि देसि हीडे, गावे सरस अपार। रूप कंठ देखीय करी, भूले गवार॥15॥ राजा समा थको उठीयो, राजा मोहवंत। रांणी ने घरि आवीयौ, सूती दीठी महंत ॥16॥ सौभा दीठी तव अति घणी, रीझयौ तव राऊ। किं रंभाविं उरवसी, जाण्यौ एह भाउ॥17॥ किं इंद्राणी ये रोहीणी, रूप दीसै अपार। एहवी रांणी माघरी, धन धन अवतार॥18।। इम कही आघौ गयो, सेज्या उपरि बैठो। रांणी न बोलै अचेतना, रूप तेह दीठौ॥19॥ तव राजा विस्मय हुवौ, रांणी नवि देखे। कहां गह ते सुंदरी, दासी नवि पेखि ॥20॥ तब राजा मोह घरे अपार, आव्यो बहु दुख। देखे नहीं कहीं कामिणी, गयौ सब सुख ॥21॥ ॥हा॥ तव राजा घणूं रडे, झुरी झूरी करह विलाप। विकल हुवो बुधि गइ, व्यापौ बहु संताप ॥1॥ रांणी-रांणी इम उचरै, कहीय न पामै सुख। विषय वेदना करी पीडीयो, मोह माडे दुख॥2॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92 ॥ भास वीनतीनी ॥ तव राजा ते जांणि, राज मुद्रा त्यजी आपणीये । कुंवर बसाइयो राजि, मंत्री सवै मिली मती घंणीयें ॥1 ॥ जोगिणी गई एक वार, उजेणी नयरी मणीयै । आवीय नयर मझारि, गीत गावै ते पापीणीए ॥ 2 ॥ ॥ भास जसौघरनी॥ तिणे अवसर मुनिवरह राउ, आव्या गुणवंत । जसौभद्र नाम निरमला, भवांतरि जयवंत ॥1॥ तीन्हं जोगीणी स्वामी देखीया, निंदा करे थोर । राज मंदिर अम्हे जाइति, अशुगन कीयो घोर ॥ 2 ॥ तुं नांगो अमंगलो, लाजवी की खाधी । कुल नारी माहि भमै अपार, इंद्रीय नहीं साधी ॥3 ॥ तिन्हं पापिणि द्वेष धरियो, मन माहि जस घोर । पाप जोड्यो अति घणो, कोप करे घन घोर ॥4॥ मुनिवर स्वामी निरमला, क्षमावंत गुणवंत । ध्यान कीयौ यौवन माहि जाइ, सहगुरु जयवंत ॥15 ॥ ते आवी तिन्हे पापिणी, चंडिका मडि जाणे । राति पैडी अंघारी घोर, मुनि कन्हे बखाणे ॥6॥ उजालो तिहां कीघौ, मुनिवर तिहां तव मोह मनि उपनौ, तेह चिंतविं अम्हे राज छोडीयंउ सार, तम्हे कारणे दीक्षा छोडी तम्हे आपणी जिम करूं मुनिवर स्वामी ध्यान मौन, छोडे तव ते नाचै पापंणी, गावे दीठो । णंठो ॥ 7 ॥ देव । अम्हे सेव ॥ 8 ॥ चंग | रंग ॥9॥ नहि मोह अपभ्रंश भारती 15-16 ॥ भास अंबिकानी ॥ हाव भाव करै घनघौर, नंगीन रूप करे आपणोए । आलिंगन देह अपार, मोह देखाडे अतिघणोए ॥1॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 मुनिवर मन अचल जिम मेर, चलै नही स्वामी निरमलाए। वली उपसर्ग मांड्यौ घनघोर, ध्यान मूकै सोहजलोए ॥2॥ चारि पहर लगें कीया उपसर्ग, निरर्थक हुइ ते पापिणीए। तव नाठी चोर जिम वाणी, पाप जोड्यो अभागिणीए॥3॥ तिणे अवसरि उग्यौ दिनराऊ, जाणे कुंकुम पीजरयोए। पुन्यवंत आव्या तिहां गुणवंत, महादेव कीयो भाव धरियोए॥4॥ जयजयकार हुवौ अपार, चरण कमल दुई बांदीयाए। हरष बदन हुवा सहु कोइ, भाव सहित गुरु पूजीयाए॥5॥ ते पापिणी गइ परदेश, कोढिणी हुइंय अभागिणीए। दुख पाम्या तिन्हु घनघोर, पांचमै नरकि पडि पापिणीए॥6॥ छेदन भेदन दुख अपार, एक जिह्वा किम बोलीयेए। इम जांणी तम्हे मणी करो पाप, पापे दुरगति तोलियेर ।।7। सतर सागर भागेव्यो तिहां आयु, पाप बलि अति घणोए। तिहां थकां नीसरिया ते जीव जाणि, मांजर हुवा श्रेणिक सुणोए॥8॥ मांजर मरी सुकर जांणि, सुकर मरां स्वांन छुवाए। श्वान मरी कूकडा वली थोर, समदाइ करमें मूवाए॥9॥ अवंती देश माहिं सविशाल, घोष गांम छे रूवडोए। ते तीन्हीं जीव गुणछीण, कुणंबीय घरिते अवतरीयए।।10।। ऊंधान्य कुणबी तणो नाम, एक बेटी तेह घरिहुइए। एक पुत्र तणी हुई घीह, एक जवांई बेटी सहीए॥1॥ उपना पुढे घन विणास, कुटंब विणास हुवौ घणोए। निरधार हुई ते अबला बाल, सुख गयौ बहु तेह तणोए॥12॥ सन्नि सन्नि मोटि हुइ जारिए दुख पाम्या बहु अति घणाए। एक कांणी एक कालीयवानि, एक कूजी फल पाप तणाए॥13॥ भूखे पीडी ते घनघोर, तिहां थकी देशांतरि गइए। जिहां जिहां जाइ तिहां दुख, सुख नहीं पुन्य विण सहीए॥14॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 अपभ्रंश भारती 15-16 भमती भमति आवी ते जाणि, पुष्प नयरि सुणो महीघणीए। आंम्र वन्न छ तिहां सविशाल, तिहां मुनिवर आव्या ज्ञानघणीए॥15॥ फटिक सिला तलि बैठा चंग, संघ सहित सोहवणाए। विश्वलोचन स्वामी तणो नाम, अविधिज्ञानी रलीयावणाए।16।। महिचंद्र राजा गुणवंत, वांदण आव्यो मनिरलीए। सयल सजन परिवार सहित, नमोस्तु कीयौ भाववीलए॥17॥ पूजा करी बैठा सविचार, धर्मं सांभल्यो अति रूवडोए। समकित वरत लीयां वलिसार, बार भेद तप गुणे जड्योए॥18॥ तिणे अवसरि आवी ते बाल, समादीठी बहु निरमलीए। भीख मागुवा कीवी बहु आस, उभी रही दयावणीए॥19॥ वस्त्र जीर्ण पहिरीया अतिहीण, कुरूप दीसै वीहांवणीए। राजा दीठी ते रूप विण, प्रीति उपनी सौहावणीए॥20॥ तव सद्गुरु पूछ्या मनरंगि, विनय सहित सोहावणीए। एक रूप भीखारीय होव, ए दीढ़ मझ मोह घणोए॥21॥ ॥भास आनंदानी॥ तव मुनिवर इम बोलीया, आनंदारे, राजा सुणो तुम्हे सारतो। वणारसी नयरी तम्हे राजा, आ., होता अति सविचार तो॥1॥ ए राणी होती तम्ह तणी, आ., अवर दासी छुई जांणितो। विषय सौख्य ने कारणे, आ., जोगिणी हुई दुख खाणितो॥2॥ पाप करीयो तिन्हु अति घणो, आ., मुनिवर काजे उपर्सगतो।।3॥ नरक पशु गती भोगवी, आ., दुख पाम्या उतंगतो॥3॥ मनुक्ष जन्म इन्हूं पामीयूं, सजन घन विणासतौ॥4॥ विश्वभूति राजा होता, आ., तम्हे वाणारसी अति चंग तो। रांणी वियोगं राज छोड्यो, आ., जनम जवाड्यो उत्तंगतो॥5॥ पुण्य विणा संसार भम्या, आ., गज हुवा एक वार तो। वन मांहि सहगुरु देखीया, आ., उपसम हुवौ अपारतौ।।6।। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 सदगुरु स्वामिय संबोधीया, आ., मधुरीय सुललीत वाणितो। श्रावक व्रत लीयां रूवडा, आ., पाल्या अति सुख खांणितौ॥7॥ पहिलै स्वर्गि देव हुवौ, आ., सुख भोग का सविशाल तो। तिहां थका चवीकरी तम्हे हुवा, आ., महीचंद्रराजा गुणवंततो॥8॥ तेहमणी तम्ह मोह हुवौ, आ., इन्हं दीठा पुठे चंग तो। मोह वैर जीव उपनो, आ., भवांतर तणो उसंग तो॥७॥ कीघा करम न छूटीए, आ., राय सुणो तम्हें सार तो। ते सुख दुख जीव नीपजै, आ., तेस वि करम विचार तो॥10॥ तव राजा विनय करी, आ., बोल्यौ दुई कर जोडि तो। वरत कहो स्वामी निरमलौ, आ., जिम पापजाइ भव कोडितो॥11॥ तव सद्गुरु स्वामी बोलीया, आ., लव्धि विधाणक सारतो। भाद्रवामास उजालडो, आ., पडिवा बीज त्रीज कारतौ॥12॥ तीन उपवास कीजै नीरमला, आ., नहीं तो एकांतर चंगतो। त्रिणि दिवस सीयल पालो, आ., भूमि शयन गुणरंगितो॥13॥ संयम पालो निरमलौ; आ., सचित तणो परित्याग तो। धर्म ध्यान करौ रूवडो, आ., सरग मगति तणो भाग तो॥14॥ कुंकुम छडवु देवाडिये, आ., मोतिय चौक पूरावतो। सोवन सिंहासन मांडिये, आ., भावना अति बहु भावतौ॥15॥ महावीर तणां बीजं थापीये, आ., स्वामीय त्रिभुवन तारतौ। पंचामृत नम्हण करौ, आ., पूजा अष्ट पगारितौ॥16॥ त्रिणिकाल पूजा करो, आ., घवल मंगल गीत नाद तो। महोछव कीजै रूवडा, आ., जयजय करता साद तो॥17॥ अष्टौत्तर सौ रूवडा, आ., जाप दीजै अति चंगतो। जाइ सेवता उजला, आ., अपराजित मंत्र चंग तो॥18॥ स्तवन कीजै अति रूवडा, आ., छंदवस्त जयमालतौ। पांच नाम महावीर तणा, आ., कहउ सुणो गुणमालतो॥19॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 अपभ्रंश भारती 15-16 वीरनाथ पहीलौ सुणो, आ., महावीर दुजो जांणितो। वर्द्धमान त्रीजौ कही, आ., अतिवीर चौथो आंणितो।।20।। सन्मति नाम पांचमो सही, आ., ए पांच नाम भवतारतो। अनुदीन जपीयै ध्याइये, आ., सुनता मुगति उछारतो॥21॥ इणि परि महोछव रूवडो, आ., करो तम्हे भवीयण सारतो। इणि परि पांच वरस करो, आ., भवियण तम्हे भवतारतो॥22॥ ॥दूहा॥ पछे उजवणो निरमलौ, करौ श्रावक अति चंग। जिणवर भुवण सोहावणो, शांतिक नम्हण उत्तंग॥1॥ अष्टोत्तर सो उजला, तांदुलतणा पुंज सार। तेह उपरि दीवा रूवडा, उजालौ गुणघार ॥2॥ ॥भास मालंतडानी॥ शत आठ फल रूवडाए, मालंतडे, विस्तारो गुणधार। पांच पांचवानां निरमलाए, सुणो सुंदरे, पकवान सविचार॥1॥ पांच खाजां मौदिक भलाए, मा., पांच घेवर आदि चंग। नालिकेर आदि रूवडाए, सु., फलविस्तार सुरंग।।2।। नेवज अक्षत विविध परीए, मा., उपकरण गुणवंत। पांच घंट जे गट सुणोए, सु. पांच कलस शृंगार ।।3।। घूप दहन अति रूवडाए, सु., पींगाणी सविसाल। चंद्रोपक सुहांवणांए, सु., चमर तोरण ध्वजपाल ॥4॥ पुस्तक पांच लिखावीयोए, मा., दीजो मुनिवर दान। संघपूजा वली रूवडीए, सु., साहमी वछल संघमान।।5।। शक्ति प्रमाने निरमलोए, भा., घनसारी गुणवंत। शक्ति विण भावघरीए, सु., दुणो करो जयवंत॥6॥ सह गुरु वाणी रूवडीए, मा. भवियण सुणो मवतार । लव्ध विधान व्रत निरमलोए, सु., श्रावक लीधौ सविचार॥7॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 तिन्हुं नि नामिका वलियोए, सु., भाव सहित गुणमाल । शुश्रुषा श्रावक करेए, सु., साघर्मि भणीसार ॥ 8 ॥ वरत कीघो सोहामणोए, मा., तिन्हु निर्मामिका चंग । समाधिमरण साधिकरी, सु. सुरग साध्यो उत्तंग ॥ 9 ॥ पांचमो सरग सोहावणोए, मा., व्रत नाम गुणवंत । देव हुवा ते रूवडाए, सु., सौक्ष भोगवे जयवंत ॥10 ॥ जिणवर गणधर मुनिवरए, सु, यात्रा करे आणंद ॥11॥ तिहां थकी चवी करी रूवडाए, मा., मगधदेश मझारि । वाडव ग्राम सौहाणूं, सु., ब्राह्मण वसे तिहां सार ॥12 ॥ काश्यप गोत्र छे रूवडोए, मा., सांडिल्य ब्राह्मण चंग । सांडल्या ब्राह्मणी तेहतणीए, सु., रूप सौभाग उत्तंग ॥13॥ तेह बेहु कुखें, उपनाए, मा., ते देव गुणवंत । पहिलो गौतम जांणियेए, सु. बीजो गार्गव जयवंत ॥14॥ त्रीजौ भार्गव रूवडोए, मा., दीसे ए अति बहुत रूप । अनुक्रमें तीन्हें उपनाए, सु., रीझ्या सजन सुभूप ॥15॥ जात महोछव तिहां कीयौए, धवल मंगल गीत नाद । दान दीयो तिहां अति घणोए, सु., नीपनौ जयजयकार ।।16 ॥ निमित शास्त्र मांहि इम कह्युए, मा., विद्वान् होसे अतिचंग । विद्या वाटे जे जीकीसेए, सु., तेहतणा सीक्ष उत्तंग ॥17॥ सन्नि सन्नि मोटा हुवाए, मा., पढ़इ ते सास्त्र सुजाण । व्याकरण अति घणोए, सु., वली पढ़इ वेद पुराण ॥18॥ तर्क शास्त्र पढ्यौ रूवडोए, मा., गौतम चड्यो परमाणि । ख्याति उपनी अति घणीए, सु., लोकमाहि इम जाणि ॥ 19 ॥ नेसाल मांही तिहां रूवडीए, मा., पढइते वाला सार । पांचसै रलीयामणाएं, सु., विनयवंत सविचार ॥ 20 ॥ तिणे अवसर स्वामि आवीयाए, मा., महावीर देव भवतार । समोसरण अति रूवडोए, सु., वार सभा सविचार ॥ 21 ॥ 97 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 अपभ्रंश भारती 15-16 केवलज्ञान स्वामी जाणियंए, मा., लोकालोक प्रकाश । पण दिव्य ध्वनि नवि उपजेए, सु. गणघर विण गुणभास ॥22॥ सौधर्म इंद्र तिहां आवीयोए, सा., देव देवीय सहीत । स्तवन करी स्वामी पूजीयाए, सु. बैठो राग रहित ॥ 23 ॥ भवियण सयल आनंदीयाए, भा., महौछव कीयउ वखाणि । बैठा सरस सोहांवणाए, सु., सुणवा जिणवरवाणि ॥24 ॥ तव इंद्रे वीचारियूंए, मा., इग्यारह सहस्त्र मुनिचंग | समोसरण माहि रूवडाए, सु., तप जप ध्यान उत्तंग ॥ 25 ॥ पण गणधर पदवी नहींए, मा., तेह विण न उपजै वांणि । अवधि ज्ञान करी जोइयूंए, सु., गोतम गणधर जांणि ॥ 26 ॥ ॥ दूहा ॥ ते मिथ्या मति लंकरीयो, न जाणे घरम विचार । विघा मद छे अति घणो, काल लबधि विण सार ॥1॥ काल लवधि सनमुख हुई, हवे संबोधू चंग | इम कही रूप फेरव्यूं, वृद्ध रूप धरीयु उतंग ॥ 2 ॥ ॥ मास चौपइंनी ॥ सन्नि सन्नि सिरीयौ गुणवंत, गौतम कन्है आव्यौ जयवंत । उभो रह्यो तेह आगलि जाणि, बोल्यो मधुरीय सुललित वाणि ॥1॥ एक काव्य आण्यो मे सार, तेहनो अर्थ करो सविचार । हुं संतोषु अति सविसाल, तम्ह जस विस्तरै सुणो गुणमाल ॥2॥ व गौतम बोल्यो इम जाणि, अर्थ कहु तम्ह तणो वखाणि । तो तम्हे किम करे गुणवंत, तम्ह तणो सिष्य होउ जयवंत ॥3 ॥ नही तो अम्हे गुरु तणा तम्हे सिक्ष, हम जाणो गौतम तम्हें रिक्ष । वृद्ध तणो मांन्यो तिहां वौल, कवण विद्वांस पूरे मझ तौल ॥4॥ एहवा पेज कीघी तिन्हु सार, तव सांडिल्य करै विचार । निमित्ती वयण कीम फीरै आज, ए संयोग मिल्यौ गुणकाज ॥ 5 ॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 15-16 99 वृद्ध बोल्यो तव सुललित वाणि, आगम तणो भेद वखांणि। तिन्नि काल कवण कहो विप्र, षट् द्रव्य तणो भेद पवित्र ॥6॥ सप्त तत्व कवण कहो गुण, नव पदारथ तणो विचार। रत्नत्रय गुण कहो चंग, लेस्या कवण उत्तंग॥7॥ जीव समास कहो गुणवंत, ज्ञान तणा भेद जयवंत। एतला वानां कहो तम्हे आज, तो विदांस पंडित गुणराज॥8॥ तव गौतम करे विचार, आगम तणो भेद नावे सार। तव अहंकार करे अतिघोर, कोप चड्यो ब्राह्मण घनघोर ॥9॥ तुं आगलि कैसूं कहुं रे गंवार, हुं गौतम विद्या भंडार। थारा गुरु स्यूं करूं हवे वाद, विदांस तणा उतारूं नाद॥10॥ इम कही उठ्यो तीणेवार, बंधव सहित चाल्यो सविचार। पांच शत सिष्य गुणवंत, समोसरणि आव्यो पुन्यवंत ॥11॥ मान स्तंभ दीठौ उतंग, मान गल्यो मिथ्यात हुवौ भंग। समिकित उपनो परमानंद, बाध्यो घरम तणो तिहां कंद ।।12।। महावीर देव दीठा भवतार, सौभ्य मूरति स्वामी अवतार। तीर्थंकर स्वामीय जग गुरुदेव, सुरनर खेचर करे नित सेव ।।13।। गौतम हरष वदन हुवौ जांणि, स्तवन बोले तिहां मधुरीय वाणि। तम्ह दर्शन हुवो मझसार आज, काल लब्धि आवी मझकाजि॥14॥ हवें छूटो हुं भवसंसार, हवै मझ देउ स्वामीय संयम भार। इम कही तजीयो मोहजाल, दिगंबर हुवा गुणमाल ।।15।। तप जप संयम ध्यानं अभंग, चौथौ ज्ञान उपनो उत्तंग। मनःपर्यय तेह नाम जि सार, मन तणी बात जाणे गुणंधार॥16॥ सार रिद्धि उपनी वली सार, गणघर स्वामी हुवा भवतार। जिणवर वाणी अर्थ विशाल, अंग पूरव रचै गुणमाल॥17॥ प्रथम गणघर हुवा अतिचंग, इंद्रभूति नाम दीयौ उत्तंग। दूही बंधवै लीयौ संयम भार, गणधर हुवा स्वामीय भवतार ॥18॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 अपभ्रंश भारती 15-16 अगिनिभूति बीजा नाम, वायुभूति त्रीजौ गुणनाम। गणघर पद हुवा गुणवंत, ज्ञानरिद्धि पाम्या जयवंत ॥19॥ लब्धि विधान कीयौ इन्हं चंग, गणघर पद पाम्या उत्तंग। मुगति गामि हुवा गुणवंत, सीद्धपद पाम्या उत्तम ।।20। ते पद देउ स्वामी मझसार, जिणवर गणधर मुगति दातार। मुनिवर स्वामी कृपा करो देव, ब्रह्म जिणदास कहें करू सैव॥21॥ ॥वस्तु॥ श्री वीर जीणवर वीर जीणवर, पांय प्रणमेसुं। गणधर मुनिवर नमस करूं, सरसति स्वामिणि हृदय आंणी। तम्ह परसादें निरमलौ, रास कीयौ मे मधुरी वाणी।। श्रीसकलकीरति पाय प्रणमीने मुनि भुवनकीरति भवतार। ब्रह्म जिणदास कहे निर्मलो, तम्ह गुण देउं भवतार ॥1॥ ॥दूहा॥ पढे गुणे जे सांभले, करै वरत गुणवंत। रिद्धि लब्धि लही करी, मुगति रमणी हुइ कंत॥1॥ लब्धि विधान गुण वरणव्या, फल कह्या सविशाल3। इम जाणी धर्म आचरो, भवीयण तम्हे गुणमाल ।।2।। ॥ इति श्री गौतम स्वामी रास समाप्तः। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- _