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________________ अपभ्रंश भारती 15-16 पर स्तनों के लिए पीव से भरे हुए फोड़ों, सदृश की अभिव्यक्ति तो भोग के प्रति घृणा-भाव से भर देती है गुणुदीसइ कवणु उरोरुहाहँ, परिपूरिय पूयएँ वणणिहाहँ। जिन-प्रतिमा के सिंहासन की गाँठ को तुड़वाने पर करकण्ड की उद्विग्न मानसिकता का चित्र मालोपमा के सहारे अतीव व्यंजक बन गया है, जैसे- वज्र के प्रहार से महीधरेन्द्र, सैन्यभग्न हो जाने से सुरेन्द्र और केशरी के नखों से विदीर्ण हाथी खिन्न हो जाता है। उदास मन हो जाने से जैसे उसकी सारी तन-मन की शक्ति लुप्त हो जाती है, वह आत्मग्लानि से कराह उठता है, ये सारे भाव चित्रित हो गये हैं णं कुलिसणिहाएँ महिहरिंदु, णं भग्गएँ वले थिउ सुरवरिंदु, णं मयगलु केसरिणहविभिण्णु, थिउ णरवइ तहिं दुक्खेण खिण्णु। 4.15.3-4 इनके अतिरिक्त अनेक परम्परायुक्त उपमानों को भी कवि ने यहाँ प्रयुक्त किया है, लेकिन नूतन प्रकार से जिससे व्यंजना में उत्कर्ष आ गया है, यथा-- मुहकमलु संजायउ रतुप्पलसरिसु। 3.13.10 मुख रक्त-कमल के समान लाल हो गया। यह क्रोध के अनुभाव की सुन्दर अभिव्यक्ति है। इसी प्रकार ऐरावत की सूंड के समान दीर्घ भुजशाली करकण्ड के शक्ति छोड़ने पर उसकी अद्भुत बहादुरी एवं साहस की निदर्शना हुई है अइरावइकरदीहरभुएह। लयण के ऊपर की वामी को चूड़ामणि के समान कहने में अपना अलग ही आकर्षण हैतहो लयणहो उप्परि गिरिवरम्मि, चूड़ामणि णं मउडहो सिरम्मि। 4.4.4 . हाथी की रीढ़ को चढ़ाए हुए चाप के समान कहना उसके शक्तिशाली रूप को चित्रित करता है . चडावियचावसमुण्णय वंसु। 4.6.6 विद्याधरों को चन्द्रमा के समान सुन्दर और सूर्य के समान तेजस्वी कहना निश्चय ही सार्थक है ससिकंतदिवायरपउरधाम। 5.4.2 वैराग्य होने पर करकण्ड का स्त्रियों को तृणवत् गिनना सहज है तिणसमउ गणिवि अंतेउराइँ। 10.23.10 रूपक अलंकार का प्रयोग भी प्रस्तुत काव्य में स्थान-स्थान पर बड़ा भव्य एवं
SR No.521860
Book TitleApbhramsa Bharti 2003 15 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2003
Total Pages112
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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