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________________ अपभ्रंश भारती 15-16 39 उत्कर्षमय है। यथा- प्रथम सन्धि के 6ठे कड़वक में पद्मावती को देखने पर उसे कामरूपी वृक्ष की एक फली हुई डाल कहना निसन्देह किसी विशेष अभिप्राय से आपूरित है और वह अभिप्राय है काम-विमुग्ध होने का। तभी तो काम की डाल को फली-फूली कहकर यौवन से गौरवान्वित बताया गया है कामविडविपरिफलियडाल। 1.6.5 इसी प्रकार शरीर पर तृणवन का आरोप उसकी क्षणभंगुरता को अभिव्यक्त करने के लिए सार्थक प्रयोग है कोहाणलु सामहि सामिसाल, मा पसरउ तणुवणे सयलकाल। 2.4.7 ___ - क्रोध की अग्नि से यह स्वतः भस्म हो सकता है। भगवान् जिनेन्द्र की स्तुति में उन्हें सर्वशक्तिवान् कहकर नमन करना सांसारिक जीव को उचित ही है, क्योंकि वे कर्मरूपी वृक्ष को काटनेवाले कुठार हैं- 'कम्मविड विछिंदण कुठार'। पापरूपी भुजंग को दमन करनेवाले दिनेश हैं- 'पावतिमिरफेडणदिणेस'। रागरूपी भुजंग के दमन करने के लिए मंत्र हैं- 'राय भुवंगमदमणमत्तं'। मदनरूपी ईख की पिराई के लिए उत्तम यंत्र हैं- 'मयणइक्खुपीलणसुजंत्त'। सज्जनों के मनरूपी सरोवर के राजहंस हैं- 'भवियणमणसर रायहंस'। इन सभी अमूर्त का मूर्तिकरण द्रष्टव्य है। इसी प्रकार 9वीं सन्धि के 18वें कड़वक में मुनि शीलगुप्त को क्रोधरूपी अग्नि के बुझाने के लिए मेघ कहना- ‘कोहाइजलणविद्दमणमेह'। कामरूपी किरात के हृदय के शल्य- 'कामकिरायहो हिययसल्ल'। मोहरूपी भट को पराजित करने के लिए मल्ल- मोहभडहो पडिखलणमल्ल- में भी अमूर्त का मूर्तिकरण पूज्य सन्दर्भ में सटीक है। ऐसे ही धर्मरूपी वृक्ष को पोषित करने हेतु व्रतरूपी जल से सींचना अतीव सारगर्भित है धम्मतरु वयजलइँ सिंचियउ, वड्ढेइ सुत्थियउ। धर्म और तपश्चरण की स्थिति में इनका प्रयोग बड़ा प्रेरक और उपदेशात्मक है, यथा- मुक्तिरूपी वधू- ‘सासयवहु' (9.23.10), चिन्तारूपी अग्नि- 'चिंताणल' (10.6.4), कर्मरूपी भुजंग- ‘कम्मभुवंगम' (10.23.8) एवं निर्वाणरूपी विलासिनी'णिव्वाणविलासिणि' (10.25.7)। अस्तु, निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि करकण्डचरिउ की काव्य-भाषा परिनिष्ठित
SR No.521860
Book TitleApbhramsa Bharti 2003 15 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2003
Total Pages112
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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