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________________ अपभ्रंश भारती 15-16 से प्रतीत हो, वह रासाबन्ध है। इसका तात्पर्य यह है कि 'रासक काव्य' छन्द - विशेष के बन्धन मुक्त गए थे और उनमें विविध प्रकार के छन्द प्रयुक्त होने लगे थे । प्रारम्भ में इन काव्यों का कलेवर छोटा होता था और इसी कारण ये अभिनेय भी होते थे, किन्तु आगे चलकर इनका कलेवर बड़ा हो गया और चरित-ग्रन्थों से स्पर्धा करने लगे। फलतः चरित-ग्रन्थों की तरह ये भी खण्डों में विभाजित होने लगे और इनमें विभिन्न छन्द स्वच्छन्दता से प्रयुक्त होने लगे। 'पृथ्वीराजरासो' इसी प्रकार का 'रास काव्य' है । जैन रासा - साहित्य 47 रासा - साहित्य का महत्त्व जैन आचार्यों एवं कवियों के लिए कितना था, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि दसवीं से लेकर अठारहवीं शताब्दी तक सैकड़ों की संख्या में रास-ग्रन्थों की रचना हुई है। यदि दिगम्बर और श्वेताम्बर विद्वानों द्वारा लिखित विभिन्न भाषाओं के सभी रास-ग्रन्थों का आकलन किया जाये तो उनकी संख्या 1000 से अधिक होगी। श्वेताम्बर कवियों द्वारा रचित अधिकांश रास-काव्य प्रकाश में आ गए हैं किन्तु दिगम्बर विद्वानों के रास-काव्य अभी भी बेठनों में बँधे सुधी समीक्षकों की प्रतीक्षा में हैं । जैन कवियों द्वारा लिखित रास-काव्य-परम्परा का प्रथम पुष्प कौन है, यह बताना आज बड़ा कठिन है। आचार्य देवगुप्त के 'नवतत्त्व प्रकरण' के भाष्य में भाष्यकार अभयदेव सूरि (सं.- 1128) ने दो रास-ग्रन्थों की सूचना दी है अनयोश्च विशेष विधिर्मुकुट सप्तमी सन्धि बान्ध माणिक्य | प्रस्तारिका प्रतिबन्ध रासाकाम्यामवसेय इति ।। " अर्थात् चतुर्दशी का भक्त श्रावक 'मुकुट सप्तमी' एवं 'माणिक्य प्रस्तारिका' नामक रासो काव्यों का सेवन करें। श्री अभयदेव सूरि का समय अनुमानतः वि. सं. 1167 के आस-पास है । अतः इन दोनों रासो काव्यों की अवस्थिति 11वीं शताब्दी में रही होगी । उपदेश रसायन रास उपलब्ध जैन रास - काव्यों में सबसे पहली जो रचना प्राप्त होती है वह है- उपदेश रसायन रास। 2" इसके रचयिता श्री जिनदत्त सूरि हैं। ये श्री जिनवल्लभ सूरि के शिष्य थे। उपदेश रसायन रास का रचना काल विक्रम सम्वत 1171 है। इसमें कुल 80 छन्द हैं। श्री जिनदत्त सूरि संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश तीनों के विद्वान थे। इनकी तीन रचनाएँ उपलब्ध हैं- 1. उपदेश रसायन रास, 2. काल स्वरूप कुलक तथा 3. चर्चरी । ग्रन्थ की समाप्ति पर कवि ने कहा है कि जिनदत्त कृत इहलोक तथा परलोक के लिए सुखकारी रसायन को जो श्रवणरूपी अंजलि से पीते हैं, वे मनुष्य अजर-अमर हो जाते हैं
SR No.521860
Book TitleApbhramsa Bharti 2003 15 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2003
Total Pages112
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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