________________
46
अपभ्रंश भारती 15-16
गेयपदं स्थित पाठ्यभासीनं पुष्पगण्डिका । प्रच्छेदकत्रिमूढारंत्यै सैन्धवं च द्विमूढकम् ॥ उत्तमोत्तमकं चैव उक्त प्रत्युक्तमेव च । लास्ये दमविधं ह्येतदङ्गनिर्देश लक्षणम् ॥ 'अग्निपुराण' (अध्याय - 328)
नाटक के 27 भेदों में रासक का उल्लेख हुआ किन्तु पुराणकार ने उसकी व्याख्या या उसका कोई लक्षण वहाँ प्रस्तुत नहीं किया । 'दशरूपक' की 'अवलोक टीका' में नृत्य के सात भेदों- डोम्बी, श्री, गदितं, माण, माणी, प्रस्थान, रासक-इनमें रासक का उल्लेख हैं किन्तु इसे रूपक के भेद के रूप में नहीं लिया गया है। अभिनवगुप्त की 'अभिनव भारती' में भी 'रासक' का सम्बन्ध नृत्य - गीत से जोड़ा गया है, किन्तु वहाँ भी इसे उपरूपक नहीं माना गया है। आगे चलकर 'रासक' को उपरूपक के भीतर परिगणित कर लिया गया। आचार्य विश्वनाथ ने स्पष्ट रूप में 'रासक' को उपरूपक के भीतर स्थान दिया है। 'साहित्य दर्पण' में उपरूपक के 18 भेद माने गये हैं
तोटक, नाटिका, सट्टक, शिल्पिक, कर्ण, दुर्मल्लिका, प्रस्थान, माणिका, माणी, गोष्ठी, हल्लीसक, काव्य, श्री, गदित, नाट्यरासक, रासक, उल्लोप्यक और प्रेक्षण |
'रासक' एक छन्द-विशेष के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है। आचार्य हेमचन्द्र ने इसका लक्षण प्रस्तुत करते हुए लिखा है- दामात्रानो रासके दै अर्थात् रासक छन्द में 18 मात्रा + ल ल ल= 21 मात्राएँ होती हैं और 14 पर यति होती है । 'रासक' से मिलता-जुलता एक. 'आभाणक' छन्द भी है जिसमें भी 21 मात्राएँ होती हैं। प्रारम्भ में ये दोनों एक ही छन्द थे, किन्तु बाद में ये भिन्न-भिन्न हो गए । 'सन्देशरासक' में इन्हें अलग-अलग बताया गया है। 'रासक' छन्द 'सन्दर्भ रासक' का मुख्य छन्द है और इसका तृतीयांश इसी छन्द में लिखा गया है। ऐसा ज्ञात होता है कि प्रारम्भ में 'रासक' नामधारी सभी काव्य ग्रन्थ इसी छन्द में लिखे जाते थे, किन्तु कालान्तर में जब यह विशेष काव्य रूप बन गया तब छन्द का बन्धन ढीला हो गया और यह भिन्न-भिन्न छन्द में रचा जाने लगा । श्री जिनदत्त सूरि की 'चर्चरी' में 21 मात्राओं का रासक छन्द प्रयुक्त है किन्तु उन्हीं का 'उपदेश रसायनरास' 16 मात्राओं के 'पञ्झटिका' छन्द में है। इसी प्रकार 'बीसलदेव रास' में भी किसी अन्य गेय छन्द का प्रयोग है।
विरहाङ्क ने अपने ‘वृत्तजातिसमुच्चय' (4137, 38 ) में दो प्रकार के रासक छन्द माने हैं- प्रथम कई द्विपदी अथवा विस्तारित के योग से रासक बनता है और अन्त में 'विचारी' होता है अथवा दूसरे में अडिल्ल, दोहा, घत्ता, रड्डा अथवा ढोला छन्द हुआ करते हैं। स्वयंभू ने (स्वयंभू छन्दस 8.42 ) में रासक का लक्षण देते हुए लिखा है कि जिस काव्य में घत्ता, हड्डणिया, पद्धडिया तथा दूसरे सुन्दर छन्द आवे तथा जो जनसाधारण को मनोहर