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अपभ्रंश भारती 15-16
12. णिय-णेह-णिवद्धउ आवडइ, जइ वि महा-सइ महु मणहों।
को फेडेंवि सक्कइ लञ्छणउ जं घरे णिवसिय रावणहों ।। प.च. 81.5.10 महाळ
मचरिउ 81.8.4 14. भणइ रामुँ ‘णउ पइँ लज्जावमि णीसावण्ण लंक भुञ्जावमि॥
सिरु तोडमि रावणहों जियन्तहों। संपेसमि पाहुणउ कयन्तहों॥' प.च. 57.12.2-3 15. पउमचरिउ, 23.11.3-7 16. जं अवियप्पें मइँ अवमाणिय। अण्णु वि दुहु एवड्डु पराणिय।
तं परमेसरि महु मरुसेज्जहि। एक्क-बार अवराहु खमेज्जहि ।। प.च. 83.16.2-3 17. पउमचरिउ, 32.4-5 18. . जय तुहुँ गइ हुँ मइ तुहुँ सरणु। तुहुँ माय-वप्पु तुहुँ बन्धुजणु।। प.च. 43.19.5 19. आचार्य उद्योतन सूरि, कुवलयमालाकहा, वणिक् सुन्दरी कथा, पृष्ठ-225
डॉ. प्रेमसुमन जैन, कुवलयमालाकहा का संस्कृतिक अध्ययन, भूमिका, पृष्ठ-70 20. हुकमचन्द जैन, रयणचूडरायचरियं का समालोचनात्मक सम्पादन एवं अध्ययन।
(अप्रकाशित शोध प्रबन्ध)
सह-आचार्य एवं अध्यक्ष
जैनविद्या एवं प्राकृत विभाग सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर (राज.)