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अपभ्रंश भारती 15-16
दीसंति सव्व णं बुह कियए इह सव्वहँ दीवहँ दीउ वरु
जम्बूणाम पढमह पवरु। तासु मज्झि सुदंसणु मेरु ठिउ
णं णियकरु ति उब्भियउ किउ। गयमंडलु वरकंकणघडिउ
परिहिउ णं तारय-मणि-जडिउ। णियहत्तिएँ णं सो इम कहइ.
मा अण्णु दीउ गारउ वहइ। महु संपयाइँ कोउ म करइ
अरु हउँ कासु सिरिं संचरइ। इय रायउ वि सो अज्ज थिउ
लवणंबुहि सेवइ णाइँ भिउ। तहु दाहिणि दिसि भारहि विसए
जणवउ जि अवंती तहिँ वसए। जहिँ सरवर सररुह-अंकियए
दीसंति सव्व णं बुह कियए। पयवाहिणि जहिँ णं विउसकहा
पक्खालिय रय-मल-सेयवहा। जहिँ सालिखेत्त कण-भर-णमिया
पावसकालि पुणु उग्गमिया। जलु रसि वि धण सव्वय चरहिँ
पामरयण सुक इव जहिँ सहहिँ। जहिँ गावि-महिसि वणि रइ करहिँ
गोरस-पूरिय णिच्च जि रहहिँ। घत्ता- तहिँ णयरपसिद्धी धण-कण-रिद्धी उज्जेणी णाम भणिया। देसिय जण सुहयर बहुसोहायर कणयंकिण णं वर ठाणिया॥6॥
महाकवि रइधू, धण्णकुमार चरिउ, 1.6 - यहाँ समस्त द्वीपों में प्रधान 'जम्बूद्वीप' नाम का महान् द्वीप है। उसके मध्य में सुदर्शन मेरु स्थित है। (वह ऐसा प्रतीत होता है) मानो उस द्वीप ने अपना हाथ ही ऊँचा कर दिया हो। अथवा मानो, उस जम्बूद्वीप का मेरु रूपी हस्त- गज-मण्डल, गज-दन्तरूपी वरकंकणों से घटित हो। अथवा मानो, वह तारे रूपी मणियों से गोलाकार जड़ा हुआ हो। अथवा मानो, वह (द्वीप) इस मेरुरूपी हस्त को उठाकर यह कह रहा हो कि 'अन्य कोई भी द्वीप गर्व को धारण न करे।' 'मेरी सम्पदा की बराबरी कोई न करे' और मैं (सर्वश्रेष्ठ हूँ, अतः मैं) किसकी शोभा का अनुकरण करूँ? इस प्रकार सुशोभित वह जम्बूद्वीप आज भी स्थित है। लवणसमुद्र उसकी भृत्य के समान सेवा करता है।
उसके दक्षिणदिशा स्थित भरतक्षेत्र में अवन्ती नाम का जनपद बसा है। जिसमें चारों ओर कमलों से अलंकृत सरोवर दिखाई देते हैं। मानो, वे बुद्धिमानों की कृतियाँ ही हों। वहाँ अमृतजलयुक्त निर्मल नदियाँ प्रवाहित हैं, मानो, विद्वानों की अमृत-कथाएँ ही हों, जो कर्मरूपी रजोमल को प्रक्षालित किया करती हैं। जहाँ वर्षाकाल में स्वतः ही बार-बार उगनेवाले धान के खेत बालों के भार से नम्रीभूत हैं, जलाशयों के चारों ओर जहाँ गाय-बछड़े चरा करते हैं, जहाँ पामरजन शुकों के समान (मधुरवाणी बोलते हुए) सुशोभित रहते हैं। जहाँ वनों में गायें-भैंसे क्रीड़ाएँ किया करती है और जो नित्य ही गोरस-दुग्ध से परिपूर्ण रहती हैं।
घत्ता - वहाँ प्रसिद्ध एवं धन-धान्य से समृद्ध उज्जयिनी नाम की नगरी कही गई है। वहाँ के निवासीजन बहुशोभायुक्त एवं सुखी हैं। ऐसा प्रतीत होता है, मानो, वह नगरी स्वर्ण से अंकित श्रेष्ठ इन्द्रपुरी ही हो॥6॥
अनु.- डॉ. राजाराम जैन