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________________ अपभ्रंश भारती 15-16 अक्टूबर 2003-2004 अपभ्रंश के जैन कवि धनपाल और उनका 'भविसयत्तकहा' : एक विवेचन - श्री नीरज शर्मा हिन्दी साहित्य के आदिकालीन इतिहास का स्वर्ण युग अगर कोई माना जा सकता है तो वह है- अपभ्रंश का जैन साहित्य। अपभ्रंश भाषा और उसका साहित्य एक जनआन्दोलन है जिसमें संस्कृत, पालि, प्राकृत की समस्त परम्पराओं को नकारकर एक नई परम्परा, लोक-परम्परा की शुरुआत होती है। यद्यपि अपभ्रंश जैन साहित्य में संस्कृत ग्रन्थों में उपलब्ध राम, कृष्ण, उनसे जुड़े हुए महापुरुषों, अन्य पुरुषों-नारियों की कथाएँ ही प्रस्तुत हैं, किन्तु ये कथाएँ लोक की कथाएँ हैं जो परम्परित काव्य तथा परम्परित पद्धति से अलग हटकर प्रस्तुत हैं। इन सभी कथाओं में महान-से-महान चरित्र अन्ततः जैन धर्म में दीक्षित हो निर्वाण प्राप्त करते हैं। वस्तुतः यह दीक्षा और निर्वाण मानव कल्याण की भावना से प्रेरित है। यही कारण है कि जैन साहित्य आन्दोलन अपने काल में जन-आन्दोलन बन उठा। ___अपभ्रंश जैन साहित्य में संस्कृत, पालि, प्राकृत साहित्य के केवल परम्परित चरित्रों को ही नहीं लिया गया, अपितु सामान्य जीवन से भी उन्होंने चरित्रों को चुना। सामान्य चरित्रों को रचना का नायक बनाकर अपभ्रंश के कतिपय जैन कवियों ने भावी हिन्दी साहित्य के समक्ष एक मानदण्ड स्थापित किया। धनपाल की 'भविसयत्तकहा' इसी प्रकार की एक रचना है।
SR No.521860
Book TitleApbhramsa Bharti 2003 15 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2003
Total Pages112
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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