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________________ अपभ्रंश भारती 15-16 85 (1.10) (हरिषेण के मन में माता व पिता के पक्ष को लेकर अर्न्तद्वन्द्व) यह सुनकर माँ के दुःख से आहत वह हरिषेण सींग उखड़े हुए मतवाले हाथी के समान व लाठी से प्रहारित साँप की तरह दुर्जनों के प्रति बार-बार अपने क्रोध को फैलाता हुआ अपने में लौटता है। हाथ में हाथ रखकर भटकता है और हृदय की क्रोधग्नि को बुझाता है। उसके बाद भी शोक सन्तप्त हरिषेणकुमार मन में सोचता है कि पिता के साथ किस प्रकार युद्ध प्रारम्भ हो। जिसके घर में एक के द्वारा भी असमानता की गयी है उसके ही घर में कुत्सित आचरण किया गया है। जब निश्चय से पिता प्रिय व परम गुरु है फिर किस तरह उनके सामने विचार करने वाला बनूँ। इस समय मैं किस संकट में पड़ गया हूँ कि अत्यन्त प्रिय के चक्र के सम्मुख ही बढ़ा हुआ हूँ। - राजा के तलवार, फरसे व भाले सहित नाचते हुए व प्रसन्नता से भरे हुए योद्धाजन समूह के रूण्ड-मुण्ड वेग से जाकर नूतन हरितवर्ण हाथी के गण्ड स्थल पर झुक गये हैं। एक तरफ पिता है तो एक तरफ माँ है। दोनों ने समान रूप से मुझे आनन्दित किया है। ___घत्ता- यदि पिता के द्वारा किये गये तिरस्कार को सहन करता हूँ तो स्पष्ट रूप से माता का मरण होता है। जन्म से ही दयनीय, भाग्य से दुःखी तो भी विह्वलता युक्त मेरे लिए रात में जागी है। (1.11) (हरिषेण का चम्पानगरी के जंगल में पहुँचना तथा चम्पानगरी के जंगल का वर्णन) हरिषेण मन में इस प्रकार विचार कर शीघ्र चम्पानगरी के जंगल में पहुँच गया। वहाँ अनेकवृक्षों, पर्वत-कन्दराओं, झरनों, गुफाओं वल्ली-लतागृहों एवं गहन गुच्छ-वनस्पति की लता व वृक्षों के व्याप्त होने से ना ही सूर्य दिखायी देता था ना ही आकाश। कवचधारी रुग्ण साँप झुककर तथा फण की मणि के प्रकाश सहित शेषनाग पृथ्वी पर घूम रहे थे। कहीं पर अनेक वानर हूँ हूँ कर रहे थे। कहीं पर बहुत सारे शेर गरज रहे थे। कहीं पर वृक्ष समूह पर दावाग्नि लगी थी जिससे दसदिशाओं में धूआँ फैला हुआ था। कहीं पर बड़ी बड़ी दाढ़ों से युक्त सूकर व सूकरी कन्दराओं में अपने स्वर में लीन थे। कहीं पर हाथी रास्ते में फैले हुए वृक्षों पर बहुत उत्पात कर रहे थे। कहीं पर अजगर तूं तूं कर रहे थे। कहीं पर लक्कड़बग्घा अस्पष्ट आवाज में चिल्ला रहे थे। कहीं पर पर्वत व वृक्ष के नीचे जंगली भैसे सींग से क्रीड़ा कर रहे थे।
SR No.521860
Book TitleApbhramsa Bharti 2003 15 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2003
Total Pages112
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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