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________________ अपभ्रंश भारती 15-16 मथुरा जैसे पौराणिक नगर का भी प्रत्यक्ष वर्णन आचार्य पुष्पदन्त ने नहीं किया है। नागकुमार के युद्धाभियान के क्रम में उन्होंने मथुरा नगर का केवल नामोल्लेख किया है, उसकी किसी भौगोलिक या स्थापत्य-सम्बन्धी विशेषता का चित्रण नहीं किया है। कश्मीर देश की भी केवल नाम-चर्चा ही की गई है। महाकवि के वर्णन से यह संकेत अवश्य मिलता है कि कश्मीर कला-साधकों और सौन्दर्यवादियों का देश रहा है। वहाँ की राजकुमारी त्रिभुवनरति 'आलापिनी' वीणा के वादन में अतिशय प्रवीण थी और नाम के अनुरूप वह त्रिभुवनमोहिनी सुन्दरी थी। वह साक्षात् वागीश्वरी ही थी। स्वयं विधाता को भी उसके रूप-वर्णन में झिझक मालूम होती थी सुय तिहुयणरइ किं वण्णिज्जइ, तं वण्णंतु विरंचि वि झिज्जइ। सा वीणापवीण सुहयारी, णं वाईसरि परमभडारी। घत्ता- जो णिवसुयहि वि दिहि जणइ आलावणियइँ सुंदरि जिणइ। णियणयणोहामिय-सिसुहरिणी, सा पिययम होसइ तहों घरिणी।।5.7॥ अर्थात् 'आलापिनी' वीणा बजाने में कुशल उस बालमृगाक्षी सुन्दरी राजकुमारी को 'आलापिनी' वीणा बजाकर जो सन्तुष्ट कर पायेगा, वह उसी की प्रियतमा गृहिणी होगी। नागकुमार को त्रिभुवनरति के बारे में जानकारी मथुरा में ही मिली थी। एक बार जब वह मथुरा के नन्दनवन जैसे उपवन में विचरण कर रहा था तभी उसने वहाँ संगीतकला के 'मर्मज्ञ पाँच सौ वीणावादकों को देखा। उनमें से जालन्धर के राजकुमार ने उसे कश्मीर की राजकुमारी त्रिभुवनरति की शर्त से अवगत कराया था (5.7)। संगीतशास्त्र में बताया गयाहै कि 'आलापिनी' वीणा का दण्ड रक्त चन्दन की लकड़ी का बना होता था, जिसकी लम्बाई नौ मुष्टि और परिधि दो अंगुल की होती थी। इसमें बारह अँगुल परिधि के दो तुम्बे लगते थे। यह तीन तारोंवाली 'त्रितन्त्री' वीणा थी और अंगुलियों से बजाई जाती थी। _युद्ध-यात्रा के क्रम में ही नागकुमार पर्वत-स्थित ऊर्जयन्त तीर्थ भी गया था, जहाँ उसे विषैले आम्र वृक्षों का वन मिला था। वहाँ विषमूर्च्छित भौंरों से वनभूमि काले रंग की हो गई थी और नर-कंकालों से अटी पड़ी थी। ऊर्जयन्त पर्वत के सम्बन्ध में पुष्पदन्त ने लिखा है कि उस पर्वत पर देव-देवियाँ क्रीड़ा करते थे। वहाँ अनेक मुनियों ने केवलज्ञान और मोक्ष प्राप्त किया था। वहाँ पर्वत-गुफा में नागकुमार ने ब्राह्मणी के रूप में स्थापित अम्बिका यक्षिणी के दर्शन किये थे, जहाँ बेमौसम आम के पेड़ों में आम्र-फलों के गुच्छे लटके रहते थे। वह अम्बिका देवी शिशुओं के भय का निवारण करनेवाली देवी के रूप में प्रसिद्ध थीं(7.1 एवं 11)।
SR No.521860
Book TitleApbhramsa Bharti 2003 15 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2003
Total Pages112
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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