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चरिउ' में स्वयंभू ने इसी जैन परम्परा को अपनाया है, अत: उन्होंने राम के व्यक्तित्व में लगभग ये ही गुण वर्णित किये हैं, किन्तु उनकी शैली एवं दृष्टि में विशिष्टता है।"
“महाकवि पुष्पदन्त (ईसा की नवीं-दसवीं शती) द्वारा प्रणीत ‘णायकुमारचरिउ' अपभ्रंश के धुरिकीर्तनीय काव्यों में अन्यतम है।"
“महाकवि ने अपने इस अपभ्रंश काव्य में कई देशों का वर्णन किया है जिनमें मगध देश स्थित राजगृह, कनकपुर, पाटलिपुत्र, कुसुमपुर, मथुरा, कश्मीर, उर्जयन्त पर्वततीर्थ, गिरिनार, गजपुर, पाण्ड्यदेश, उज्जैन, मेघपुर, दन्तीपुर आदि उल्लेख्य हैं। इन देशों या स्थानों का भौगोलिक और सामाजिक जीवन अतिशय मनोरम एवं हृदयावर्जक है।"
" 'करकण्डचरिउ' की काव्य-भाषा परिनिष्ठित अपभ्रंश है। सौन्दर्य के विविध उपा-दानों का समुचित प्रयोग करके उसके कवि ने उसे भाव और परिस्थिति के अनुरूप बनाकर अपने प्रबन्ध को सामान्य सहृदय के लिए भी सहज और सरस बना दिया है। मुहावरों और सभी प्रकारेण सार्थक शब्दों के प्रयोग से उसे जीवन्त बनाने का सफल प्रयास किया है। शब्द की लक्षणा-व्यंजना शक्तियों के द्वारा उसमें अर्थ-चमत्कार भरा है तो सादृश्यमूलक अलंकारों के नूतन तथा मौलिक प्रयोगों से उसके सौष्ठव को उन्नत कर दिया है। विविध भावों, अनुभावों, स्थितियों एवं दृश्यों के चित्रण में उसकी काव्य-भाषा सर्वत्र सशक्त एवं समृद्ध बनी है। सचमुच मुनि कनकामर वीतरागी महापुरुष ही नहीं, काव्य और काव्य-भाषा के मर्मज्ञ विद्वान और मनीषी भी हैं।" ।
"जिस प्रकार राजाश्रित कवियों ने अपने आश्रयदाताओं की प्रशंसा में रासो और चरित-ग्रन्थों की रचना की है, उसी प्रकार जैन मुनियों ने भी अपने धार्मिक सिद्धान्तों की व्याख्या करने, धार्मिक पुरुषों के चरित-गान द्वारा धर्म का वातावरण निर्मित करने तथा अपने तीर्थ-स्थानों के प्रति भक्ति-भावना बढ़ाने के उद्देश्य से इन रासो-ग्रन्थों की रचना की है।"
"जैन मुनियों एवं कवियों ने धार्मिक और पौराणिक चरित्रों को आधार बनाकर ही अधिकांश रासो ग्रन्थों का प्रणयन किया है। पौराणिक और ऐतिहासिक चरित्र को आधार बनाकर जो रास-ग्रन्थ लिखे गये हैं उनमें बाहुबलि और नेमिनाथ पर रचित रचनाओं की संख्या अधिक है। इन रासो ग्रन्थों में मानव-हृदय को स्पन्दित करने की जो क्षमता है वही इनकी लोकप्रियता का आधार है।"
“रासा-साहित्य का महत्त्व जैन आचार्यों एवं कवियों के लिए कितना था इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि दसवीं से लेकर अठारहवीं शताब्दी तक सैकड़ों की संख्या में रास-ग्रन्थों की रचना हुई है। यदि दिगम्बर और श्वेताम्बर विद्वानों द्वारा लिखित विभिन्न भाषाओं के सभी रास-ग्रन्थों का आकलन किया जाये तो उनकी संख्या 1000 से अधिक होगी। श्वेताम्बर कवियों द्वारा रचित अधिकांश रास
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