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________________ 36 अपभ्रंश भारती 15-16 घाडि महवडु विहिं जणाहँ, णं मोहपडलु तग्गय मणाहँ । मूर्त का यह अमूर्तिकरण तो एकदम नूतन है। सचमुच कवि की कल्पना बहुत ऊँची उड़कर सटीक उपमान खोज लाती है। गंगाजी के जल की कुटिल धार ऐसी शोभायमान थी मानो श्वेत भुजंग की महिला जा रही हो सा सोहइ सियजल कुडिलवंति, णं सेयभुवंगहो महिल जंति । 3.12.6 यह भी नूतन कल्पना ही है और गत्यात्मक सौन्दर्य की सृष्टि करती है। सर्वांग सौन्दर्य की व्यंजना के लिए कवि स्वर्ग के टुकड़े की कल्पना करता है - एत्थत्थि अवंती णाम देसु, णं तुट्टिवि पडियउ सग्गलेसु । 8.1.6 यहाँ अवन्ति नाम का देश है मानो स्वर्ग का एक टुकड़ा टूटकर आपड़ा हो खिले हुए कमलों से युक्त सरोवर को निहारकर कवि अद्भुत कल्पना करता हैमानो आकाश अपने सुन्दर तारामण्डल - सहित पृथ्वी पर आ गया हो कमलायरु रेहइ अइसुतारु, णं धरहिँ समागउ णहु सुतारु । 10.2.3 और जब धनदत्त नाम का गोप उसमें घुसकर कमल तोड़ लेता है तब कवि की सूझ के सौन्दर्य पर ‘वाह-वाह' कहे बिना नहीं रहा जा सकता। वह कहता है- सरोवर में से कमल क्या तोड़ा, मानो उसका सिर काट लिया हो! जैसे सिर के कट जाने से मानव या किसी जीव की आकृति विकृत हो जाती है, वैसे ही सरोवर रूपहीन हो गया जल पइसिवि लइयउ पोमु तेण, णं खुडिउ सरोवर सिरु खणेण । 10.2.8 काव्य के अन्त में करकण्ड जब मुनि के उपदेशों से तपश्चरण ग्रहण करता है और अपने सिर के घुँघराले केशों को उखाड़कर फेंकने लगता है तब कवि कल्पना करता हैमानो, सलबलाते भुजंगों को फेंक रहा हो, सिर से अलग हुए काले घुँघराले बालों के लिए इस अप्रस्तुत - विधान में कैसी सटीक व्यंजना है, देखे ही बनती है। एक ओर करुणाजन्य दुःख है तो दूसरी ओर केशों की गतिशील सुन्दरता । निसन्देह कवि की कल्पना-प्रवणता पर मुग्ध होना ही पड़ता है उप्पाडिय कुंतल कुडिलवंत, णं कम्मभुवंगम सलवलंत । 10.23.9 इस प्रकार हम देखते हैं कि कवि ने उत्प्रेक्षा अलंकार का बहुलशः प्रयोग किया है, चाहे वह नगर या प्रकृति का निरूपण हो, चाहे रूप अथवा वैराग्य की स्थिति का चित्रण । उसने सर्वत्र नये और मौलिक उपमानों की परिकल्पना की है। इनकी एक विशेषता यह है कि ये लोक-जीवन में से उतने ग्रहीत नहीं है जितने प्रकृति के अन्तर्वाह्य परिवेश में से । परम्परा हटकर इनका चयन वीतरागी महापुरुष की भाँति एकदम नये सन्दर्भों में किया गया है। यह
SR No.521860
Book TitleApbhramsa Bharti 2003 15 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2003
Total Pages112
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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