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________________ अपभ्रंश भारती 15-16 91 कस्तुरीय तीलक कीयौ, फूलें सिणगारी। वस्त्राभरण पहिरावीया, सूती डोल्हारे॥11॥ झीणौ वस्त्र उठीडी करी, दीप तणो झंबाल। ते तीन्ही जणी नीसरी, लहुवी पोलियगार ।।12।। जौगिणी तणो रूपं धरीय, मिली जोगिणी मझारी। भक्ष अभक्ष न गिणइ जाणि, क्रिया निज हारी॥13॥ सीयल लोपे ते पापिणी, उंच नीच नवि गणे। जे नर मिलेइ मिथ्यातिणी, ए सवै गुणहीण॥14॥ इणिं परि देशि देसि हीडे, गावे सरस अपार। रूप कंठ देखीय करी, भूले गवार॥15॥ राजा समा थको उठीयो, राजा मोहवंत। रांणी ने घरि आवीयौ, सूती दीठी महंत ॥16॥ सौभा दीठी तव अति घणी, रीझयौ तव राऊ। किं रंभाविं उरवसी, जाण्यौ एह भाउ॥17॥ किं इंद्राणी ये रोहीणी, रूप दीसै अपार। एहवी रांणी माघरी, धन धन अवतार॥18।। इम कही आघौ गयो, सेज्या उपरि बैठो। रांणी न बोलै अचेतना, रूप तेह दीठौ॥19॥ तव राजा विस्मय हुवौ, रांणी नवि देखे। कहां गह ते सुंदरी, दासी नवि पेखि ॥20॥ तब राजा मोह घरे अपार, आव्यो बहु दुख। देखे नहीं कहीं कामिणी, गयौ सब सुख ॥21॥ ॥हा॥ तव राजा घणूं रडे, झुरी झूरी करह विलाप। विकल हुवो बुधि गइ, व्यापौ बहु संताप ॥1॥ रांणी-रांणी इम उचरै, कहीय न पामै सुख। विषय वेदना करी पीडीयो, मोह माडे दुख॥2॥
SR No.521860
Book TitleApbhramsa Bharti 2003 15 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2003
Total Pages112
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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