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अपभ्रंश भारती 15-16
भाषा के उत्कर्ष एवं विषय को आकर्षक बनाने के लिए कवि छोटे-छोटे हृदयस्पर्शी वाक्यों एवं सुभाषितों का प्रयोग करता है। इस सूक्त्यात्मक विधान से जहाँ भाषा में सौन्दर्य का समावेश हुआ है वहाँ वर्णन या कथन में भी लोच आ गया हैं- संसार में सभी प्राणी लोभ के वशीभूत होकर काम करते हैं । फिर, प्रायः यह भी नहीं देखते कि कार्य कैसा है ? यहाँ मातंग करकण्ड का पालन करता है और उसे सभी प्रकार की विद्याएँ सिखाता है, क्योंकि इस प्रकार उसे मुनि के श्राप से मुक्ति मिलेगी और वह पुनः विद्याधर हो जायेगा। इस प्रकार यह सूक्ति बड़ी सार्थक और सटीक है
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लोहेण विडंविउ सयलु जणु भणु किं किर चोज्जइँ णउ करइ । 2.9.10
इसी प्रकार छठी सन्धि के पाँचवें कड़वक में माधव - मधुसूदन के वैर के दृष्टान्त में माधव के दीन-हीन हो जाने पर किसी के द्वार पर न जाने की भावना से कहता है- अपने कौरों का विष खाकर मर जाना अच्छा, पर दुर्जन के घर किंकर होना अच्छा नहीं- इसमें उसके स्वाभिमान का भाव निहित है
वरि कवलहिँ खाइवि विसु मुयउ, ण दुज्जणघरि किंकर हुयउ । 6.5.6 ऐसे ही
किउ विज्जावंतहो संगु जेण, सुहसंपइ लब्भइ णरहो तेण । 2.13.1
- विद्यावान का संग मनुष्य को सुख-सम्पत्ति का लाभ पहुँचाता है । विद्या विहीन
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को कभी अपना मित्र नहीं बनाना चाहिये ।
जगि करुणवंतु अइमण्णणिज्जु, कह होइ ण सज्जणु वंदणिज्जु ! 6.6.3
जगत् में करुणावान् सज्जन क्यों न अति मानवीय और वन्दनीय होवें !
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सो सुअणु परायउ असइ भोज्जु, उवयारु करइ किर कवणु चोज्जु । 7.15.6
जो सज्जन पुरुष पराया भोजन करता है, वह उसका उपकार करे, इसमें आश्चर्य
ही क्या है?
किं किं ण करइ मयणअंधु ! 10.7.5
कामान्ध मनुष्य क्या-क्या नहीं करता !
मुहावरे तथा लोकोक्तियों के प्रयोग से करकण्डचरिउ की काव्य-भाषा जीवन्त हो गई है। इसे भाषा में स्वत: ही एक लोच एवं संजीवनी-शक्ति का प्रादुर्भाव हो जाता है। भाषा को समर्थ बनाने में मुहावरे तथा लोकोक्तियों का उपयोग बड़े महत्त्व का है। लोकोक्ति में सागर भरने की प्रवृत्ति काम करती है। चूँकि अपभ्रंश के अधिकांशतः कवि आचार्य या मुनि होने के कारण पदयात्री होने से लोक-जीवन और संस्कृति से सीधे जुड़े होते हैं। लोकोक्ति लोक-जीवन की आचार संहिता होती है। अनुभव और अभ्यास का नवनीत उसकी बेजोड़ निधि होता है। लोकोक्ति का रूप संज्ञा