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________________ 98 अपभ्रंश भारती 15-16 केवलज्ञान स्वामी जाणियंए, मा., लोकालोक प्रकाश । पण दिव्य ध्वनि नवि उपजेए, सु. गणघर विण गुणभास ॥22॥ सौधर्म इंद्र तिहां आवीयोए, सा., देव देवीय सहीत । स्तवन करी स्वामी पूजीयाए, सु. बैठो राग रहित ॥ 23 ॥ भवियण सयल आनंदीयाए, भा., महौछव कीयउ वखाणि । बैठा सरस सोहांवणाए, सु., सुणवा जिणवरवाणि ॥24 ॥ तव इंद्रे वीचारियूंए, मा., इग्यारह सहस्त्र मुनिचंग | समोसरण माहि रूवडाए, सु., तप जप ध्यान उत्तंग ॥ 25 ॥ पण गणधर पदवी नहींए, मा., तेह विण न उपजै वांणि । अवधि ज्ञान करी जोइयूंए, सु., गोतम गणधर जांणि ॥ 26 ॥ ॥ दूहा ॥ ते मिथ्या मति लंकरीयो, न जाणे घरम विचार । विघा मद छे अति घणो, काल लबधि विण सार ॥1॥ काल लवधि सनमुख हुई, हवे संबोधू चंग | इम कही रूप फेरव्यूं, वृद्ध रूप धरीयु उतंग ॥ 2 ॥ ॥ मास चौपइंनी ॥ सन्नि सन्नि सिरीयौ गुणवंत, गौतम कन्है आव्यौ जयवंत । उभो रह्यो तेह आगलि जाणि, बोल्यो मधुरीय सुललित वाणि ॥1॥ एक काव्य आण्यो मे सार, तेहनो अर्थ करो सविचार । हुं संतोषु अति सविसाल, तम्ह जस विस्तरै सुणो गुणमाल ॥2॥ व गौतम बोल्यो इम जाणि, अर्थ कहु तम्ह तणो वखाणि । तो तम्हे किम करे गुणवंत, तम्ह तणो सिष्य होउ जयवंत ॥3 ॥ नही तो अम्हे गुरु तणा तम्हे सिक्ष, हम जाणो गौतम तम्हें रिक्ष । वृद्ध तणो मांन्यो तिहां वौल, कवण विद्वांस पूरे मझ तौल ॥4॥ एहवा पेज कीघी तिन्हु सार, तव सांडिल्य करै विचार । निमित्ती वयण कीम फीरै आज, ए संयोग मिल्यौ गुणकाज ॥ 5 ॥
SR No.521860
Book TitleApbhramsa Bharti 2003 15 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2003
Total Pages112
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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