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________________ 74 अपभ्रंश भारती 15-16 हरिसेणचरिउ - कविराय जीव ओम् नमो वीतरागाय। जिणसासणे दुरियपणासणे अहो जण कण्णु मुहुत्तउ देहु। विमलुज्जलु तउणिम्मलु इहु हरिसेणहो चरिउ सुणेहु ।। पणवेप्पिणु जिणवरू तवविमलु सुरमउड णिहिट्ठ चरणजुयलु। रिसि वंदिवि उत्तम जोयधरा जे असुहकम्म निन्नासयरा। 5. अणुभोवंताह दुरियदलणा लइ चिंतमि का वि धम्मसवणा। धणविहउ नत्थि किंपि वि करमि जं देवि सुपत्तहो उत्तरम्मि। 10 चिंतंतु रत्तिदिणु झीणतणु तउ करिवि न सक्कमि दीणमणु। विहु एयहु वि इक्कुवि णाहि किउ नवि दाणि न संजमि णिय विट्ठउ। अप्पाणउ वंचिउ मूढएण जण धणयर वासा लुद्धएण। अन्नुवि कइ वाउ समुव्वहमि वुहयणे अप्पाणउ उवहसमि। नवि याणमि छंदु न वायरणु नवि गेउ न लक्खणु न विकरणु। नवि सुललिय वाणि णविय हरिसु कइ सीहहं जंवू सम सरिसु। परलोय कज्जि णवि कित्तिमउ पणवमि पमेसरु परमपउ। पइ जिणवरणाह धुणताह पावक्खउ होइ सुणताह। 15 रइ मइ सुइ सुहु आरोउ धणु अह सुरवइ भवणि भोयरवणु। पणवंतह पई तिहुयणतिलउ पाविज्जइ सिद्धि सुक्खणिलउ। घत्ता- विमलुजले सच्छ सुणिम्मले जो अवगाहेवि तवजल ण्हाउ। जिणचलणिहि मुणिवरवयणिहि तहो संपत्तु तित्थ फल साउ॥1॥
SR No.521860
Book TitleApbhramsa Bharti 2003 15 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2003
Total Pages112
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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