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________________ अपभ्रंश भारती 15-16 कहानी है जिसमें दो विवाहों के दुःखद पक्ष को उजागर किया गया है। इसमें वणिक - पुत्र भविष्यदत्त की गाथा है जो अपने सौतेले भाई बन्धुदत्त से छले जाने पर भी अन्त में जिन - महिमा के कारण सुखी होता है। 11 'भविसयत्तकहा' एक पद्यबद्ध रचना है । कवि ने स्वान्तः सुखाय सर्वजनहिताय के लिए दो खण्डों और बाईस सन्धियों में इस ग्रन्थ की रचना की है दुई खंड बईसहँ संधिहिं, परिचिंतय निजहेतु - निबंधहिँ । इस कथा की उल्लेखनीय विशेषता है- लौकिक कथा रस का समावेश और लौकिक चरित की स्थापना । काव्य ग्रन्थों की परम्परागत पद्धति थी- ख्यातवृत्त राजाओं के चरित्र के उद्घाटन की। इस परम्परा को तोड़कर धनपाल ने एक मध्यम वर्ग के सामान्य वणिक - पुत्र की कथा कहकर लौकिक नायक के चरित्रांकन की परम्परा का सूत्रपात किया । इस ग्रन्थ की दूसरी विशेषता है- धर्म के आवरण में लौकिक तथा साहसिक प्रेमकथा का सफल निर्वाह । अपने पति अथवा पुत्र आदि की हितकामना हेतु स्त्रियाँ अनेक प्रकार . के व्रत-उपवास - पूजा-प्रार्थना आदि करती हैं, आकाशद्वीप तथा देवद्वीप जलाती हैं। यह पद्धति आज भी लोक-जीवन का आवश्यक अंग बनी हुई है। इस कृति में भी माँ कमलश्री के श्रुतपंचमी व्रत का फल भविष्यदत्त को हर प्रकार से सफल बनाता है। लोक कथा और धार्मिक कथा को एकसाथ मिलाकर जहाँ कवि पाठक को लोक कथा के सहज रूप से सराबोर करना चाहता है वहीं आध्यात्मिक रस से उबुद्ध भी। यह जैन कवियों की अपनी विशेषता रही है। यह रचना इस बात की साक्षी है कि धनपाल को गृहस्थ जीवन की गहरी अनुभूति थी। फलस्वरूप गृहस्थ जीवन की मार्मिक झाँकियों के सहारे धनपाल ने नारी जीवन की पीड़ा, सन्त्रास, प्रेम, उपेक्षा, सौतियाडाह, ईर्ष्या, कटुता, वात्सल्य, वियोग़ का अत्यन्त मनोहारी दृश्य प्रस्तुत किया है। पति-उपेक्षिता कमलश्री की पीड़ा का अन्त नहीं। उसके जीवन का एकमात्र सहारा उसका अपना पुत्र भी देशान्तर जाना चाहता है और वह भी सौत - पुत्र बन्धुदत्त के साथ। पुत्र भविष्य से सशंकित यात्रा का विरोध करने में उसका कण्ठावरोध हो जाता है, आँखों से आँसू ढलने लगते हैं और वह विगलित वाणी में कह उठती है कि- हा ! पुत्र मैंने तो स्वप्न में भी इसकी कल्पना न की थी । यथा तं णिसुणेवि सगग्गिर - वयणी । भणए जणेरि जलद्दिय - णयणी । हा इउ पुत्त! काइँ पइँ जंपिउ । सिविणंत रिवि णहिं महु जंपिउ ॥ 2.10।। ऐसी स्थिति में वह अपनी वेदना को वाणी प्रदान करते हुए कहती है- एक तो तुम्हारा बाप कुपित होकर ऐसा दुस्सह दाह दे रहा है, ऊपर से तुम जाने को कहते हो, भला
SR No.521860
Book TitleApbhramsa Bharti 2003 15 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2003
Total Pages112
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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