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अपभ्रंश भारती 15-16
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तहिं गयउरु णाउ पट्टणु जण जणियच्छरिउ ।
गणु मुवि सग्गखंडु महि अवयरिउ ।। 1. 5 ।।
वहाँ गजपुर नाम का नगर है जिसने मनुष्यों को आश्चर्य में डाल दिया है, मानो, गगन को छोड़कर स्वर्ग का एक खण्ड पृथ्वी पर उतर आया है।
कवि ने थोड़े-से शब्दों में गजपुर की समृद्धि और सुन्दरता को अभिव्यक्त कर दिया है । "
गहन वन का वर्णन करता हुआ कवि कहता है
दिसामंडलं जत्थ णाउं अलक्खं, पहायं पि जाणिज्जए जम्मि दुक्खं ।।4.3॥ कथा की लोकोक्तियों, सूक्तियों और देशी शब्दों के बहुत से प्रयोग हिन्दी में मिलते हैं। यथा
'किं घिउ होइ विरोलिए पाणिए'
- क्या पानी विलोने (मंथने) से घी प्राप्त हो सकता है ?
कथानक रूढ़ियों की दृष्टि से भी 'भविसयत्तकहा' महत्त्वपूर्ण रचना है। किसी काल्पनिक द्वीप की यात्रा, समुद्र में तूफान से भटकाव, उजाड़ प्रदेश में सुन्दरी की प्राप्ति, राक्षस द्वारा विध्वंस आदि प्रमुख कथानक रूढ़ियाँ हैं।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैन अपभ्रंश साहित्य के विकास और स्वरूपनिर्धारण तथा अपभ्रंश भाषा के निखार में धनपाल का अविस्मरणीय महत्त्व है। वे एक तरफ लोक की वेदना को आत्मसात कर उसे वाणी प्रदान करते हैं, दूसरी तरफ अपने कर्तृत्व के सहारे वे अपने धर्म को लोक-मन का धर्म बना देते हैं। और वे लोक-मन के अच्छे पारखी भी सिद्ध होते हैं। धनपाल भारतीय साहित्य की परम्पराओं, भारतीय संस्कृति के भी पुरोधा हैं। तभी तो व माँ-बेटे की भावनाओं को पारम्परिक ढंग से वाणी देते हुए भी उसे आधुनिक चेतना का पर्याय बना देते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि कालान्तर में इनका और इनकी इस रचना का प्रभाव सूरदास आदि कवियों पर तो पड़ा ही, साथ ही आधुनिककालीन कथा साहित्य भी धनपाल और 'भविसयत्तकहा' से अप्रभावित नहीं रह पाया ।
रस-निरूपण, छन्द-निर्मिति, अलंकार - आयोजन साथ-साथ परम्परा से अलग हटकर लोक-जीवन से चरित्रों का चयन, उनकी कथा, शब्द चयन क्षमता, चित्रात्मक भाषा, उक्ति-वक्रता धनपाल की इस रचना को हिन्दी साहित्य की अमर कृति बना देती है ।