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अपभ्रंश भारती 15-16
यथोक्रम
मण्डलेन य यत्स्त्रीणां नृत्तं हल्लीसकं तु तत्। नेता तत्र भवेदेको गोपस्त्रीणां यथा हरिः। लाट रासकैरन्योन्यदेशीयैः।
तेषां अत्यत्वाद्गीतविशेषणमेतत्॥ इस टीका से ज्ञात होता है कि 'हल्लीसक' में स्त्रियाँ मण्डल बनाकर नृत्य करती थीं। 'जय मंगला' की इस टीका को आचार्य हेमचन्द्र ने अपने ‘अभिधान चिन्तामणि' नामक ग्रन्थ में उद्धृत किया है। उन्होंने अपने ‘देशीनाममाला' में 'हल्लीसक' का अर्थ 'रासक' भी बताया है।
भोज के 'सरस्वतीकण्ठाभरण' के अनुसार 'हल्लीसक नृत्य' तालबन्धविशेषयुक्त 'रास' कहलाता था।
तद्विदं हल्लीसकमेव तालाबन्धविशेषयुक्तं रास एवेत्युच्यते। 'सरस्वती कण्ठाभरण' के टीकाकार शंकर ने लिखा है
अष्टौ षोडशद्वात्रिंशद्यत्र नृत्यन्ति नायकाः।
पिण्डीबन्धानुसारेण तन्नृतंरासकं स्मृतम्॥ - अर्थात् आठ, सोलह या बत्तीस मनुष्य जहाँ पिण्डी-बन्ध बनाकर नृत्य करें वही 'रास' कहा जाता है।
'हरिवंश' के बाद 'विष्णु पुराण' में रासलीला का विस्तृत वर्णन है। उस समय तक 'रास-नृत्य' का पूर्ण विकास हो गया होगा। इस पुराण में शरद की शुभ्र रजनी में कृष्ण का गोपियों के साथ 'रास-मण्डल' बनाकर नृत्य करने का बड़ा भावपूर्ण चित्रण हुआ है। इस नृत्य में प्रत्येक प्राणी का हाथ कृष्ण के हाथ में रहता था
हस्तेन गृह्य चक्रकां गोपीनां रासमण्डलम् ।
चकार तत्कर स्पर्श निमीलतंदृगं हरि॥' नृत्य के साथ-साथ गीत भी इसकी विशेषता थी
रास गेयं जगौ कृष्ण। ‘हरिवंश पुराण' के 'हल्लीसक' और 'विष्णु पुराण' की रासलीला का व्यापक और विस्तृत वर्णन श्रीमद्भागवत् की 'रासपञ्चाध्यायी' में हुआ है।' आगे चलकर भी रास को नृत्य-विशेष के ही अर्थ में समझा जाता रहा। 'वीसलदेव रासो' में रास में गीत, वाद्य