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अपभ्रंश भारती 15-16
अक्टूबर 2003-2004
कइराय जीवकिउ 'हरिसेणचरिउ'
अपभ्रंश भाषा में रचित 'हरिसेणचरिउ' के रचनाकार हैं ‘जीव कवि'। इनके विषय में विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है। प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रतिलिपि की प्रशस्ति में प्रतिलिपिकार का समय सम्वत् 1551 (ईस्वी 1494) है, अत: जीव कवि का समय सम्वत् 1551 से पूर्व तो है ही। कवि के व्यक्तित्व सम्बन्धी प्रामाणिक सामग्री के अभाव में भी काव्य के अनुशीलनात्मक अध्ययन से विदित होता है कि वे विविध विद्याविज्ञ एवं पूर्ववर्ती साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान थे। सामाजिक जीवन के विविध पक्षों को लोक-भाषा में व्यक्त करके जीवन मूल्यों के प्रति लोक को जागृत करने में कवि सफल हुए हैं। इनका काव्य सभी रसों से आप्लावित तथा विभिन्न अलंकारों से सुशोभित है। हरिषेण पर आधारित इस चरिउकाव्य की चार सन्धियों में मानवजीवन के उदात्त मूल्यों की सफल अभिव्यक्ति हुई है। “माँ-बेटे की लौकिक कथा पर आधारित यह काव्य लोकचेतना को विकसित करने तथा चिन्तनशील मानव की अन्तश्चेतना को सनातन सत्य की ओर अग्रसर करने में निःसन्देह एक अद्वितीय काव्य सिद्ध होता है। इसलिये यह काव्य मात्र हरिषेण का ही चरित्र नहीं है बल्कि भारतीय जीवन के इतिहास और संस्कृति का आकर ग्रन्थ है।"