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अपभ्रंश भारती 15-16
(1.6) (विसद्ध राजा की दूसरी पत्नी लक्ष्मी द्वारा अपने सौभाग्य-सूचक रथ को पहले घुमवाना)
राजा के एक दूसरी भार्या भी थी जो तारुण्य में अधिक प्रखर व नाम से लक्ष्मी थी। जैसे इन्द्र अपनी कान्ता का वरण करता है वैसे ही राजा उसके साथ भोग भोगता है। वह सुन्दर युवती, मृगनयनी, उन्नतपयोधरा और चन्द्रमुखी थी। अनुराग और राग से उसने राजा का चित्त अपने वश में कर लिया।
___ स्वामी को आनन्दोत्साह में स्थित जानकर उसने निवेदन किया कि हे स्वामी! मेरा रथ घूमे। सौभाग्य सूचक रथ में पति के परिभ्रमण करने पर निश्चय से सौत के बीच मेरी जीत होती है। तब राजा ने उसके साथ प्रेम भंग नहीं किया औ यह कहा कि रथ घुमाओ।
घत्ता- इसी बीच में लक्ष्मी के लिए दिये हुए वरदान का समाचार किसी ने वप्रा के घर में कहा। उन अति असहनीय वचनों से उसकी छाती मानों त्रिशुल से विदारित हुई।
(1.7) (मान से रहित वप्रादेवी का आहार त्याग करना) पराभव के इस कथन को सुनकर क्षणमात्र में वप्रादेवी के चित्त में अत्यन्त पीड़ा उत्पन्न हुई। शोकातुर व म्लानशरीर वह निरन्तर आँसूओं की धारा छोड़ती है और रोती है। तालाब में हिम से आहत कमलिनी की तरह वह मुखकमल को बायें हाथ पर स्थापित कर निश्वास लेकर दुःख सहित पुन: कहती है कि मायावी के कुटिल हृदय को इस प्रकार कौन जानता है।
अविवेकी राजा ने यह क्या किया? सुपथ को छोड़कर निन्दित पथ में स्थित हुआ। इतने समय से मार्ग में मेरा रथ लगातार पहले घूमता रहा है। उस कामुक लक्ष्मी के लिए उसके द्वारा जो अभीष्ट है इस समय वह मुझ पराजित का प्रभात है। अब तिरस्कार व मान से परित्यक्त मेरा जीवित रहने से क्या प्रयोजन?
यदि रथवान पहले जिनवर को घुमावेगा तो मेरी पुनः प्रवृत्ति होगी और नहीं घूमता है तो निश्चित रूप से अपने को स्थित करके मेरी दो प्रकार के आहार से निवृत्ति की गयी।
घत्ता- प्रेम से रहित, ग्रहण व पोषण की वाँछा से त्यक्त मुझ निस्तेज का दुर्दिनों के चन्द्र प्रकाश के सदृश कौनसा मान रहा।