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अपभ्रंश भारती 15-16
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(1.8) (माँ की तिरस्कृत अवस्था देख हरिषेण का क्रोधित होना) तब इसी बीच मनोहर गुणों का धारी धर्नुविद्या व गीत गाने की कला के विषयों में श्रेष्ठ गुरु के पास से आये हुए हरिषेण ने अपने भवन में माँ को देखा। कड़े आदि आभूषणों से रहित उदासचित माँ को इस प्रकार देखकर उसके चरणों में सिर लगाकर स्थित हुआ (और बोला) हे माता कहो- किसने आपका तिरस्कार किया है?
कौन मनुष्य जलती हुई आग में चढ़ा है। कौन आज यमराज के मुख में गिरा है। किसने सर्प के मुख में हाथ डाला है। कौन मनुष्य मृत्युराज के द्वारा देखा गया है। मुझको शीघ्र कहो कहो, हे माँ जो तुम्हारा दुश्मन है मैं उसको पकड़ कर नष्ट करता हूँ। जिसके दोनों भुजदण्ड है उस मेरे जैसे मनुष्य का इस धरती पर क्या महत्त्व है?
तुम्हारे वचनों को सुनकर मैं क्या करूँ? क्या नीचे पाताल में प्रवेश करूँ अथवा कमल-नाल की तरह तोड़कर टुकड़े-टुकड़े कर दूं। क्या शेषनाग के फण समूह को मसल दूँ। क्या महान मेरुपर्वत को ऊपर उठा लूँ। क्या पृथ्वी और चन्द्रकिरणों को वश में कर लूँ। क्या साँप का जहर नीचे गिर गया है उसके नाश के लिए चलने वाले पहाड़ को लाऊँ।
घत्ता- प्रहार करते हुए अत्यधिक बलवान को भी युद्ध में यमराज के लिए रास्ता दिखाता हूँ। नभतल और पृथ्वीतल रूप इस लोक में तुम्हारा पराभव करने में कौन समर्थ है?
(1.9) (विसद्ध के द्वारा किये गये तिरस्कार से वप्रा का अनशनपूर्वक मरण करने का कथन)
जलरहित कमलिनी की तरह म्लान मन पुत्र के वचनजल से आश्वस्त की गई माँ मन में हर्ष व शोक को धारण करती है और हरिषेण को अपनी बात बताती है। ना ही मेरा कोई अन्य तिरस्कार करने वाला है और ना ही वैरी। हे पुत्र! मैं तुम्हारे पिता के द्वारा तिरस्कृत हूँ। इतने समय से मार्ग में मेरा रथ लगातार घूमता रहा है।
उस कामुक लक्ष्मी के लिए उस राजा के द्वारा जो अभीष्ट है वही निश्चित रूप से अभी मेरे पराजित होने का प्रभात है। इसके लिए मैंने निश्चय से ऐसा गौरव कार्य किया है कि मैं तुमको शर्मिन्दा नहीं होने दूंगी।
घत्ता- जो बोला जाता है वैसा ही किया जाता है। व्यक्त की गयी बात के लिए मैं झूठ नहीं बोलती। यदि मेरा रथ पहले नहीं घूमता है तो निरन्तर अनशनपूर्वक मरूँगी।