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अपभ्रंश भारती 15-16
(1.4) (हरिषेण कुमार की युवावस्था की क्रीड़ाएँ) हरिषेण कुमार युवावस्था को प्राप्त होने पर समवयस्कों के साथ क्रीड़ा करता है। तमाशे में देखने पर मृदंग के साथ गन्धर्व-गीत से कीलित कर देता है। निपुण, ज्ञानी व प्रतिभाशाली वह प्रयत्न व बलपूर्वक उठे हुए दोनों चरणों की नाट्यकला से मुरज सहित जीवों के आचार-विचार दिखाता है।
__ आलापनी व तीसर वीणा (बजाने का) अपने मन में विचार करता है। फिर उसको छोड़कर बाणों की छड़ियों को गिनता है। खड्ग, मूसल, मुसंढि व सीप का वरण करता है। उनको आकाश में गैंद की तरह घुमाकर ग्रहण करता है। लकड़ी के उपकरण से गमन क्रिया में दक्ष वह आकाश व नगरों को लाँधने की विद्या, (साँप के विष को उतारने वाला) गारुड़मंत्र, सामुद्रिक शास्त्र तथा शुभराग से सम्बन्धित कथा शास्त्रों को जानता है। पराक्रम से धुरा को वहन करने में धुरन्धर वह घोड़ों को वश में करता है तथा किलकारी मारकर जलयंत्र से क्रीड़ा करता है।
घत्ता- मणि कुण्डल की शोभा को अच्छी तरह प्राप्त वह श्रेष्ठ हरिषेणकुमार मणि रत्नों से निर्मित सुन्दर भवन में जनसमूह एवं मतवाले हाथियों सहित भोगों को भोगता है।
(1.5) (रानी वप्रा का अष्टाह्निका पर्व पर जिनरथ घुमाने का आदेश)
इसी बीच पुण्य बहानेवाला अष्टाह्निका के दिन आये। तब मन में आनन्दित वप्रादेवी प्रसन्न मन से अपने आश्रित जनों को आदेश देती है। जो जिनप्रतिमा से सुशोभित रथ नगर के बीच स्वच्छ मार्ग पर घूमता है उस स्वर्ण, मणि एवं रत्नों से जगमगाते हुए स्वर्णदण्ड, हिलती हुई श्रेष्ठ श्वेतध्वजा, क्षुद्रघण्टिका व घण्टों के तुमुल कोलाहल वाले जिनवर के रथ को शीघ्र जोतो।
घत्ता- अत्याधिक दीप्त चन्दन आदि द्रव्यों से जिनालयों में शीघ्र शोभा करो। प्रवेश करते हुए जिनस्वामी के आगे स्वर्णकलश धारण करो।