Book Title: Apbhramsa Bharti 2003 15 16
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 86
________________ अपभ्रंश भारती 15-16 संपा. - अनु. - 75 हरिषेणचरित श्रीमती स्नेहलता जैन ( ओम् नमो वीतरागाय । ) हे मनुष्यों! पापों का विनाश करनेवाले अर्हत्देव के शासन में कानों को दो घड़ी का समय दो । निर्मल, उज्ज्वल व तपश्चर्या से विशुद्ध इन हरिषेण का चरित्र सुनो। तपस्या से निर्मल, देवों के मुकुट से घर्षित चरणयुगल है जिनके ऐसे जिनवर को प्रणाम करके उत्तम योग के धारी, अशुभ कर्मों का विनाश करनेवाले मुनिवर का स्तवन करके (मुझ) भोगते हुये के पापों को नष्ट करने के लिए लो मैं कुछ धर्म सुनने के लिए विचार करता हूँ से आहत मैं और कुछ भी नहीं कर सकता जो सुपात्र के लिए देकर पार उतर सकूँ। रात-दिन यही चिन्ता करता हुआ कृशकाय व शोकग्रस्त मन वाला मैं तप करने के लिए भी समर्थ नहीं हूँ। इन दोनों में से मैंने एक भी नहीं किया। ना ही दान में और ना ही संयम में स्वयं को प्रविष्ट किया । जन, धन, घर और वस्त्र के लोभ से मुझ मूर्ख ने अपने आप को ठगा । मूर्ख कवियों के शब्दों को मैं ढोता हूँ तथा पण्डित लोगों में मैं हँसी करवाता हूँ। ना मैं छन्द शास्त्र जानता, न शब्द शास्त्र, ना ही गीत, न वस्तु का स्वरूप और न विक्षेपण । वानर, सिंह और गीदड़ के तुल्य मैं ना ही सुन्दर वाणी जानता हूँ और ना ही प्रसन्नता जानता हूँ । इतर जन के लिए करने योग्य कार्य से कीर्तिवान् नहीं हुआ मैं उत्कृष्टपदवी परमेश्वर को प्रणाम करता हूँ। हे जिनवर स्वामी! आपकी स्तुति करते हुए और सुनते हुए जीव के पापों का नाश होता है। हे त्रिभुवन तिलक ! आपको प्रणाम करनेवालों को प्रीति, बुद्धि, निर्मलता, शान्ति, निरोगता, धन और इन्द्र के भवन में रमणीय भोग तथा सुख के आश्रय अणिमा आदि शक्तियाँ प्राप्त होती है। घत्ता - जिसने विशुद्ध, दीप्त, स्वच्छ तथा पूर्णरूप से निर्मल तपश्चर्या रूपी जल में अवगाहन कर स्नान किया है, जिनवर की प्रथा व मुनिवर के वचनों में उसको तीर्थों का मधुर फल सम्यक् रूप से प्राप्त हुआ है।

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