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अपभ्रंश भारती 15-16
अक्टूबर 2003-2004
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अपभ्रंश के जैन रासा-काव्य
परम्परा और प्रयोग
__- डॉ. गदाधर सिंह
‘रास' के लिए रास, रासो, रासक, रासु, रासड, रासा आदि अनेक पयार्यवाची शब्द प्राप्त होते हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार जिनमें नरोत्तम स्वामी मुख्य हैं, वीर-रसपूर्ण काव्य को ‘रासो' और वीर रस से भिन्न भावनाओं को वहन करनेवाले काव्य को 'रास' कहते हैं। ‘रास और रासान्वयी काव्य' के सम्पादक-द्वय सर्वश्री डॉ. दशरथ ओझा एवं दशरथ शर्मा ने नरोत्तम स्वामी के मत से असहमति व्यक्त करते हुए कहा है कि- "रास, रासक और रासो एकार्थवाची हैं। इनमें कोई भेद नहीं।' इन विद्वानों ने अपने निर्णय का आधार ‘भरतेश्वर बाहुबलीरास', रेवंतगिरि रास', 'नेमिरास', 'आबूरास', 'कलि रास', 'चन्दनबाला रास', ‘समरा रास' आदि को बनाया है जिनमें रासहं, रासउ, रासो, रास, रासक आदि शब्द किसी विशेष भावना का द्योतन न कर सामान्य अर्थ में ही व्यवहृत हुए हैं। इन दोनों मतों में सम्पादक-द्वय का सिद्धान्त अधिक परिपक्व प्रतीत होता है।
रास-परम्परा का प्रारम्भ अपभ्रंश-युग से बहुत पूर्व ही हो चुका था। इसका उल्लेख 'अग्निपुराण', 'विष्णुपुराण', 'भागवतपुराण' आदि पुराण-ग्रन्थों में प्राप्त होता है। इस समय तक अपभ्रंश में साहित्यिक रचनाओं का प्रणयन प्रारम्भ नहीं हुआ था। इन पुराण-ग्रन्थों में नृत्य एवं गान के अर्थ में 'रास' प्रचलित थे।