Book Title: Apbhramsa Bharti 2003 15 16
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 55
________________ 44 अपभ्रंश भारती 15-16 तथा नृत्य-- तीनों के उपयोग की बात कही गयी है सरसती सामरणी करउ हउ पसाउ। रास प्रगासउँ बीसल-दे-राउ ।। खेलाँ पइसइ माँडली। आखर आखर आणाजे जोड़ि। xxx गावणहार मांडइ र गाई। रास कइ (सम) यह बँसली बाई॥ ताल कइ समचइ घूघटी। माँहिली माँडली छीदा होइ॥ बारली माँडली . माधणा। रास प्रगास ईणी विधि होइ।। इस विवेचन से स्पष्ट है कि 'रास' एक प्रकार का लोक-नृत्य था जिसमें मण्डली बाँधकर स्त्री-पुरुष वाद्य की ताल पर गीत के साथ नृत्य करते थे। आज भी 'संथाल-नृत्य' और ‘भाँगड़ा-नृत्य' इसी प्रकार के नृत्य विशेष हैं। लोक-मानस का झुकाव इस नृत्य विशेष की ओर अधिक देखकर साहित्य ने एक विशेष विधा के रूप में इसे स्वीकार कर लिया और कालान्तर में यह भाव-विशेष की सीमा में न बँधकर विविध भावों का समर्थवाहक बना। अतः ‘रास' का उद्भव विशुद्ध साहित्य से न होकर लोक-नृत्य से हुआ है, यह निर्विवाद है। साहित्य और काव्य शास्त्र में 'रास' को तीन अर्थों में ग्रहण किया गया है- 1. नृत्य के अर्थ में, 2. रूपक-भेद के रूप में और 3. छन्द-विशेष के रूप में। 'कर्पूरमंजरी' (4.10) में 'दण्डरास' का और ‘उपदेश रसायन रास' में 'तालरास' और 'लउडरास' का उल्लेख हुआ है तालरासु विदिति न रयणिहिं। दिवसि वि लउडारसु सहुं पुरिसिहि॥" चौदहवीं शताब्दी में लिखित 'सप्तक्षेत्रि रासु' में दो प्रकार के रास का वर्णन हैताला रास और लकुट रास। 'ताला रास' भाटों द्वारा पढ़ा जाता था और ‘लकुट रास' नृत्य के साथ-साथ क्रीड़ित होता था। सम्भव है, इसमें दो छोटे-छोटे डण्डे भी रहते हों। तीछे तालारास पडइ बहु भार पढ़ता। अनइ लकुट रास जोहइ खेला नाचंता ।।

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