Book Title: Apbhramsa Bharti 2003 15 16
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 59
________________ 48 इह जिणदत्तु वएस रसायणु इह-परलो यह सुक्खह भायणु । कण्ण जलिहि पियंति जि भव्वइं ते हवंति अजरामर सव्वई ।। 80 ।। इस रास में पञ्झटिका-पद्धटिका छन्द का प्रयोग हुआ है। अम्बा देवी रास एवं अन्तरंग रास अपभ्रंश भारती 15-16 ग्यारहवीं शती में लिखित इन रास ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है किन्तु इन ग्रन्थों के अवलोकन का सौभाग्य अभी तक किसी को प्राप्त नहीं हुआ है। बारहवीं - तेरहवीं शती राससाहित्य रचना के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इस काल में विविध भावनाओं से समन्वित अत्यन्त सुन्दर-सुन्दर रास-काव्यों का प्रणयन जैन कवियों ने किया। इनमें भरतेश्वर बाहुबलि घोर रास (वज्रसेन सूरि, वि.सं. 1241 बुद्धिरास, शालिभद्र सूरि ), चन्दबालारास (कवि आसगु, वि.स. 1271 लगभग), नेमिनाथ रास ( सुमति गणि) इत्यादि महत्त्वपूर्ण हैं। 18वीं शती तक रास - काव्यों के प्रणयन की धारा अनवरत रूप से प्रवाहित होती रही। इन काव्यग्रन्थों का महत्त्व कथ्य की दृष्टि से तो है ही, भाषा एवं शिल्प के स्वरूप के अध्ययन की दृष्टि से भी बहुत अधिक है। जैन रासा - काव्यों का जीवन-दर्शन जिस प्रकार राजाश्रित कवियों ने अपने आश्रयदाताओं की प्रशंसा में रासो और चरित-ग्रन्थों की रचना की है, उसी प्रकार जैन मुनियों ने भी अपने धार्मिक सिद्धान्तों की व्याख्या करने, धार्मिक पुरुषों के चरित- गान द्वारा धर्म का वातावरण निर्मित करने तथा . अपने तीर्थ-स्थानों के प्रति भक्ति-भावना बढ़ाने के उद्देश्य से इन रासो-ग्रन्थों की रचना की है। ये रासो-ग्रन्थ ऐतिहासिक भी हैं और कल्पना - प्रसूत भी, किन्तु कल्पनाजन्य रास ग्रन्थों की संख्या अत्यल्प है। जैन मुनियों एवं कवियों ने धार्मिक और पौराणिक चरित्रों को आधार बनाकर ही अधिकांश रासो ग्रन्थों का प्रणयन किया है। पौराणिक और ऐतिहासिक चरित्र को आधार बनाकर जो रास ग्रन्थ लिखे गए हैं उनमें बाहुबलि और नेमिनाथ पर रचित रचनाओं की संख्या अधिक है। इन रासा -ग्रन्थों में मानव हृदय को स्पन्दित करने की जो क्षमता है वही इनकी लोकप्रियता का आधार है । प्रारम्भ में इन रासा - काव्यों का कलेवर क्षीण हुआ करता था । सम्भवतः अभिनेयता को दृष्टि में रखकर ही ऐसा किया जाता था । ये रास मन्दिरों में नृत्य-गीत के साथ अभिनीत होते थे, किन्तु आगे चलकर बड़े-बड़े रास-काव्य लिखे जाने लगे। इस प्रकार रास काव्यों

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