Book Title: Apbhramsa Bharti 2003 15 16
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 56
________________ अपभ्रंश भारती 15-16 45 समरा रास (सं. 1376) द्वारा ज्ञात होता है कि 'लकुट रास' में गीत-नृत्य के साथ अभिनय भी होता था जलवटु नाटकु नवरंग ए रास लउड रास ए।" नृत्य करते समय नृत्यांगनाओं की घाघरी में लगे हुए घुघरू झमक-झमक उठते थे खेला नाचइ नवल परे घाघरि रवु झमकइ। अचरिउ देषिउ धामि यह कह चित्तु न चमकइ॥4 इस प्रकार 'रासक' नृत्य के एक भेद के रूप में साहित्य में गृहित था। इसी का क्रमश: विकास हुआ और आचार्य हेमचन्द्र के समय में आकर इसने 'गेय काव्य' की प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली। आचार्य हेमचन्द्र ने 'रासक' को अपने ‘काव्यानुशासन' में गेय काव्य के अन्तर्गत स्थान दिया है। उनका 'रासक' से तात्पर्य सम्भवत: नाटकों के बीच गाये जानेवाले 'गीतों से था। आचार्य श्री ने 'माणिका', 'रामाक्रीड' आदि गेय उपरूपकों के अभिनय के लिए 'भाष्यते' शब्द का प्रयोग किया है ऋतुवर्णन संयुक्तं रामाक्रीडंतु भाष्यते॥5 'सन्देश रासक' में भी ‘भासियई' शब्द आया है जिसकी व्याख्या में कहा गया है“वस्तुतः भाँडों द्वारा नौटंकियों में गाये जानेवाले गीतों के लिए 'रासक' शब्द प्रयुक्त हुआ है।' आचार्य क्षेमेन्द्र ने ‘रासक' का अर्थ ग्वालों की क्रीड़ा तथा भाषा में शृंखलाबद्ध रचना होना लिखा है क्रीडासुगोदुदामशृंखलिके॥" हेमचन्द्र के शिष्य रामचन्द्र ने 'नाट्य दर्पण' में 'रासक' का लक्षण हेमचन्द्र के लक्षण से कुछ भिन्न रूप में प्रस्तुत किया है, किन्तु उन्हें भी उसका नृत्य-गीतवाला रूप मान्य है षोडशं द्वादशाष्टौ वा यस्मिन् नृत्यन्ति नायिकाः। पिण्डी बंधादि विन्यासे रासकं तदुदाहृतम। पिण्डनात् तु भवेत पिण्डी गुम्फनाच्छंखला भवेत् । भवेनाद् भेद्यको जातो लता जालापनोदतः। कामिनीभिर्गुवीमर्तुश्चेष्टितं यत नृत्यते। रामाइवसन्तभासाद्य स शेषो नाट्यरासकः॥ 'रासक' को रूपक का एक भेद मान जाता रहा है। भरत के 'नाट्यशास्त्र' में लास्य-नृत्य के दस अंगों का उल्लेख तो है, किन्तु उनमें 'रासक' का उल्लेख नहीं है

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