Book Title: Apbhramsa Bharti 2003 15 16
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 38
________________ अपभ्रंश भारती 15-16 27 कहीं-कहीं कवि ने 'अइ' के प्रचलित रूप को अपनाया है, यथा- कइलासु, दइव, वइरिय आदि। शब्दों की इस प्रवृत्ति से भाषा में कोमलता तथा लालित्य का समावेश हो गया है। शब्दों की पुनरुक्ति से काव्य में अद्भुत सौन्दर्य की सृष्टि हुई है। कवि कहीं सर्वनाम और कहीं क्रिया-विशेषण की पुनरावृत्ति करता है। इस प्रकार स्थान विशेष का समग्र चित्र अंकित हो जाता है और इसमें उसे पूर्ण सफलता मिली है। इस चित्रण-कौशल के साथ कथा की गतिशीलता भी बनी रहती है। अत: इसे पुनरुक्ति-दोष नहीं कहा जा सकता। प्रथम सन्धि में अंग-देश का वर्णन करते हुए कवि स्थान-सूचक सार्वनामिक विशेषण का अनेक बार प्रयोग करता है जहिँ सरवरि उग्गय पंकयाइँ, णं धरणिवयणि णयणुल्लयाइँ। जहिँ हालिणिरूवणिवद्धणेह, संचल्लहिँ जक्ख ण दिव्व देह॥ जहिँ बालहिँ रक्खिय सालिखेत्त, मोहेविणु गीयएँ हरिणखंत। जहिँ दक्खइँ भुंजिवि दुहु मुयंति, थलकमलहिँ पंथिय सुहु सुयंति। जहिँ सारणिसलिलि सरोयपंति, अइरेहइ मेइणि णं हंसति ॥ 1.3.6-10 अर्थात् जहाँ के सरोवरों में कमल उग रहे हैं, मानो धरणी के मुख पर सुन्दर नयन ही हों। जहाँ किसान-स्त्रियों के रूप में स्नेहासक्त होकर दिव्य देहधारी यक्ष निश्चल हो गये हैं। जहाँ बालिकाएँ चरते हुए हरिणों के झुण्डों को अपने गीत से मोहित करके धान के खेतों की रक्षा कर लेती है जहाँ पथिक दाख का भोजनकर अपनी यात्रा के दुःख से मुक्त होते हैं और स्थल-कमलों पर सुख से सो जाते हैं। जहाँ की नहरों के पानी में कमलों की पंक्ति अति शोभायमान होती है, जैसे मानो मेदिनी हँस उठी हो। यहाँ 'जहिं' की पाँच बार आवृत्ति की गई है और वर्ण्य-विषय का बार-बार कथन करके उससे सम्बद्ध अनुभवों को समाविष्ट करने का प्रयत्न दिख पड़ता है। इससे तत्कालीन समाज और अंग-देश की समृद्धि का भी परिचय मिलता है। यह आलंकारिक भाषा का सौन्दर्य सचमुच अनूठा है। इसी प्रकार 9वीं सन्धि में चम्पा के उपवन में मुनि शीलगुप्त के आगमन पर उन्हें देखने के लिए जाती हुई नगर की स्त्रियों के हृदय के उत्साह का चाक्षुष-बिम्ब ही जैसे सर्वनाम की पुनरुक्ति के सहारे साकार हो गया है। इससे चित्रण में अलग ही प्रभावोत्पादकता समाहित हो गई है क वि माणिणि चल्लिय ललियदेह, मुणिचरणसरोयहँ बद्धणेह। क वि णेउरसदें रणझणंति, संचल्लिय मुणिगुणं णं थुणंति।

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