Book Title: Apbhramsa Bharti 2003 15 16
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

View full book text
Previous | Next

Page 45
________________ 34 अपभ्रंश भारती 15-16 वासिनी अप्सराओं के अभीष्ट मार्ग को प्राप्त हुए। श्लेष से कवि ने स्रग्विणी छन्द का भी नाम-निर्देश किया है, जिसमें उसने रचना की है। इसी प्रकार ‘सूरु' तथा 'पहर' में श्लेष अलंकार है, यथा ता एत्तहिं रवि अत्थइरि गउ, बहुपहरहिं णं सूरु वि सुयउ। 10.9.4 अर्थात् इतने में सूर्य अस्त हो गया। बहुत पहरों के बाद थका सूर्य मानो सो गया हो या बहुत प्रहारों से मानो शूरवीर सो गया हो- सूरु= सूर्य, शूरवीर; पहर= पहर, प्रहार। __ प्रकृति, नगर-वर्णन आदि में कवि अपनी मौलिक उद्भावना से ऐसे अप्रस्तुतों (उपमानों) का विधान करता है कि पाठक एकदम नये धरातल पर पहुंचकर नये अनुभव से संपृक्त हो उठता है। उसकी कल्पनाशक्ति बड़ी प्रबल है। एकसाथ अनेक उत्प्रेक्षाओं की वह झड़ी-सी लगा देता है जिससे नये-नये बिम्ब उपस्थित हो जाते हैं। क्षणमात्र में गुण, धर्म एवं रूप-साम्य को द्योतित करनेवाले अनेक उपमान उसे सूझ जाते हैं। उसकी सूक्ष्म निरीक्षण क्षमता और मौलिकता पर दंग रह जाना पड़ता है। सिंहासन की गाँठ के टूटते ही जलवाहिनी के निकलने पर कवि की उत्प्रेक्षाओं का बिम्ब दर्शनीय है गुरुघायवडणे णिग्गय फुलिंग, णं कोहवसइँ अहिजलणलिंग। तहे गंठिहे वयणहो बहलफार, ता णिग्गय तक्खणि सलिलधार। पढमउ भुंभुक्कड़ णिग्गमेइ, णं मेइणि भीएँ उव्वमेइ। णिग्गंती बाहिरि सा विहाइ, महि भिंदिवि फणिवइघरिणि णा। परिसहइ सा वि भूमिहिँ मिलंति, गंगाणइ णं खलखल खलंति। पसंरतिएँ ताएँ खणेण भव्वु, तं भरियउ लयणु जलेण सव्वु । णं अमियकुंडु बहुरसजलेण, णं धम्मसारु थिउ जलछलेण। 4.14.2-8 अर्थात् टाँकी की भारी चोटें पड़ने से चिनगारियाँ निकलने लगीं, मानो शेषनाग के क्रोधवश जल उठने के चिह्न हों। फिर मुख से भुक-भुक करती हुई भारी जल की धार निकली मानो मेदिनी भय से वमन करने लगी हो; मानो पृथ्वी को भेदकर नागेन्द्र की गृहिणी निकल पड़ी हो। भूमि में मिलकर वह ऐसी शोभायमान हुई मानो गंगा नदी खलखला रही हो। उसने एक क्षण में ही सारे लयण को जल से भर दिया मानो वह बहुत रसों के जल से भरा अमृतकुण्ड हो अथवा जल के बहाने से धर्मसार भरा हो। ये सभी उपमान नूतन और मौलिक हैं। इसी प्रकार चम्पा नगरी का वर्णन अनेक उपमानों से खिल उठा है। वहाँ जिनमन्दिर ऐसे शोभायमान हैं मानो अभंग पुण्य के पुंज हों जिणमन्दिर रेहहिं जहिं तुंग, णं पुण्णपुंज णिम्मल अहंग। 1.4.3

Loading...

Page Navigation
1 ... 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112