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अपभ्रंश भारती 15-16
इसी प्रकार ‘हुओ घरु बुद्धिसमिद्धिहे जो वि' ( 8.6.7 ) अर्थात् सुआ बुद्धिसम्पत्ति का घर हो रहा था तथा 'भत्तीभरेण मणु जासु भिण्णु' (10.5.8) अर्थात् उसका मन भक्ति के भार से भर रहा था, में लक्षणा - शक्ति का प्रयोग हुआ है ।
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जब अभिधा तथा लक्षणा अपना-अपना अर्थ स्पष्ट करके विरत हो जाती हैं, किन्तु फिर भी वक्ता का अभिप्राय स्पष्ट नहीं होता तब शब्द की व्यंजना-शक्ति का प्रश्रय लिया जाता है। इससे प्राप्त अर्थ को व्यंग्यार्थ और शब्द को व्यंजक कहा जाता है । यथाजब करकण्ड मदनावली के चित्र पर मुग्ध हो गया तब उस मनुष्य ने इतनाभर कहा- वह कमलदलाक्षी शशिवदना आपके करतल को अपने कर पल्लव में ग्रहण करे -
सा कमलदलच्छी सासिवयण तउ करयलु करपल्लवे धरउ । 3.7.10
यहाँ कर को कर में धरने का तात्पर्य विवाह होने (पाणिग्रहण) से है। इसी की व्यंजना भी गई है। ऐसे ही दूसरी सन्धि के चौथे कड़वक में शरीर को तृणवन- 'तणुवणे' कहकर इसकी क्षणभंगुरता का संकेत किया गया है। इसी में मुनि द्वारा विद्याधर के लिए 'भगोड़े' (भग्ग) शब्द का प्रयोग करके उसकी निराशाजन्य मनः स्थिति की व्यंजना की गई है।
प्रबन्ध-काव्य में अलंकार - योजना का भी विशेष महत्त्व है। भावों की स्फुट अभिव्यक्ति और वस्तु के उत्कर्ष चित्र या बिम्ब को अभिव्यंजित करने के लिए अलंकार आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी हैं। यदि कल्पना भावों को जगाती है तो अलंकार उन्हें रूप प्रदान करते हैं। ये भाव के पीछे-पीछे चलते हैं। वास्तव में सीधी-सादी बात में आकर्षण कम दिखाई देता है, अलंकार-योजना से उसका चमत्कार बढ़ जाता है। इसी से काव्य-भाषा में इनका महत्त्व है।
कवि अपनी उक्ति को मनोहर तथा अधिक प्रभावपूर्ण बनाने के लिए भावों में अलंकारों का प्रयोग करता है। इसके लिए वह अप्रस्तुत विधान का प्रश्रय लेता है । इन अप्रस्तुतों का भाव तथा परिस्थिति के अनुकूल होना परमावश्यक है। इनकी सार्थकता इसी में है कि ये भाषा के प्रयोग में स्वतः आ जाये । प्रयत्नपूर्वक लाये गये अलंकारों से भाषा बोझिल हो जाती है। प्रस्तुत काव्य में वे सहज आये हैं और शब्दालंकार तथा अर्थालंकार दोनों प्रकार के हैं। इनके अप्रस्तुत - विधान में परम्परागत उपमानों के साथ नूतन एवं मौलिक उपमानों के प्रयोग भी दर्शनीय हैं। तभी तो भावाभिव्यंजना तथा वस्तु-नियोजन में सौष्ठव आपूरित हो गया है।
शब्दालंकारों प्रयोग किया है, यथा
कवि ने अनुप्रास के अतिरिक्त श्लेष तथा यमक अलंकार का भी
के वि संगामभूमीरसे रत्तया, सग्गिणीछन्दमग्गेण संपत्तया । 3.14.8
यहाँ 'सग्गिणी' शब्द में श्लेष है अर्थात् कोई वीर संग्राम-भूमि में अनुरक्त, स्वर्ग