________________
अपभ्रंश भारती 15-16
शब्दाडम्बर-रहित सरल और संयमित भाषा में जहाँ कवि ने गम्भीर भाव अभिव्यक्त किये हैं वहाँ उसकी शैली अधिक प्रभावी हो गई है। नौवीं सन्धि के चौथे कड़वक में रोती हुई स्त्री के विलाप का कारण जानकर जब करकण्ड संसार की असारता तथा क्षणभंगुरता का प्रतिपादन करता है, वहाँ इस प्रकार की भाषा-शैली के दर्शन होते हैं- 'धिक् धिक् यह मर्त्यलोक बड़ा असुहावना है। शरीर का भोग ही मानव के दुःख का कारण है। यहाँ समुद्र के तुल्य महान् दुःख हैं तथा भोगों का सुख मधु - बिन्दु के समान है, अत्यल्प है। हाय यहाँ मानव दु:ख से दग्ध-शरीर होकर बुरी तरह कराहता हुआ मरता है। ऐसे संसार में निर्लज्ज और विषयासक्त मनुष्य को छोड़ और कौन प्रीति कर सकता है ?
29
इसी प्रकार अनित्य - भावना के निरूपण में ( 9.6) नारी के संकेत भी वैराग्योत्पत्ति काही मूल है, क्योंकि जिस प्रकार हथेली पर रखते ही पारा गल जाता है उसी प्रकार नारी विरक्त होकर क्षणभर में चली जाती है
जड़ सूयइ करयलि थिउ गलेउ, तह णारि विरत्ती खणि चलेइ ।
हथेली पर पारे की तरह कहकर नारी के क्षणिक संग-सुख की प्रभावी व्यंजना यहाँ हुई है। वीतरागी कवि का यह अप्रस्तुत विधान बड़ा सार्थक तथा उसकी प्रवृत्ति के अनुरूप सर्वथा सटीक है।
भाषा को भावानुरूप बनाने के लिए कवि ने ध्वन्यात्मक शब्दों का भी प्रयोग किया है। इससे भाव की उत्कृष्ट व्यंजना तो हो ही गई है, वातावरण का संज्ञान भी तत्सम्बन्धी ध्वनि-बिम्ब से हो जाता है। चौथी सन्धि में जब हाथी सरोवर में कमल लेने आता है तब उसके कानों की झलमल ध्वनि, जल के हिलने की ध्वनि, सूँड में जल भरकर इधर-उधर उडेलने की उसकी प्रक्रिया तथा कमलों को तोड़ने की ध्वनि से एक अनूठे वातावरण का सृजन हो जाता है
सरोवरे पोमइँ लेवि करिंदु, समायउ पव्वउ णाइँ समुहु । झलाझल कण्णरएण सरंतु, कवोलचुएण मएण झरंतु । सुपिंगललोयणु दंतहिँ संसु, चडावियचावसमुण्णयवंसु । दूरेहकुलाइँ सुदूरे करंतु, दिसामुह सुंडजलेण भरंतु । 4.6.4-6
यहाँ ध्वनि-बिम्ब तो उपस्थित हुआ ही है, दो-दो शब्दवाले छन्द में भी उसकी लय एवं गति में एक आकर्षण आपूरित हो गया है। तीसरी सन्धि के 18वें कड़वक युद्ध वातावरण का चित्र दर्शनीय है। ऐसे अनेक ध्वन्यात्मक शब्दों का सफल प्रयोग यहाँ देखे ही बनता है, यथा- गुलगुलंत, हिलहिलंत, धरहरंत, फरहरंत, थरहरंत ( 3.14), भज्जंति, गज्जंति, तुहंति, फुहंति, मोडंति, तारंति ( 3.14), बुक्करंति (4.5) ; भुंभुक्कड़, खलखल (4.24), फुक्करिवि (5.27 ) आदि ।