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अपभ्रंश भारती 15-16
अक्टूबर 2003-2004
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करकण्डचरिउ में भाषा-सौष्ठव
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डॉ. त्रिलोकीनाथ 'प्रेमी'
शब्दों के संगठित स्वरूप को भाषा कहते हैं। शब्द स्थूल होते हैं और भाव सूक्ष्म । इस प्रकार निराकार को आकार में व्यवस्थित करना असाधारण प्रक्रिया है । अभिव्यक्ति इसी का परिणाम है और अभिव्यक्ति में भाषा का सहयोग सर्वोपरि है। भाषा ही भावों-विचारों का संवहन करती है। अतः शब्द ही हमारी अभिव्यक्ति के साधन हैं और अर्थ साध्य । यही शब्द एवं अर्थ काव्य का सर्वस्व है- 'शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्'- भामह । परिस्थिति, पात्र और रसानुरूप शब्दों के प्रयोग में ही काव्य-भाषा का सौष्ठव एवं कलापूर्ण आकर्षण समाहित है । इन शब्दों के प्रयोग और निर्माण में कवि पूर्ण स्वतन्त्र होता है । उसका लोकानुभव जितना अधिक होगा, भाषा का सौन्दर्य उतना ही ललित होगा । शब्द के तीन गुणों का संकेत आचार्यों ने किया है- नाद-गुण, चित्र गुण तथा अर्थ- गुण । आवश्यकतानुसार कुशल कवि इसके लिए तत्सम तद्भव, देशी-विदेशी सभी प्रकार के शब्दों का प्रयोग करता है और अपेक्षा होने पर उन्हें घिसकर अपनी अनुभूति के अनुरूप ढाल भी लेता है। इस प्रकार वह भाषा का अनुकर्त्ता ही नहीं, स्रष्टा भी होता है।
भाषा कवि की अपनी शैली पर निर्भर करती है और इस दृष्टि से वह बदलती भी रहती है, किन्तु अपभ्रंश के इन कथा - काव्यों में भाषा के दो रूप दीख पड़ते हैं- एक, जिसमें संस्कृत - प्राकृत के कवियों की भाषा को अपनाया गया है, जिसमें शब्दों - अलंकारों की बहुलता