Book Title: Apbhramsa Bharti 2003 15 16
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 35
________________ अपभ्रंश भारती 15-16 देसु सुरम्मइ अत्थि महि घत्ता- इय भासिय लोयहिँ ठिय तियलोयहिँ जंबूदीउ जो पढमु तहिँ। तासु जि भरहंतरि खंडिय सुरसरि देसु सुरम्मउ अस्थि महि॥छ॥ जहिँ गाम वसहिँ बहुविउलराम जहिँ जण णिवसहिँ परिपुण्णकाम। जहिँ ढिक्करंति वसह वि भमंति गाविहिँ समाण धण्णइँ चरंति। जहिँ माहिसाइँ दुद्धइ घणाइँ जहिँ सहल सकुसुमइँ वरवणा। गोवलियाइँ जहिँ रमिउ रासु तं पेच्छिवि सुरवरु महइ वासु। जहिँ खीरहिं पउ पालंति णारि सवियारु ण जंपहिँ सीलधारि। पुंडुच्छुवणइँ जहिँ रसु बहंति णडयण इव ते णिच्च जि सहति। णिरवद्दउ जणु जहिँ सव्वकाल मच्छं धिवि णउ सरि खिवहिँ जाल। तहिँ पोयणपुरु णयरु वि पहाणु णं विहिणा णिम्मिउ धम्मठाणु। जहिँ फलहिँ विणामिय उववणाइँ ते सहहिं णाइँ सज्जणजणाइँ। जहिँ खाइय तह पाणिउँ धरंति णं णयरहु दासित्तणु करंति। जहिँ विविहरयणदित्तउ विचित्तु पायारु जत्थ रवि णाइँ छित्तु। गोउर चयारि णं वयण सोह णयरहु संजाया अरिउ खोह। हिमवंतकूडणिह जहिँ घराइँ गमणु ण लद्धउ पुणु रविकराईं। महाकवि रइधू पासणाहचरिउ, 6.1 - इस प्रकार भाषित तीनों भेदों में स्थित एवं लोकों में प्रथम जो जम्बूद्वीप है उसके गङ्गा से विभाजित भरत-क्षेत्र की भूमि में सुरम्य नाम का (एक) देश है। वहाँ अनेक विपुल आरामोंवाले ग्राम बसते हैं, जिनमें परिपूर्ण इच्छाओंवाले नागरिकजन निवास करते हैं, जहाँ वृषभ ढिक्कारते हुए घूमते हैं और गायों के साथ धान्य चरा करते हैं। जहाँ पर घना दूध देनेवाली भैंसें हैं, जहाँ पर फलों एवं फूलों से युक्त श्रेष्ठ उद्यान हैं, जहाँ ग्वालिनों रास रचा जाता है, उसको देखकर इन्द्र भी वहाँ रहने की इच्छा करते हैं। जहाँ नारियाँ पौसरे बैठाकर प्रजा-पालन करती हैं, जहाँ शीलधारी नर विकारपूर्वक नहीं बोलते। (जहाँ) पुंड्र (गन्नों) के खेत रस बहाते रहते हैं और नित्य नटजनों के समान शोभायमान होते हैं। जहाँ लोग सदैव निरुपद्रव रहते हैं। जहाँ धीवर भी सरोवर में जाल नहीं डालते। वहाँ (सुरम्य नामक देश में) पोदनपुर नाम का प्रधान नगर है, मानो विधि ने धर्मस्थान का निर्माण किया हो। जहाँ के उपवन फलों से झुक गये हैं, जिससे वे (गुणों से विनम्र) सज्जनजनों के समान शोभायमान हैं। जहाँ अतिशीतल जल से पूरित सरिता और सरोवर, व्रतों को माननेवाले शान्त प्रकृतिवाले व्यक्तियों के समान हैं। जहाँ की गहरी खाइयाँ पानी को इस प्रकार धारण करती हैं मानो नगर का दासीपना कर रही हो। जहाँ विविध प्रकार के रत्नों से दीप्त विचित्र प्राकार हैं, जो सूर्य के द्वारा स्पर्श की जाती हैं। जहाँ के चार गोपुर नगर की मुख-शोभा के समान हैं और शत्रओं को क्षोभ उत्पन्न करनेवाले हैं। हिमवन्त कटके समान जहाँ ऊँचे-ऊँचे भवन जिनकी ऊँचाई के कारण सूर्य-किरणें भी गमन नहीं कर पातीं। अनु.- डॉ. राजाराम जैन

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