Book Title: Anusandhan 2008 06 SrNo 44
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 28
________________ जून २००८ जो पुण विरतचित्तो भावणवंसग्गसंठिओ होउं । अप्पाणं ज्झूरंतो स इलापुतो धुवं होइ ॥ ७ ॥ मुत्तूण लोयचितं जइ जिय ! झाएसि अप्पणो तत्तं । ता तुह जम्मो सहलो अहवा झूरसि बहुं पच्छा ॥ ८ ॥ भवचारयवेरग्गं विसयाइदुगुंछणं च इच्चाइ । वयणे च्चिय सव्वेसिं हियए केसिंचि धन्नाणं ॥ ९ ॥ जे एवं जंपंती पमायवेरिं च्छलेह भो लोया ! | ते वि च्छलिज्जंति जया तया अहं कस्स किं काहं ? ॥ १० ॥ अन्नोन्नं जोयंता मन्नंता अत्तणो य धन्नत्तं । संसारइंदयालं दरिसंता जे भांति इमं ॥ ११ ॥ चेयइ न कोइ हियए वयणेहिं अणिच्चयं भणइ सव्वो । अन्नह मण-वइ-काए अन्नोन्नं कह विसंवाओ ? ॥ १२ ॥ वि कहं कहा अत्तपमायं न चिंतयंति फुडं ? । जं दूसमाइ सव्वं छोढुं वच्वंति वज्जसिरा ॥ १३ ॥ परगरिहं मुत्तूणं अहवा चिंतेसु अत्तणो तत्तं । अन्नह तुमंपि होहिसि पुव्वाणं मूढ ! सारिच्छो ॥ १४ ॥ जा न विहायइ रयणी ताव य चिंतेसु जीव ! किंपि तुमं । अन्नह आउम्मि गए झीणा चिंताइ तुज्झ कहा ।। १५ ।। कामवियारविणो धन्नो इह चितए परं तत्तं । जइ पत्तोवि वियारं चिंतइ धन्नाण सो राओ ॥ १६ ॥ काऊण गुरुपइन्नं मणमोहण - करिवरम्मि जह चडिओ | चुक्क नियवयणाओ धन्नोवि तहा वियारगओ ॥ १७ ॥ ता पढमं पि वियारं मणमोहण-करिवरस्स सारिच्छं । वारह दुहसयमूलं जइ इच्छह सुहसमिद्धीओ ॥ १८ ॥ पंचहि वि इंदिएहिं अनंतसो नत्थि जं किर न भुत्तं । तह विन जाया तित्ती ता चेयसि हा कया मूढ !? || १९ ॥ अह चेयसि कइयावि हु थेवो वि हु जत्थ नत्थि कोइ गुणो । एसा पुण सामग्गी कयाइ होहित्ति को मुणइ ? ॥ २० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only २१ www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126