Book Title: Anusandhan 2008 06 SrNo 44
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 36
________________ जून २००८ देवासुरसत्थेहिं सत्थेहिं वि तं जिणिद ! संथविओ । थवियंपि वत्थुअत्थं अत्थोयं पि हु वियाणंतो ॥ ४ ॥ आणतो आणंद आणं दंसेसु तं नियं मज्झ । मज्झत्थभाववत्ती बत्तीससुरिंदनय ! नाह ! ॥ ५ ॥ नाह ! महं नो संपइ पइं जिण ! लहिउं पई जयब्भहियं । हियमवरं अलहंतो हंतो नन्नं नम॑सामि ॥ ६॥ सामि ! तुमं जयदीवो दीवो आसासओ भवसमुद्दे । मुद्देमि कुणइ वारं वारं एक्कंपि जइ दिट्ठो ॥ ७ ॥ दिट्ठे ताण सुहाणं सुहाण जिण ! सासयाण तं भवणं । भवणं भवंमि पुणरवि रविसम ! किं मह तए पत्ते ? ॥ ८ ॥ पत्ते नलिणिनिलीणे जलबिंदु (दू) ए जह चलत्तं । लत्तं तह जिण ! जीयं जीया किं तो पमायंति ॥ ९ ॥ मायं तिहावि तिरसिय सियवायं नाह ! तुह धरतेण । ते मिउं पयकमलं मलरहियप्पा मए नाओ ॥ १० ॥ नाओ जिणिदकहिओ हिओ समग्गंमि जीवलोगंमि । लोगं मिच्छाभिरयं रयरहियं कुणसु तत्तेण ॥ ११ ॥ तत्तेण मए बहुसो बहुसोयानलपलित्तभावेण । भावेण कहवि सुहओ सुहओ तं नाह ! संपत्तो ॥ १२ ॥ इय गहिय-मुक्क- रयणेहिं थुणियजिण ! रयणसूरि नियरेहिं । पत्थिज्जमाण ! जयगुरु ! सुहियमिणं कुणसु जियलोयं ॥ १३ ॥ 2003 (१०) श्री नेमिनाथ स्तव जय जय नेमि जिणिंद ! तुहु मंडणू आहरणाई । भवियजणह जंपंति फुडु पुण्णह आहरणाई || १ || घणसामलि जिण ! देहि तुहु किह सिय सोहइ कंति । घणसारह मंडणमिसिण एह बलायहपंति ॥ २ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only २९ www.jainelibrary.org

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