Book Title: Anusandhan 2008 06 SrNo 44
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
View full book text
________________
जून २००८
जिणरहजत्तं पेच्छिय मणंमि हरिसो तणुंमि रोमंचो । नयणेंसुवाहजलं न हु जेसिं ताण किं भणिमो ? ॥ ६ ॥ कलिकालंमि वि दीसइ जिणरहजत्ता पुरंमि एत्थेव । इंदेवि नो तीरइ जह वन्नेउं मणागंपि ॥ ७ ॥ कोऊहलाण सीमा अवही तह पेच्छियव्ववत्थूणं । मूलं पुन्नतरूणं अणहिल्लपुरंमि रहजत्ता ॥ ८ ॥ जम्मोवि ताण सहलो संसारे लोयणाण ताण फलं । अणहिल्लवाडनयरे रहजत्ता जेहिं सच्चविया ॥ ९ ॥ अणहिल्लनयरगयणे नंदउ कयवरविमाणवरजत्तो । कुमरनरिंदमयंको संघसमुद्दं सुहावितो ॥ १० ॥ इय पउमनाहसंथुय-रहजत्तं जे सरंति पइदियहं । ताण सुहं होइ फुडं अमियवसेणं वसित्ताणं ॥ ११ ॥ छ ॥ छ ॥
2003
(२३) श्री भारती स्तोत्रम् यन्नामस्मृतिरप्यशेषजगतीसंकल्पकल्पद्रुमं
सद्बोधाम्बुधि --- पार्वणविधुर्मेधासुधासारिणः । खेलल्लक्ष्मिविलासकेलिवल भीसत्काव्यपण्यापणस्तामुद्दाममुदाऽवदातहृदयः स्तोतुं यते भारतीम् ॥ १ ॥ आनन्दाम्बुधिमध्यमग्नहृदय: प्रोद्भूतरोमाङ्करः प्रोत्सर्पत्परितोषबाष्पसलिलैरालुष्यमानेक्षणः । देवि ! त्वत्पदपङ्कजभ्रमरतां धत्ते जनो यः सदा तस्याशेषसमीहितानि सपदि क्रीडन्ति हस्ताम्बुजे ॥ २ ॥ श्रीमद्देवि ! तव प्रसादसुभगा दृष्टि: किरन्ती सुधां मूर्ति चुम्बति भाविभाग्यललितां धन्यस्य यस्य क्षणम् । उद्यद्वादिविनिद्रदर्श्यदलना प्रोद्भूतसत्तेजसस्तस्यालिङ्गनमातनोति रभसाद्विद्या जगत्कार्म्मणम् ॥ ३ ॥ डिम्भेनापि च सारदे ! तव वरान्मूद्धिर्न प्रदत्ते करे काव्यं कारयते कृती मदहरं श्रीकालिदासस्य यत् ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
५१
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126