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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९)
। अनुसंधान
श्री हेमचन्दाचार्य
प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
संपादक : विजयशीलचन्द्रसूरि
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सं. १२४४नी एक धातुप्रतिमा
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी
स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद
2008
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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू(ठाणंगसुत्त,५२९)
'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे'
अनुसंधान
प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य-विषयक सम्पादन, संशोधन,माहिती वगेरेनी पत्रिका
सम्पादकः
विजयशीलचन्द्रसूरि
So0ODE
श्रीहेमचन्द्राचार्य
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी
स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि
अहमदाबाद २००८
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आद्य सम्पादक: डॉ. हरिवल्लभ भायाणी
सम्पादक: विजयशीलचन्द्रसूरि
सम्पर्कः C/o. अतुल एच. कापड़िया A- 9, जागृति फ्लेट्स, पालडी
महावीर टावर पाछळ
प्रकाशक:
अनुसन्धान ४४
मुद्रक:
अमदावाद- ३८०००७
फोन : ०७९ - २६५७४९८१
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि,
अहमदाबाद
प्राप्तिस्थानः (१) आ. श्रीविजयनेमिसूरि जैन स्वाध्याय मन्दिर १२, भगतबाग, जैननगर, नवा शारदामन्दिर रोड, आणंदजी कल्याणजी पेढीनी बाजुमां,
अमदावाद - ३८०००७
मूल्य: Rs. 80-00
(२) सरस्वती पुस्तक भण्डार ११२, हाथीखाना, रतनपोल,
अमदावाद - ३८०००१
क्रिश्ना ग्राफिक्स, किरीट हरजीभाई पटेल ९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद - ३८००१३ (फोन: ०७९ - २७४९४३९३)
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निवेदन
- संशोधन एटले प्रवाहप्राप्त के परम्पराप्राप्त मान्यताओमा प्रवेशेल गरबडोनुं निवारण; तो क्यारेक, रूढ अने न मानवालायक गणाती बाबतोनुं समर्थन करवं ते पण संशोधन ज. संशोधन ए परम्परानु के पारम्परिक श्रद्धानुं विरोधी तत्त्व नथी. ते, खोटी के गलत धारणाओ पर मंडायेली मान्यताओ तथा रिवाजोने बदलवानो आग्रह जरूर सेवे छे, परन्तु तेनो स्वीकार न थाय तो ते - संशोधन - कोईना माथे चडी बेसतुं नथी; ते चूपचाप पोतानुं काम कर्ये जाय छे, निष्ठापूर्वक, प्रमाणिकपणे.
___दा.त. भगवान महावीरना विहारक्षेत्र विषे, इतिहासकारोए तथा पुरतत्त्वविदोए, शास्त्र, साहित्य, शिलालेख वगेरे सहितनां अगणित पुरावाओ तथा प्रमाणोनी गवेषणा करी छे, अने तेओ गुजरात-राजस्थान-सौराष्ट्रना प्रदेशोमां आव्या न होवानुं सिद्ध करी आप्युं छे. हवे परम्परागत श्रद्धा आ वात स्वीकारती नथी. ते तो आ बधा ज प्रदेशोमां भगवान महावीर आव्या होवानुं तेमज ते ते क्षेत्रमा विशिष्ट घटनाओ घटी होवानुं स्वीकारे छे. संशोधनने आनी सामे वांधो होई शके, कजियो नहि.
उत्तर गुजरातना वर्तमान 'बेणप'ने, केटलाक लोको, 'बेन्नातट' तरीके गणावीने तेने प्राचीन, ऐतिहासिक तीर्थ जेवं मानवा लाग्या छे. खरेखर पुरातत्त्वनी के इतिहासनी नजरे जोवामां आवे तो, बेन्नातट ए दक्षिण दिशा-- महाराष्ट्र बाजुनुं प्राचीन नगर छे, जेने उत्तर गुजरात साथे कोई ज सम्बन्ध नथी. बेणपने बेन्नातट मानवानी वृत्ति बहु जूनी भले न होय, पण बहु ज झडपथी ते रूढ परम्परामां फेरवाई जाय तो नवाई पामवा जेवू नहि होय.
संशोधन, ए हकीकतमां गरीब स्वभाववाळा बाळक जेवी चीज छे. ते परम्परा, खण्डन करता निष्कर्ष-सप्रमाण-आपी शके छे; पण तेनी साथे जो कजियो थाय तो ते हमेशां हारी जतुं होय छे. प्रा. मधुसूदन ढांकीना संशोधनात्मक ग्रन्थोनो दाखलो ते आनुं साव ताजुं अने श्रेष्ठ उदाहरण छे. पोताना ज शोध-ग्रन्थो, पोतानी हाजरीमा ज उपेक्षित बने, पोते इच्छे तो पण कोईने आपी के वहेंची न शके, अने तेनी सेंकडो नकलो-मळी शके तेम
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होवा छतां, साव बालिश कारणोसर ज, ते पोताने के कोई अभ्यासीने नहि मळतां होवानी फरियाद पण तेओ न करी शके; संशोधननी आ स्थिति छ, जे साबित करे छे के परम्परा साथेना विवादमा तेणे हारवार्नु ज होय छे.
आम छतां, संशोधन हारतुं नथी; अर्थात्, पोतानी आगेकूचने थंभावी देतुं नथी. ते तो, विज्ञाननी जेम ज, संशोधनीय बाबतो परत्वे नवी नवी शोधो करतुं रहे छे, नवां नवां तारणो काढतुं ज रहे छ; अने ज्यारे पण ते बाबत परत्वे नवां अने वधु विश्वासार्ह के वधु वास्तविक प्रमाणो जडी आवे त्यारे, ते, पोतानां पूर्वनां तारणोमां फेरफारो पण करतुं रहे छे. संशोधन ए एक एवी विद्या छे के जे समाज के तेनी स्वीकृतिनी मोहताज नथी. तेनामां रहेली सत्यता ज तेने व्यापक प्रतिष्ठा अपावशे तेवी तेने श्रद्धा होय छे, अने तेथी ज निरांत पण.
गुजरातनो नजीकनो भूतकाळ संशोधनक्षेत्रना धुरन्धरोथी छलकातो काळ हतो. विद्याना विविध विषयोने पोतानी प्रचण्ड मेधाशक्ति वडे आलोकित करनारा ए विद्वज्जनोनी एक आखी हारमाळा पसार थई गई. हवे ए माळाना बे चार अवशिष्ट मणका जेवा वृद्ध विद्वानो विद्यमान छे, अने ढळती उमरे पण ते लोको पोताना विषयो अंगे संशोधनात्मक अध्ययन करी ज रह्या छे. परन्तु बहु ज झडपथी, ए सहु पण काळना प्रवाहमां विलीन थशे त्यारे, त्यार पछी, ए विद्वद्-हारमाळाना स्मरण सिवाय, संशोधन-तज्ज्ञ जेवू, आपणी पासे कशुं बचशे के केम ? ए प्रश्न पण ओछो कठिन नथी ज. संशोधन अने संशोधकवर्गनी, समाज तथा परम्परा द्वारा, थती-थयेली अवगणनानुं ज आ परिणाम हशे ?
- शी.
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अनुक्रमणिका
श्री रत्नसिंहसूरिकृत
स्तोत्रात्मक तथा उपदेशात्मक चोंत्रीस लघु कृतिओनो समुच्चय
श्रीउत्तमऋषिविरचितश्रीशतपञ्चाशितिका संग्रहणी
पाली (बौद्ध) आगमोमां चातुयाम - संवर
विजयशीलचन्द्रसूरि
मुनि धर्मकीर्तिविजय
पद्मनाभ एस. जैनी १०६
६७
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आवरणचित्र-परिचय विहारयात्रा दरम्यान क्यारेक कोई नानकडा क्षेत्रमां कोई मन्दिरमां प्राचीन धातुप्रतिमा नजरे चडी जाय, अने तेनो लेख वांचीए त्यारे कांईक अपूर्व लाध्यानो हर्ष अनुभवाय. आ वखते विहारमां आवी ज एक धातुप्रतिमा, संवत् १२४४ नी साल धरावती, जोवा मळी गई. सद्भाग्ये एक गृहस्थ पासे केमेरो होतां तेनी तसवीर लेवडावी लीधी हती. तेनी आगळ-पाछळनी बन्ने बाजनी तसवीरो अत्रे आपेल छे. प्रतिमाना पृष्ठ ! भागमां वंचातो लेख कांईक आवो छ :
___ "सं० १२४४ माघ शुदि ३ इवौ साधु मानदेवउप्र( ?) ! वोहडिश्रेयोर्थं सुत उद्धरणेन श्रीमहावीरबिंबं कारितं । प्रतिष्ठिता
सूरिभिः ।" L-------- -----
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जून २००८
श्री रत्नसिंहसूचिकृत स्तोत्रात्मक तथा उपदेशात्मक चोंबीस लघु कृतिओनो समुच्चय
विजयशीलचन्द्रसूरि
विक्रमना १३मा शतकमां विद्यमान जैन आचार्य श्रीरत्नसिंहसूरिए रचेली, ३४ जेटली लघु रचनाओनो संग्रह धरावती एक ताडपत्रीय पोथीना अक्षरंशः ऊतारारूप आ कृति-समुच्चय यथामति सम्पादित करीने अत्रे प्रकाशित करवामां आवे छे. कोई एक ज कर्तानी रचेली रचनाओनो संग्रह करवामां आव्यो होय एवी संग्रहपोथीओ आपणा भण्डारोमा घणीवार मळी आवती होय छे. घणा भागे आवी पोथी - रचनाकारे पोते ज लखी होय छे. क्वचित् तेमना शिष्यादि द्वारा पण लखाई होय छे. आ पोथीनी मने प्राप्त नकलमां लेखक के ले. संवत् वगेरेनो उल्लेख धरावती पुष्पिका नहि होवाथी ते बाबतो विषे कोई विधान करवू मुश्केल छे. वळी, मूळ पोथी पण सामे न होवाथी अनुमान-संवत् कहेवा, पण शक्य नथी. छतां, १३मा शतकमां ज आ पोथी लखाई होय अने कर्ताए ज लखी होय, तेम मानवानुं मन अवश्य थाय छे.
आ ताडपत्र-पोथी सूरतना श्री मोहनलालजी जैन उपाश्रयना ज्ञानभण्डारनी छे, अने वि.सं. २०१६मां, स्वर्गस्थ जैन विद्वान श्रीयुत अगरचन्द नाहटाए तेनी नकल पोताना हाथे ऊतारी हती, जे अत्यारे मारी समक्ष छे. श्रीनाहटाजीए प्रतिलिपिना अन्तभागमां लखेली नोंध आ प्रमाणे छे.
"श्रीमोहनलालजी ज्ञानभण्डार, गोपीपुरा, सूरत सत्क ताडपत्रीय पत्र७३ प्रतिकी नकल । सं. २०१६ मिती वैशाख बदि १२ सोमवार प्रारम्भ कर वै.व. १५ बृहस्पतिवारको पूर्ण की ।"
पोताना ज्ञान-प्रवास दरमियान सूरत-निवासना दिवसोमां नाहटाजीए आ नकल फक्त ४ ज दिवसमां करी, ते वांचतां तेमनी ज्ञानोपासना तेमज जिज्ञासा माटे सहज बहुमान जागे छे.आवा विद्वान श्रावक आजे क्यां मळे ?।'
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अनुसन्धान ४४
नाहटाजीनी आ प्रतिलिपिनी नोटबुक मुनिश्री मृगेन्द्रविजयजीए पोताना संग्रहमां साचवी राखी छे. 'अनुसन्धान'ना प्रकाशनथी प्रमुदित ए वृद्ध मुनिश्रीए ते नोंधपोथी पोतानी पासे होवानुं, अने प्रकाशित करवानी अनुकूलता होय तो मोकलवानुं प्रेम तथा औदार्यपूर्वक सूचव्युं तेनो हकारात्मक प्रत्युत्तर अपातां तुर्तज ते नोंधपोथी तेमणे मोकली; ते नोंधपोथीने यथासम्भव शोधीने अत्रे प्रकाशित करवामां आवे छे. मध्यकालना प्रारम्भ वखतनी, कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यना समकालीन आचार्यनी रचनाओनुं सागमटे प्रकाशन करवानो अवसर, एक ल्हावारूप अने रोमांचक अवसर लागे छे. आ नोंधपोथी आपवा बदल मुनिश्री मृगेन्द्रविजयजी प्रत्ये आभारनी लागणी व्यक्त करुं छं. अने आवी बीजी पण सामग्री तेमना संग्रहमां होय तो मोकले, तेवी प्रेमभरी भलामण करूं छं.
आ रचनाओमां जिनस्तोत्रो छे, गुरु-स्तुतिओ छे, उपदेशक कृतिओ छे, अने आत्माने हितशिक्षा आपती वैराग्यवाहक रचनाओ पण छे. रचनाओना काव्य - प्रकारो जोईए तो कुलक, चूलिका, विज्ञप्तिका, षट्त्रिंशिका, गीत, छप्पय, स्तोत्र, स्तवन, एवा विविध प्रकारो आ संग्रहमां छे. छन्दोवैविध्य जूज छे. मुख्यत्वे आर्या के गाथा, अनुष्टुप् शार्दूल जेवां त्रण - चार छन्दो छे. एक रचना छप्पय छन्दमां छे. अपभ्रंश रचनाओमां तदनुरूप छन्दप्रयोग छे. भाषाओ संस्कृत, प्राकृत (मरहट्ठी) अने अपभ्रंश एम त्रण प्रयोजाई छे. क्रमाङ्क १, २, १३, २३, ३२ ए पांच रचनाओ संस्कृतमां छे. क्र. १०, ११, २७, २८, ३०, ३१, ३३ ए रचनाओ अपभ्रंशमां छे. तो ते सिवायनी २२ रचनाओ प्राकृत भाषाबद्ध छे.
रचनाकार पासे साहित्यनुं ज्ञान खूब ऊंचुं छे. भाषाबोध तथा शब्दभंडोळ पण विपुल मात्रामां छे. रजूआतनी शैली कहो के कसब, ते पण मर्मस्पर्शी छे. वैराग्यनो बोध आपवामां कर्ता खूब निपुण पण छे, भावुक पण. पोतानी निन्दा के स्वदोषवर्णन करतां पण तेमने जरा पण खचकाट थतो नथी. तेथी मनी प्रस्तुति एकदम सरल भाववाही तथा असरकारक बनी जती जणाय छे.
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जून २००८
तेमनी बधी रचनाओ पर एक ऊडतो दृष्टिपात करीए :
रचना क्र. १ नुं शीर्षक छे
आत्मतत्त्वचिन्ताभावनाचूलिका.
आमां 'जीव' ने उद्देशीने आपवानो उपदेश छे. तेना बीजा पद्यमा कर्ता चोखवट करे छे के "हुं वक्ता नथी. कवि नथी. सज्जनोनुं ध्यान खेंचाय तेवी कशी विशेषता पण मारी पासे नथी. हुं आमां नवी कोई ज वात कहेवानो नथी; छतां हुं जे कहुं ते (तमे) सांभळजो जरूर."
३
आ ज मुद्दाने वधु ममळावता कर्ता त्रीजा - चोथां पद्योमां कहे छे: "काव्य ते व्युत्पत्ति करावतुं (व्युत्पन्न बनावनाएं), 'रस' - रूपी प्राणनुं मन्दिर, 'वक्रोक्ति' नुं धाम अने 'वैदर्भी' नामक भाषा - रीतिना नृत्यमण्डप - समान पदार्थ छे. शब्द - अर्थना सोहामणा गुंफ जेवा अने 'प्रसाद' रूप अमीरस-छलकता आवा काव्यनी रचना तो गुरु-तुल्य कोईक व्यक्ति ज सहजभावे रची शके छे; अर्थात्, मारुं मारा जेवानुं तेमां काम नथी; हुं तेवुं कांई (काव्य) रचवा शक्तिमान नथी ज." "परन्तु ज्यारे तत्त्वदृष्टिथी विवेक केळवाय छे, त्यारे आ बधुं ज (काव्यरचनादि) वृथा भासे छे; केमके तेनी मददथी आपणुं चित्त कांई संसारनो उच्छेद करवा सक्षम नथी बनतुं ! (पद्य ५)"
प्रारम्भ ज एटलो उत्तेजक अने रसप्रद बन्यो छे के आखी रचना वांचवा भावक ललचाय ज.
पद्य १४ मां सूरः ना स्थाने सूरोऽ एम सुधारो कर्यो तो छे, पण ते उचित छे के केम, ते विषे मन साशङ्क छे. आ कृतिमां २१मुं पद्य मन्दाक्रान्ता छन्दमां छे.
२४ पद्यो धरावती आ कृतिमां क्यांय तेनुं शीर्षस्थ नाम गुंथायेलुं नथी. एम लागे छे के दरेक कृतिना आरम्भे तथा अन्ते, पोथीना लेखके, आमां लखेलां कृतिनामो लख्यां होवां जोईए. जोके घणी कृतिओमां कृतिनुं नाम गुंथी दीघेलुं जोवा मळे पण छे, अने तेवे घणे ठेकाणे श्री नाहटाजीए शीर्षक प्रयोज्यं होय तो ते बनवाजोग छे.
२.
बीजी रचनानुं नाम छे 'आत्मानुशास्ति'. तेना अन्तिम श्लोकमा आ
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अनुसन्धान ४४
नाम जोवा मळे छे. कर्ता स्वयं तेने 'संवेगामृतभावना' तरीके ओळखावे छे. आनो प्रारम्भ ज केवो वेधक छे ! कर्ता कहे छे के "प्राकृतनो वा संस्कृतनो - कोई पण पाठ काम आवे तेम नथी. जे थकी संवेग अने वैराग्य प्रगटे, ते ज साचो रहस्य-पाठ गणाय." लागे छे के कर्ता वैराग्यभावनी तीव्र संवेदनाथी छलकाता हशे.
१५मा पद्यमां श्रीजिनेश्वरसूरिनुं तथा तेमना रचेला ग्रन्थ 'आत्मानुशासन'नुं स्मरण करी तेनुं अवगाहन करवानी शीख आपे छे. ते रचनामां वैराग्यनो हृदयस्पर्शी बोध हशे, अने कर्ताना चित्त पर तेनी गाढ असर पडेली हशे, तेम मानी शकाय.
१७मा पद्यमां 'कोट्या गृह्णन्ति काकिनीम्' पद छे, तेमां 'कोटी'शब्द आपणे जेने 'कोडी' (रमवानी कोडी) कहीए ते अर्थमा प्रयोजायो छे.
त्रीजी रचनामां श्रीऋषभदेव भगवान प्रत्ये कर्ताए अत्यन्त दीनभावे, पोतानी करुणाजनक स्थितिनुं हृदयद्रावक वर्णन करवापूर्वक पोताने संसारथी उगारवा माटेनी करेली विज्ञप्ति छे. ३० प्राकृत पद्योमा छवायेली विज्ञप्तिका खरेखर हृदयने भावार्द्र बनावी मूके तेवी छे.
चोथी रचना छे 'अप्पाणुसासणं' - आत्मानुशासन. पोताना आत्माने एक भवभीरु अने आत्मार्थी आचार्य केवी रीते शिक्षा आपे छे, तेनो ख्याल, आ,अपेक्षाकृत दीर्घ रचनानी, केटलीक गाथाओनो अभ्यास करतां आवी शके
प्रारम्भे ज बीजी गाथामां सरस्वती देवीनी स्तुति कर्ताए अलग ज अंदाजमां करी छे : "गीत, अमृत अने इष्ट (वहाली व्यक्ति), आमांनी एक पण वस्तु एवी मीठी नथी लागती, जेटली कोई उत्तम पुरुषना मुखमांथी प्रगटती भारती देवी (वाणी) मीठी लागे छे !"
एक ज वाक्यमां वाणीनी अने सज्जननी केवी मधुर स्तुति ! वैराग्यनी अने आत्मानी वातो निरन्तर कर्या करनारा जनोने कर्ताए
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केवा टपार्या छे ते जुओ : 'उपशम, विवेक अने संवर' आ ३ पदोना अर्थने कोण नहि जाणतुं होय ? परन्तु आ ३ पदो सांभळीने चिलातीपुत्रने जेवू आत्मभान थयुं तेवू बीजा कोईने थयुं होय तेवू सांभळ्युं नथी ! (गा. ३)
"तत्त्वनुं व्याख्यान घणा करे छे; सांभळे छे; जाणे छे ने माधुं पण डोलावे छे; पण रोमहर्षपूर्वक, ते थकी कोईनो मनोवेध थयो-थतो होय तेवू ज जोवा मळतुं नथी !" (गा. ६)
"जे लोको बोले छे के 'हे लोको, प्रमाद-शत्रुने तमे बराबर छेतरजो, ताबे न थता; ते लोको ज प्रमादने परवश पडता जोवा मळे छे; हुं कोने शुं कहुं ?" (गा. १०)
"वातो करती वेळाए 'बधुं अनित्य छे' एवं सह कोई बोले छे, पण हैयामां तेमने ते वातनो बोध थतो होय तेवू जणातुं नथी; अन्यथा, तेमना मनवचन-कायानां कृत्योमां साव विरोधाभास केम होय ?" (गा. १२)
समकालीन मुनिजीवनना प्रमुख दोषोनुं वर्णन कर्ताए आ शब्दोमां कर्यु छे : "क्रीत दोष, आधाकर्म दोष, नित्य एकस्थानमा रहेवू, गृहस्थो पर ममत्व, विपुल परिग्रह- आ पांच साधुओने वळगेला दोषो छे. आमांनो एकेक दोष पण भारे छे, तो जेनामां ते बधा दोष होय, तेनी तो वात ज शी करवी ? जे साधु आ बधा दोषोथी पर छे, तेने मारो नमस्कार हो !" (गा. ३४-३५)
गा. ३६मां कर्ता पारकी चिन्ता छोडीने पोतानी वात करवानी सूचना पोताने आप्या पछी, आगळनी थोडीक गाथाओमां पोतानी अंगत वात वर्णवे छे : "हुं पण आवो ज छु. परन्तु मारी टेक छे के शुद्धमार्गनी ज प्ररूपणा करवी; आथी हुँ संविग्नपाक्षिक बनीने मारी जातने धन्य अनुभवं छं. बीजा कोईने आ वातनी प्रतीति थाय के न पण थाय; पण मारो आत्मा तो आ वातमा साक्षी छे ज. मने एक ज वातनुं दुःख छ के हुं वाणीथी जे बोलुं छु ते प्रमाणे काया थकी लेश पण आचरण करतो नथी." (गा. ३७-३९).
पोतानी घेरी मनोव्यथा व्यक्त करतां कर्ता एक हलावी मूके तेवी वात करे छे : “दिवस तो गमे ते रीते पसार थई जाय छे, पण रात वीताववी बहु कठिन पडे छे; मारा आत्मानु शुं थशे? तेनी तालावेलीमां - चिन्तामां,अल्प
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अनुसन्धान ४४
जलमां माछलीनी जे हालत थाय तेवी मारी हालत थाय छे." (गा.४४)
आत्महित-चिन्तामां सर्वभावे सरी पडेला कर्ता पोतानी वात केटली सहज सरलताथी करे छे ते जोवा जेतुं छे. कहे छे : "आवी (उत्तमअनित्यादि) भावना भावतो होउं ने मारुं मृत्यु जो आवी जाय तो हुं खूब धन्य होईश; बीजुं कांई मने जोईतुं नथी."(गा. ४९)
"कोईवार कर्माधीन एवा मारा चित्तमां, भावनानुं आ अमृत न उल्लसे तो भले; पण बीजाओने ते भावना भावता जोईने पण, क्यारेक हुं तेने चूंटुं, एव॒ये बने तो केटलुं सारुं थाय !" (गा. ५०)
गा. ४५-४६ वे अपभ्रंशमां छे. गा. ३२ मां बे चूलिका, चिन्तन करवानी शीख आपी छे ते दशवैकालिक सूत्रनी अन्तिम बे चूलिका विषे हशे तेम अटकळ थाय छे. ५६ गाथानी आ रचना वि.सं. १२३९ना वैशाख शुदि पांचमना दिने रच्यानो उल्लेख गा. ५६मां छे. रचना, समग्रपणे, प्रेरणादायी अने भावनानो उल्लास जगाडनारी छे..
५-६. पांचमी रचनाने 'हितशिक्षाकुलक' नाम आपेल छे. ते प्राकृत तथा अपभ्रंश-उभय भाषानी मिश्र रचना जणाय छे.पोताना आत्माने उद्देशीने आपेली शीखामण आमां पद्यबद्ध थई छे, जे मननीय छे.
छठ्ठी रचना 'संवेगचूलिका' छे. आमां स्त्री-शरीरासक्त मनुष्यने, स्त्रीनां अंगोनां बाह्य स्वरूपने जोतां जेटलो उल्लास ऊपजे छे, तेनी सामे, ते ज अंगोनां आन्तरिक स्वरूपनां दर्शन थाय तो तेनी दशा केवी थाय तेनुं वर्णन करतां, वैराग्यनो बोध आपवामां आव्यो छे.
७-१३. आ तमाम रचनाओ श्रीनेमिनाथ तथा श्रीपार्श्वनाथनां विज्ञप्ति-स्तोत्रात्मक रचनाओ छे. आमां १०-११ बे रचनाओ अपभ्रंशमां छे, १३मी रचना संस्कृतमां छे. ९मी रचनामां कर्ताए शृङ्खलायमक ( प्रत्येक गाथानां चारेचार पदोमां) नियोजीने पोतानु अलङ्कारपाण्डित्य तथा रचनाकौशल्य प्रगटाव्युं छे. ११मी
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जून २००८
रचनामां गा. ६मां करेलो अणहिलवाड नो उल्लेख तथा वर्णन जोतां, पाटणना नेमिनाथ-चैत्यने अनुलक्षीने थयेली ते रचना जणाय छे. १२ मा स्तोत्रमा भगवाननी अनेकविध पूजा- सरस वर्णन थयुं छे, जे ते कालमां पण आ बधा पूजाप्रकारो चलणमां होवानो संकेत आपी जाय छे. प्रभुनी रत्नादिथी आंगीनो उल्लेख जेने 'शृङ्गार' (गा. ५) तरीके ओळखावेल छे, ते नोंधपात्र छे. न्हवण, विलेपन, मण्डन, उद्ग्राहण, धूप, वस्त्र, वाद्य, गीत, नाट्य आदि अनेक प्रकारोनो आमां निर्देश छे.
पोताना गुरु श्रीधर्मसूरिनी गुणस्तुतिरूप आ रचना ३६ पद्योमा विस्तरेली छे. समग्र रचनानुं अवलोकन करतां ते एक विरह-रचना होय अने आचार्यना स्वर्गगमन बाद तुरतमां रचवामां आवेल होय तेवी छाप पडे छे. कर्तानो गुरु प्रतिनो लगाव आवा शब्दो द्वारा छतो थाय छे : “हे प्रभु ! आ जगतमां मारु प्रिय काई होय, मारा माटे मंगलकारी कांई होय, के मारा माटे श्लाघास्पद काई होय तो ते फक्त तमे अने तमे ज छो; तमारा सिवाय कांई नथी." (गा. १४).
गुणकीर्तनमा क्वचित् अतिशयोक्तिभर्यु वर्णन थाय तो ते पण क्षम्य छे, एम कही शकाय. कवि गा. ११ मां गुरुनी गच्छ-संचालन-क्षमतानुं वर्णन आम करे छे : "स्वामिन्! तमे गच्छरूप समुद्रने एवी तो मर्यादामां बांधी राखीने पाळ्यो छे, के तेने लीधे ते (गच्छ) ते ज भवमां के पछी त्रीजा भवमां मोक्षे जाय ज."
समग्र षट्विंशिकामां वीखरायेला पडेला ऐतिहासिक तथ्यो कांईक आवां छे : १. एमणे गुणचन्द्र नामना वादीने जीत्यो हतो (गा. ७)२. राजसभामां तेओ वादमां वादीओने जीतता हता (गा. १८). ३. एक प्रहरमां ५०० गाथा याद करी शके तेवी तेमनी प्रज्ञा हती (गा. १६). ४. तेमणे घणी जिनप्रतिमाओनी प्रतिष्ठा करी हती (गा. १७). ५. तेमनां मातानुं नाम 'लक्ष्मी' हतुं (गा. २५). ६. ९ वर्षनी वये दीक्षा लीधी; ९ वर्षना संयमपर्याय पछी सूरिपद पाम्या; ६० वर्ष सूरिपद भोगव्यु, ७८ वर्ष आयु पाळी, संवत् १२३७ ना भादरवा शुदि एकादशीने सोमवारे तेओ स्वर्गस्थ थया हता (गा. ३३-३४).
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१५-१६. क्र. १५नी रचना पाछी आत्महितचिन्ता-विषयक कुलकरूप रचना छे. प्रथम गाथागत 'अप्पहियं' शब्द आ नाम-परक छे. ३२मां पद्यमां 'कुलक' शब्द पण छे ज. गा. ६मां 'दुरंजो' शब्द 'दुःखे रंगी शकाय' के 'रंगवो दुष्कर' एवा अर्थमां प्रयुक्त छे, ते ध्यानार्ह लागे छे.
क्र. १६ नी रचना 'मनोनिग्रहभावना' नामे छे. आ नामनुं सूचन प्रथम गाथामां तेमज ४४ मी गाथामां प्राप्त छे. कर्ता मननी विषमतानुं वर्णन आम करे छे : "ज्यां सुधी केवलज्ञान सांपडे नहि त्यां सुधी, मननो निग्रह थई जाय तो पण, विश्वास कराय नहि." (गा. ७). "कोई इन्द्रजालिक (जादूगर) कोई पण चीज आपणी सामे लावीने देखाडे, पण ज्यां आपणी मुठीमां मूके त्यां ज ते चीज नष्ट थती होय छे; तेनी जेम, 'मन' नामनी चीज, संयम रूपी मुठीमां घणा प्रयत्न वडे पकडी लईए तो पण, ते कोई पण पळे पार्छ छटकी शके छे." (गा. १५-१६).
गा. ३६-३७ मां कर्ता पोतानी मन-विषयक विडम्बनानुं निखालस वयान करता जणाय छे.
१७. आ रचना गुरुभक्तिनो महिमा वर्णवती रचना छे. आमां केटलीक वातो वांचीने हेरान रही जवाय छे.
कर्ता कहे छे : "कोईक वार एवं बने के शिष्य, गुरु करतां अधिक गुणसंपन्न होय; तो पण, तेवा शिष्ये पण, ते गुरुनी आज्ञा शिरोधार्य करवी ज जोईए" (गा. ३). "गुरु कठोर शिक्षा करे; नानी भूल बदल पण मोटी रीस करे; कर्कश वेण कहे; क्यारेक दंडवती मारी पण दे; वळी, ते गुरु सुखशील अने प्रमादी होय तो पण, शिष्योए तो तेमने देवनी जेम ज पूजवामानवा जोईए" (गा.४-५). "गुरुना इंगितने समजीने चाले ते ज 'शिष्य'. जेने वाणीथी टोकवो के आदेश करवो पडे, ते तो 'नोकर' गणाय !" (गा.६). "जे प्रत्यक्षमां के परोक्षपणे, गुरुनो अवर्णवाद करे, तेने जन्मान्तरमां जिन-प्रवचन दुर्लभ बने छे." (गा. ८)
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साधुचर्यामां आवता 'बहुवेलं' ना आदेशो परत्वे समजण आपतां कवि लखे छे : "खंजवाळवू, थूक, श्वास लेवा-मूकवा, इत्यादि लघु कार्यो माटे ‘बहुवेलं'ना आदेश छे; बाकी तो अन्य कोई पण क्रिया के कार्य करवानां होय त्यारे दरेक वखते पूछीने-रजा लईनेज ते करवानां छे. एक काम अंगे पूछीने बे-त्रण बीजां काम पण साथे करी लेवाय नहि, एवी साधुनी मर्यादा छे" (गा. १६-१७). "गुरुनी आराधनाथी वधीने कोई अमृत नहि, अने तेमनी विराधनाथी वधीने कोई विष नथी" (गा. २८) समग्रपणे समजवालायक रचना.
१८-१९. पण्डितमरणनी अभिलाषावाळाने मार्गदर्शनरूप अढारमी 'पर्यन्ताराधनाकुलक' नामे रचना छे.
___ क्र. १९मी रचना 'उपदेशकुलक' ते संसारनी नश्वरता वर्णवती वैराग्योत्पादक रचना छे. कर्ता- समग्र संवेदन प्रधानतया वैराग्यवाहक होवानुं आ बधी रचनाओ थकी स्पष्ट छे.
२०-२१. आ बन्ने क्रमशः नेमिनाथजिन तथा श्रीपुण्डरीकस्वामी गणधरनां स्तोत्रो छे, जे वारंवार वागोळवां गमे तेवां छे.
२२.
'श्रीअणहिलपुर रथयात्रा स्तवन' शीर्षकनी आ रचनामां, रथयात्राना धार्मिक उल्लासना वर्णन उपरांत, कोई ऐतिहासिक तथ्यनोंध न होवा छतां, आ लघु रचना ऐतिहासिक एटला माटे छे के तेमां वर्णित रथयात्रा खुद कुमारपाल राजा द्वारा काढवामां आवेली होवानो तेमां इशारो सांपडे छे (गा. ५ तथा १०). मतलब के आ रचना सं. १२२९ करतां पूर्वे रचवामां आवेली छे. रथयात्रानुं वर्णन खूब उद्दीपक तथा अहोभावभर्यु थयुं छे.
२३. २४. शार्दूलविक्रीडित छन्दमां निबद्ध आ संस्कृत रचना भारतीदेवीना स्तोत्ररूप रचना छे. आमां अशुद्धिनुं प्रमाण वधु जणाय छे.
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अनुसन्धान ४४
क्र. २४ ते भरूचमण्डन श्रीमुनिसुव्रतजिननी स्तोत्र-रचना छे. प्राकृत भाषामां छे.
२५. आ रचना नामे 'बावत्तरि जिन स्तवन' अर्थात् 'कुमारविहारस्तवन' ए एक ऐतिहासिक तथ्यने उजागर करती महत्त्वपूर्ण रचना छे.
पाटणमां राजवी कुमारपाल द्वारा निर्मित 'कुमारविहार' नामे जिनचैत्य होवानुं तो इतिहास-प्रसिद्ध छे. सम्प्रदाय प्रमाणे तो तेमां मुख्य प्रतिमा सोनानी होवानुं ख्यात छे. परन्तु ते जिनालय कया प्रकार- हतुं तथा तेमां कुल केटली जिनप्रतिमाओ हती, अने ते कया कया जिननी हती, ते बधी विगतो क्यांयथी प्राप्त नथी थई. ते बधी विगतो आ स्तोत्र द्वारा कर्ता तरफथी मळे छे. जे एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि गणाय.
आ स्तोत्र प्रमाणे, कुमारविहारमा ७२ प्रतिमाओ हती, जेमां प्रत्येक देरीमा ३-३ प्रतिमाओनो समावेश थयो हतो. तेमां जैन परम्परा अनुसार अतीत चोवीशीना, वर्तमान चोवीशीना तथा अनागत चोवीशीना - एम त्रणे चोवीशीना एक एक जिननी प्रतिमाओ एक एक देरीमा प्रतिष्ठित हती, तेम फलित थाय छे.
त्रणे काळना, प्रथम जिनोनी ३ प्रतिमा एक देरीमां, द्वितीय त्रण जिनोनी प्रतिमाओ एक देरीमां, एम सम्भवतः २४ देरीओमां थईने २४ x ३-७२ प्रतिमाओ प्रतिष्ठित हती. ते ७२ तीर्थंकरोनां नामो आ स्तवनमां कर्ताए आलेख्यां छे. आवी ऐतिहासिक तथ्यात्मक विगत आपणने आपवा बदल कर्तानो उपकार मानीए तेटलो ओछो छे. अने हा, आखाये स्तोत्रमा क्यांय सोनानी प्रतिमा होवानो अछडतो पण निर्देश मळतो नथी. लागे छे के जो तेवी प्रतिमा होत तो कर्ता तेनी नोंध अवश्य लेत.
२६. क्र. २६ ते श्रीपार्श्व-जिनस्तवनरूप रचना छे. कर्ताने नेमिनाथपार्श्वनाथ प्रत्ये विशेष लगाव होय तेम जणाई आवे खरुं.
२७. 'श्रीधर्मसूरिदेशना-गुणस्तुति' नामे आ २७ मी रचना, कर्ताना
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गुरुजीनी देशना (प्रवचन)मां वर्तता गुणोनुं वर्णन आपे छे. श्रीधर्मसूरिना गुरु श्री शीलसूरि हता, तेम प्रथम गाथाथी स्पष्ट थाय छे. रचना अपभ्रंश भाषामय
. पोताना गुरु धर्मसूरिनी देशनाशक्तिनुं वर्णन करतां कर्ता कहे छे के "केटलाय नवयुवानो, जुवान पत्नीओनो त्याग करीने दीक्षा लई ले छे - धर्मसूरिनी देशना सांभळीने." (गा. १३) "धर्मसूरिनी देशनाथी, सुवर्णदण्डमण्डित अनेक विधिचैत्योनी स्थापना थई" (गा. १४).
२८-३२. आ पांच रचनाओ श्रीशङ्केश्वर पार्श्वनाथनां स्तोत्रो छे.क्र. २८, ३०, ३१ - त्रण अपभ्रंशमां, क्र. ३२ संस्कृतमां, क्र. २९ प्राकृत भाषामां छे. क्र. २९नी गा. क्र. २ मांगें “रनम्मि सग्गसरिसं" ए पद, शङ्केश्वर-क्षेत्रनी तत्कालीन स्थितिनो संकेत आपी जतुं जणाय छे.
३३. क्र. ३३ नी रचना 'श्रीधर्मसूरिछप्पय' नामे गुरुस्तवनात्मक रचना छे. 'छप्पय' छन्दनो श्रेष्ठ विनियोग कर्ताए को छे. छप्पयनो उपयोग केटला प्राचीन काळथी आपणे त्यां थयो छे, ते आ रीते जाणवा मळे छे. अपभ्रंश भाषा अने छप्पय-बेनो सुमेळ अद्भुत थयो छे. कर्ताना गुरु श्रीधर्मसूरि, 'चन्द्रगच्छ'ना हता, ते स्पष्टता प्रथम छप्पयनी प्रथम पंक्तिथी थाय छे. छप्पय क्र. ३मां प्रयोजायेल 'जिण रि' शब्दनु आवर्तन, तो क्रा ७मां 'अरि रि' पदनुं पुनरावर्तन काव्यने चमत्कृतिथी भरी दे छे.
३४. आ संग्रहना अन्तिम एवा ३४मा स्तोत्रमा कर्ताए शासनदेवीनी स्तुति करी छे. तेमां कर्ताए शासनदेवी समक्ष, शिष्यगणसमेत पोताना गुरुने शान्ति करवानी प्रार्थना करी छे (गा. ३). तो गा. ५ मां देवीनी विविध उत्तम पदार्थो वडे पूजा करवानी वात पण करी छे.
आम, आ पोथीनी रचनाओ- अछडतुं अवलोकन अहीं समाप्त थाय छे.
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अनुसन्धान ४४
आ तमाम लघु रचनाओना कर्ता श्रीरत्नसिंहसूरि छे, जे लगभग तमाम रचनाओना छेवाडे आवता नामाचरण थकी निश्चित छे, तेमनी परम्परा चन्द्रगच्छनी होवा- 'धर्मसूरि छप्पय'नामक रचना द्वारा स्पष्ट ज छे. "जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास" (ई. १९३३, कर्ता : मो.द.देशाई, मुम्बई)ना पृष्ठ ३२४ मां मळता उल्लेख प्रमाणे, "चन्द्रगच्छना धर्मसूरि-रत्नसिंहसूरि-देवेन्द्रसूरिना शिष्य कनकप्रभे हैमन्याससारनो उद्धार कर्यो छे."
___कर्ताए सं. १२३७, १२३९ जेवी संवतो नोंधी छे; उपरांत 'कुमारविहार'नुं तेमज 'कुमारपालनी रथयात्रा'नुं वर्णन पण ते आपे छे, तेथी तेओ १३ मा शतकना पूर्वार्धमां विद्यमान होवानुं निश्चित थाय छे.
क्र. १६, २१, २२, २५, ३३ - आ पांच रचनाओमां कर्ता- नामाचरण 'पउमनाह' एवं जोवा मळे छे. आ ५मां 'कुमारविहार' वाळी अने 'रथयात्रावर्णन' वाळी रचनाओ पण समाविष्ट छे. एटले एवा अनुमान पर आववा- थाय छे के कर्ता, दीक्षानुं मूळ नाम 'पउमनाह-पद्मनाभ' होवू जोईए, अने सूरिपदप्राप्ति-वेळाए तेमने 'रत्नसिंहसूरि' नाम आपवामां आव्युं होवू जोईए. वळी, सं. १२३० पूर्वे तेओ 'पउमनाह' तरीके ओळखाता हशे, अने ते गाळामां तेमने गणिपद पण मळ्युं हशे, जेनो संकेत २५ क्र.नी कृतिमांना ‘पउमनाहगणिणा' एवा पदथी मळे छे. अने १२३० थी १२३७ ना वचगाळामां क्यारेक तेओ सूरिपदारूढ थया होवा जोईए.
क्र. २७ वाळी रचनामां कर्ताना नामनो उल्लेख जोवा नथी मळतो, ते नोंधपात्र छे.
अत्रे आपवामां आवेल आ रचनाओनी अनुक्रमणिका पण श्री अगरचन्द नाहटाए ज तैयार करेली छे, ते स्पष्टता करवी जोईए.
प्रान्ते, वाचकवर्ग आ रचनाओने खूब माणशे तेवी आशा.
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सूचनिका गाथा कृतिनामः
आदिपदः
कर्ता
क्रम संख्या
ताड पृष्ठांक पत्रांक
१. कल्याणशस्यपाथोदं २४ आत्मचिन्ताभावनाचूलिका रत्नसिंहसूरि १ २. प्राकृतः संस्कृतो वापि २५ आत्मानुशास्ति रत्नसिंहसूरि ४ ३. जय जय भुवण दिवायर ३० ऋषभदेव विज्ञप्तिका रत्नसिंहसूरि ६ ४. सिरि धम्मसूरि सुगुरुं ५६ अप्पाणुसासणं
रत्नसिंहसूरि १०
सं. १२३९ वै.सु. ५ अणहिलपुर ५. जइ जीव तुज्झ सम्म १२ हितशिक्षाकुलक । रत्नसिंहसूरि १६ ६. नारीण बाहिरंगे १२ संवेगचूलिका कुलकम् रत्नसिंहसूरि १८ ७. अमियमऊहं नेमि १३ नेमिनाथ स्तोत्र
रत्नसिंहसूरि १९ ८. मंगलवरतरुकंदं ११ श्रीपार्श्वनाथ स्तोत्रम् रत्नसिंहसूरि २१ ९. सिरिपास तिजयसुंदर १३ श्रीपार्श्वनाथ स्त० । रत्नसिंहसूरि २२ १०.जय जय नेमि जिणिंद तुहु १३ श्रीनेमिनाथ स्त० रत्नसिंहसूरि २३ ११.जय जय नेमि जिणंद पहु ८ श्रीनेमिनाथ स्त० रत्नसिंहसूरि २५
अणहिलवाडा १२.सिरि नेमिनाह सामिय १२ श्री नेमिनाथ स्त० रत्लसिंहसूरि २६ १३. मूर्तयस्ते
८ श्रीनेमिनाथ स्तोत्र रत्नसिंहसूरि २७ १४.जयइ स जएक्कदीवो ३६ श्रीधर्मसूरिगुणस्तवन षट्त्रिंशिका " १५.नियगुरुपायपसाया ३२ आत्महितचिन्ताकुलक रत्नसिंहसूरि ३२ १६.सिरिधम्मसूरिपहुणो ४४ मनोनिग्रहभावनाकुलक पउमनाह १७.नमिउं गुरुपयपउमं ३४ गुरुभक्ति कुलक रत्नसिंहसूरि ४० १८.सुहिओ वा दुहिओ वा १६ पर्यन्तसमयाराधनाकुलक
४४ १९.चिंतसु उवायमेसं २६ उपदेश कुलक
रत्नसिंहसूरि ४६ २०.सयलतियलोक्कतिलयं २७ नेमिनाथ
रत्नसिंहसूरि ४८ २१.पणमिय पढमजिणंदं १० श्रीपुंडरीकगणधर स्तोत्र । पउमनाह २२.सिरिचरिमतित्थनाहं ११ अणहिलपुर रथयात्रा स्त० पउमनाह ५२ २३. यन्नामस्मृतिरप्यशेष ९ श्रीभारती स्तोत्र
रत्नसूरि २४.तिहुयणजणमणलोयण १३ श्रीभरुयच्छमुणिसुव्रत स्त० रत्नसूरि २५. चउवीसंपि जिणिदे १४ बावत्तरिजिनकुमर विहार स्त० पउमनाहगणि ५६ २६.जय जय पास सुहायर १५ पार्श्वजिन स्त०
रत्नसिंहसूरि ५७ २७.सिरिसिलसूरिगुरु गणहरह २१ श्रीधर्मसूरिदेसणागीत
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२८. जयजय संखेसर तिलय २९. सिरि संखेसरसंठिय निट्ठिय
३०. संखेसर पुरसंठिय पासह ३१. संखपुरे सिरि वंदहु देउ ३२.यस्त्रैलोक्यगतं ततं गुरुतम ३३. सिरिधम्मसूरिचंदो ३४. चउवीसंपि जिणिदे
१३
१३
९
श्रीसंखेश्वर पार्श्व स्त०
श्रीसंखेश्वर पार्श्व स्त०
श्रीसंखेश्वर पार्श्व स्त०
९
श्रीसंखेश्वर पार्श्व स्त०
११ श्रीसंखेश्वर पार्श्व स्तोत्र
९
श्रीधर्मसूरि छप्पय
१० शासन देवी स्तोत्र
अनुसन्धान ४४
(१) आत्मतत्त्व चिन्ता भावना चूलिका
कल्याणशस्यपाथोदं, दुरितध्वान्तभास्करं । श्रीमत्पार्श्वप्रभुं नत्वा, किञ्चिज्जीवस्य दिश्यते ॥ १ ॥ नाहं वक्ता कविर्नैव, सतां नाक्षेपकः क्वचित् । अपूर्वं नैव भाषिष्ये, श्रव्यं किञ्चित्तथापि मे ॥ २ ॥ व्युत्पत्तेर्भाजनं काव्यं, रसप्राणस्य मन्दिरं । वक्रोक्तेः परमं धाम वैदर्भ्या लास्यमण्डपः ॥ ३ ॥ शब्दार्थयोः परो गुम्फः प्रसत्तेस्तु सुधारसः । गुरोस्तुल्येन केनापि दृभ्यते लीलया स्फुटम् ॥४॥ सर्व्वमेतथा मन्ये तत्त्वबुद्ध्या विवेचयन् । यतः कर्तुं भवोच्छेदं, चेतश्चेन्न प्रगल्भते ॥ ५ ॥ संसाराऽनित्यता धन्य ! त्वया स्वतोऽन्यतोऽपि वा । दृश्यते ज्ञायते भूयः श्रूयते चानुभूयते ॥ ६ ॥ भोगतृष्णाकृतध्यानै-रसम्पूर्णमनोरथैः । जलबुद्बुदसादृश्यं प्राप्य कैः कैर्न गम्यते ॥ ७ ॥ जैनधर्म्मगुणोपेतां सामग्रीं प्राप्य निर्मलाम् । धर्म्मोद्यमस्तथा कार्यः प्रमादो न यथा भवेत् ॥ ८ ॥ भावितात्मा क्षणं भूत्वा स्थित्वैकान्ते समाहितः । नाशावंशे दृशौ धृत्वा भाव्यमित्थं मुहुर्मुहुः ॥ ९ ॥
श्री रत्नसिंहसूरि ६१
श्री रत्नसिंहरि ६३
श्री रत्नसिंहरि ६४
श्री रत्नसिंहसूरि ६५
श्री रत्नसिंहरि ६६
पउमनाह
६९
श्रीरसिंहसूरि ७२
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आयातोऽस्मि कुतः स्थानद्गन्तव्यं क्व पुनर्मया? । सुखदुःखविधौ हेतुः को वा तत्र भविष्यति? ॥ १० ॥ पुण्यं पापमिहोपात्तं ध्रुवं परत्र भुज्यते । इति मत्वा महाभाग ! प्रमादो नैव युज्यते ॥ ११ ॥ क्वेदं ते मानुषं जन्म चिन्तितार्थप्रसाधकं । धर्मसाधनसामग्री कासौ सर्वापि हस्तगा ॥ १२ ॥ तूर्णं तूर्णं तु धावंस्त्वं, कृत्यकोटिसमाकुलः । विस्मृत्य पृष्टतः कोटी, पुरः पश्यसि काकिनीम् ।। १३ ।। सूरः(रोऽ) कातरतां यातो जैनैरूचे स उत्तमः । एतद्द्वयविहीनस्तु मध्यमः प्रणिगद्यते ॥ १४ ॥ मिथ्यादृक्, श्रावको, भव्य-श्चारुचारित्रवान् यतिः । जानीहि व्यवहारेण, मध्यमोत्तमहीनकान् ।। १५ ।। के के वैराग्यसंवेगौ नाख्यान्ति घोषयन्ति च । व्यङ्ग्यौ तौ बाष्परोमाञ्चैः पुण्याद्वर्षेषु कस्यचित् ॥ १६ ॥ वर्षेपि बहुशः स्यातां नित्यं तौ वा महात्मनः । उत्थायोत्थाय तस्याऽऽस्यं द्रष्टव्यं पुण्यमिच्छुभिः ।। १७ ॥ जानन्तः शतशो व्यर्थं शमादेवं हवो (शमादेर्बहवो ?) जनाः । यतो वैराग्यसंवेगौ तमर्थं तु न जानते ॥ १८ ॥ दैवादात्मन्नहं जाने प्रमादीति यदि स्वकं । तथाप्युद्यन्तुमासेव्यः सदा स्वान्तेन कन्दलः ॥ १९ ॥ माऽवधीरय मे वाचं कुरु किञ्चित्तथाविधम् । जन्मान्तरं गतो येन वत्स वत्स ! न शोचसि ।। २० ॥ हंहो चेतः ! प्रकटविकटं मोहजालं किमेतच्छून्यालापैः प्रलपितमिदं कार्य हीनं विजाने । स्मारं स्मारं किमिति मुषितं सुप्रसिद्धं यदेतत् भोज्यातस्य क्षुदपगमनं दृष्टमात्रे न भोज्ये ।। २१ ॥ . मज्जिह्वायै ततश्चेतो यच्छादेशं सदाशयः ।। हित्वा कण्डूलतां वक्तुं मूकत्वं येन सेवते ॥ २२ ॥
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भावानां तत्त्वतः कर्तुं, न शक्तश्चेत्तथाप्यहम् । रत्न ! धन्येषु मन्ये स्वं यत्तस्यां व्यसनी सदा ॥ २३ ॥ श्रीरत्नोपपदाः सिंहा सूरयो धर्ममङ्गलम् । तत्तत् किञ्चित्तथाचख्याः प्राप्यते निर्वृतिर्यथा ॥२४ ॥ छः ॥
आत्मतत्त्वचिन्ताभावना चूलिका ।। छ । छ ।
OG
(२) आत्मानुशास्ति प्राकृतः संस्कृतो वापि पाठः सर्बोप्यकारणम् । यतो वैराग्यसंवेगौ तदेवं परमं रहः ॥ १ ॥ अहो ! मूढं जगत्सर्वं भ्राम्यदेव बहिर्बहिः । आकुलव्याकुलं नित्यं धिक्किमाश्रित्य धावति ॥ २ ॥ संप्राप्य शासनं जैनं युक्तं किं मम नतितुम् । किंवा प्रमाद्यतो युक्तं रोदितुं मे मुहुर्मुहुः ।। ३ ।। आत्मन्नहो ! न ते युक्तं कर्तुं गजनिमीलिकाम् । प्रातर्गतं तु सन्ध्यायां स्थातुं कस्तव निश्चयः ।। ४ ।। एतं भवं परत्राहो ! नवं स्मृत्वा प्रमादिनः । बाढमाक्रन्दतो मूढ ! मूर्द्धा यास्यति खण्डशः ॥ ५ ॥ कस्मैचित्रास्मि रुष्यामि इष्याम्यात्मन एव हि । यद्वच्मि तत्र(न्न) जानामि तत्सम्बोध्यः परः कथम् ।। ६ ।। ये वाचाऽऽरव्यान्ति वैराग्यं यान्ति भेदं न मानसे । ह हा हा ! का गतिस्तेषां कारुण्यास्पदभागिनाम् ॥ ७ ॥ किं करोमि क्व गच्छामि क्व तिष्ठामि शृणोमि किम् । संसारभयभीतस्य व्याकुलं मे सदा मनः ।। ८ ॥ ध्यात्वा किं वच्मि किं तूष्णीं कोऽहं भीतोऽपि निर्भयः । अहो ! मे नटविद्येयं हहा हु काप्यलौकिकी ।। ९ ।।
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विमुच्य निष्फलं खेदं धर्मे यत्नं ततः कुरु । एवं जातं न चेत्किञ्चिच्छक्तो दैवं न लङ्घितुम् ॥ १० ॥ यः कोपि दृश्यते किं वा श्रद्धानुष्ठानबन्धुरः । तत्रानुमोदनं युक्तं कर्तुं त्रेधापि नित्यशः ॥ ११ ॥ आत्मारामं मनो यस्य मुक्त्वा संसारसंकथाम् । अमोघामृतधाराभिः सर्व्वाङ्गीणं स सिच्यते ॥ १२ ॥ एवं ध्यानरता येऽत्र तेऽपि धन्या गुणोन्मुखाः । वेषमात्रेण ये तुष्टास्तेऽनुकम्प्या मनस्विनाम् ॥ १३ ॥ उद्यमे धर्त्तुमात्मानं ध्येयं स्मर्तुं प्रतिक्षणम् । हितं वाञ्छन् जनः सर्व्वेऽप्येतद्ध्यानपरो भवेत् ॥ १४ ॥ धर्म्यं कर्तुं यदीच्छास्ति तदा वीक्षस्व सादरम् । आत्मानुशासनं सूरेः श्रीजिनेश्वरसंज्ञिनः ॥ १५ ॥ संसारानित्यतां बुद्धा ये तिष्ठन्ति निराकुलाः । ते नूनं वह्निना दीप्ते शेरते निर्भरं गृहे ॥ १६ ॥ यौवनैश्वर्य- भूपाल प्रसादप्रमुखैर्मदैः ।
भूयांसः स्वं स्थिरं मत्वा कोट्या गृह्णन्ति काकिनीम् ॥ १७ ॥ गतानुगतिको भूत्वा मा त्वं स्वपिहि निर्भरम् ।
पतन्तं वीक्ष्य कूपेऽन्धं सज्जाक्षस्तत्र किं विशेत् ? ॥ १८ ॥ देहो यन्त्रमिदं मूढा ! बह्वपायं प्रतिक्षणम् । दृष्टान्तं शकटं दृष्ट्वा बुध्यध्वं किं न सत्वरम् ? ॥ १९ ॥ हुं हुं हा ! दैव ! धिग् धिग् मे जानतोऽपि न चेतना । बद्धायुः श्रेणिकः किं वा नाऽगच्छन् प्रथमां महीम् ॥ २०॥ भुक्त्वा ज्ञात्वा च धिग् भोगान् महद्भिर्निन्दितं तथा । यथा देही विदेहः सन् निवृत्तौ निर्वृतः कृतः ॥ २१ ॥ राकाशशाङ्कसंकाशं प्राप्य जैनेश्वरं वचः ।
जन्तो ! सद्भावपीयूषं स्तते: (सूते ? ) स्वान्तविधूपलः ॥ २२ ॥ दृष्टादृष्टैर्मम त्रैधं क्षन्तव्यं सर्व्वजन्तुभिः ।
स्वल्पेनाप्यपराधेन सिद्धा मे सन्तु सक्षिणः ॥ २३ ॥
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अनुसन्धान ४४
सर्वमप्येतदाख्यात-मयोग्यं नैव सेवते । क्षुत्क्षामापि जलौका किं पाषाणं चुम्बितुं स्पृशेत् ? || २४ ॥ सूरिः श्रीरत्नसिंहाख्यः संवेगामृतभावनाम् । चक्रे स्वस्योपकारार्य-मात्मानुशास्तिसंज्ञिकाम् ॥ २५ ॥ छ ।।
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(३) श्रीऋषभदेव विज्ञप्तिका जय जय भुवणदिवायर ! तिहुयणगुणरयणसायर ! जिणिंद ! । सिरि रिसहनाह ! सामिय ! विन्नत्ति मज्झ निसुणेहि ।। १ ॥ जोसि तुमं जयबंधव ! थुणिओ सुरराय-फणिवइ-गुरूहिं। तस्स तुहं नियहिययं पयर्डतो किंपि जंपेमि ॥ २ ॥ भव-भमण-भीरुओ हं किंपि रगन्नो (कंपिरगत्तो?) जिणिंद ! तुह पुरओ। सरिउं पि हु अतरंतो हिययदुहं तहवि साहेमि ॥ ३ ।। नरयाईण दुहाणं अच्छउ दूरे कहावि किर ताव । गब्भंमि वि जावत्था कलमलयं सावि तं जणइ ॥ ४ ॥ जेण न पावेमि रई कत्थवि लीणो खणं पि हे नाह ! | ता अहह कुण परित्तं अणंतसामत्थ ! कारुणिय ! ।। ५ ॥ तुह संपत्ति-रहंगी-रहिओहं नाह ! चक्कवाओव्व । संसारसरे सुइरं भमिओ दीणाई विलवंतो ।। ६ ॥ मह मण-उदयगिरिमी सूरम्मि व संपयं तए फुरिए । आसासिओ तहाहं जह पुव्वि नेव कइयावि ।। ७ ॥ सिद्धंतभावणाहिं भावितो वि हु सयावि अप्पाणं । भूएण व रागेणं होहामि कहं च्छलिज्जंतो ।। ८ ॥ वइरसिलाए नूणं मह हिययं नाह ! निम्मियं विहिणा । जं मरणं नाऊणं सयखंडं फुर(ड)इ न तडत्ति ॥ ९ ॥ जम्मंतर-सय-दुलहं सासणमेयं जिणिंद ! दुहपत्तं । पत्तं पि पुण न पत्तं पमायरिउकिंकरो जमहं ।। १० ।।
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भवकूवमज्जिरेणं हत्थालंबो मए तुमं पत्तो । मोहवसा उव्वलिउं निवडतं अहह मं रक्ख ॥ ११ ॥ जइ सम्मं मह सामिय ! सव्वंगं फुरइ भवदुहसरूवं । ता नीरंपि न पाउं कमइ मणे किं पुणऽन्नकहा ? ॥ १२ ।। तुह आणाए सामिय ! एगत्तो अम्ह माणसं फुरइ । अन्नत्तो विसएसुं डमरुयगंठिव्व किं करिमो ।। १३ ।। पवणपणुल्लिरनीरे रविपडिबिंबं व चंचलं भुवणं । अणसमयं पि नियंतो जं नवि रज्जामि ही विसया ! ॥ १४ ॥ अवहीरिओवि तुमए पत्थेमी तहवि कलुणवयणेहिं । पइ मुक्को अहह भवे सामिय ! होहं कहमहति ।। १५ ॥ अहह ! अहं नो सामिय ! सरणागयवच्छलेवि पई पत्ते । मह जं न परित्ताणं ता हं दीणो कहं होहं ? ॥ १६ ॥ कत्थ कया कह पुणरविमाइ सद्धाइ नाह ! तं दच्छं । ता मज्झ हे दयालुय ! दिट्ठिपसायं पणामेसु ॥ १७ ॥ जं कि पि हु संसारे पगरिसपत्तं मणम्मि सुहज्झेयं । तह जीहाइ थुणिज्जतं पि हु मह नाह ! तं चेव ॥ १८ ॥ तुह पयसेवं मुत्तुं न हु अवरं किंपि नाह ! पत्थेमि । ता कि मं अवहीरसि करुणाभरमंथरं नियसु ।। १९ ।। जइ तुडिवसेण तुम्हं नयणंबुयकरपरायपिंजरिओ । होहं कहमवि ता जिण ! नन्नो धन्नो जए नूणं ॥ २० ॥ तुह सिद्धंतरहस्सं नाउं संवेगसंगयमणोवि। विसएसु जं घुलामी तं सल्लं हल्लइ महल्लं ॥ २१ ॥ व,तो वि उवाए जमहं न तरामि लंघिउं देव्वं । का तत्थ मज्झ अरई पुणो पुणो तहवि भिज्जामि ।। २२ ।। तुह समयसमुद्दाओ मइमंदरमंथणेण सामि ! मए । उवसमरयणं लद्धं बद्धं नियहिययगंठीए ॥ २३ ॥ तिहुयणरज्जाओ वि हु अहिओ मह जाव फुरइ आणंदो । विसयाइ-तक्करहिं ता हीरइ ही नियंतस्स ॥ २४ ।।
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अनुसन्धान ४४
ता किं करेमि कस्स व कहेमि इय पुण पुणोवि रुंटतं । दुक्खपलित्तं धावइ मह हिययं दससु वि दिसासु ॥ २५ ॥ दीणोसु संतजीहो भमंतनयणो घुलंतसव्वंगो । विसयविसातविओहं हरिणोव्व न निवडिओ कत्थ ? ।। २६ ॥ दुहदावतावियंगो नहम्मि सुन्ने करे भमाडंतो। कत्थवि रइमलहंतो तुह विरहे नाह ! कह होहं? ॥ २७ ॥ एयंपि वियाणंतो जं न सहो रंजिउं खणं पि मणं । ता नाह ! कालथक्को ही ही! पविसामि कत्थ अहं? ॥ २८ ॥ इय विन्नत्तिं सोउं जइ अप्पा आरुहइ खणं रंगे। जह नवणीयं जलणे तह ता वियलइ फुडं कम्मं ।। २९ ।। इय तिहुयण-भाल-रयण ! सूरीहिं जिणिंद ! विनविज्जंत ! । निरुवमकल्लाणनिहिं कुणसु असेसंपि जियलोयं ॥ ३० ॥ छ ।।
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.. (४) अप्पाणुसासणं सिरि धम्मसूरि सुगुरुं पुणो पुणो पणमिऊण भावेणं । तिहुयणसारं तत्तं अप्पहियं किंपि जंपेमि ।। १ ।। गीयं अमियं इ8 नहु मिटुं किंपि जीवलोगम्मि । पुरिसविसेसस्स मुहे जह मिट्ठा भारई देवी ॥ २ ॥ उवसम-विवेय-संवर-पयाण अत्थं न को मुणइ एत्थ ? । सुव्वइ न कोइ अवरो चिलाइपुत्तो जहा भयवं ॥ ३ ॥ तरतमजोगो भेए रसो पयासेइ धाउविसयम्मि । ता जाव सद्दवेहो अओ परं नत्थि रससिद्धी ॥ ४ ॥ धाउव्व उवसमाई रसोव्व चित्तं इमाण संजोओ। ता जाव सिद्धि-सिद्धी सो भन्नइ सद्दवेहविही ।। ५ ।। वक्खाणंति सुणंति य मुणंति तत्तं सिरंपि धूणंति । रोमंचवाहइंधं भिज्जइ न मणो न तो किंपि ।। ६ ॥
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जो पुण विरतचित्तो भावणवंसग्गसंठिओ होउं । अप्पाणं ज्झूरंतो स इलापुतो धुवं होइ ॥ ७ ॥ मुत्तूण लोयचितं जइ जिय ! झाएसि अप्पणो तत्तं । ता तुह जम्मो सहलो अहवा झूरसि बहुं पच्छा ॥ ८ ॥ भवचारयवेरग्गं विसयाइदुगुंछणं च इच्चाइ । वयणे च्चिय सव्वेसिं हियए केसिंचि धन्नाणं ॥ ९ ॥
जे एवं जंपंती पमायवेरिं च्छलेह भो लोया ! | ते वि च्छलिज्जंति जया तया अहं कस्स किं काहं ? ॥ १० ॥ अन्नोन्नं जोयंता मन्नंता अत्तणो य धन्नत्तं ।
संसारइंदयालं दरिसंता जे भांति इमं ॥ ११ ॥
चेयइ न कोइ हियए वयणेहिं अणिच्चयं भणइ सव्वो । अन्नह मण-वइ-काए अन्नोन्नं कह विसंवाओ ? ॥ १२ ॥
वि कहं कहा अत्तपमायं न चिंतयंति फुडं ? । जं दूसमाइ सव्वं छोढुं वच्वंति वज्जसिरा ॥ १३ ॥ परगरिहं मुत्तूणं अहवा चिंतेसु अत्तणो तत्तं । अन्नह तुमंपि होहिसि पुव्वाणं मूढ ! सारिच्छो ॥ १४ ॥ जा न विहायइ रयणी ताव य चिंतेसु जीव ! किंपि तुमं । अन्नह आउम्मि गए झीणा चिंताइ तुज्झ कहा ।। १५ ।। कामवियारविणो धन्नो इह चितए परं तत्तं । जइ पत्तोवि वियारं चिंतइ धन्नाण सो राओ ॥ १६ ॥ काऊण गुरुपइन्नं मणमोहण - करिवरम्मि जह चडिओ | चुक्क नियवयणाओ धन्नोवि तहा वियारगओ ॥ १७ ॥ ता पढमं पि वियारं मणमोहण-करिवरस्स सारिच्छं । वारह दुहसयमूलं जइ इच्छह सुहसमिद्धीओ ॥ १८ ॥ पंचहि वि इंदिएहिं अनंतसो नत्थि जं किर न भुत्तं । तह विन जाया तित्ती ता चेयसि हा कया मूढ !? || १९ ॥ अह चेयसि कइयावि हु थेवो वि हु जत्थ नत्थि कोइ गुणो । एसा पुण सामग्गी कयाइ होहित्ति को मुणइ ? ॥ २० ॥
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अनुसन्धान ४४
सयलंपि भवसरूवं नाऊणं गुरुमुहाउ मुणिणोवि। वटुंति जं अकज्जे अहह महामोहविप्फुरियं ! ॥ २१ ॥ भणसि मुहेणं सव्वं तत्तं अइसुंदरं तुमं जीव ! । जं न कुणसि कारणं तं मन्ने गरुयकम्मोसि ॥ २२ ॥ चिट्ठइ राई पासइ न कोइ हवउ जह तह वणुट्ठाणं । इय मूढ ! लोयरंजय ! कुणमाणो किं पि न लहेसि ।। २३ ॥ जइ एगो च्चिय रागो निग्गहिओ होज्ज जीव ! संसारे । अट्ठण्हवि कम्माणं ता उच्छेओ कओ झत्ति ।। २४ ॥ को दिव्वं लंघेउं अहवा सक्कइ वियाणमाणोवि । तह वि हु उज्जमसीलो होज्ज सया रायविजयम्मि ॥ २५ ॥ जो चिंतइ न परत्तं देइ कुबुद्धिं वयाउ भंसेइ । तेण समं संसग्गि वज्जह दूरेण मणसावि ।। २६ ॥ पाएण दूसमाए धम्मे संसग्गिया इह पमाणं । तेण सुमित्तेहिं समं संसरिंग कुणसु जा जीवं ॥ २७ ॥ जइ पुच्छह निच्छयओ न गिही साहूवि पावइ भवनं (न्तं)। भावेण केवलं पि हु लभ्रूणं जाइ निव्वाणं ॥ २८ ॥ गाहाण सिलोगाणं अत्थं नाऊण सव्वभंगेहिं । तत्थवि तं न हु नायं भावण-अमियं जओ झरइ ।। २९ ।। अवहियहियओ होउं खणे खणे अप्पयं विभावसु । कत्तो अहमायाओ गंतूण कहिं किमणु होहं ? ॥ ३० ॥ सव्वगुणाणं जोग्गं अप्पाणं जियपमाइणं नाउं । किं न भयंतो(भवत्तो?)विरमसि सत्तीए उज्जमं काउं? ॥ ३१ ॥ धम्मे परमरहस्सं रे जिय ! संवेगचोयणासारं । चूलियजुयलं झायसु जइ अ - - - - - ॥ ३२ ॥ एएणवि बीएणं कयावि धम्मुज्जवो(मो?) तुहं हुज्जा । अन्नह दुहसयबुड्डो पायालं जासि सत्तमयं ॥ ३३ ॥ कीयं आहाकम्मं नीआवासो गिहीसु पड़िबंधो । अमिओ परिग्गहो तह हुति जईणं इमे दोसा ।। ३४ ॥
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इक्किको वि हु गुरुओ मिलिआ सव्वेवि जइ पुणो हुंति । अइंसणेण तेसिं साहू [णं] मह नमुक्कारो ॥ ३५ ॥ नामेणं चिअ साहू साहूसु न ताण होइ अवयारो। किं परविकत्थणेणं अहवा चिंतेसु अप्पाणं ।। ३६ ॥ अहयंपि एरिसो अह सुद्धं मग्गं च इह परूवितो। संविग्गपक्खिअत्ता, धन्नं मन्नामि अप्पाणं ॥ ३७॥ एवं ठियस्स सययं मणस्स भावस्स पत्तिअइ को वा । पच्चाइएण किं वा अप्पा चिअ सक्खिओ इत्थ ॥ ३८ ॥ जं पुण वायाए च्चिअ भणामि कारण किं पि न करेमि । तत्थत्थि गुरुअदुक्खं मणमंदिरंसंठिअं मज्झ ॥ ३९ ॥ सुद्धालोअणदाणं काउं मित्तिं च सव्वसत्तेसु । अप्पाणं गरिहंतो भावेसु अहं कया तत्तं ? ॥ ४० ॥ एगं चिअ मह सलयइ जं न सहाए लहामि मणइटे। एवं ज्झायंतस्स उ को जाणइ किंपि होहित्ति ॥ ४१ ।। आणंद दाऊणं समग्गसंघस्स गहियआसीसो । अप्पाणं भावितो विहरेसु जया तया अहयं ॥ ४२ ॥ जइ कहवि जाइ दियहं रत्ती न हु जाइ अप्पचिताए । थोवजले मच्छस्स व तल्लोवेल्लिं कुणंतस्स ॥ ४४ ।। चेयहु चेयहु चेयहु हंहो मूढ मइ ! कहिय कहाणिय सव्वपयारिहिं तुम्ह मई। हियडं ताविवि पुणु पुणु खोट्टेसुहु धरणि, परत न केणवि होसइ तहिं पत्तइ मरणि ।। ४५ ॥ हियड़इ रंगु न जाहं तहं सउ वक्तु सुपडिहाइ । जइ पुणु केवइ रंगु तउ नयणिहि नीरु न माइ ।। ४६ ॥ जलणसमं कामीणं नीरसलोयाण तुसवुससमाणं । विरयाणं अमियसमं एयं सव्वंपि जं भणियं ।। ४७ ॥ गंतव्वं कत्थ मए कह एसो चंदिणो य जियलोओ। कह माइ-सयण-विहवो इय झूरसि हा हयास ! तया ।। ४८ ॥
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अनुसन्धान ४४
एयाए भावणाए जइ अवसाणंपि मज्झ किर होज्जा। ता अहयं चिय धन्नो नहु अन्नं पत्थणिज्जति ।। ४९ ॥ भावण-अमियं अहवा कम्मवसा मा समुलसउ मुज्झ । अन्नस्सवि दट्ठणं एयं घुटेसु किं कइया ? ॥ ५० ॥ वेरग्गभावणाए किंवा वच्चंतु मज्झ दियहाई । नियहिययचितियाइं लब्भंति नवत्ति को मुणइ ? ॥ ५१ ।। एयं भावणतत्तं सव्वंगं तुज्झ जीव ! जइ प्फुरइ । पंचुत्तरवासीणं वि सोक्खं मन्नामि ता तुच्छं ॥ ५२ ॥ एगंते होऊणं मुहुत्तमेत्तं विसिट्ठमंतं व। पइदियहं झाएज्जह एवं उवएसवरतत्तं ॥ ५३ ।। जह दीवाओ दीवो बोहिज्जइ भावणाए तह भावो । इय पढह गुणह झायह भविया एयं सया तत्तं ॥ ५४ ।। सिरि रयणसिंहसूरी भावण-सिहरम्मि आरुहेऊणं । अप्पाणुसासणं भो ! जंपइ जिणसासणे सारं ।। ५५ ।। बारसअउणत्ताले वइसाहे सेयपंचमिदिणम्मि । अणहिल्लवाडनयरे विहियमिणं अप्पसरणत्थं ॥ ५६ ॥ छ ।
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(५) हितशिक्षा कुलक जइ जीव ! तुज्झ सम्मं परलोयपयाणयं वसइ हियए । ता धम्ममि पमाओ होज्ज मणागंपि न कयावि ॥ १ ॥ मणमोहणविज्जाहि रत्ताण गुरुम्मि जाण बहुमाणो। धित्तेसिं बहुमाणो जइ नो संवेगरंगाओ ॥ २ ॥ मण नयणह अनुजीह क्रिय तीहं विरलीकरेसु । संजमवंतु सुवासणउ जउ मुणि कोइ कहेसु ।। ३ ।। किरियपरायण बहुय मुणि दीसहिं वेसु धरंत । विरला केइ सुवासणा जे रंजहिं पुण संत ।। ४ ।।
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जाणता अगहिल्ला कह भुल्लाइं दियालजियलोए । विसएहिं भोलिया अह मह वयणं ही कुणंतु कहं? ॥ ५ ॥
अज्जवि किंपि न नटुं जइ चेयसि हंदि किंपि अप्पाणं । विलवणमेत्तट्ठिओ पुण अरन्नरुन्नं समायरसि ॥ ६ ॥ कन्नि धरेविणु दिन्न मई इय सक्खिय लोइ ।। हं केणवि न हु जग्गविउ मन जंपसि परलोइ ॥ ७ ॥ चिंतहिं हियडं दज्झिसइ पच्छायावु करेसि । होसइ कांइवि नेव तुहु पर हत्थड़ा म लेसि ।। ८ ।। एएहिंवि वयणेहिं तह जिय ! मन्ने न भावसब्भावं । जा नेव पुलइयंगो रेल्लसि अंसूहि महिवलयं ॥ ९ ॥ जस्स मणदप्पणंमी भावत्थो फुरइ एयभणियस्स । सो देवाण वि पुज्जो कि पुण मणुयाण जियलोए ? ।। १० ॥ गिरिसिहरग्गिहि वरसियइ रहइ न पाणिउ जेव । पत्थर-सरिसह नीरसह कहिउ सुणिज्जह तेव ॥ ११ ॥ वयणेणं भणियमिणं तरामि नो सिक्खिउं च बेडाए । सिरि धम्मसूरि सीसो जंपइ एयं रयणसूरी ।। १२ ।।
(६) संवेगचूलिका कुलकम् नारीण बाहिरंगे जह दिढे माणसं समुल्लसइ । तह अंतरसयलंगे जं दिढे होइ तं सुणह ॥ १ ॥ रणरणओ दीणत्तं महाभउव्वेय तास कलमलयं । एयं अणुहविऊणं अप्पा वि हु उड्डणं महइ ॥ २ ॥ विरलो च्चिय धावंतो धम्मो धम्मोत्ति कोवि मज्झम्मि । अप्पाणं रंजंतो जो मुंचइ विसयगहिलत्तं ॥ ३ ॥ ता नत्थि इह कहाओ ते दिटुंता न ताउ जुत्तीओ। संसारुव्वेयकरा मह कन्ने जा न पत्ताओ ॥ ४ ॥
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अनुसन्धान ४४
ता नत्थि इह कलाओ पररंजणविम्हएक्कजणणीओ। जाणामि जा न पयर्ड मुत्तुं नियरंजणं एक्कं ॥ ५ ॥ किं गहिलो कि सज्जो कि मुक्खो पंडिओ य किं अहयं । मासाहससउणिसमो किं वा चिट्ठामि घंघलिओ ॥ ६ ॥ गरुयनिकाइयकम्मो कि ठगिओ चन्निओ य सन्नो वा । किं गद्ध-सूयरोहं रंजेमि मणो न जं धम्मे ॥ ७ ॥ परिदेवणमेत्तं चिय अहयं पेच्छामि अत्तणो एकं । जं उज्जमे न सत्ती ही ही ! होहं कहमहंति ? ।। ८ ॥ अज्ज करेमि कल्लं, करेमि धम्मुज्जमं तुमं भणसि । इय निप्फलवंछाहिं समप्पिही जम्मपरिवाडी ॥ ९ ॥ जाणइ देक्खइ संभलइ सउ भम्मलु ववहारू । धम्मि न लग्गइ अहह तुहं कुणइ जु सव्व असारू ।। १० ।। दिट्ठम्मि वि दिटुंते खणभंगुरजीवियस्स पच्चक्खं । थेवंपि न चेइज्जइ जीवेहिं गरुयकम्मेहिं ।। ११ ।। सिरि धम्मसूरि मुणिवइ-सीसेहिं रयणसिंहसूरीहिं । संवेगमेरुसिंगे भमिया विलसंतु कहियमिणं ॥ १२ ॥ छ ।।
संवेगचूलिका कुलकम् ॥ छ ।।
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(७) श्री नेमिनाथस्तोत्र अमियमऊहं नेमि सुररायथुयंपि जइविहं जलही । दटुं उल्लसियंगो थुणामि तो सायरो संतो ॥ १ ॥ मेसुम्मेसपवित्ती जा पुव्वि परिचियासि अच्चंतं । पइं पेच्छिय नयणाणं सावि कहं मज्झ पम्हुछा ।। २ ।। तुह सामि ! देहपउमे पलोइडं चारुरूवमयरंदं । आजम्मं पि पियंतो मह मणभमरो न संतुट्ठो ।। ३ ।।
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जून २००८
तुह नाह ! रूवहरए, दुब्बलगोणिव्व निवडिया दिट्ठी । गरुयपयन्ना वि महं नीहरिडं कहवि नो तरइ ॥ ४ ॥ कामियतिथे रूवे तुह जिण ! मह महइ निवडिउं दिट्ठी । पत्थंती पइजम्मं पदं विरहो मा हु मे होज्जा ॥ ५ ॥ मुत्तं पिव मुत्तिसुहं तुह मुहरूवं पलोइउं सामि !! पावेमि जइ सयावि हु तो सिवसोक्खं णवि अलाहि || ६ || पइं नेमिनाह ! सामिय ! पेच्छंतो अणमिसाइ दिट्ठीए । अप्पाण-पर-विसेसं न लक्खिमो थेवमेत्तंपि ॥ ७ ॥ तुह रूवदंसणाओ निरुवमआणंदनिब्भरमणस्स । थोमणस्स वि मह जिण ! कह जीहा मोणमल्लीणा ? ॥ ८ ॥ सिरिनेमिनाह ! सामिय ! परं पेच्छंतो मणंसि तक्केमि । अन्नं पाणं पि विणा जइ जम्मं इह समप्पेमि ॥ ९ ॥ सव्वंगचंगिमा तुह सा कावि जिणिंद ! जीइ मह दिययं । वाउचलं पिह जायं निष्कंदं मेरुसिंगं व ॥ १० ॥ तिहुयणविम्हयजणणं तुह रूवं नाह ! पेच्छिऊण अहं । चित्तलिहिउव्व जाओ ज्झायंतो जन्न अणुहूयं ॥ ११ ॥ जइ मग्गियं पि लब्भइ ता निसुणह सामि ! पत्थणं एयं । इय विन्नत्तिसमुब्भव - आणंदो मह सया होउ ॥ १२ ॥ इय रयणसिंहसूरी थोडं तं नाह! पुलइयसरीरो । अंसुजलुल्लियनयणो तुह पाए नमइ साणंदं ॥ १३ ॥ छ ॥
2003
(८) श्री पार्श्वनाथ स्तव
मंगलवरतरुकंदं सुहभावसमुद्दपुन्निमायंदं । थुणिमो पासजिणिदं जणमणपंकेरुहदिणिदं ॥ १ ॥ अच्छरियाण निवासो सीमा तं चेय पेच्छियव्वाण । सिरि आससेणनंदण ! तं दिट्ठो गरुयपुन्नेहिं ॥ २ ॥
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अनुसन्धान ४४
जंपणमणा वि जीहा उवमाणं नो लहइ तुह थुई काउं । आलालंबवसाओ चंदाइसु कीस धावेइ ॥ ३ ॥ सायर-चंद-दिवायर-चिंतामणि-कप्पपायवाईहिं। हीणेहिं अणंतेणं कह तेहिं पास ! तुह उवमा ॥ ४ ॥ देहं चिय भमइ बहिं जीयं मह पास ! तुम्ह पयमूले । अणमिसनयणेहिं अहं तित्तिं न लहामि पेच्छंतो ।। ५ ।। अप्प च्चिय मह सक्खी जयंमि नन्नो पिओ तुमाहितो । वम्मादेवि-समुब्भव ! नाणेण तुमंपि तं मुणसि ॥ ६ ॥ एगेगंमि वि अंगे सा का वि हु पास ! चंगिमा तुज्झ । जत्थ निविट्ठा दिट्ठी तत्तो बीए न संकमइ ॥ ७ ॥ अह सहसा सव्वंगे दिढे रहसेण एक्कहेलाए । तइया मह आणंदो मन्ने भुवणंमि न हु माइ ।। ८ ।। खुद्दोवद्दव-साइणि-विसहर-चोराइ दुरियनिग्घायं । सिरिपासनाह ! नामं चिंतियमेत्तं कुणइ सिग्धं ॥ ९ ॥ नवनीलुप्पलसामल ! नवहत्थुन्नय ! फणिंद कय सेव ! । सिरि पासनाह ! वासं भवदुहनासं लहुं देहि ॥ १० ॥ सिरि धम्मसूरि मुणिवइ सीसो सिरिरयणसिंहमुणिनाहो । फासिंतो धरणियलं तिक्खुत्तो नमइ सीसेणं ॥ ११ ॥ छ ।।
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(९) श्री पार्श्वनाथ स्तव
सिरिपास ! तिजयसुंदर ! दरमेत्तं पि हु दुहं महं गलियं । गलियासेसभवन्नव ! नवघणसम ! जं सि सच्चविओ ॥ १ ॥ चविओ नियभिप्पाओ पाओ न इओ हवेज्ज संसारे । सारे तुह जिणचरणे चरणंपि अहं तया पत्तो ॥ २ ॥ पत्तं नन्नं भवओ भवओ सरणे समत्थयं मन्ने । मन्नेसु तेण सिवरयवरयाणंदं पयं देव ! । ३ ।।
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जून २००८
देवासुरसत्थेहिं सत्थेहिं वि तं जिणिद ! संथविओ । थवियंपि वत्थुअत्थं अत्थोयं पि हु वियाणंतो ॥ ४ ॥ आणतो आणंद आणं दंसेसु तं नियं मज्झ । मज्झत्थभाववत्ती बत्तीससुरिंदनय ! नाह ! ॥ ५ ॥ नाह ! महं नो संपइ पइं जिण ! लहिउं पई जयब्भहियं । हियमवरं अलहंतो हंतो नन्नं नम॑सामि ॥ ६॥ सामि ! तुमं जयदीवो दीवो आसासओ भवसमुद्दे । मुद्देमि कुणइ वारं वारं एक्कंपि जइ दिट्ठो ॥ ७ ॥ दिट्ठे ताण सुहाणं सुहाण जिण ! सासयाण तं भवणं । भवणं भवंमि पुणरवि रविसम ! किं मह तए पत्ते ? ॥ ८ ॥ पत्ते नलिणिनिलीणे जलबिंदु (दू) ए जह चलत्तं ।
लत्तं तह जिण ! जीयं जीया किं तो पमायंति ॥ ९ ॥ मायं तिहावि तिरसिय सियवायं नाह ! तुह धरतेण । ते मिउं पयकमलं मलरहियप्पा मए नाओ ॥ १० ॥ नाओ जिणिदकहिओ हिओ समग्गंमि जीवलोगंमि । लोगं मिच्छाभिरयं रयरहियं कुणसु तत्तेण ॥ ११ ॥ तत्तेण मए बहुसो बहुसोयानलपलित्तभावेण । भावेण कहवि सुहओ सुहओ तं नाह ! संपत्तो ॥ १२ ॥ इय गहिय-मुक्क- रयणेहिं थुणियजिण ! रयणसूरि नियरेहिं । पत्थिज्जमाण ! जयगुरु ! सुहियमिणं कुणसु जियलोयं ॥ १३ ॥
2003
(१०) श्री नेमिनाथ स्तव
जय जय नेमि जिणिंद ! तुहु मंडणू आहरणाई । भवियजणह जंपंति फुडु पुण्णह आहरणाई || १ || घणसामलि जिण ! देहि तुहु किह सिय सोहइ कंति । घणसारह मंडणमिसिण एह बलायहपंति ॥ २ ॥
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तिजयह-मउडु जिणिंद ! तुहु हं पुणु तुज्झवि मउडु । जिणि किउ कंतिच्छलि भणइ सुवि होसइ जइ मउडु ॥ ३ ॥ उभयट्ठियससि-सूर जिणकुंडलछलिण सहति । कणयाहरण विराइयह तुह सुरगिरि-कयभंति ॥ ४ ॥ किह जिण दीसइ कुंडलिहिं हीरावलि दिप्पंत । नं तुह धणमुत्तिहि सहइ विज्जुलडिय झलकंत ॥ ५ ॥ गीवाहरणु जिणिंद ! तुहु इउ केरिसु पडिहाइ । सिद्धि-पुरंधियबाहुलय कंठि निवेसिय नाइ ॥ ६ ॥ तुह जिण उरि उरमालडी नाणाविहरयणेहिं । नं गयणंगणि धणुहलय दीसइ भवियगणेहिं ।। ७ ॥ तुह कणयह संकल नियवि मूदु भणइ इउ लोउ । जइ पुनह संकल न इह त कि जिण एरिस भोउ ।। ८ ।। तुह जिण ! थुइहि जु अज्जियउ महु देयण सिवगेहु । पुनपिंडु विज्जउरमिसि पई करि धारिउ सु एहु ॥ ९ ॥ दुग्गइ मज्जिर तिहुयणह तुह भुयरक्ख पयंड । बाहुरक्ख इउ भूसणवि नामु धरहिं भुयदंड ॥ १० ।। गह नक्खत्तह मंडली तारायण संजुत्त । फुल्लमालमिसि नाह ! तुहु मेरुहु भमइ निरुत्त ॥ ११ ॥ तोरणु नाह ! सुवन्नु किर सिवनयरह पइसारि । पइं वंदंत सुणंति जण अम्हि संठिय भवपारि ॥ १२ ॥ मई लद्धा चिंतिय रयण-सूरिहि उग्गइ अज्जु । हूउ तुरंत जु मज्झु मणु नेमिहि वंदणु सज्जु ॥ १३ ॥
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(११) श्रीनेमिनाथ स्तव जय जय नेमि जिणिंद पहु पई पिक्खिवि नयणेहिं । हियड़इ रंगु सु कोइ भणि जु न सक्कं वयणेहिं ॥ १ ॥
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अइय तरुयडा नेमिजिण ! तुह जगि आमर हूलु । तिहुयण मई सउ जोइया दीठु न तुह परि तूलु ॥ २ ॥ काइ सचंगिम अंगिम तुहु जावत्रणह न जाइ। जेत्थु निविट्ठी दिट्ठिडी तिहिविय अंगि न ठाइ ॥ ३ ॥ दोहगि दूमिय तरुणियण सोहगु लहइ नमंति । हियड़इ भत्ति-समाउलिण नेमिहि पय जि नमंति ।। ४ ।।
अगर-कपूर-कथूरियहं जे तुहु भत्ति कुणंति । मुत्तिवहूइ ति कंठुलइ मुत्तियहारि तुलंति ॥ ५ ॥ अणहिलवाडं सग्गपुर अह महु इंदह रज्जु । जहिं जिणु दीसइ नेमि मई, कुण इजु चिंतियकज्जु ॥ ६ ॥ रलिय रंगि वद्धावणं महु मणि नच्चिउ तेव । पत्थिवि एत्थुवि नेमि मइं सिवसुह पाविउ जेव ॥ ७ ॥ रयणसिंहसूरिहिं थुणिउ तिहुयणतिलक जु देउ । भत्तिपरायण भवियणहं मणवंछउ सो देउ ॥ ८ ॥
(१२) श्री नेमिनाथ स्तव सिरि नेमिनाह ! सामिय ! जइवि न विहवो तहाविहो मज्झ । सब्भावगब्भसारं मणोरहे महवि जंपेसि ॥ १ ॥ कुंकुमपललक्खेहिं निरुवममयनाहिपलसहस्सेहिं । कप्पूरपलसएहि कालागुरुअगणियपलेहिं ॥ २ ॥ न्हवण विलेवण मंडण उग्गाहण पमुहचारुकिच्चाई। काऊण जहिच्छाए नियकरकमलेहिं तुह सामि ! ॥ ३ ॥ एयं कुणमाणेणं मई जिण ! आणंदअंसुनिवहेण । जं तुह तविओ देहो खमियव्वं तं पुणो मज्झ ॥ ४ ।। हीरय-सुवन्न-मोत्तिय-फुरंत-रयणेहिं कोडिमुल्लेहिं । तुह जिण ! आहरणेहिं सिंगारं काउमिच्छामि ॥ ५ ॥
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अनुसन्धान ४४
केयइ-चंपय-करुणिय-सयवत्तिय-जाइ-बउल-पुप्फेहिं । वालय-विल्लय-पाडल-पमुहेहिं कोड़िसंखेहिं ।। ६ ।। वरकप्पूराहिय महमहंत वियसंत-कुसुमनियरेहिं । नियपाणिपल्लवेहिं पूयं काहामि तुह नाह ! ॥ ७ ॥ नाणापट्टसुय-देसागय-विविहवत्थलक्खेहिं । देवाण व दूसेहिं परिहविस्सं सहत्थेहिं ।। ८ ॥ आउज्ज-गीय-नट्टाइएहिं तुह देव ! उच्छवं काउं । कप्पूरदीवियाहि काहं आरत्तियं सामि ! ॥ ९ ॥ दव्वथए वढ्तो भवियजणो जा न सेवए चरणं । ताव मणोरहवल्लिं पइदियहं नेउ सहलत्तं ॥ १० ॥ जह मह मणोरहा पहु ! तह जइ पुज्जति दइवजोएण । ता तं सुक्खं मन्ने तिजयंपि न जस्स पड़िछंदो ।। ११ ।। विहिणा देवे वंदिय भूमि तह चुंबिऊण भालेणं । भवियाण भावहेऊ इय थुणिओ रयणसूरीहिं ॥ १२ ॥
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(१३) श्री नेमिनाथ स्तोत्र मूर्तयस्ते क्व नेक्ष्यन्ते श्रीनेमे ! त्वत्प्रभावतः । रूपलावण्यसौभाग्यै-हल्लेखैकधुरन्धराः ॥ १ ॥ मुक्तिसौख्यमनाख्येयं त्रैलोक्येऽपि शरीरिभिः । गम्यं चानुभवस्यैव यत्सिद्धैरेव वि(वे?)द्यते ॥ २ ॥ उक्तं श्रद्धीयते नान्यैः स्याद्वादात्किन्तु मन्यते । चित्रं चित्रं कथं नाथ ! तदद्य वेद्यते मया ॥ ३ ॥ त्वयि दृष्टे मनो हृष्टं नेमे ! मुक्त्वाऽन्यसंकथाम् । प्रेत्येहापि तथा याचे यथा नाथ ! ममाधुना ।। ४ ।। नेमे ! मम मनो जज्ञे त्वय्यानन्दसुधामयम् । दृष्ट्वा कर्पूरपूरस्य मण्डनं पापखण्डनम् ।। ५ ।।
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स्तोतुमास्याम्बुजं नाथ ! यावदुत्सहते मम । सौख्याधिक्याय मन्येऽहं तावद्वाचो मनःश्रिताः ॥ ६॥ देवाकर्णय विज्ञप्तिं किमन्यैर्भूरिभाषितैः । सुधां हालाहलं मन्ये नेमे ! त्वदर्शनात्पुरः ॥ ७ ॥ नरं न (न रत्न ?) सिंहवन्मन्ये न तं सूरिं ब्रवीम्यहम् । यः प्रीतः प्रातरुत्थाय श्री नेमे ! त्वां न पश्यति ॥ ८ ॥ छः ।।
(१४) श्रीमद्धर्मसूरि गुण स्तुति षट्त्रिंशिका जयइ स जएक्कदीवो वीरो सिवगमणलद्धअत्थमणो । जस्स विओए अज्जवि मोहतमंधो जणं रुयइ ॥ १ ॥ तयणु जयइ तं तित्थं गणहारिसुहम्मसामिणो भुवणे । मिच्छत्तविसपसुत्तं तिजयं पि हु बोहियं जेण ॥ २ ॥ निरुवमसव्वगुणेणं ठाणं विहिणा विणिम्मियं देहं । बहुअच्छेरयभूयं चरियं जस्सेह वित्थरियं ॥ ३ ॥ जंगमतित्थं संपइ कयजुग-लब्भंपि कहवि अवयरियं । सिरिधम्मसूरि सुगुरुं तं चिंतामणिसमं थुणिमो ॥ ४ ॥ तुम्ह गुणाणं सामिय ! पडिछंदं महियले पलोयंतो । अप्पाणं धीरविउं कत्थ न भमिओ चिरं बहुसो ॥ ५ ॥ सयलजलं जलहीओ कोइ कुसग्गेण इह तए घेत्तुं । जह तह जीहाइ अहं घेच्छं सामिय ! गुणे तुम्ह ॥ ६ ॥ तं नत्थि नाह ! तुम्हं कित्तीए जं न धवलियं ठाणं । गुणचंदवाइ वयणं एगं मुत्तूण तिजयंमि ॥ ७ ॥ पइ विरहतावियाए महिलाए पेइयं जहा ठाणं । दक्खिण(ण्ण)याए सुहगुरु ! तुम्ह विणा तह निओ सद्दो ।। ८ ॥ सिरि धम्मसूरि ! कह तुह सिंधू गंभीरिमोवमं जाओ । दट्ठण कोमुइं कामुओव्व जं भिंभलो सो हु ॥ ९ ॥
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अनुसन्धान ४४
तुह कित्तीए जउणा धवला गंगत्ति सिंधुणा भणिया । ईसालुत्तं सामिय ! ठिया वहंती खणं कुविया ॥ १० ॥ सग्गं गयंमि तुमए को अन्नो नाह ! एत्थ विउसाणं । संसय-गिरि-निद्दलणं उत्तर-दंभोलिणा काही ? ॥ ११ ॥ सिरि धम्मसूरि-जलहर ! तुह देसणमहुरनीरमलहंतो । भवियणमणबप्पीहो तिसिउच्चिय भमइ भुवणयलं ॥ १२ ॥ पई देसणं कुणंते नाह ! इमं भवियणेण विनायं । किं नयणा अह सवणा सव्वं माणिवि मह हवंतु ॥ १३ ॥ जं किंपि पियं मइ पहु ! जं किंपि हु मंगलं पि भुवणंमि । जं किंपि सलहणिज्जं तं सयलं पि हु तुमं चेव ।। १४ ।। वाणीइ कन्नपूरो देसणलच्छीइ मउड़पडितुल्लो । चरणसिरीए हारो सामि ! कया कत्थ दीसिहिसि ? ॥ १५ ।। पंचसयाइं पहरे पढिऊणं तह पवासिया पन्ना। जइ मन्निज्जइ पुवि पाठो हुँतो अलिहिओत्ति ।। १६ ।। तुह पहु ! बुहावि सीसा सन्निहिया अवहियावि अणवरयं । मूलपडिमापइट्ठा-संखं पखलंति कुणमाणा ।। १७ ।। रायसहासुं तुह पहु ! वाइंदमइंददप्पनिद्दलणो । पंचाणणपडितुल्लो जयसद्दो कस्स अवरस्स? ॥ १८ ॥ अप्पडिबद्धविहारं नाह ! कुणंतेण विविहदेसेसु । सूरेण व कमलवणं भुवणमिणं बोहियं तुमए ॥ १९ ।। सोहग्गसंपयाए किं तुम्ह कलिंमि सामि ! वन्नेमि । गोयमपहुव्व जीए पडिच्छिओ भवियलोएणं ॥ २० ॥ गच्छसमुद्दो सामिय ! तुमए तह पालिओ सुमज्जाए । जह लब्भइ निव्वाणं तम्मि भवे अहव तइयंमि ।। २१ ॥ जे सज्जणगुणहीणा जाण मुहाओ गुणो न नीहरिओ । ते वि करिति थुइं तुह इयरथुईसुं पहु ! न चोज्जं ।। २२ ।। आजम्मं पि न दिज्जे जहिं तुमं पहु ! गुणेहिं परसिट्ठो । ताणवि मणे निविट्ठो एसो च्चिय गुणिगणगरिठ्ठो ॥ २३ ।।
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नामुच्चारणसवणे तुम्ह गुणा पहु ! फुरंति हेलाए । जह दीवदंसणे च्चिय संतपयत्था पयासंति ॥ २४ ॥ जा तिहुयणेवि पुज्जा ठाणं नीसेसगुणगणाणंपि । तीसे लच्छीइ सुओ जं पहु ! तं एरिसगुणोसि ।। २५ ।। सुरभुवणगओवि तुमं नाह ! मए गुणमणीहिं भासंतो। सूरोव्व विप्फुरंतो हिययजले दीससि सयावि ॥ २६ ।। अच्छंतु गुणा अवरे तुह पहु ! गंभीरिमा वि जा दिट्ठा । सा कयजुगंमि सामिय ! पलोइयव्वा जइ कहिपि ॥ २७ ॥ हा हा कयंत ! निग्घिण ! मुणिरयणं कह तए इमं हरियं । जस्स गुणा घोलंता खणं पि हियए न मायंति ? ॥ २८ ॥ दीणाई नयणाई तुह दंसणलोलुयाइं भवियाणं ।। जच्चंधगो भयाई व कत्थ न भमियाई तुह विरहे ? ॥ २९ ।। सुहगुरु ! तुम्ह विओए दुहदवसंतावियाण भवियाणं । जं हिययं न हु फुडियं अहह ! विही तत्थ दुललिओ ॥ ३० ॥ परतित्थियलोएहि जेहि तुमं पहु ! पलोइओ आसि । बाहाउलनयणेहिं तेहिं वि परिदेवियं बहुसो ॥ ३१ ॥ सग्गदिणे तुह सामिय ! कंदंते सयलभुवणवलयंमि । सुय-सालहियगणेहिं वि मन्ने तइया खणं रुन्नं ॥ ३२ ।। नव नव वरिसे ठाउं गिहवासे साहुभावएज्जाए । सहि सूरिपयंमी अडसयरिं सव्वआउंमि ॥ ३३ ।। बारस सत्तत्तीसे सुद्धाए एकारसीइ भद्दवए । चंददिणे सामि ! तुमं सुरमंदिरमंडणं जाओ ॥ ३४ ॥ कंठमि जाण विलसइ गुणरयणेक्कावली इमा निच्चं । ताण मणचिंतियाइं इह परलोए य हुंति फुडं ।। ३५ ।। इय धम्मसूरिपहुणो नियगुरुणो गुणलवं पयासिंतो । सिरि रयणसिंहसूरी भवियणमणनिव्वुई. कुणइ ॥ ३६ ॥ छ । इति श्रीमद्धर्मसूरि गुणस्तुति षट्त्रिंशिका समासा ॥ छ ।।
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(१५) आत्महित चिन्ता कुलक नियगुरुपायपसाया नाउं संसारविलसियविवागं । सम्मं विरत्तचित्तो अप्पहियं किंपि चिंतेमि ।। १ ।। कालोच्चिय जिणआणं काउं तन्हालुयस्स मह सययं । हा जिय ! पमायवेरी न देइ धम्मुज्जमं काउं ।। २ ।। जइ एवं सामग्गि धम्मे लहिऊण कहवि हारेसि । ता तं पच्छायावा विहलं विलवेसि परलोए ॥ ३ ॥ रागंधो मोहंधो कज्जाकज्जं न याणसि हयास !। धत्तूरभामिओ इव सव्वं पेच्छसि सुवनमहो ।। ४ ॥ वेरग्गमग्गलीणं खणमेगं जइ करेमि अप्पाणं । चंचलचित्तेण पुणो विहलिज्जइ ही नियंतस्स ॥ ५ ॥ एक्को चेव दुरंजो नियचरियं जो वियाणई अप्पा। सो ताव रंजियव्वो जइ इच्छसि साहिउं धम्मं ॥ ६ ॥ जइ इच्छसि अप्पसहं खिन्नोसि दहाण तो कुण उवायं । मा कोद्दवे ववंतो सालीण गवेसणं कुणसु ।। ७ ।। जं आसि धम्मबीयं पुव्वभवे वावियं तए जीव ! । तं इह लुणासि संपइ वावियमिहि लुणसि अग्गे ॥ ८ ॥ इय नाऊण अकज्जं दूरे वज्जेसि किं न हु अणज्ज ! । अह कालपासबद्धो जुत्ताजुत्तं कह मुणेसि ? ॥ ९ ॥ इंदियचोरेहिं अहं मा भवरन्नमि भणसु जं मुसिओ। जाणिय चोरेहिं तुम जो गहिओ तस्स किं भणिमो ? ।। १० ॥ परजणरंजणहेउं भणेसि अन्नं करेसि अवरं च। । तत्थवि पयडं कवडं हा ! दीसइ तुज्झ सव्वत्थ ।। ११ ।। लहुएवि धम्मकज्जे तइया साहूहिं चोइओ संतो। असमत्थो भणिय ठिओ अहुणा सोएसि किं तम्हा ? || १२ ॥ चिट्ठइ राई, पासइ न कोइ, हवउ जह तह वणुट्ठाणं । इय मूढ ! लोयरंजय ! कुणमाणो किं पि न लहेसि || १३ ।।
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गुणिएसु मच्छरित्तं वहसि पओसं च निग्गुणजणम्मि । पररिद्धीए तम्मसि परिपरिवायं तह करेसि ॥ १४ ॥ निच्चं पमायसीलो सुहाभिलासी य चोइओ कुवसि । सोहग्गमंजरी जं अप्पंमि तहावि बहुमाणो । १५ ।। इय सयलं जाणेमी काउंन तरामि भणसि गुरुकम्मो । कंठ-मण-सोसणेणं धिरत्थु तुह मूढ ! नाणेणं ॥ १६ ॥ अज्जं करेमि कल्लं करेमि धम्मुज्जमं तुमं भणसि । इय निप्पलवंच्छाहिं समप्पिही जम्मपरिवाडी ।। १७ ॥ पेच्छंतो पच्चक्खं जियलोयं जीव ! इंदि(द)यालसमं । ठगिओ इव धुत्तेहिं हा चेयसि किं न अप्पाणं ? ।। १८ ।। सउणाणं जह रुक्खे पहियाणं जह य देसियकुडीरे । मेलावगो अणिच्चो मणुयाणं तह कुडुंबंमि ।। १९ ॥ अज्जवि किंपि न नटुं जइ चेयसि हंदि किंपि अप्पाणं । विलवणमेत्तठिओ पुण अरनरुन्तं समायरसि ॥ २० ॥ सुणहाई तिरिया वि हु भोए भुंजंति भोयणं तह य । एरिसचरियनराणं को संखं कुणइ पुरिसेसु ॥ २१ ॥ जे एवं जंपंती पमायवेरिं छलेह भो लोया ! । ते वि छलिज्जंति जया तया अहं तस्स किं काहं ? ॥ २२ ॥ बाहुल्लेणं लोओ पेच्छइ नयणेहिं नेव हियएणं । तेणं विसएहिंतो कहं विरत्तो कुणउ धम्म ! ॥ २३ ॥ एयाए दुम्मईए माहप्पं भंजिऊण रे जीव ! । धम्मारामे रम्मे उज्जमदक्खाफलं चरसु ।। २४ ।। गुरुआणाए सम्म परोवयारंमि संजमे नाणे । खाओवसमियभावे सयावि एएसु उज्जमसु ॥ २५ ।। एयं खु धम्मरज्जं कहमवि लभ्रूण गणिय दियहाई । सपरोवयारहीणो खणंपि मा सुयह वीसत्थो ।। २६ ।। अह एत्तियभणिएण वि होइ अहं जाण (अहम्माण ?) को गुणो भणसु । असुई मुत्तूण किमी अन्नत्थ रइं किह करेइ ? ।। २७ ।।
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अनुसन्धान ४४
एयं मुत्तूण भवं पत्तो संसारसायरे घोरे । को जाणइ किर कइया गुरुपाए हं लहिस्सामि ।। २८ ।। ओ ! तं जीव ! अलज्जिर ! भणिओ धम्मोवएसलक्खेहि । जइ नेव किंपि लग्गं ता सरणं मज्झ किर मोणं ॥ २९ ॥ विसयविरत्ता मुणिणो कालोच्चिय संजमंमि जे निरया । आजम्मंपि तिसंक(झ) पयहूलिं वंदिमो ताण ॥ ३० ॥ पइदियहं पइसमयं खणंपि मा मुयसु एयमुवएसं । जइ भवदहाण तित्तो तिसिओ उण परमसोक्खाण ॥ ३१ ॥ सिरि धम्मसूरिपहुणो निम्मलकित्तीइ भरियभुवणस्स । सीसलवेहि कुलयं रइयं सिरि रयणसूरीहिं ॥ ३२ ॥ छ ।।
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(१६) श्री मनोनिग्रह भावना कुलकम् सिरि धम्मसूरि पहुणो उवएसामयलवं सुणेऊणं । तं चेव तिहा नमिउं मणनिग्गहभावणं भणिमो ॥ १ ॥ संसारभवणखंभो नरयानलपावणंमि सरलपहो । मणमणिवारियपसरं किं किं दुक्खं न जं कुणइ ? ॥ २ ॥ वायाए काएणं मणरहियाणं न दारुणं कम्मं । जोयणसहस्समाणो मुच्छिममच्छो उयाहरणं ॥ ३ ॥ वइ-कायविरहियाण वि कम्माणं चित्तमेत्तविहियाणं । अइघोरं होइ फलं तंदुलमच्छोव्व जीवाणं ॥ ४ ॥ गलियविवेयाण मणो निग्गहिउं दुक्करं फुडं ताव । संजायविवेगाण वि दुक्करमेयंपि किर होउ ॥ ५ ॥ करयलगयमुत्तीणं तित्थयरसमाणचरणभावाणं । ताणं पि हु जं दुक्कर-मेयमहो ! मह महच्छरियं ! ॥ ६ ॥ मणनिग्गहवीसासो कइयावि न जुज्जए इहं काउं । अप्पडिवायं नाणं उप्पन्नं जा न जीवाणं ॥ ७ ॥
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थेव-मणदुक्कियस्सवि जाणंतो अइवदारुणविवागं । जइ कहवि खंचिय मणं धारेमी एगवत्थुमि ।। ८ ॥ पाणिपुडनिविडपीडियरसं व पेच्छामि तहवि झत्ति गयं । अहह उवायं पुणरवि केरिसमन्नं अणुसरामि ? ॥ ९ ॥ भयमत्तं पिव हत्थि धम्मारामं पुणोवि भंजंतं ।। दटुं विवेयमिठो सुझाणखंभं समल्लियइ ॥ १० ।। उल्लसिओ आणंदो खगमेगं जाव ताव चिंतेमि। ता सिद्धमंतिओ इव दीसइ अन्नत्थ किं करिमो? ॥ ११ ॥ मणमक्कडेण सुइरं मह देहं तावियं अहो बाढं । ता कह निग्गहिऊणं होहामि अहं सुही एत्थ ?॥ १२ ॥ सिद्धिपुरीए सिद्धी जाव फुडं तुज्झ होइ रे जीव ! । ता मणराएण समं मा विग्गह-उवरमं कुणसु ॥ १३ ।। अह विग्गहंमि चत्ते पत्ते निक्कंटगम्मि रज्जमि । एस तुहं तं काही सयावि जह दुक्खिओ होसि ॥ १४ ॥ जह इदंजालिएणं काउं मुट्ठीइ दंसियं वत्थू । धरिओ जणेण मुट्ठी दिटुं नटुं तयं वत्थू ।। १५।। एवं चिय मणवत्थू संजममुट्ठीइ धारियं कहवि । सुहभावलोयधरिओ ही नटुं हीणपुनस्स ॥ १६ ।। न हु अत्थि किंपि नूणं चंचलमन्नं मणाउ भुवणंमि । तं पुण उवमामेत्तं पवणपडागाइ जं भणियं ।। १७ ॥ साहूण सावगाण य धम्मे जो कोइ वित्थरो भणिओ। सो मणनिग्गहसारो जं फलसिद्धी तओ भणिया ॥ १८ ॥ जत्थ मणो तरलिज्जइ सो संगो दूरओवि चइयव्वो। बहुरयणसणाहेणं दुज्जयचोराण जह पंथो ।। १९ ॥ जिय ! अज्ज अह कल्ले परलोए तुह पयाणयं होही । दीहरसंसारकए निरंकुसं कह मणं कुणसि? ॥ २० ॥ किमहं करेमि? कस्स व कहेमि ? चिंतेमि अहव किं तत्तं? । जेण मणो पसरंतं धारेमी मत्तहत्थिव्व ।। २१ ।।
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अनुसन्धान ४४
संपइ सत्थसरीरे सुमरंति न जीव ! पुव्वदुक्खाई। कहिएसु न उव्वेओ कह होसि तं न याणामि ॥ २२ ।। जाणियतत्तंपि मणो धारिज्जइ दुक्करं सरलमग्गे । दुक्खं खु सिक्खविज्जइ एसो अप्पा दुरप्पा हु ॥ २३ ।। आवडिए जिय ! दुक्खे जाणसि किर सुंदरो हवइ धम्मो । संपइ पुण गयधम्मो परलोए होसि अहह ! कहं ।। २४ ।। इंदियलोलो को वि हु वट्टइ सद्दाइएसु विसएसु । तहवि हु न होइ तित्ती तन्हच्चिय वित्थरइ नवरं ॥ २५ ।। इंदियधुत्ताण अहो तिलतुसमेत्तं पि देसु मा पसरं । अह दिन्नो तो नीओ जत्थ खणो वरिसकोडिसमो ॥ २६ ॥ धत्तूरभामिओ इव ढगचुन्नेणं व चुन्निओ संतो । भूएण व संगहिओ वाएण व दिट्ठिमोहेणं ॥ २७ ॥ जह एए अवरेहिं जुत्तिसहस्सेण पन्नविज्जता । ताणं चिय गहिलत्तं अवियप्पं वाहरंति सया ॥ २८ ॥ तह रागाइवसट्टो न मुणसि थेवंपि कज्जपरमत्थं । अह मुणसि तो पयंपह चरिएणं कहवि संचयसि ।। २९ ।। दुग्गंधअसुइपुन्नो वाहिं सव्वत्थ चिन्तिओ करगो । पटुंसुयनत्तणयं दाउं पिहिओ य पुप्फेहिं ।। ३० ॥ दिट्ठो हरेइ चित्तं गंधो असुईए सरइ तं चेव । मूढो वि तं न गहिउं कुणइ मणं किं पुण विवेगी ।। ३१ ।। एवं चिय नारीसुं वत्थालंकारभूसियंगीसु । आवायमेत्तरूवं पेच्छिय तत्तं विभावेसु ॥ ३२ ॥ असुईए अट्ठीणं लोहिय-किमिजाल-पूत-मंसाणं । नामपि चिंतियं खलु कलमलयं कुणइ हिययंमि ॥ ३३ ॥ पच्चक्खमिणं पेच्छह वन्नियमेत्तं तु जइ न पत्तियह । एक्कारससोएहिं नीहरमाणं सया चेव ॥ ३४ ॥ इय तत्तभावणगओ सयावि मणनिग्गहं करेमाणो । पच्चक्खरक्खसीणं नारीण न गोयरो होसि ॥ ३५ ॥
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जिणवयणभाविएण सत्थत्थसमग्गपारगेणं पि । भवभमणभीरुगेणं सुहसंसरिंग पवन्नेणं ॥ ३६ ।। अवगयपरमत्थेणं निच्चं सुहझाणज्झायगेण मए । तहवि गयं चिय अपहे मणमेयं ही ! कहं दिटुं ? ।। ३७ ।। जह लद्धलक्खचोरो हरमाणो नेव नज्जए दविणं । तहवि गयं चिय दीसइ मणंपि एवं, कहं होमि? ॥ ३८ ॥ हुं दुक्करेवि मग्गे एगो एत्थेव अस्थि हु उवाओ। खणमेत्तं पि न दिज्जइ जइ मणपसरो पमायस्स ॥ ३९ ॥ परमत्थं जाणंतो दंसियमग्गे सयावि वढ्तो । जइ खलइ कोइ कहमवि सरणं भवियव्वया तत्थ ।। ४० ॥ केत्तियमेत्तं बहुसो मणनिग्गहकारणं पयंपेमि । धन्नाण एत्तियं पि हु जायइ चिंतामणिसमाणं ।। ४१ ॥ गुरुकम्माणं एयं पुणरवि जाणावियंपि किर कहवि । पत्तंपि वरनिहाणं वियलियपुन्नस्स व न ठाइ ॥ ४२ ॥ पइदियहं जइ एवं ज्झाएमी तुह जिणिंद ! आणाए । तो जयथुयपाए पउमनाहं बीहेमि भवरन्ने ।। ४३ ।। सद्धासंवेमजुओ मणनिग्गहभावणं इमं जीवो। झायंतो निव्विग्घं कल्लाणपरंपरं लहइ ।। ४४ ।।
॥ छ । मनोनिग्रहभावनाकुलकं समाप्तं ।।
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(१७) गुरुभक्तिमहिमा कुलक नमिउं गुरु-पय-पउमं धम्माइरियस्स निययसीसेहिं । जइ बहुमाणो जुज्जइ काउमहं तह पयंपेमि ॥ १ ॥ गुरुणो नाणाइजुया महणिज्जा सयलभुवणमज्झमि । किं पुण नियसीसाणं आसन्नुवयारहेऊहिं ॥ २ ॥
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गुरुयगुणेहिं सीसो अहिओ गुरुणो हवेज्ज जइ कहवि । तहवि ह आणा सीसे सीसेहि तस्स धरियव्वा ॥ ३ ॥ जइ कुणइ उग्गदंडं रूसइ लहुएवि विणयभंगमि । चोयइ फरुसगिराए ताडइ दंडेण जइ कहवि ।। ४ ।। अप्पसुहोवि सुहेसी हवइ मणागं पमायसीलोवि। तह वि हु सो सीसेहिं पूइज्जइ देवयं व गुरू ॥ ५ ।। सोच्चिय सीसो सीसो जो नाउं इंगियं गुरुजणस्स । वट्टइ कज्जंमि सया सेसो भिच्चो वयणकारी ॥ ६ ॥ जस्स गुरुम्मि न भत्ती निवसइ हिययम्मि वज्जरेहव्व । किं तस्स जीविएणं विडंबणामेत्तरूवेणं ? ।। ७ ।। पच्चक्खमह परोक्खं अवन्नवायं गुरूण जो कुज्जा । जम्मन्तरेवि दुलहं जिणिंदवयणं पुणो तस्स ॥ ८ ॥ जा काओ रिद्धीओ हवंति सीसाण एत्थ संसारे । गुरुभत्तिपायवाओ पुप्फसमाओ फुडं ताओ ॥ ९ ॥ जलपाणदायगस्सवि उवयारो नेव तीरए काउं । किं पुण भवन्नवाओ जो तारइ तस्स सुहगुरुणो ।। १० ।। गुरुपायरंजणत्थं जो सीसो भणइ वयणमेत्तेण । मह जीवियंपि एवं जं भत्ती तुम्ह पयमूले ॥ ११ ॥ एयं कहं कहंतो न सरइ मूढो इमंपि दिटुंतं । साहेइ पंगणं चिय घरस्स अब्भिन्तरा लच्छी ।। १२ ।। एस च्चिय परमकला एसो धम्मो इमं परं तत्तं । गुरुमाणसमणुकूलं जं किज्जइ सीसवग्गेण ।। १३ ।। जुत्तं चिय गुरुवयणं अहव अजुत्तं च होज्ज दइवाओ। तहवि हु एयं तित्थं जं हुज्जा तंपि कल्लाणं ।। १४ ।। किं ताए रिद्धीए चोरस्स व वज्झमण्डणसमाए। गुरुयणमणं विराहिय जं सीसा कहवि वंछंति ॥ १५ ॥ कंडूयण निट्ठीवण ऊसासपमोक्खमइलहुयकज्जं । बहुवेलाए पुच्छिय अन्नं पुच्छेज्ज पत्तेयं ।। १६ ।।
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मा पुण एगं पुच्छिय कुज्जा दो तिन्नि अवरकिच्चाई । लहुएसु वि कज्जेसुं [ए] सा मेरा सुसाहूणं ।। १७ ।। काउं गुरुंपि कज्जं न कहिचिय पुच्छि[या] विगोविति । जे उण एरिसचरिया गुरूकुलवासेण किं ताण ? ॥ १८ ॥ जोग्गाजोग्गसरूवं नाउं केणावि कारणवसेण । सम्माणाइविसेसं गुरुणो संति सीसाणं ॥ १९ ॥ एसो सया विमग्गो एगसहावा न हुंति जं सीसा । इय जाणिय परमत्थं गुरुमि खेओ न कायव्वो ॥ २० ॥ मा चिंतह पुण एयं किंपि विसेसं न पेच्छिमो अम्हे । रत्ता मूढा गुरुणो असमत्था एत्थ किं कुणिमो? ॥ २१ ।। रयणपरिक्खगमेगं मुत्तुं समकंतिव्व न(वन्न)रयणाणं । किं जाणंति विसेसं मिलिया सव्वेवि गामिल्ला ? ।। २२ ।। एयं चिय जाण मणो ते सीसा साहयंति परलोयं । इयरे उव(य)रं भरिउं कालं वोलिति महिवलए ॥ २३ ।। एयं पि हु मा जंपह गुरुणो दीसंति तारिसा नेव । जे मज्झत्था होउं जहट्ठियवत्थु वियारंति ॥ २४ ॥ समयाणुसारिणो जे गुरुणो ते गोयमं व सेवेज्जा। मा चिंतह कुविकप्पं जइ इच्छह साहियं(उं) मोक्खं ॥ २५ ॥ वक्क-जड़ा अह सीसा के वि हु चिंतंति किंपि अघडतं । तहवि हु नियकम्माणं दोसं देज्जा न हु गुरूणं ।। २६ ।। चक्कित्तं इंदत्तं गणहर-अरहंतपमुहचारुपयं । मणवंछियमवरं पि हु जायइ गुरुभत्तिजुत्ताणं ॥ २७ ॥ आराहणाओ गुरुणो अवरं न हु किंपि अत्थि इह अमियं । तस्स य विराहणाओ बीयं हालाहलं नत्थि ।। २८ ।। एवं पि हु सोऊणं गुरुभत्ती नेव निम्मला जस्स । भवियव्वया पमाणं किं भणिमो तस्स पुणरुत्तं ! ॥ २९ ।। साहूण साहुणीणं सावय-सड्डीण एस उवएसो । दुन्हं लोगाण हिओ भणिओ संखेवओ एत्थ ॥ ३० ।।
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परलोयलालसेणं किंवा इह लोयमत्तसरणेणं ।
हियएण अहवुरोहा (अहुवरोहा ? ) जह वा तहवेत्थ सीसेण ॥ ३१ ॥ जेण न अप्पा ठविओ नियगुरुमणपंकयम्मि भमरोव्व । किं तस्स जीविएणं जम्मेणं अहव दिक्खाए ॥ ३२ ॥ जुत्ताजुत्तवियारो गुरु आणाए न हुज्जए काउं ।
दइवाउ मंगलं पुण जइ होज्जा तंपि कल्लाणं ॥ ३३ ॥ सिरि धम्मसूरि पहुणो निम्मल कित्तीए भरियभुवणस्स । सिरिरयणसिंहसूरी सीसो एवं पयंपेइ ॥ ३४ ॥ छ ॥ छ ॥
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(१८) पर्यन्तसमयाराधनाकुलकम्
सुहिओ वा दुहिओ वा थोवं जीवित्तु अह बहुं लोए । मा सो करेउ रवेयं जइ पावइ पंडियं मरणं ॥ १ ॥ जे संसारे पुव्वं मणुयभवा पाविया तएणंता । सव्वाणवि ताण अहो एसोच्चिय लहइ तिलयत्तं ॥ २ ॥ जेणेसा सामग्गी पत्ता तुमए अनंतसुहजणणी । ता धीरतं काउं ठावसु चंदे नियं नामं ॥ ३ ॥ परहत्थगएण तए पुव्विं रे जीव ! किं न जं सहियं । संपइ सुहडो होउं किं न हु गिण्हसि जयपडायं ? || ४ || जइ पीडाए तुझं विहुरत्तं अस्थि जीव ! अइगरुयं । तहवि हु कन्नं दाउं एगं चिय सुणह मह वयणं ॥ ५ ॥ अइकडुओ वि हु लिंबो अच्छी [नि] मीलित्तु साहसं काउं । खणमेगं घुटिज्जइ जह दीहं जीव (वि) यत्थीहिं ॥ ६ ॥ तह सुहभावो होउं परमिट्ठ सरसु कुणसु धीरतं । चइउं कुटुंबमोहं परिभावसु एरिसं तत्तं ॥ ७ ॥ जिधम्मो मह सरणं गुरुचलणे भावओ नम॑सामि । सव्वजिएसुं मित्त(त्ति) नियदुच्चरियं च गरिहामि ॥ ८ ॥
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आजम्मं जं तुमए तीसु वि संझासु मग्गियं भद्द ! । . राहावेहसमं तं साहिय गिण्हसु जयपडायं ॥ ९ ॥ जइ जिय ! तुह नवकारो होही हिययंमि भावणासहिओ । ता सग्ग-सिवसुहं मह जाणसु करसंठियं अज्ज ॥ १० ॥ एयं परमरहस्सं तं निसुण महाणुभाव ! एकमणे । जिणमयभावियचित्तो जं अज्ज करेसि सुहडत्तं ॥ ११ ॥ दाणं दाऊण बहुं तवंपि तविउं सुदीहरं कालं । सीलं चरिऊण चिरं पढिउं तहणेगसत्थाई ॥ १२ ॥ कू(का)रिय जिणभवणाई सद्धाए सेविऊण गुरुपाए । सव्वस्स वि फलमेयं जं अज्ज करेसि धीरत्तं ॥ १३ ॥ एयं काऊण तुमं मा पत्थसु मणुयसग्गरिद्धीओ। मग्गसु पुणोवि एवं सुहाण सव्वाण वरबीयं ॥ १४ ॥ मंगलनिहिपायपउमनाहमि जिणेह कज्जपडिवत्ती । जिणधम्ममि गुरुसु य चिंतिज्ज तुम इमं जीव ! ॥ १५ ॥ इय तं पंडियविहिणा काउं आराहणं चरिमसमए । तं नत्थि किंपि नूणं कल्लाणं जं न पाविहसि ॥ १६ ।। इति पर्यन्त समयाराधना कुलकम् ॥ छ ।
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(१९) उपदेशकुलकम् चिंतसु उवायमेसं संसारे गरुयमोहनियलाओ। चिरकालसेवियाओ रे ! मुच्चसि इह कहं जीव !? |॥ १ ॥ मोहविसं अवणेउं गुरुदेसण-संतसंगमवसाओ। परिभावितो तत्तं उवएसामयरसं पियसु ॥ २ ॥ कुणसु दयं भणसु पियं मुंच परधणं चएसु परमहिलं । इच्छइ निलंभिऊणं इंदियपसरं तह जिणेसु ।। ३ ।। सयलं पि हु सामग्गि धम्मे लहिऊण कहवि रे जीव!। सययं चोइज्जतो मा हारह एरिसं जम्मं ।। ४ ॥
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अनुसन्धान ४४
कह एयं मणुयत्तं कह एसो तुज्झ जीव ! जिणधम्मो । हद्धी पमायजडिओ मा वच्चह घोरसंसारं ॥ ५ ॥ का माया को य पिया, को पुत्तो पणइणीवि का तुज्झ? । जह विज्जुलाझुलुक्को दीसइ एयं तहा सयलं ॥ ६ ॥ किं गेहं किं दविणं देहं पि हु तुज्झ जीव ! किं एवं ? । नडपेच्छणयसरूवं नाउं तं चयसु मयमोहं ॥ ७ ॥ एक्को चिय जीव ! तुमं भमिओ अइदुक्खिओ अणाहो य । नो तुज्झ परित्ताणं विहियं केणइ मणागपि ॥ ८ ॥ निसुणंतो तं धम्म हुंकारं देसि वायरहिओव्व । थेवं पि जं न कज्जे वट्टसि तं अहह मूढत्तं ॥ ९ ॥ पेच्छसि तुच्छे भोए नो पाससि नरयगरुयदुक्खाई। जीव ! बिरालोव्व तुमं पेच्छसि दुद्धं न उण लढेि ।। १० ।। अन्नभवे विहुरमणो कंपंतो दुस्सहाए वियणाए । हा ! हा !! करुणसरेणं पच्छा बहुयं विसूरिहसि ।। ११ ।। सव्वोवि तुहुवएसो दिनो तत्तंमि जाइ जह बिंदू । पेरिज्जतो सययं न हु चेयसि कीस अप्पाणं ? ।। १२ ॥ दूरे सहणं दंसणमच्छउ नरउब्भवाए वियणाए । सुव्वंतीए विजिए उक्कंपो जायए गरुओ ॥ १३ ॥ सावि तए सहियव्वा कहं तए हियय ! कहसु सब्भावं । कंटे णवि परिभग्गे जं कंदंतो तहा हिट्ठो ॥ १४ ॥ जइ वियरसि परपीडं नाऊण वि दुक्खकारणं विउलं । तं जाणिय पाणहरं हा ! परिभुंजसि विसं मूढ ! ॥ १५ ॥ इह काऊणं पावं संपत्तो घोरनरयठाणेसु । नो दीणं विलवंतो छुट्टसि चोरो इव सलोद्दो ॥ १६ ॥ भणसि मुहेणं सव्वं नत्तं अइसुंदरं तुमं जीव ! । जं न कुणसिकाएणं तं मन्ने गरुयकम्मोसि ॥ १७ ॥ जाव य इंदियगामो वट्टइ आणाइ तुज्झ रे जीव ! । ता सुमरसु अप्पाणं मा तप्पसु अहव पच्छाओ ।। १८ ।।
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२० ॥
रे ! गिहकज्जेसु सया दक्खो छेओ अईव सूरोसि । भविडं कायरदेहो सुनो विव सुणसि गुरुवयणं ॥ १९ ॥ किं चिंता किं पलविएण किं तुज्झ जीव ! रुन्नेणं । नो कत्थइ कल्लाणं धम्माओ विणा तुमं लहिसि देहमिणं गेहं पिव जं गहियं भाडएण पणदियहं । झुरइ सया सव्वत्थवि पडितुल्लं असुइधाऊहिं ॥ २१ ॥ निच्चं अपोसियं पुण जं मेल्लइ सत्तिनियममज्जायं । तत्थवि का तुझ रई रे जीव ! निलक्खणसहाव ! ॥ २२ ॥ जं जं भणामि अहयं सयलंपि बहिं पलाइ तं तुज्झ । भरियघडयस्स उवरिं जह खिवियं पाणियं किंपि ॥ २३ ॥ इह जिय ! मुणसि पलोयसि संसारे तं विडंबणं सयलं । मन्ने जं नवि रज्जसि तं वंछसि नारयदुहाई ॥ २४ ॥ वयणं भणियमिणं तरामि नो सिक्खिउं चवेडाए । सम्मं विभाविऊणं जं जुत्तं तं करेज्जासु ॥ २५ ॥ एयं उवएसकुलं जो पढइ सुणेइ अहव सद्धाए । सो उवमिज्जइ तेए दुह एणे (तेणं दुहिएणं ?) रयणसिंहेणं ॥ २६ ॥ छ ॥
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(२०) श्री नेमिनाथ स्तव
सयलतियलोक्कतिलयं निलयं विउलाण मंगलकलाण । वियलिय कलुसकलकं नेमिं थोसामि किंपि अहं ॥ १ ॥ तेत्तीसं अयराई वसिउं अवराइयंमि सामि ! तुमं । कत्ति दुवाल सीए किन्हाए इह समोइनो || २ || सोरियपुरंमि नयरे भवणे सिरिसमुद्दविजयस्स । सिवएवि - कुच्छिकमले वसिउ (ओ) हंसोव्व जयनाह ! || ३ || उज्जयंतो भुवणं सावणसियपंचमीए तं जाओ । गोयमगोत्ते जयगुरु चित्ताए कन्नरासिंमि ॥ ४ ॥
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४८.
अनुसन्धान ४४
बत्तीसं इंदेहिं सुरसिहरिसिरम्मि सायरं न्हविओ। तिनि य वाससयाई कुमरत्तं पालियं तुमए ।। ५ ॥ करुणसरं विलवंती निरुवमरूयाणुरायपुनावि । रायमई कह चत्ता नाह ! तए एक्कहेलाए ॥ ६ ॥ वियरियवच्छरदाणो छटेण तुमं सहस्सपरिवारो। सावणसियछट्ठीए निक्खंतो नाह ! उज्जिते ॥ ७ ॥ चउपन्नं दिवसाइं छउमत्थो विहरिऊण उज्जिते । आसोयमावसाए संपत्तो उत्तिमं नाणं ।। ८ ।। मिच्छत्तविसाइन्नं भुवणं देसणसुहाइ बोहितो । सत्तसए वरिसाणं जाव तुमं विहरिओ एत्थ ॥ ९ ॥ पंचहिं छत्तीसेहिं सहिओ साहूण रेवयगिरिम्मि । आसाढअट्ठमीए सुद्धाए ते(तं) सिवं पत्तो ।। १० ।। धन्नोहं जयबंधव ! जमज्ज नयणाण गोयरं पत्तो । दुहदावतावियाणं निव्वावणअमियकुल्लसमो ॥ ११ ॥ तुह मुहचंदे दिढे लोयणकुमुएहि विहसियं अज्ज । असुहमणपंकएणं सहसच्चिय मीलियं नाह ! ।। १२ ॥ नवजलयसमे दिढे तणुमहिरोमंकुराण हेउंमि । भवभीरुत्तणहंसो सामिय ! मह माणसं सरइ ।। १३ ।। पई दिढे मह सामिय ! हरिसविसर्दृतसयलदेहस्स । नयणेहिंतो नीरं हिययाउ मलं गलइ जुगवं ॥ १४ ।। तुह उवरि अवन्नाए ईसालुत्तं वहंति जे हियए । सिद्धिपुरंधी तेच्चिय निब्भरनेहो पलोएइ ॥ १५ ॥ किं किं मए न पत्तं संसाए नाह ! दंसणे तुज्झ । चिंतामणिमि लद्धे अह चोज्जं केरिसं एयं ॥ १६ ॥ दो-सहस-जीहजुत्तो नाह ! सुवन्नोवि तुह गुणे थोउं । असमत्थो त्ति रि(वि?)याणिय नं लज्जाए वसइ हेट्ठो ॥ १७ ॥ तेच्चिय सवणा सवणा जे तुम्ह गुणे सयावि निसुणंति । तेच्चिय नयणा नयणा जे तुह रूअं नियच्छंति ॥ १८ ॥
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सच्चिय जीहा जीहा जा तुह थोत्ते समुज्जया नाह ! । तं चिय भालं भालं जं पयकमलं तुह नमेइ ॥ १९ ।। मेरुपि व अइगरुयं खमाहरं देव ! तं धरं ठावि । जं संसारसमुदं तरंति भविया तमच्छरियं ॥ २० ॥ हिययजलहिमि सामिय ! जाण तुमं मंदरोव्व परिभमिओ। भावणअमियं जावइ निरुवमसुहकारणं ताण ॥ २१ ॥ पई दिने जयबंधव ! जं मह जायं मणंमि किंपि सहं । तं मोक्खंमि वि होही ई मह हिययं न सद्दहइ ।। २२ ।। तुह पयकमलनिरूवण-निच्चुज्जुयमाणसो अहं सामि ! । नयणनिमेसंपि तया मन्ने विग्धं समोइन्नं ।। २३ ।। जेहिं तुमं गुणसायर ! धरिओ हियए खणंपि सद्धाए । ते वि हु हुंति कयत्था आजम्मं किं पुण थुणंता ॥ २४ ॥ तुज्झ सरूवे नाए संपत्ते नाह ! दंसणे तह य । तं एगं मह मोत्तुं अन्नत्थ मणं न हु रमेइ ।। २५ ॥ एसा तियलोयलच्छी एसोच्चिय मह महसवो परमो। जं पयकमलं सामिय ! भमरेण व तुह मए दिटुं ।। २६ ॥ इयु रयणसिंहसूरीहिं संथुयं जे थुणंति नेमिजिणं । ते दुत्तरभवसायरपारं पाविय लहंति सिवं ॥ २७ ॥ छ ॥ छ ।
(२१) श्री पुण्डरीकगणधर स्तोत्र पणमिय पढमजिणिदं सीसं तस्सेव सयलजयपयडं । अगणियमंगलनिलयं पुंडरियं गणहरं थुणिमो ॥ १॥ जेण इह भरहखेत्ते चउदस पुव्वाइं भवियकुमुयाणं । पढमं पयासिऊणं चंदेण व वियरिओ हरिसो ।। २ ॥ तं भरहचक्कवइणो पुत्तं कोडीहि पंचहि समेयं । सेत्तुज्जे सिद्धिगयं पुंडरियं गणहरं वंदे ॥ ३ ॥
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अनुसन्धान ४४
ते धन्ना जेहिं तुमं विहरंतो भारहमि वासंमि। हरिसभरनिब्भरेहिं पलोइओ नयणनलिणेहिं ॥ ४ ॥ सिरिपुंडरीयगणहर ! भुवणस्सवि मणहरं तुह सरूवं ।
अहवा अमियस्स रसो किं कस्स न सुंदरो होइ ! ॥ ५ ॥ रविणा करनियरेणं सयलंपि पयासियं जहा भुवणं । सिरिपुंडरीय गणहर ! तह नाणेणं तए वि जयं ॥ ६ ॥ तुह चंदसियगुणोहं सुमरंताणं मणंमि अम्हाणं । सिवरमणीवच्छयले विलसंतो देसि आणंदं ॥ ७ ॥ जे पुंडरियतवेणं तुम्हं आराहयंति पयपउमं । ते सुरभवणे रज्जं मोक्खंपि लहंति अन्नभवे ॥ ८ ॥ एत्थ पुणो सोहग्गं आरोग्गं पवरपुत्तसंपत्ती । सयलजयवल्लहत्तं लहंति मणवंछियं सयलं ॥ ९ ॥ इय संथुयपायपउम ! नाह ! तुह पुंडरीय ! गुणकमले । मज्झ मणरायहंसो आसंसारं लहउ हरिसं ॥ १० ॥ छ ।
(२२) श्री अणहिलपुर (कुमरनरिंद) रथयात्रा स्तवन
सिरिचरिमतित्थनाहं पणमिय सिवरमणिकंठवरहारं । हरिसभरनिब्भरंगो जिणरहजत्तं थुणिस्सामि ।। १ ।। जिणसासणभवणसिरे छज्जइ जत्ता रहस्स कलसोव्व ।
आणंदं वियरंती वयणाणमगोयरं संघे ॥ २ ॥ जिणसासणपरममहो ! जिणसासणउन्नई इमा पवरा । जिणसासणवद्धावणमेयं जिणसासणे सारं ॥ ३ ॥ जिणसासणनवणीयं जिणसासणजीवियं इमं परमं । जं कीरइ रहजत्ता संपइरन्ना जहा पुट्वि ।। ४ ॥ छत्तनिरंभियरविकर-नरिंदपमुहेहिं नायरजणेहिं । तह विहिया रहजत्ता जह जाओ जयचमुक्कारो ।। ५ ।।
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जिणरहजत्तं पेच्छिय मणंमि हरिसो तणुंमि रोमंचो । नयणेंसुवाहजलं न हु जेसिं ताण किं भणिमो ? ॥ ६ ॥ कलिकालंमि वि दीसइ जिणरहजत्ता पुरंमि एत्थेव । इंदेवि नो तीरइ जह वन्नेउं मणागंपि ॥ ७ ॥ कोऊहलाण सीमा अवही तह पेच्छियव्ववत्थूणं । मूलं पुन्नतरूणं अणहिल्लपुरंमि रहजत्ता ॥ ८ ॥ जम्मोवि ताण सहलो संसारे लोयणाण ताण फलं । अणहिल्लवाडनयरे रहजत्ता जेहिं सच्चविया ॥ ९ ॥ अणहिल्लनयरगयणे नंदउ कयवरविमाणवरजत्तो । कुमरनरिंदमयंको संघसमुद्दं सुहावितो ॥ १० ॥ इय पउमनाहसंथुय-रहजत्तं जे सरंति पइदियहं । ताण सुहं होइ फुडं अमियवसेणं वसित्ताणं ॥ ११ ॥ छ ॥ छ ॥
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(२३) श्री भारती स्तोत्रम् यन्नामस्मृतिरप्यशेषजगतीसंकल्पकल्पद्रुमं
सद्बोधाम्बुधि --- पार्वणविधुर्मेधासुधासारिणः । खेलल्लक्ष्मिविलासकेलिवल भीसत्काव्यपण्यापणस्तामुद्दाममुदाऽवदातहृदयः स्तोतुं यते भारतीम् ॥ १ ॥ आनन्दाम्बुधिमध्यमग्नहृदय: प्रोद्भूतरोमाङ्करः प्रोत्सर्पत्परितोषबाष्पसलिलैरालुष्यमानेक्षणः । देवि ! त्वत्पदपङ्कजभ्रमरतां धत्ते जनो यः सदा तस्याशेषसमीहितानि सपदि क्रीडन्ति हस्ताम्बुजे ॥ २ ॥ श्रीमद्देवि ! तव प्रसादसुभगा दृष्टि: किरन्ती सुधां मूर्ति चुम्बति भाविभाग्यललितां धन्यस्य यस्य क्षणम् । उद्यद्वादिविनिद्रदर्श्यदलना प्रोद्भूतसत्तेजसस्तस्यालिङ्गनमातनोति रभसाद्विद्या जगत्कार्म्मणम् ॥ ३ ॥ डिम्भेनापि च सारदे ! तव वरान्मूद्धिर्न प्रदत्ते करे काव्यं कारयते कृती मदहरं श्रीकालिदासस्य यत् ।
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संप्राप्यातिशयं कुतोऽपि निखिलत्रैलोक्यविस्मापकं कुम्भोद्भूरथवा पपौ न जलधीन् सप्ताधि किं हेलया ? ॥ ४ ॥ निःश्वासोद्गतगन्धबन्धुरतया सोत्कण्ठबद्धस्पृहा धावन्ती मधुपालिरास्यकमले ब्राह्मि ! त्वया कौतुकात् । नूनं या करपल्लवेन विधृता प्राप्य स्मितैः शुभ्रतां ब्रूतेऽसौ कथमत्र मूढहृदयस्तामक्षमालां जनः ॥ ५ ॥ एतद्भारति ! पङ्कजं तव कराम्भोजे दधन् मित्रतां यत्पश्यामि हरिप्रियैकसदनं सच्छाययालङ्कृतम् । तन्मन्येऽस्मि करोषि यत्र मनुजे वासं प्रसन्ना सती तत्राद्यापि रुषा विषण्णहृदया धत्ते न लक्ष्मीः स्थितिम् ॥ ६ ॥ पाणिः सूर्यसमस्तम: परिभवी ते वाणि ! यस्य क्षणं साम्मुख्यं भजते स्म नेत्रनलिनस्यानन्दमुद्रां दधत् । तस्याशाः सकलाधिकश्चरदशां संप्रापयन्नन्वहं धत्तां मा वरदाभिधां कथमसावुत्तानलीलां वहन् ॥ ७ ॥ दोषाश्लेषजुषोपि विश्वमखिलं प्रीतिं नयन्तः परां राकाचन्द्रगभस्तयो जडतया सन्तप्तपद्मश्रियः । चञ्चत्पुस्तककैतवादहमिदं शङ्के गिरामीश्वरि ! पिण्डीभूय जडत्वसङ्गहतये भेजुस्त्वदीयं करम् ॥ ८ ॥ इत्थं निर्यदमन्दभूरिपुलकः प्रीतिप्रसन्नाशयः पाण्यम्भोजयुगं ललाटसरिति प्राप्य स्थितस्ते पुरः । देवि ! प्रार्थयते वरं प्रविदधच्छ्रीरत्नसूरिः स्तवं विश्वं क्षिप्तसमस्तमोहगहनं सर्व्वत्र भूयादिति ॥ ९ ॥ छः ॥
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अनुसन्धान ४४
(२४) श्रीभरुयच्छ मंडणमुनिसुव्रतस्तवनम्
तिहुयणजणमणलोयणपंकेरुहवणवियासणदिणिंद ! । भरुयच्छनयरमण्डण ! जय जय मुणिसुव्वयजिणिंद ॥ १ ॥
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जेहि तुमं जयबंधव ! हरिसविसटुंतनयणनलिणेहिं । एगंपि खणं दिट्ठो तिच्चिय धन्ना जए नूणं ॥ २ ॥ तेहि चिय मणुएहिं पत्तं नियजम्मजीवियाण फलं । भरुयच्छनयरसंठिय ! मुणिसुव्वय ! जेहिं तं दिवो ॥ ३ ॥ तुह नामसिद्धमंतं तिहुअणसिरितिलय ! सुव्वयजिणिद ! । जे झायंति तिसंझं ताणमसेसं वसं भवणं ॥४॥ जाइसरणाइ नाउं पच्छिमजम्मं सदसणाइ फडं। भरुयच्छे कारवियं मुणिसुव्वयसामियं वंदे ।। ५ ॥ न हु अत्थि किंपि नूणं एत्थ असज्झं कयावि मह नाह ! । आणंदबाहनिब्भरनयणेहिं जं तुमं दिट्ठो ॥ ६ ॥ सव्वंग रोमंचो जाण न फुरिओ जिणिंद ! पइ दिढे । ललुमि वि मणुयत्ते का हुज्जा निब्बुई ताण ? ।। ७ ।। परउवयारं मुत्तुं न हु सारं किंपि जीवलोगंमि । इय काउमस्सबोहं तं जिण ! भरुयच्छमोइन्नो ॥ ८ ॥ पइं पेच्छिऊण पहु ! महु(ह) अमंदआणंदगज्जयगिरस्स । अप्पा वि हु वीसरिओ किमहं अवरं थुणामि तओ? ॥ ९ ॥ जे परमाणू नूणं संसारे सारयं समावना । तेहिं तुमं निम्माओ नयणाणं तेण अमियसमो ॥ १० ॥ तं चिय नयणाण सुहं मणनिव्वुयमंदिरंपि तं चेव । मह जीवियंपि तं चिय सव्वस्सं पि य तुमं अहवा ।। ११ ।। अज्जं चिय कप्पतरू लद्धो चिन्तामणी वि अज्ज मए । अज्जं चिय ससिणेहा सिद्धिवहू मं पलोएइ ॥ १२ ॥ एवं वद्धावणयं एसो मह अज्ज ऊसवो परमो । जं भुवणरयण! सूरीहिं थुव्वसि सयावि तं नाह ! ॥ १३ ॥ छ ।
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अनुसन्धान ४४
(२५) श्री बावत्तरिजिन (कुमरविहार) स्तवनम् चउवीसंपि जिणिदे वोलीणे-वट्टमाण-भविए य । जहसंखं संखाए नामग्गहणेण वंदामि ॥ १ ॥ केवलनाणि रिसहं महपउमं पढमयं नमसामि । निव्वाणमजियनाहं सुर(वं तहा बीयं ॥ २॥ वंदे सागरनाहं संभवमित्तो सुपासयं तइयं । अह महज्ज(ज)स मभिन्न(न)दण मित्तो य सयंपहं तुरियं ॥ ३ ॥ वंदे विमलं सुमई सव्वाणुभूई थुणामि पंचमयं । सव्वाणुभूई पउमं देवसुयं छट्ठयं वंदे ॥ ४ ॥ सिरिहरमहो सुपासं उदयं वदामि सत्तमजिणिदं । दत्तं चंदप्पहमह पेढालं अट्टमं वंदे ॥ ५ ॥ दामोयरं च सुविहि पोट्टिलनाहं थुणामि नवममहं । वंदे सुतेयनाहं सीयल सयकित्तियं दसमं ॥ ६ ॥ सामि तह सेयंसं सुव्वयमेकारसं च वंदेहं । मुणिसुव्वय चसुपुज्ज अममं वंदामि बारसमं ॥ ७ ॥ सुमइं विमलं च तहा निकसायं तेरसं नमसामि । सिवगइमणंतनाहं चउदसमं निप्पुलायजिणं ॥ ८ ॥ अस्थायं धम्मजिणं निम्ममनाहं थुणामि पनरसमं । निम्मीसरं च संतिं सोलसमं चित्तगुत्तं च ।। ९ ।। अनिलं कुंथु च तहा समाहिनाहं नमामि सतरसमं । वंदे जसोहरनरं संवरमट्ठारसं वंदे ।। १० ।। वंदे कयग्घ-मल्लिं जसोहरं एक्कऊणवीसइमं । तत्तो जिणेसरं सुव्वयं च विजयं च वीसइमं ॥ ११ ॥ सुद्धमई नमिनाहं मल्लं थोसामि एगवीसइमं । सिवयरमरिठ्ठनेमिं देवं वंदामि बावीसं ॥ १२ ॥ संदणमह पासजिणं तेवीसइमं अणंतविरियं च । तह संपइ-महावीरं भदं पणमामि चउवीसं ॥ १३ ॥
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इय पउमनाहगणिणा बावत्तरि जिणवराण संथवणं । कुमरविहारट्ठियाणं विहियमिणं कुणउ कल्लाणं ॥ १४ ।।
&08 (२६) श्री पार्श्वजिनस्तवनम् जय जय पास ! सुहायर ! तं पेच्छिय सामि ! कुवलयं च अहं । आणंदं पयडंतो नियभावं किंपि जंपेमि ॥ १ ॥ अज्जं चिय गरुयमहो ! अज्जं चिय मज्झ मंगलं परमं । निरुवमसोहग्गनिही जं दिट्ठो सामि ! नयणेहिं ॥ २ ॥ अज्जं चिय जाओ हं अज्जं चिय जीवियं अहं मन्ने । जं अमियकुंडतुल्लो नयणपहं पहु ! तुमं पत्तो ॥ ३ ॥ अज्जं चिय निहिलाहो अज्जं चिय दसदिसाउ पयडाओ। जं नाह ! जलहर ! मए मोरेण व तं सि सच्चविओ ॥ ४ ॥ अज्जं चिय उच्छाहो अज्जं चिय कामधेणुसंपत्ती । धणयपुरीरज्जोवमरोरेण व जं तुमं लद्धो ।। ५ ॥ अज्जं चिय कप्पतरू अज्जं चिय अमियपूरिओ अप्पो । मंजरियचूयवणसम-कलयंठेणं व जं दिट्ठो ॥ ६ ॥ अज्जं चिय अच्छेरं अज्जं चिय हिययवल्लहं लद्धं । जं पहु ! तुह पयपउमे भमराइज्जइ महच्छीहिं ॥ ७ ॥ अज्जं चिय चक्किपयं अज्ज चिय इंदसंपया पत्ता । जं चरणसरे तुम्हं हंसो इव रमइ नयणजुयं ॥ ८ ॥ अज्जं चिय रससिद्धी अज्जं चिय विधिया मए राहा । मुहचंदचंदिमा तुह जं पिज्जइ नयणचउरेहिं ।। ९ ॥ अज्जं चिय मुत्तिसुहं अज्जं चिय तिहुयणे वि मह रज्जं । लायन्नजलं तुह पहु ! जं पिज्जइ नयणपुडएहि ॥ १० ॥ अज्जं चिय वद्धावणमज्जं चिय नच्चियं मह मणेणं । जयजयपडायसरिसं जं पत्तं दंसणं तुम्हा ॥ ११ ॥
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अनुसन्धान ४४
तुह पयपंकयलीणं काऊण मणं जिणिंद ! पत्थेमि । जम्मे जम्मे वि पुणो होज्जमहं किंकरो तुम्ह ॥ १२ ॥ जह वयणेणं तह जइ मणमि मह पहु ! न एरिसा भत्ती । ता एत्थ तुमं सामिय ! नवरि पमाणं किमन्नेणं ।। १३ ।। इय रोमंचियगत्तो आणंदवसुल्लसंतबाहजलो। जोडियकरकमलोहं समग्गयं खलियवयणपरो ॥ १४ ॥ अज्ज कयत्थो धन्नो संपुन्नमणोरहो य जाओहं । भूमीइ सिरं काउं इय थुणिओ रयणसूरीहि ॥ १५ ॥ छ ।।
॥ इति पार्श्वजिनस्तवनम् ॥
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(२७) श्रीधर्मसूरि देशनागुणस्तुति सिरिसिलसूरिगुरुगणहरह, पयपंकय पणमेवि । धमसूरि सूरिहि रलिय हउं, देसण गुण वनेवि ।। १ ।। परउवयारह मूलु जगि, देसणसरिसु न दाणु । सा धमसुरि तुहु वन्नियइ, जिण(म)जायइ सुहझाणु ॥ २ ॥ जिणवरधम्मु सुहावणउ, जोइ भासइ इहलोइ । जेत्तिउ अंतर हवइ पुणु, तेत्तिउ पिच्छहु तोइ ॥ ३ ॥ नीरह पिंडु पसिद्ध जगि, पोइणि ठवियउ जाव । मोत्तिय केरिय भंतविय, कवणह न करइ ताव ॥ ४ ॥ अलिउ पयंपइ एउ जणु, कलिजुगि वट्टइ लोइ । धमसुरिसन्निहु वररयणु, कयजुगु मिल्लि कि कोइ ॥ ५ ॥ धमसुरिझुणि जो अमियसम, कनंजलिहिं पिएइ। . सो छिदिवि भवबंधणई, सिवसोक्खइं सेवेइ ।। ६ ॥ धमसूरि देसण-महिम तुहु, पेच्छवि नियनयणेहिं । बोल्लहिं बाल परोप्परवि, नाणाविहवयणेहिं ।। ७ ॥
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सूसम जाइय अज्जु हलि, अमियहि वरिसिय मेह । पयपंकेरुह धमसुरिहि, भवियहु भत्ति नमेहु ॥ ८ ॥ हरिसपफुल्लियनयण हउ, अज्जु न मायइ अंगि । धमसुर धम्मु कहंताह, हियडइ नच्चिउ रंगि ॥ ९ ॥ बहिलि कंतु न पुच्छियउ, मई आवंतिय अज्जु । जिं मिल्लिवि हि संगुहउं, साहउ सिवपय कज्जु ॥ १० ॥ tयण सलूणिय हेल्लि पुणु, काहिसु सफलउ जम्मु । गुरु पडिवज्जिवि धमयसूरि, गिण्हिसु सावयधम् ॥ ११ ॥ अच्छउ दंसणु दूरि तुहु, सव्वगुणंगणट्टाणु ।
धमसुरि नाउंवि तुज्झ महु, अमियरसेण समाणु ॥ १२ ॥ नवजोयणि विलसंतियहि, घरणिहि घरु मेल्लेवि । दिक्ख लियहिं धमसूरि किवि, तुहु देसण निसुणेवि ॥ १३ ॥ कणयदंडमंडियपवर, सोहिय थंभसएहि ।
विहिचेइय किवि कारवहिं, नाणाविह ठाणेहिं ॥ १४ ॥ जंगम सरसइ मज्झु गुरू, सुरगुरु अह पच्चक्खु । धमसुरि सूरिहि तिलउ अह एहु विसयहं निरवेक्खु ॥ १५ ॥ हियउ निब्भर पूरियडं, महु धमसूरि गुणेहिं । एवहिं किज्जउ काई सहि महु उवएसु भणेहिं ॥ १६ ॥ भावण भावहिं केवि पुणु, किवि दाणिण वरिसंति । सीलु कुति तवंति तवु, किवि धमसूरि थुणंति ॥ १७ ॥ जयउ जयउ वक्खाण महि, जहि एरिस आलाव । पावारंभवि जेत्थु नर, संजायहिं सुह भाव ॥ १८ ॥ जो जणनयणाणंदयरु, सरउन्निव जिंव चंदु | सो धमसुर पहु जण, सिवसाहणसुहकंदु ॥ १९ ॥ लडहकंति सुकुमार-तणु दुद्धकवउ धारेइ । धमसुरिसरिसा एत्थु जगि, विरलउ गुरु पावेइ ॥ २० ॥ इय महुरवाणि जे गुणहि धमसुरि गुणथुइ एह । तेहिय वंछिउ सयलु सुहु, पावहिं गयसंदेह ॥ २१ ॥ छ ॥
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(२८) श्री संखेश्वर पार्श्व स्तवनम्
जय जय संखेसर तिलय देव, जगु सउ वट्टइ तुहतणिय सेव । विणु भत्तिहि तूसइ कसुवि नेव, तुट्ठउ पुणु जिव मणु देहि तेव ॥ १ ॥ संखेसरसंठिय पाससामि, वियलंति दुरिय तुहतणइ नामि ।
तहं धण कण कंचण तुरय धामि, हुंति जि झायहिं पई हंसगामि ॥ २ ॥ सुणि आससेण - नरवइहि पुत्तं, संखेसरमंडण मज्झ वृत्त ।
भवि भवि मग्गंतु तुम्ह पाय, संसारि न लग्गहिं जिंव आ (अ) पाय ॥ ३॥ कलिकालि असंभवु जसु पहाव, जग हवि उप्पायइ सुकु विभावु । कसुविन भावइ धरिहि वासु, संखेसरि वंदिउ जा न पासु ॥ ४ ॥ हं मन्नं किंपि न कप्परुक्खु, चिंतामणि वियरइ तं न सुक्खु । दुहुं लोयह दूरि खिवेवि दुक्खु, संखेसरि पासु जु दिंतु मोक्खु || ५ || हलिउ लोउ वंदणह रेसि, चउसुवि दिसासु सव्वहिं विदेसि | अवरुप्परु जंपइ मइ वि नेसि, हअच्छ पउणउ कियइ वेसि ॥ ६ ॥ आवंति न लब्भइ मग्गु लोइ, संखेसरि पासह भवणि जोइ । गायंतइ नच्चिरि उद्धबाहु, पइसिवि पुज्जिज्जइ पासनाहु ॥ ७ ॥ कप्पूर कथूरिय कुंकुमेहिं, कई किज्जइ सव्विहिं कारिमेहिं । निक्कारिम एक्क जि भत्ति होइ, तो तुरियं वंछिउ हुंतु जोइ ॥ ८ ॥ सउं भत्तिण जइ पुणु पूय होइ, जा कत्थवि दीसइ नेव लोइ । तो तसु उवमाणु न देइ कोइ विलसंतउ भवियणु गुरु पमोइ ॥ ९ ॥ किवि मग्गहिं चंग सलोणनयण, किवि वंछहि कामिणि चंदवयण | किवि पुणु पत्थहिं वरपुत्तरयण, किवि ईहहिं सिवसुहु भत्तिपवण ||१०|| जइ कहवि निरंजण एक्कभत्ति, ता सयलु समीहिउ होइ झत्ति ।
माणुसह परिक्खइ देउ सत्ति, तउ कुणइ सयल तसुतणिय तत्ति ॥ ११ ॥ सिरि धम्मसूरि गणहरहसीसु, सिरि रयणसिंह मुणिगणहईसु ।
अनुसन्धान ४४
न मुणइ थुणंतु निसि तह व दीसु, पासु सु निम्मलु जिंव रवि अभीसु ॥ १२ ॥ इय संखेसर पुरि विहियवासु, संपूरियतिहुपणसयलआसु ।
हं मग्गं एत्तिउ एक्कु पासु, महु निच्चवि वियरउ अप्पपासु ॥ १३ ॥
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(२९) श्री संखेश्वर पार्श्व स्तवनम्
सिरि संखेसर संठिय! निट्ठियकम्मट्ठगंठि ! पहु ! पास ! | नियकिंकरस्स मज्झं, विन्नत्तिं देव ! निसुणेहि ॥ १ ॥ रन्नंमि सग्गसरिसं, पड़िहासइ सयलभुवणवलयस्स । जत्थच्छरियनिहाणं, दीससि तं पास ! सुहवास ! ॥ २ ॥ संखेसरंमि पासो वासो सुसिणिद्धफलसमिद्धीए । कलिकालमरुमहीए, समुग्गओ कप्परुक्खोव्व ॥ ३ ॥ आणंदामयसारणि-तुल्लो मह मणकियारभूमीए । संखेसरम्मि पासो पसरतो वंछियं देउ ॥ ४ ॥
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जइ निरुवममणपसरो तुह पयकमलंमि पइखणं होज्जा । दूरेवि तस्स ता जिण ! अचितचिंतामणी सिद्धो ॥ ५ ॥ जं होसि पहु ! पसन्नो दुत्थियदुहियाण रोयविहुराण । करुणारसमयरहरो अज्जवि तं पास ! दीसिहसि ॥ ६ ॥ रणझणिरकणयकंकण - विप्फारियकरयलाहिं रमणीहिं । नच्चंतीहिं य मग्गो न हु लब्भइ पास ! तुह भवणे ॥ ७ ॥ लद्धूण पुत्तजम्मं विलसिरआणंदवियसियच्छीओ । तियसाण वि सुहजणयं काउ वि गायंति महुरसरं ॥ ८ ॥ भवजलहिपाणतुल्लो तिहुयणउद्धरणलग्गणाखंभो । सयलमणोरहपूरण-ठाणं तं चेव पास ! जए ॥ ९ ॥ को वन्निरं त पढिमं संखेसरंमि तुह पास ! । जीहासहस्सजुयलं जइवि धरेज्जा अहिवइ- ॥ १० ॥ - निद्धम्माचारवंदिय अनायवंताण दुट्ठहिययाण । संखेसर पास ! तुहं नामं पि हु सासणं कुणइ ॥ ११ ॥ जिणसासणभत्ताणं सरलसहावाण सुद्धहिययाणं । संखेसरपास ! तुहं नामं पि हु वंछियं देइ ॥ १२ ॥ इय रयणसिंहसूरी संखेसरनयरभूसणं पासं ।
पत्थइ थोऊण इमं तिजयस्सवि कुणसु कल्लाणं ॥ १३ ॥ छ ॥
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अनुसन्धान ४४
(३०) श्री संखेश्वर पार्श्वनाथ स्तवनम्
संखेसरि पुरि संठियह, पासह पाय जु झाइ । सो दूरिवि चिंतिउ लहइ, किं पुणु थुणइ जु जाइ ॥ १ ॥ संखेसरि पासह चरण, नमइ जु एक्कमणेण । तसु निच्छइं वंछिय सयल जायहि एक्कखणेण ॥ २ ॥ लग्गु त काई वि साहियं, संखेसरि तुहु देव ! । जिणि तिहुयणु सउ मोहियं, कुणइ तहारियसेव ॥ ३ ॥ महु मुहि एक्क जि जीहडिय, तुह गुण लहं न अंतु । किव संखेसरि पास पई, पाविस तोसु थुणंतु ।। ४ ।। संखेसरु कप्पे वि सरुपउमु व पासजिणिंदु । सो झाइज्जइ पइदियहु जसु पय नमइ फर्णिदु ।। ५ ।। पुन्निम केरउ चंदुलउ, भवियहु पासु करेहु । मणु पुणु जलहि छवेवि तउ पिउ लहरिहिं पूरेउ ॥ ६ ॥ संखेसरि पासह पुरउ जीविउ तुलह धरेहु । इगनिच्छइ जउ तुट्ठ तउ वरु भावंतु वरेहु ॥ ७ ॥ चिंतामणि चिंतिउ दियइ, पासु अचिंतिउ देइ । संखेसरि जो एक्कमणि, तसु पय पुणु वंदेइ ॥ ८ ॥ इय रयणसिंहपहुथुणिउ, संखेसरि जिणु पासु । मणवंछिउ पूरेवि जगि देउसु सिवपुरि वासु ॥ ९ ॥
- (३१) श्री संखेश्वर पार्थ स्तवनम् संखपुरेसरि वंदहु देउ, जो जग भत्तिहि जाणइ भेउ । कासुवि न तुल्लउ जासु न तेउ, तासु न वंछिउ दितह खेउ ।। १ ।। संखपुरेसरि पास जिणिंदु, उग्गउ लोयहु एक्कु दिसिंदु । किं नवु पुन्निम केरउ चंदू जेत्थु न अत्थु न कत्थवि फंदू ॥ २ ॥
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खोणि-सरोवरि किं सयवत्तू कप्पतरू कि जु सूसमवुत्तू । हुं इहु राणिय वंमह पुत्तू संखपुरेसरि पासु निरुत्तू ॥ ३ ॥ संखपुरेसरि पासु वसंतू जा मण काणणि हू विलसंतू । तं वणु तेव फलिं वियसंतू जोइ ज नंदुणु तं पि हसंतू ॥ ४ ॥ संखपुरेसरि पासु जु वनं पच्छिमसंमुहु तं न हु मन्नं । माणस जिं न त दिट्ठ अदंनं जं वरि देव न तुज्झु रवन्नं ॥ ५ ॥ संखेपुरे सिरिपासह थोत्तु, जंपइ निम्मल भत्ति जु जुत्तू । तासु वियक्खणु जायइ पुत्तू मंडइ जो गुणवग्गिण गोत्तू ॥ ६ ॥ देउ गुरू किर भत्तिय तोसं, चिंतिउ एउ ज तं पुण पोसं । संखपुरेसरि पासु विसेसं, जाणइ अंतु न कोइ असेसं ।। ७ ॥ संखपुरेसर मंडण देवा, पास जिणेसर तुह कय सेवा । हं जडु सक्कु न जंपिसि लोया, भत्ति परायण नच्चहु लोया ॥ ८ ॥ रतनसिंह मुणीसरु देवा, थुत्ति तुम्ह करेप्पिणु सेवा । जंपइ अज्जवि अम्ह उमाहा, जांहि न दंसणि नो पणमेवा ॥ ९ ॥ छ ।
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(३२) श्री संखेश्वर पार्श्वनाथ स्तोत्र यस्त्रैलोक्यगतं ततं गुरुतमःस्तोमं निहन्तुं क्षमः प्रौढातङ्कभृतां नृणां जिनपतिस्तापं विलुप्य क्षणात् । सर्व्वस्याऽमृतपूरपूरणरति विस्फारयन्नेत्रयोनव्यः शंखपुरेश्वराम्बरमणिः कुर्यात्स वः कामितम् ॥ १ ॥ अत्यन्ताद्भुतसंमदाम्बुदततिप्रोद्भूतरोमाङ्करैदृष्टे यत्र बभूव [नेत्र?]वसुधा सत्पुण्यपुष्पाञ्चिता। . श्रीशंखेश्वरमण्डनैकतिलकः कुर्वन् वसन्तोत्सवं स श्रीपार्श्वजिनेश्वरः स्फुरतु नः स्फूर्जन् मनःकानने ॥ २ ॥ येन त्वं स्मृतिमात्रतोऽपि मनसा ध्यातः प्रभो ! सादरं कुर्वाणेन गिरा स्तुति निरुपमां बाष्पोम्मिलक्ष्यां स्फुटम् ।
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अनुसन्धान ४४
कायेनापि हि संनतिं विदधता पञ्चाङ्गभङ्गस्पृशा स श्री शंखपुरस्थपार्श्व ! लभते लोकद्वये निर्वृतिम् ॥ ३ ॥ आधिव्याधिसमस्तकुष्टपिटकश्वासार्त्तिकण्डूज्वरप्रेतोद्भूतजलोदरप्रभृतयो ये सन्ति रोगाः क्षितौ । यद्वत्तीव्रतमांसि यान्ति विलयं मार्तण्डतेजस्ततेस्तद्वत्तेऽपि यजु(यु)स्तव स्मृतिवशाच्छंखेश्वरस्थ प्रभो ! ।। ४ ।। हेलास्फालितकुम्भिकुम्भदलनप्रोद्भूतगर्वोद्धुरं दृष्यं(श्यं)तं किल कोऽपि कोपितममुं सिंहं निहन्तु क्षमः । त्वां पार्श्व ! स्तुवता प्रतापकलने त्वं येन तुल्यः कृतः खद्योतं स रवेः समं वितनुते शंखेश्वरस्थ प्रभो ! ।। ५ ।। धृत्वादौ प्रणवं सुनादकलितं मायाख्यबीजान्वितं पर्यन्ते च नमस्ततो निजयुतं काम्यार्थसम्पादकम् । हर्षोल्लासवशेन शुद्धमनसा यद्यस्ति सत्यं वचो विज्ञप्तिः फलदा तदा मम भवेच्छंखेश्वरस्थ प्रभो ! ॥ ६ ॥ दिग्भ्यः क्षुभ्यदबिभ्यदं च न धिया भक्तिं दधद्वन्धुरां प्राप्याभ्यर्थितमर्थसार्थमसकृद्यौति नन्तुं जनः । आनन्दामृतसिन्धुवीचिजनकं नित्यं नृणां पश्यतां तं त्वां स्तौमि मुदा शशाङ्कसदृशं शंखेश्वरस्थ प्रभो ! ।। ७ ।। लुभ्यल्लोलविलासकेलिललनासंभोगरंगस्पृशः श्रुत्वा तेऽपि तव प्रभावमतुलं - - ति द्रष्टुं भृशम् । हित्वा वेश्मकथां प्रथामवितथां सद्ध्यानधर्म्य दधद् वक्तुं कश्चिदलंगु - - मु भवेच्छंखेश्वरस्थ प्रभो ! ॥ ८ ॥ स श्री पार्श्व ! मम प्रकारवशतः किं वास्तु भावस्तवा ।* दद्याद्वयः (?) पुरुषागता जनततेः शंखेश्वरस्थ प्रभो ! । दृश्यद्वेषगजेन्द्रदर्पदलनप्रादुर्भवद्विस्मयं
प्रोद्यत्कर्मकुरङ्गभङ्गजनकं शार्दूलविक्रीडितम् ।। ९ ॥ * स मम संबन्धी उल्लासरूपविच्छित्तिवशात् भावौस्तु ममैवयः कु० सार्दू किंवा पार्श्व तव संबंधी ऽस्तु प्रशब्द्वशात् प्रभावः यः पुरु० कु० सार्दू० (ताडपत्रप्रतिगतेयं टि०) ॥
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त्रैलोक्यं सकलं मया प्रतिकलं दृष्टान्तमन्वेषितुं देव ! त्वद्गुणवर्णनां विदधता विस्फारितं मानसम् । एकस्यापि गुणस्य तत्त्वतुलया लेभे क्वचिन्नोपमा हर्षात्सर्वमिदं विलंघ्य गदितं शंखेश्वरस्थ प्रभो ! ॥ १० ॥ संस्तुत्येत्थमसौ जिनेश्वर ! तव श्री पार्श्व ! पादाम्बुजं स्वीयस्वान्तसमुत्थदौस्थ्यदलनैः सद्भावगर्भः पदैः। विश्वं शर्मपदं नयेति निगदन्नभ्यर्थनासार्थकं मूर्धानं भुवि सन्निधाय नमति श्रीरत्नसिंहप्रभुः ॥ ११ ।। छ ।
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(३३) श्री धर्मसूरि छप्पय श्रीधम्मसूरिचंदो सो नंदउ चंदगच्छ गयणंमि । निय जसजोन्हापसरेण जेण धवलीकयं भुवणं ॥ १ ॥ कामकरडिघडवियडकुंभविहडणपंचाणणु मुणियसत्थपरमत्थु वीरतित्थह वित्थारणु । सयलतक-साहित्त-कव्व-लक्खणिहि सुनिच्चलु पयड पठल पडिवक्ख दप्प कप्परण सुपच्चलु ॥ जो सीलसूरि वर गणहरह गरुयगच्छवित्थारकरु सो धम्मसूरि इह चिर जयउ निम्मलगुणपब्भारधरु ।। १ ।। किं सुरकरि गुलगुलइ पहु ! सग्गह अवयरियउ किं सुम्मइ दुंदुहिनिग्घोसु इहु जगि वित्थरियउ। किं सायरु धडहडइ एहु बहिरंतदियंतरु किं गलगज्जइ सजलु एहु अहिणवु धाराधरु ।। छणचंदकुंदकप्पूरसमु कित्तिनियंबिणिकेलिगिहु । हुं नाउ नाउ देसणह भरि धम्मसूरिमुणिरायु बुहु ।। २ ।। जिणरि दलिवि वद्दियहं दप्पु जयसिरि अवमंडिय जिणरि कुतित्थियसत्थकंति तक्खणि फुडु खंडिय ।
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जिरि वयणविन्नाणि झत्ति कंपाविय पंडिय । जिरि वसुंधर सयल एह नियकित्तिहि मंडिय । अह धम्मसूरि परमेसरह किं वन्नणु इय गुणिहि तहि । उद्दाम करिंदेह केलिवणु भंजंतह थुइ कवण कहि ॥ ३ ॥ उवसमलच्छिहि पयडु कंठकंदलि विलसंतउ । नं सोहइ मोत्तियह हारु तेइण दिप्पंतउ ||
'नं वइदेविहि देहमाणु जोयंतिय दप्पणु ।
नं पयडइ मल्हंतु एह देवहगुरु अप्पणु ॥
इ धम्मसूरि पेक्खेवि जगि कवणि कवणि न हु वंनियइ । इउ चिंतिवि सग्गि पुरंदरिण नं आणंदिहि नच्चियइ ॥ ४ ॥ कुमुयहुयासणु पज्जलंतु जलहरु जिंव तज्जइ । कामकरिंदह सिंहु जेव भंजणि कमु सज्जइ । देसणलहरिहि उच्छलंतु सायरु जिंव गज्जइ । वाइमडप्फरु निम्महंतु जो गुरु जिव छज्जइ । तसु धम्मसूरि जयसेहरह वियड भुवण रंगावणिहि उद्दाम परिहि हल्लप्फलिण नच्चि कित्तिनियंबिणिहिं ॥ ५ ॥ कप्पूरुज्जलगुणिहि जेण इह भुवणु चमक्किउ | दुद्दमवद्दियबिंदु जेण जुत्तिहि फुडु हक्किउ || पंडियवग्गिण नियवि झत्ति सुरगुरु जो संकिउ ।
तो तक्खणि पडिवक्खु सयलु नियहियइ धसक्किउ ॥ तसु धम्मसूरि मुणिराय ! तुहु फुडु जि विलंबं संथवणु तो हरिसवियंभिउ मज्झ मणु लहइ न निव्वुइ एक्कु खणु || ६ || अरिरि सुदुद्धरु जित्तु जेण वद्दिउ रायगणि
अरिरि निवेसिउ नाउं जेण कोमुइ मयलंछणि ।
11
अरिरि वियंभइ कित्ति जासु अइधवल दियंतरि अरिरि सरस्सइ वसइ जासु ससि [सिरिचंद] गच्छ चूडारयणु जिणसासणउन्नइकरणु । इय जयउ तित्थ [ यरतुल्ल धम्मसुरि] भवियहं सरणु ॥ ७ ॥
अनुसन्धान ४४
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मोहमल्ल निम्महण कुमयमयगलपंचाणणु उवसमअमियपवाहु हरिसफुल्लह वरकाणणु । संवेगद्दुमपढमकंदु गुणकुमुयसुहायरु जणमणचितियकामधेणु दुहतिमिरदिवायरु ॥
निसुत जइत्थुवि भवियजण अच्छहि विलसिर सिद्धिसुहि सा धम्मसूरि - देसणलहरि वन्नि कु सक्कइ एक्कमुहि ॥ ८ ॥ पुहइपुरंदर हिययमोरनच्चण घणु नज्जइ गुणगणमणिरोहणगिरिंदु बुहयणिहि सुणिज्जइ । सज्जण जणमणजलहिचंदु जगि पयडु मुणिज्जइ भवियनलिणबोहणदिणिंदु जो महियलि गिज्जइ ॥ तसु धम्मसूरि हं तुयचरण पउमनाह वन्नेवि किह ओ जहं जगि कित्ति समुच्छलिय महमहंत कप्पूर जिह ॥ ९ ॥ छ ॥ छ ॥
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(३४) श्री शासनदेवी स्तोत्रम्
चवीसंपि जिणिंदे वंदिय आणंदनिब्भरमणेणं । सासणदेवि थुणिमो जणणि पिव सयलसंघस्स ॥ १ ॥ नीसेसविग्घसंघ सिग्धं संघस्स हरउ कुणउ सिवं । एसा सासणदेवी अतुलबला विजयविक्खाया ॥ २ ॥ सीसे मण (सीसगण ?) संजुयाणं अम्ह गुरूणं विसेसओ संतिं । कालं सासणदेवी समायरउ ॥ ३ ॥
स
धम्मपभावणहेउं अपुत्तमहिलाण पुत्त
हिया समाणा सासणदेवी कुणइ नूणं ॥ ४ ॥ कप्पूरागुरुकुंकुमसुगंधपुप्फाइपूइया संती । मोयगनिघरं दाउं सक्कारिय पवरवत्थेहिं ॥ ५ ॥ जो जं पत्थइ वत्थं दुल्लहलंभंपि तिहुयणे सयले । सासणदेवी विहरइ भत्तिसणाहस्स तं तस्स ॥ ६ ॥
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अनुसन्धान ४४
सासणदेवी निसुणउ अम्हं विन्नत्तियंति भणइ जणो । लहु दुक्खड़ाइं तुट्ठा जइ कह वि हु भावसाराए ॥ ७ ॥ ता जिणहरम्मि अम्हे पोसहसालाइ सयणवग्गंमि । आरुग्गं अब्भुदयं धणरिद्धि देउ सयकालं ।। ८ ।। को माहप्पं तुम्हं वन्नेउं तरइ देव (वि !) भुवणंमि । जइ जंपइ धरणिंदो अहव सुरिंदो अह गिरिंदो ॥ ९ ॥ इय रयणसिंहसूरी सासणदेवीए संथवण काउं । धम्मियजणाण भई रुद (?) कुणसु त्ति पच्छेइ ।। १० ॥
॥ इति शासनदेवी स्तोत्रं समाप्तं ।। छ ।
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श्रीउत्तमऋषिविरचितश्रीशतपञ्चाशितिका संग्रहणी
सं. मुनि धर्मकीर्तिविजय
(भूमिका) साहित्यना क्षेत्रमा जैन मुनिओए अपूर्व प्रदान कर्यु छे. ते पछी प्राकृत भाषा विषयक होय, संस्कृतभाषा विषयक होय, के गुर्जरभाषा विषयक होय. प्रत्येक भाषामां जैनमुनिओए गद्य-पद्यात्मक विपुल साहित्य, सर्जन कर्यु छे. एज रीते जैनमुनि रचित 'श्रीशतपञ्चाशितिका' नामक प्राकृतभाषामय नानकडो ग्रन्थ उपलब्ध थयो छे, तेनुं यथामति सम्पादन करुं छु.
जैनो माटे २४ तीर्थङ्कर परम आराध्य तत्त्व छे. तेथी तेओने माटे अद्य पर्यन्त घणुं लखायुं छे, लखातुं रडुं छे. पूर्वे भावनगरस्थ श्रीजैन-आत्मानन्दसभा द्वारा बृहत्तपागच्छीय श्रीसोमतिलकसूरिप्रणीत, राजसूरिंगच्छीय पण्डित श्रीदेवविजय विरचित वृत्तिथी अलङ्कत 'सप्ततिशतस्थानप्रकरणम्' नामनो ग्रन्थ प्रकाशित थयो छे. तेमां ऋषभादि २४ तीर्थङ्करना च्यवनादि पांच कल्याणकने आश्रयीने १७० स्थान देखाडवामां आव्या छे. ज्यारे प्रस्तुत ग्रन्थमां तेमांनां २७ स्थान वर्णववामां आव्यां छे. तदुपरांत, चक्रवर्ती, बलदेव-वासुदेव-प्रतिवासुदेव-अर्थात् ६३ शलाकापुरुषनी विशिष्ट माहिती, एवं ऐरवतक्षेत्रनां वर्तमान तथा आगामी २४ तीर्थङ्करोनां नाम, भरत क्षेत्रमा थनारा आगामी ६३ शलाकापुरुषनां नाम, २० विहरमान जिन, नारद, कुलकर विषयक अनेक स्थानोनुं निरूपण करवामां आव्युं छे. साथे ज स्वोपज्ञ टबो पण छे. तेथी आ कृतिनुं महत्त्व छे. आ ग्रन्थमां छन्द-अलङ्कार के काव्यनी विशिष्ट चमत्कृति जोवा नथी मळती. छतां जेओने शलाका पुरुषनी सामान्य जाणकारी मेळववी छे तेओने माटे आ उपयोगी ग्रन्थ छे.
प्रस्तुत ग्रन्थमा वर्णवायेलां स्थानोनो आ क्रम छे. - श्लोक स्थान ३-८२ वर्तमान २४ तीर्थङ्करोनां माता-पितानु नाम, वर्ण-एवं २७ स्थानोनुं
निरूपण.
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अनुसन्धान ४४
८३-१०१ महावीरप्रभुना ११ गणधरोनां १२ द्वारोनुं निरूपण. १०२-११४ १२ चक्रवर्तीओनां स्थानोनु वर्णन. ११५-१३५ ९-९ बलदेव-वासुदेवनां स्थानोनुं वर्णन. १३६-१३८ चक्रवर्तिओ कया तीर्थकरना शासनमां थया. १३९-१४१ वासुदेवो कया तीर्थङ्करना शासनमां थया. १४२-१४६ ऐरवतक्षेत्रमा वर्तता २४ तीर्थङ्करनां नाम. १४९-१५० भरतक्षेत्रमा थनारा २४ तीर्थङ्करनां नाम. १५१-१५३ भरतक्षेत्रमा वर्तमान २४ तीर्थंकरना पूर्वभवनां नाम १५८-१६१ भरतक्षेत्रमा थनारा चक्रवर्ति-बलदेव-वासुदेव-प्रतिवासुदेवनां नाम. १६२-१६८ ऐवतक्षेत्रमा थनारा २४ तीर्थङ्करोनां नाम. १६९-१७१ महाविदेहमा वर्तमान २० विहरमाननां नाम. १७२ ९ नपरदनां नाम. १७३-१७४ ११ रुद्रनां नाम. १७८-१८४ ७ कुलकरोतुं निरूपण.
अन्ते, आ बधां ज स्थानो समवाय-आवश्यकादि अनेक ग्रन्थोमांथी उद्धरीने अत्र एकत्रित कर्या छे, एम कर्ता लखे छे.
आ ग्रन्थनी रचना श्रीउत्तमऋषि नामना मुनिए विक्रमना १६८७ना वर्षे चैत्रशुद तेरसना दिवसे करी छे, तेम ग्रन्थनी आ गाथा -
विक्कमवच्छराओ य वसुअट्ठकालेण महुमासेणं ।
सियपक्खे तेरसी रइया उत्तमेण सुद्धेण ॥१८६।। द्वारा स्पष्ट थाय छे.
ग्रन्थकारनां नाम सिवाय तेमना गुरुनुं नाम, तेमनी परम्परा, कया स्थाने रचना करी-इत्यादि कोई ज वातनो उल्लेख मळतो नथी.
आ प्रति मुनिभक्तिविजय ज्ञानभण्डार (श्रीजैन-आत्मानन्द सभा) .. भावनगरथी प्राप्त थयेल छे. प्रतिनी झेरोक्स आपवा बदल भण्डारना कार्यकर्तानो आभार मानीए छीए.
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जून २००८ ॥६ ॥ उसभ१ अजिओर संभव३ अभिनंदण४ सुमई५ सुप्पभसुपासी ७ । ससि ८ पुष्पदंत ९ सीयल १० सिज्जंसो ११ वासुपुज्जो य १२ ॥१॥
__ ऋषभ अजित संभवनाथ अभिनन्दन सुमतिनाथ पद्मप्रभ सुपार्श्व चन्द्रप्रभ सुविधिनाथ शीतलनाथ श्रेयांस वासुपूज्य ॥१॥ विमल१३ मणंत य १४ धम्मो १५, संती १६ कुंथु १७ अरो य १८ मल्ली य १९ । मुणिसुव्वय २० नमि २१ नेमी २२, पासो २३ तह वद्धमाणो य २४ ।।२।।
विमलनाथ अनन्तनाथ धर्मनाथ शान्तिनाथ कुन्थुनाथ अरनाथ मल्लिनाथ मुनिसुव्रत नमिनाथ नेमिनाथ पार्श्वनाथ तथा वर्द्धमान चउवीसमा ॥२॥ १. जन्म-जिननगरीनाम - इखागभूमि१ ओज्जा२ सावत्थी३ विणीय ४ कोसलपुरं च ५ । कोसंबि६ वाणारसी७ चंद्राणण८ तह य कायंदी ९ ॥३॥
१. जिहां जिहां जन्म हूओ ते नगरी कहई छई. इक्षुनई क्षेत्रमांहि जन्म, अयोध्याई जन्म, सावत्थीइं जन्म, विनीताई जन्म, कोशलपुरनगरई जन्म, कोसम्बीनगरीइं जन्म, वाणारसीइं जन्म, चन्द्राननपुरइं जन्म, तथा काकन्दीइं जन्म. ॥३॥
भद्दिलपुरं १० सीहपुरं ११ चंपा १२ कंपिल्ल १३ अज्ज १४ रयणपुरं १५ । तिण्णेव गयपुरंमि १८ मिहिला १९ तह चेव रायगिहं २० ॥४॥
भद्दिलपुरई जन्म, सीहपुरइं जन्म, चम्पानगरी जन्म, कम्पिल्लपुर जन्म, अयोध्याइं जन्म, रतनपुरनगरई जन्म, १६,१७,१८ मानो गजपुरनगरइ जन्म, मिथिलाई जन्म, तथा निश्चइ राजगृहनगर जन्म. ॥८॥ मिहिला २१ सोरियनयरं २२ वाणारसी २३ तह य होइ कुंडपुरं २४ । उसभाईण जिणाणं जम्मणभूमी जहासंखं ॥५॥
मिथिलाई जन्म, सोरीपुर नगरई जन्म, वाणारसी जन्म, तथा छ। कुण्डणपुरई जन्म, ऋषभादि २४ तीर्थकरनी ए जन्मभूमि कही, यथा अनुक्रमइ. ||५||
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२ -मातानाम
मरुदेवी १ विजया सेणा३ सिद्धत्था ४ मंगला ५ सुसीमा य ६ | पुहवी ७ लखणा ८ रामा ९ नंदा १० विष्णु ११ जया १२ सामा १३ || ६|| २ - २४ जिननी माताना नाम कहइ छइ. मरुदेवीराणी, विजयाराणी, सेनाराणी, सिद्धार्थाराणी, मंगलाराणी, सुसीमाराणी, पृथिवीराणी, लक्ष्मणाराणी, रामाराणी, नंदाराणी, विष्णुराणी, जयाराणी, श्यामाराणी ॥६॥
सुजसा १४ सुव्वय १५ अइरा १६ सिरि १७ देवी य १८ पभावई १९ । पउमावई य २० वप्पा २१ सिवा २२ वामा २३ तिसलाई य २४ ॥ ७ ॥
अनुसन्धान ४४
सुजसाराणी, सुव्रताराणी, अचिराराणी, श्रीराणी, देवीराणी, प्रभावतीराणी, पद्मावतीराणी, वप्राराणी, शिवाराणी, वामाराणी, त्रिसलानामा राणी. ॥७॥
३- पितानाम
नाभी १ जियसत्तु य २ जियारी ३ संवरे य ४ मेहे ५ धरे ६ पइट्ठे य ७ । महसेण य ८ खत्तिए सुग्गीवे ९ दढरहे १० विण्हु ११ ॥८॥
३ - जिनना पिताना नाम कहइ छइ. नाभिराजा, जितसत्तुराजा, जितारी राजा, संवरराजा, मेघराजा, धरराजा, प्रतिष्ठितराजा, महसेनराजा क्षत्री, सुग्रीवराजा, दृढरथराजा, विष्णुराजा. ॥८॥
वसुपुज्जे य १२ खत्तिए कयवम्मो १३ सीहसेणे य १४ भाणू १५ । विस्ससेणे य १६ सूरे १७ सुदंसणे १८ कुंभे १९. ॥९॥
वसुपूज्यराजा क्षत्री, कृतवर्मनाम राजा, सहसेनराजा, भानुराजा, विश्वसेनराजा, सूरराजा, सुदर्शनराजा, कुंभराजा ॥९॥
सुमित्त २० विजए २१ समुद्दविजए य २२ ।
राया य अस्ससेणे २३ य सिद्धत्थे वि य २४ खत्तिए || १० |
सुमित्रराजा, विजयराजा, समुद्रविजयराजा, राजा अश्वसेननामा, सिद्धार्थनामा
क्षत्री. ॥१०॥
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४. जिनवर्णनाम
पउमाभा वासुपुज्जा रत्ता ससिपुप्फुदंत गोरा य । सुव्वयनेमी काला पासो मल्ली पिगाभा || ११ ||
४- जिन २४ना वर्ण कहइ छइ. पद्मप्रभ छट्टा वासुपूज्य बारमा ए २ रातिं वर्ण. चंद्रप्रभ सुविधिनाथ ए २ चंद्रमानी परि श्वेतवर्ण, मुनिसुव्रत नेमिनाथ कालइ वर्णइ. पार्श्वनाथ मल्लिनाथ ए नीलइ वर्ण. ॥११॥
वरकणगतवियगोरा सोलस तित्थयरा मुणेयव्वा । एसो वन्नविभागो चडवीसाए जिणवराणं ॥ १२ ॥
प्रधान सुवर्ण तपाव्यो तेहनी परिं पीलइ वर्ण शेष सोलसइ तीर्थंकरना देहनां वर्ण जाणिवा. ए वर्ण विचार सर्व चउवीस जिनवरना कह्या. ॥१२॥ ५- जिनावगाहनानाम
उसभो १ पंचधणुस्सय नव पासो २३ सत्त स्यणिओ वीरो २४ ।
• सेसट्ट ८ पंच ५ अट्ठय ८ पन्ना ५ दस १० पंच ५ राहीणा ॥१३॥
.
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पू- २४ जननउ देहमान कहइ छइ. ऋषभ पांचसय धनुष उत्सेध आंगुल ऊँचा. नव हाथना ऊँचा पार्श्वनाथ. सात हाथना ऊँचा श्रीमहावीरदेव चउवीसमा, बीजाथी आठलगिं, तथा दशमाथी पांच लगिं, पनरमाथी वली आठ जिन लगिंपंचास धनुष, दश धनुष, पांच धनुष. अनुक्रमइ त्रिहुं ठामे ओछा करीइं ||१३|| ६- जिनायु:
चउरासीई १ बिसत्तरि २ सट्ठी ३ पन्नास ४ मे (चे) व लक्खाई । चत्ता ५ तीसा ६ वीसा ७ दस ८ दो ९ एगं च १० पुव्वाई ॥१४॥
६- २४ जिनना आऊषो कहइ छइ. चउरासी लाख पूर्वनो आयु ऋषभनो, ७२ लाख पूर्वना आयु:, ६० लाख पूर्वनउ, पचास लाख पूर्वनउ आऊषओ निश्चइ, चालीस लाख पूर्वनउ, ३० लाख पूर्वनउ, २० लाख पूर्वनउ, दसलाख पूर्वनो, २ लाख पूर्वनो, एक लाख पूर्वनउ आयु दशमानो. ||१४||
चउरासीई ११ बावत्तरी य १२ सट्ठी य १३ होइ वासाणं । तीसा य १४ दस १५ एगं १६ एवम (मे) ए सयसहस्सा ॥ १५॥
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अनुसन्धान ४४
८४ लाख वरसनो, ७२ लाख वरसनो, ६० लाख वरसनउ आयुषओ होइ. ३० लाख वरसनउ, १० लाख वरसनउ, एक लाख वरसनो, इम एतलांनइ लाख वरसनो कहीयइं. ॥ १५ ॥
पंचाणउइ सहस्सा १७ चउरांसीई य १८ पंचवन्ना य १९ । तीसा य २० दस य २१ एगं २२ सयं च २३ बावत्तरी २४ चेव ॥ १६ ॥
पंचाणु सहस्त्र वरसनउ, चउरासी हजार वरसनउ, पंचावन हजार वरसनउ, ३० हजार वरसनउ, १० हजार वरसनउ, १ हजार वरसनउ, १०० वरसनउ, बहुत्तर वरसनो श्रीमहावीरनो निश्चइ. ॥१६॥
७- दीक्षातप
सुमतित्थ निच्चभत्तो निग्गओ वासुपुज्जो जिणो चउत्थेणं । पासो २३ मल्ली विय १९ अट्ठमेण सेसाओ छट्ठेणं ॥१७॥
७. दीक्षा लेता तप कितो कीधो. सुमतिनाथ जीमीनइ दीक्षा लीधी. नीकल्या वासुपूज्यजिन एक उपवास करीनइ. पार्श्वनाथ अनइ मल्लिनाथ अट्ठम करीनइ दीक्षा लीधी. शेष २० तीर्थंकरे बि उपवासे दीक्षा लीधी. ॥१७॥ ८. दीक्षाठाम
उसभो य १ विणीयाए बारवईए अरिट्ठवरनेमी |२२| अवसेसा तित्थयरा निक्खंता जम्मभूमीसु ॥ १८॥
८. दीक्षा केणइ ठामं लीधी ते कहइ छइ. ऋषभइ विनीतानगरीइ दीक्षा लीधी. द्वारिकानगरी नेमिनाथ दीक्षा लीधी. शेष बावीस तीर्थंकर नीकल्या जिहां जन्म हुआ तिणं नगरइ. ॥१८॥
९-दीक्षावननाम
उसभो १ सिद्धत्थवणं - मि वासुपुज्जो १२ विहारगेहंमि । धम्मो य १५ वप्पगाए नीलगुहाए मुणि २० नामो ॥१९॥
९ - दीक्षा जेणइ वनखंड लोधी तेहना नाम ऋषभइ सिद्धार्थवनइ. वासुपूज्य विहारगृहनइ विषइ. धर्मनाथ [----], नीलगुहानगरमइ वनखंडे मुनिसुव्रतइ दीक्षा लीधी ॥ १९ ॥
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आसमपयंमि पासो २३ वीरजिणंदो य२४ नायसंडंमि । अवसेसा निक्खंता सहसांबवणंमि उज्जाणे ॥२०॥
आश्रमपदवनखंड पार्श्वनाथइ. वीरजिनइ ज्ञातवनखंडनइ विषइ. शेष १८ तीर्थंकर नीकल्या सहस्रांबवन उद्याननइ विषइ. ॥२०॥ १०-दीक्षावेला
पासो २३ अरिट्ठनेमी २२ सेज्जंसो ११ सुमई ५ मल्लिनामो य १९ । पुव्वन्हे निक्खंता सेसा पुण पच्छिमन्हंमि ।।२१।। ।
१०-दीक्षा किण वेलाइं लीधी. पार्श्वनाथ, अरिट्ठनेमि, श्रेयांस, सुमतिनाथ, मल्लिनाथ एतला तीर्थंकर प्रभाते दीक्षा लीधी. शेष १९ तीर्थंकरइ वली पाछलि पहुरइ दीक्षा लीधी. ॥२१॥ ११-दीक्षापरिवार
एगो भगवं वीरो २४ पासो २३ मल्ली य १९ तिहिं २ सएहिं । भगवं पि वासुपूज्जो १२ छहि पुरिससएहि निक्खंतो ॥२॥
केतलां संघातइ दीक्षा लीधी ते कहइ छइ. एकाकीपणि दीक्षा लीधी श्रीमहावीरदेवइ. पार्श्वनाथ मल्लिनाथ ए २ त्रिण-त्रिण सय पुरुष साथइ. भगवंत वासुपूज्य छसय पुरुष संघाति नीकल्या. ॥२॥
उग्गाणं भोगाणं रायन्नाणं च खत्तियाणं च । चउहिं सहसेहिं उसभो १ सेसाओ सहस्सपरिवारा ॥२३॥
उग्रकुलना १०००, भोगकुलना १०००, राजाना कुलना १०००. क्षत्रीना कुलना १०००, ए च्यारि हजार संघातइ ऋषभदेवइ दीक्षा लीधी. शेष १९ जिन एकेक सहस्र नइ परिवार दीक्षा लीधी. ॥२३॥ १२-दीक्षावय
वीरो २४ अरिट्ठनेमी २२ पासो २३ मल्ली य १९ वासुपुज्जो य १२ । पढमवए पव्वईया सेसा पुण पच्छिमवयंमि ॥२४।। ।
१२-केही वय दीक्षा लीधी ते कहइ. श्रीवीर, नेमिनाथइ, पार्श्वनाथ, मल्लिनाथ, वासुपूज्य ए ५ जिन प्रथमवयनइ विषइ दीक्षा लीधी. शेष १९ तीर्थंकरे
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अनुसन्धान ४४
छेहली वयइ दीक्षा लीधी. ॥२४॥ १३-छद्मस्थकाल -
वाससहस्सं १ बारस २ चउद्दस ३ अट्ठार ४ वीस ५ वरिसाई । मासा छ ६ नव ७ तिन्नि य ८ चउ ९, तिग १० दुग ११ मेकग १२ दुगं
च १३ ॥२५॥ १३-२४ना छद्मस्थकाल कहइ छइ. एक हजार वरसनो ऋषभदेवनो. बार वरस बीजानो, १४ वरस छदमस्थपणो ३, १८ वरस ४नो, वीस वरसनो छद्मस्थपणओ पांचमानइ, छ मासनो, नवमासनो, त्रिणि मासनो, च्यार मासनओ, त्रिणि मासनओ, बि मासनो, एक मासनओ, दोय मासनो छद्मस्थपणो १३ नइ.
॥२५॥
ति १४ दु १५ एक्कग १६ सोलसगं १७ वासर तिन्नि य १८ तहेवहोरत्तं १९ । मासिक्कारस २० नवगं २१ चउप्पण्णदिणं य २२ चुलसीई २३ ॥२६।।
३ मासनो २, मासनओ, एक मासनओ, सोलइ मासनओ, त्रिणि दिननओ, तिमज एक दिननओ, मास इग्यारनो छद्मस्थपणओ, नव मासनो, चउप्पन दिननओ, चउरासी दिननओ. ॥२६।।
तह बारसवरिसाइं २४ जिणाण छउमत्थकालपरिमाणं । उग्गं च तवोकम्मं विसेसओ वद्धमाणस्स ॥२७||
तथा बार वरसनओ छद्मस्थपणओ महावीरदेवनओ. ए २४ जिननओ छद्मस्थपणाना कालनओ प्रमाण कहाओ. उत्कृष्ट तप कीधो विशेष थकी वर्द्धमानजिननो तप जाणिवओ. ॥२७।। १४-केवलोत्पत्तिवेला
तेवीसाए नाणं उप्पन्नं जिणवराण पुव्वन्हे । वीरस्स पच्छिमन्हे पमाणपत्ताए चरिमाए ॥२८।।
१४-केवलज्ञान केणी वेलाइं उपनो ते कहइ. प्रथम तेवीस जिननइ केवलज्ञान ऊपनो बि पुहर पहिला. श्रीमहावीरनइ बि पहर पछी ज्ञान ऊपनओ. पुरुषप्रमाण प्राप्त चरमपोरसीइं ऊपनो. ॥२८॥
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जून २००८
१५-केवलज्ञानस्थानम्-.
उसभस्स पुरिमताले वीरस्स जुवालीयानईतीरे । सेसाण केवलाई जेसुज्जाणेसु पव्वईया ॥२९||
केवलज्ञान केवइ ठामि ऊपनो ते कहइ छइ. ऋषभनइ पुरिमतालनगरइ ऊपनो. श्रीवीरनइ ऋजूवालिकानदीनई कांठइ. शेष २२ तीर्थंकरनइ केवलज्ञान जे उद्याननइ विषइ दीक्षा लीधी तिहां ऊपनो केवल. ॥२९॥ १६-केवलज्ञानतप
अट्ठमभत्तंमि य पासो २३ सह १ मल्ली १९ रिटुनेमीणं च २२ । वसुपुज्जस्स १२ चउत्थेणं छट्ठभत्तेणं सेसाणं ॥३०॥
१६-केवलज्ञान ऊपजतां केतलो तप हुँतो. अट्ठमभक्ततप पार्श्वनाथनइ, ऋषभनइ, मल्लिनइ, अरिठ्ठनेमिनइ तथा वासुपूज्यनइ चतुर्थभक्ततपइ केवल ऊपनो शेष १९ तीर्थंकरनइ छट्ठभक्ततपइ केवल ऊपनो. ॥३०॥ १७-साधुसंख्या
चुलसीइं च सहसा(स्सा) १ एगं च २ दुवे य ३ तिन्नि लक्खाइं ४ । तिन्नि य वीसहियाई ५ तीसहियाई च तिन्नेव ६ ॥३१॥
१७-२४नी साधुसंख्या कहइ छइ. चउरासी हजार साधु श्रीऋषभदेव नइ. एक लाख २ नइ. बि लाख ३ नइ. त्रिणि लाख साधु ४ नइ. त्रिणि लाख ऊपरि वीस हजार साधु पांचमानइ. तीस हजार सहित त्रिणिलाख छट्ठानइ. ॥३१॥ तिन्नि य ७ अढा(ड्ढा)इज्जा ८ दुवे य ९ एगं च सयसहसा(स्सा)इं १० । चुलसीइं च सहसा(स्सा) ११ बिसत्तरं १२ अट्ठस४ि च १३ ॥३२।।
तीन लाख साधु [७मानइ] अढाइ लाख साधु ८ मानइ, बि लाख साधु ९ मानइ, एक लाख साधु दशमानइ, चउरासी हजार साधु इग्यारमानइ, ७२ हजार साधु, अडसठहजार साधु. ॥३२॥
छावढेि १४ चउस४ि १५ बावढेि १६ सढेि १७ मे(चे)व पन्नासं १८ । चत्ता १९ तीसा २० वीसा २१ अट्ठारस २२ सोलसहसा य २३ ।। ३३||
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अनुसन्धान ४४
छासठ्ठि हजार साधु, चउसठ्ठि हजार साधु, बासठ्ठि हजार साधु, साठी हजार साधु, इम पचीस हजार साधु, ४० हजार, २० हजार, अट्ठारइ हजार, सोलइ हजार साधु ॥३३॥
चउद्दसयसहसाइं जिणाण जईसीससंग्गहपमाणं । अज्जीसंग्गहमाणं उसभाईण अओ वुच्छं ॥३४||
चउदइ हजार साधु श्रीवीरनइ. जिन २४ना यतिनी संख्या जाणिवी.
हिवइ आर्याना संग्रहनो प्रमाण कहइ. ऋषभादि २४ जिनना आगलि कहस्यउं. ॥३४॥ १८. साध्वीसंख्या -
तिन्नेव य लक्खाइं १ तिन्नि य तीसाइं २ तिन्नि छत्तीसा ३ । तीसा य छच्च ४ पंच य तीसा ५ चउरो य वीसाइं ॥३५।।
१८-आर्यानी संख्या कहइ छइ. त्रिणि लाख आर्या ऋषभदेवनी. त्रिणि लाख बीस हजार आर्या अजितनी. त्रिणि लाख छत्रीस हजार. त्रीस हजार सहित छ लाख. पांच लाख तीस हजार. च्यार लाख वीस हजार साधवी ६ नइ. ॥३५॥
चत्तारि य तीसाइं ७ तिन्नि य असीयाई ८ तिन्हमत्तो य ९ । वीसुत्तर १० छलहियं ११ तिसहसहियं च १२ लक्खं च १३ ॥ ३५।।
च्यार लाख त्रीस हजार आर्या ७ नइ. त्रिणि लाख अनइ असी हजार. त्रिणि लाख साधवी ९ नइ. ३ लाख वीस हजार. ३ लाख छ हजार. त्रिण हजार सहित त्रिणि लाख. एक लाख १३मा नइ. ॥३६।।
लक्खं अट्ठसयाणि य १४ बावट्ठीसहस चउसय समग्गा १५॥ एगट्ठी छच्चसया १६ सट्ठिसहसा सया छच्च १७ ॥३७||
एक लाख अनइ आठ सय १४मा नइ. बासठि हजार ऊपरि च्यारि सय साधवी १५मा नइ. इकसठि हजार अनइ छ सय. साठि हजार अनइ ६०० साधवी १७मा नइ. ॥३७|| सट्ठि १८ पणपन्न १९ पन्ने २० गं २१ चत्तचत्ता २२ तहय अट्ठतीसं २३ च । छत्तीसं च सहसा २४ अज्जाणं संग्गहो एसो ॥३८॥
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साठि हजार, पंचावन हजार, ५० हजार एकतालीस हजार चालीस हजार. तिमज अत्रीस हजार. छत्रीस हजार आर्या चउवीसमा नइ. आर्यानओ संग्रह जाणिवो. ॥३८॥
चउयालीसं लक्खा बायालसहस चउसय समग्गा । छच्चेव अज्जियाओ अज्जाणं संग्गहो एसो ||३९||
सर्वजिननी आर्या केती-चउयालीस लाख बइतालीस हजार ऊपरि च्यारि सय ऊपरि वली छ आर्या. सर्वजिननी आर्यानओ संग्रह जाणिवउ. ||३९||
१९ - गणधर संख्या
चुलसीई १ पंचनउई २ बिउत्तरं ३ सोलसुत्तर ४ सयं च ५ । सत्तहियं ६ पणनउई ७ तेणउई ८ अट्ठसीई य ९ ॥४०॥
१९ - हिव २४ जिनना गणधरनी संख्या ८४ गणधर ऋषभनइ. पंचाणु गणधर २ नइ. १०२ गणधर ३ नइ ११६ गणधर ४ नइ. एकसउ गणधर ५. नइ. एक्सो सात गणधर ६. पंचाणु गणधर ७ नइ त्रेयाणुं गणधर ८ अट्ठयासी
गणधर ९मा नइ ॥४०॥
एक्कासीइ १० छावत्त- री य ११ छावट्टी १२ सत्तवन्ना य १३ । पन्ना १४ तेयालीसा १५ छत्तीसा १६ चेव पणतीसा १७ ॥४१॥
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८१ गणधर १० मा नइ छहत्तर गणधर ११मा नइ छासठि गणधर . सत्तावन गणधर १३मा नइ. पंचास गणधर तेयालीस गणधर १५ मा नइ. छत्रीस गणधर तथा पइंत्रीस गणधर ॥ ४१ ॥
तित्तीस १८ ऽट्ठावीसा १९ अट्ठारस २० चेव तहय सत्तरस २१ । इक्कारस २२ दस २३ नवगं २४ गणाण माणं जिणिदाणं ॥ ४२ ॥
तेत्रीस गणधर अट्ठावीस गणधर १९मा नई. अट्ठाइस गणधर २० तिमज. सत्तरि गणधर २१मा नइ. इग्यारस गणधर २२मा नइ. दश गणधर. नव गणधर वीर नइ ए गणनो मान जिनेंद्रना. ॥४२॥
इक्कारसउ गणहरा जिणस्स वीरस्स सेसयाणं तु । जावइया जस्स गणा तावइया गणहरा तस्स ||४३||
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अनुसन्धान ४४ इग्यारइ गणधर श्रीजिनवीरनइ. शेष तीर्थकरनइ जेतला जेहनि गण तेतला ज गणधर तेहना. ॥४३।। २०-प्रथम भिक्षाठाम
हत्थिपुरंमि १ अओज्जा २ सावत्थी ३ चेव तह य साएयं ४ । विजयपुर ५ बंभथलयं ६ पाडलिसंडं ७ पउमसंडं च ८ ॥४४॥
२०-दीक्षा लेई प्रथमभिक्षा केणइ ठामि लीधी ते कहइ. हस्तिपुर नगरनइ विषइ १. अयोध्यानगरइ. सावत्थीइं तिमज साकेतपुरइ. विजयपुरनगरइ. ब्रह्मस्थल नगरइ. पाडलीखंडग्रामइ. पद्मखंडग्राम. ॥४४||
सीहपुरं ९ रिट्ठपुरं १० सिद्धत्थपुरं ११ महापुरं १२ चेव । धन्नकड १३ वद्धमाणं १४ सोमणसं १५ मंदरं १६ चेव ॥४५।।
सिंहपुरनगरइ. रिष्टपुरनगरइ. सिद्धार्थपुरनगरइ. महापुरनगरइ. निश्चइ, धनकटकपुरइ. वर्धमानपुरइ. सोमनसनगरइ. मंदरपुरइ निश्चय. ॥४५॥
चक्कपुरं १७ रायपुरं १८ मिहिला १९ रायगिह २० मेव बोधव्वं । वीरपुरं २१ बारवई २२ कोइकडं २३ कुल्लयग्रामो २४ ॥४६।।
__ चक्रपुरइ. राजपुरइ. मिथिलाइं. राजगृहनगर पारणो कीधो. वीरपुरइ. द्वारकाई. कोइकटनगरइ. कुलाकग्रामइ पारणो कीधो. ॥४६।।
एएसु पढमभिक्खा लद्धा उ जिणवरेहिं सव्वेहिं । दिनाओ जेहि पढमं तेसिं नामाणि वुच्छामि ॥८७॥
ए पूर्वोक्त नगरनइ विषइ प्रथमभिक्षा लीधी सगले तीर्थंकरे. दीधी जेण कुमारइ तेहना नाम कहुं ।।८७|| २१-प्रथमभिक्षादातार:
सिज्जंस १ बंभदत्तो २ सुरिंददत्तो ३ इंददत्तो य ४ । पउमे य पू सोमदेवे ६ महिंद ७ तह सोमदत्ते य ८ ॥ ४८||
२१-प्रथमभिक्षाना दातार कहइ छइ. प्रथम श्रेयांस कुमरइ. ब्रह्मदत्तकुमर. सुरिंद्रदत्तकुमर. इंद्रदत्तकुमर. पदमकुमर. सोमदेवकुमर. माहिंद्रकुमर. सोमदत्तकुमर. ॥४८॥
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पुस्से ९ पुणव्वसू १० पुण नंद ११ सुदंसणे १२ जए य १३ विजए य १४ । तत्तो य धम्मसीहे १५ सुमित्त १६ तह वग्घसीहे य १७ ॥४९।।
पुष्पकुमर. पुनर्वसूकुमर. वली नंदकुमर. सुनंदकुमर. जयकुमर. विजयकुमर. तिवार पछी धर्मसिंहकुमर. सुमित्रकुमर. तिमज व्याघ्रसिंहकुमर. ॥४९||
अपराजिय १८ विससेणे १९ वीसइमे होइ बंभदत्ते य २० । दिने २१ चरदिन्ने २२ पुण धन्ने २३ बहुले य २४ बोधव्वे ॥५०॥
____ अपराजितकुमर. विश्वसेनराजाई. वीसमानइ ब्रह्मदत्तकुमरइ भिक्षा दीधी. दिन्नकुमार, वरदिन्नकुमार. वली धनकुमार. बहुल ब्राह्मण ए २४ना नाम ॥५०॥
सव्वेहि पि जिणेहि य जहियं लद्धाओ पढमभिक्खाओ । तहिय वसुहाराओ वुट्ठाओ पुप्फवुट्ठीओ ॥५१॥
सगले तीर्थंकरे जिहां लीधी प्रथमभिक्षा तिहां सौवर्णधारानओ वरसात फूलवरसात हूओ. ॥५१॥
अद्धतेरसकोडी उक्कोसा तत्थ होइ वसुहारा । अद्धतेरसलक्खा जहनिया होइ वसुहारा ||५२॥
साडा बार क्रोड सोनईया उत्कृष्टा तिहां होई सोवर्णनी धारा. साडी बार लाख सोनईयानी जघन्य एहिं होइ सोवर्णनी धारा. ॥५२॥
सव्वेसि पि जिणाणं जेहिं दिन्नाओ पढमभिक्खाओ । ते पयणुपेज्जदोसा दिव्वपरक्कमा जाया ॥५३।।
सगले प्रथम दातारे जिननइ जिहां दीधी प्रथमभिक्षा ते सर्वदातार पातला राग-द्वेषना धणी देवता संबंधी प्रधान प्राक्रमवंत हुआ. ॥५३।।
केई तेणेव भवेण निव्वुया सव्वकम्मओ मुक्का । केई तईयभवेणं सिज्झिसं(स्स)ति जिणसगासे ॥५४॥
केतलाएक दातार तेणिज भवि सीध्या, सर्व कर्मथी विमुक्त थया. केईएक त्रीजइ भवि सीझसीइ तीर्थंकरनइ समीपइ. ॥५४|| २२-निर्वाणतप:
निव्वाणमंतकिरिया सा चउदसमेण पढमनाहस्स १ । सेसाणं मासिएणं २२ वीरजिणिदस्स छटेणं ॥५५॥
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अनुसन्धान ४४
२२. संथारो केटलां कीधो. मुक्ति जातां अंतक्रियानओ तप. ते सात दिननी अंतक्रिया प्रथम तीर्थंकर कीधो. शेष २२ तीर्थंकरो मासनो तप. श्रीवीरजिनेंद्रइ बि दिन संथारो. ॥५५॥ २३-निर्वाणस्थान
अट्ठावयं १ चंपु रज्जल पावा २ सम्मेय ४ सेलसिहरेसु । उसभ १ वसुपुज्ज १२ नेमी २२ वीरो २४ सेसा य २० सिद्धिगया ॥५६।।
२३-किण ठामि मुक्ति पहुता. अष्टापद पर्वतइं ऋषभदेव. चंपाइं वासुपूज्य. गिरनार नेमिनाथ. पावाइं वीर. समेतशिखर पर्वतइ वीस जिन सीधा. ऋषभ १. वासुपूज्य १२. नेमिनाथ २२. वीर २४. शेष २० एतला. एतला अनुक्रमि पूर्वला पदिसूं मेलीइं. ॥५६।। २४
एगो भगवं वीरो २४ तेत्तीसाए सह निव्वुओ पासो २३ । बत्तीसाएहिं पंचहि सएहिं नेमी गओ सिद्धिं ।।५७।।
एकला भगवंत वीर मुक्ति पोहता. तेत्रीस मुनि संघातिं पार्श्वनाथ सीधा. पांच सय बत्रीस संघाति नेमिनाथ पाम्या सिद्धिनइ. ||५७||
पंचहिं समणसएहिं मल्ली १९ संती उ १६ नव सएहिं तु । अट्ठसएणं धम्मो १५ सएहिं छहिं वासुपुज्जजिणो ॥५८।।
पांच सय मुनि संघातइ मल्लिनइ मुक्ति. शांतिनाथ नव सय मुनि साथइ. आठ सय मुनि साथि धर्मनाथ मोक्ष पोहता. छ सय मुनि संघातइ वासुपूज्यजिन मोक्ष पोहता. ११५८॥
सत्तसहसा णंतईय जिणस्स १४ विमलस्स १३ छसहसाई । पंचसयाई सुपासे ७ पउमाभे ६ तिन्नि अट्ठसया ||५९।।
सात सहस्र मुनि साथइ अनंतनाथ १४मा मोक्ष पोहता. विमलनाथ छ हजार मुनि साथइ मोक्ष पोहता. पांच सय मुनि साथि सुपार्श्व मोक्ष पोहता. पद्मप्रभु त्रिणि हजार अनइ आठसय साथइ मोक्ष पोहता ॥५९॥
दसहिं सहसेहिं उसहो १ सेसाओ सहसपरिवुडा सिद्धा । कालाई जं न भणियं पढमाणुओगतो नेयं ॥६०||
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दस हजार संघातिं श्रीऋषभदेव संथारो कीधो. शेष १२ तीर्थंकर ऐकेका सहस्र साथि सीधा. आउषादि सहू नाम कह्या (न कह्या ?) जे ते प्रथमानुयोग सूत्रथी जाणिवा. ॥६०॥ २५. जिनानाम् अंतरकालप्रमाणम्
पन्नासा लक्खेहिं कोडीणं सागराणं उसभाओ । 'उप्पन्नो अजियजिणो तईओ तीसाइ लक्खेहिं ॥६१॥
२५. सर्वजिनना आंतरा कहइ छइ. पचास लाख क्रोड सागरनइ आंतरइ श्रीऋषभथी उपना अजितनाथ. बीजा थकी त्रीजो त्रीस[लाख] कोडि सागर हुआ.
जिणवसभसंभवाओ दसहिओ लक्खेहि अयरकोडीणं । अभिनंदणाओ भगवं एवईकालेण उप्पन्नो ॥६२।।
जिनमध्ये वृषभसमान संभव थकी दश लाख कोडि सागरनइ अंतरइ हूया श्रीअभिनंदन भगवंत ४ एतति कालिं ऊपना ॥६२॥
अभिनंदणाओ सुमई नवहि उ लक्खेहिं अयरकोडीणं । उप्पन्नो सुहपुत्तो सुप्पभनामस्स वुच्छामि ॥६३।।
अभिनंदन थकी सुमतिनाथ नव लाख कोडि सागरनइ अंतरइ ऊपनो. शुभपुण्यना धणी पद्मप्रभनाम जिननओ कहू. ॥६३।।
नउई य सहसे(स्से)हिं कोडीणं सागराणं पुन्नाणं । सुमईजिणाओ पउमो एवईकालेण उप्पन्नो ॥६४||
नेऊ हजार कोडिसागरइ जाते हुंतई संपूर्ण सुमतिनाथ थकी पद्मप्रभु एतलइकालिं ऊपनो. ॥६४॥
पउमपहनामाओ नवहिं सहसेहिं अयरकोडीणं । कालेणेवइएणं सुवासनामो समुप्पन्नो ॥६५।।
पद्मप्रभ छट्ठा जिन थकी नव हजार कोडी सागर एतलइ काल जातां सुपार्श्वनामा सातमा तीर्थंकर ऊपना. ॥६५।।
कोडीसएहिं नवहिं सुपासनामो जिणो समुप्पन्नो । चंदप्पभो पभाए पभासयंतो य तिलुकं ॥६६।।
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अनुसन्धान ४४
नव सय कोडि सागर सुपार्श्व सातमा तीर्थंकर थकी ऊपना. चंद्रप्रभ आठमा तीर्थंकर प्रभाई करी प्रकास करता हूया त्रिणि लोकनइ. ॥६६।।
नउईहिं कोडीहिं ससीओ सुविही जिणो समुप्पन्नो । सुविहि जिणाओ नेवहिं कोडीहिं सीयलो जाओ ॥६७।।
नेऊ कोडि सागरे चंद्रप्रभ थकी सुविधिनाथ तीर्थंकर हूया. सुविधिनाथ थकी नव कोडी सागर सीतलनाथ हूया. ॥६७||
सीयलजिणाओ भगवं सिज्जंसो सागराण कोडीए । सागरसयऊणाए वरिसेहिं तहा इमेहिं च ॥६८।।
सीतलनाथ जिन थकी भगवंत श्रेयांस कोडि सागर ते मध्ये एतला ऊणा कीजइ. एकसओ सागर अनइ वरस केतला ते आगलि कहिस्सइ. ॥६८।।
छव्वीसाए सहसेहिं चेव छावट्ठिसयसहसेहिं । एएहिं ऊणिया खलु कोडीमग्गिलि(ल्लि)या होइ ॥६९॥
छव्वीस हजार वरसे ऊणा वली बासठि लाख वरसे करी एतले वरसे ऊणा निश्चइ कोडि १ सागर पूर्वलानो अंतरो होइ. ॥६९।।
चउप्पन्ना अयराणं सिज्जंसाओ जिणाओ वसुपुज्जो । वसुपुज्जाओ विमलो तीसहि अयरेहिं उप्पन्नो ॥७०।।
चउपन्न सागर अंतरो श्रेयांसनाथ थकी जिन वासुपूज्य हूवा. वासुपूज्य थकी विमलनाथ त्रीसे सागरे ऊपना. ॥७०।।
विमलजिणो उप्पन्नो नवहि य अयरेहिं णंतई जिणाओ । चउसागरनामेहि अणंतईओ जिणो धम्मो ॥१॥
विमलजिन थकी ऊपना नव सागरे अनंतनाथ जिन हूया. चिहुं सागरे अनंतनाथ थकी धर्मनाथ हूया. ॥७१।।।
धम्मजिणाओ संती तिहिओ तिचउभागपलियऊणेहिं । अयरेहिं समुप्पन्नो पलियद्धेणं तु कुंथुजिणो ।।७२।।
धर्मनाथ थकी शांतिनाथ पल्यना ४ भाग करीइं तेमांहि लइ एक चउथि भाग ऊणो एटलिं कुणो पल्यनो तीन सागर अनइ, एतले सागर ऊपना शांतिनाथ.
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शांतिनाथ थकी अद्धपल्य कुंथुनाथ हूया. ॥७२॥
पलियचउब्भागेणं कोडीसहस्सूणएण वासाणं । कुंथुओ अरनामा कोडीसहस्सेण मल्लिजिणो ॥७३॥
पल्य १ नो चउथो भाग एतलाइ कालइ एक हजार कोडि वरसे ऊणा कुंथु थकी अरनाथ हूया. अर थकी एक हजार कोडि वरसे मल्लिनाथ हूवा. ॥७३।।
मल्लिजिणाओ मुणि सु-व्वओ य चउप्पन्नवासलक्खेहि । सुव्वयनामाओ नमी लक्खेहिं छहिं उप्पन्नो ॥७४||
मल्लिनाथ थकी मुनिसुव्रत चउपन्न लाख वरसे हूया. सुव्रत थकी नमिनाथ छ लाख वरसे ऊपनो. ॥७४।।
पंचहि लक्खेहिं तओ अरिट्ठनेमीजिणो समुप्पन्नो । तेसीहिं सहसेहिं सएहिं अट्ठमेहिं च ।।७५।।
नेमिनाथ थकी पंचलाख वरसे तिहांथी नेमिनाथ २२ जिन ऊपनो. नेमिनाथ थकी त्र्यासी हजार वरसे उपरि साढा सात सय वरसे गयई हुंतइ. ।।७५।।
नेमीओ पासजिणो पासजिणाओ य होइ वीरजिणो । अड्ढाइच्चसएहिं गएहि चरिमो समुप्पन्नो ॥७६।।
नेमिनाथ थकी पार्श्वनाथ हवा. पार्श्वजिन थकी हया श्रीवीरजिन अढाइसय वरसे गए हुंतइ चरमजिन ऊपना. ॥७६।। २६. प्रथमशिष्यनाम
चउवीसजिणवराणं पढमसीसा य उसभसेणो य १ । बीओ य सीहसेणो २ चारू ३ पुण वज्र(ज्ज)नाभो य ४ ॥७७॥
२६-प्रथम शिष्यना नाम कहइ छइ. चउवीस जिनवरना प्रथम शिष्यना नाम. ऋषभसेन पहिलो १ बीजओ सिंहसेनमुनि. चारुमुनि ३. वली वजनाभ ४.
॥७७॥
चमरो ५ सुव्वय ६ छट्ठो विदब्भ ७ दिनो ८ वराह ९ आणंदो १० । गोत्थूभ ११ सुहम १२ मंदिर १३ जसो १४ रिट्ठो य १५ पंचदसओ ॥७८॥
चमरमुनि ५. सुव्रतनामा ६. वैदर्भमुनि ७. दिनमुनि ८. वाराह ९.
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अनुसन्धानं ४४ आणंदमुनि १०. गोस्तूभमूनि ११. सौधर्ममुनि १२. मंदिरमुनि १३. जसवंतमुनि १४. रिष्टमुनि पंदरमओ. ॥७८||
चक्का१६ऽऽउह १७ सयंभू १८ कुंभो १९ भिसओ य २० इंदकुंभो य २१ । वरदत्त २२ अज्जदिन्नो २३ चरमस्स य इंदभूई य २४ ॥ ७॥
चक्रमुनि. आउधमुनि. स्वयंभूमुनि. कुंभमुनि. भिषकमुनि. इंदकुंभमुनि. वरदत्तमुनि. आर्यदिनमुनि. चरमतीर्थकरनइ इंद्रभूतिमुनि. ॥७९।। २७-प्रथमशिष्यणीनाम
चउवीसजिणवराणं पढमा सिसिणी अहाणुपुव्वीए । बंभी १ फग्गू २ सामा ३ अइराणी ४ कासवी ५ रईया ६ ॥८०।।
२७-प्रथमशिष्यणी नाम कहइ छइ. चउवीस तीर्थंकरनी प्रथम शिष्यणीना नाम यथा अनुक्रमइ. ब्राह्मी. फल्गु. श्यामा. अतिराणी. काश्यपी. रंजिता. ॥८०।। सोमा ७ सुमणा ८ वारुणी ९ सुलसा १० धारणी ११ भवे य धरणी य १२ । धरणिधरा तेरसमा १३ पउमा य १४ सिवा १५ सूई १६ अज्जू १७ ॥ ८१।।
सोमा. सुमनासाधवी. वारुणी. सुलसा साध्वी. धारणी होइ. धरणी साधवी. धरणीधरा तेरमी. पद्मा. सिवा. सूची. अंजू. ॥८१॥
भावियप्पा रक्खिय १८ बंधू १९ पुप्फवई २० होइ वीसइमो । अज्जा धणिला २१ जक्खिणि २२ पुप्फचूलाओ २३ चंदणया २४ ॥८२॥
भाव्यो छि आत्मा जेणीइ रक्षिका. बंधू. पुष्पवती वीसमी होइ. साधवी धनिला यक्षिणी साधवी. पुष्पचूला साधवी. चउवीसमी चंदनबाला. ॥८२।। २८. इदानीं श्रीवीरगणधरनामानि
नाम १ गाम २ नक्खत्ता ३ पिउ ४ गुत्त ५ मगार ६ छउमत्थ ७ । परियाओ ८ केवलीयाओ ९ आगम १० परिनिव्वाण ११ तवो १२ कमेणं ॥८३।।
२८ हिवइ गणधरना १२ द्वार अनुक्रमइ कहइ छइ. नामद्वार. ग्रामद्वार. केणइ नक्षत्रइ जन्म ते द्वार. पिता द्वार. गोत्रद्वार. गृहवासकाल. छद्मस्थकालद्वार. प्रव्रज्याकाल. केवलप्रव्रज्याकाल. सिद्धांत भण्यानो. निर्वाणद्वार. तपप्रमाण. अनुक्रमइ. ।।८३॥
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२९ श्रीवीरगणधर -
सिरिवद्धमाणगणा इंद १ अग्गी २ वाउभूई ३ तीओ य । होइ वियत्तो ४ सुहमो ५ मंडिय ६ मोरिय ७ भवेत्ता ॥८४॥
२९. श्रीवर्द्धमानस्वामीना गणधर श्रीवर्द्धमानना गण. इंद्रभूति अग्निभूति. वायुभूति त्रीजओ. व्यक्तस्वामी सुधर्मास्वामी. मंडित. मौर्यपुत्र हूया. ॥ ८४ ॥ अट्टमओ अकंपिओ पि य ८ नवमो भवे तह अचलभाया य ९ । मेयज्जो य १० पहासो ११ गणहरा हुंति वीरस्स ॥ ८५ ॥
३०- ग्रामनाम
मगहा १ गोबरग्रा (ग्गा) मे जाया तिन्नेव गोयमसगुत्ता । कुल्लागसन्निवेसे ३ जाओ वियत्तो ४ सुहमो (म्मो) य ५ ॥८५॥
३०-ग्राम नाम कहइ छइ. मगधदेश - गोबरग्रामइ त्रिणि भाई हूया. त्रिणि भाई गौतमगोत्रना. चउथो कोलाकसन्निवेसइ जन्म व्यक्तस्वामी सुधर्मास्वामी.
॥८६॥
मोरीयसन्निवेसे दो भायरो मंडियमोरिया ७ जाया ।
अचलो य ८ कोसलाए मिहिलाए ९ अकंपिओ जाओ || ८७॥
मोरीय सन्निवेसइ बे भाई मंडित - मौरीपुत्र जन्म हूया. एक अचल ग्रामइ
बीजो कोशलापुरइ. मिथिलाई अकंपित जन्म्या. ॥८७॥
८५
तुंगीइ सन्निवेसो (से) मेयज्जो १० वच्छभूमीए जाओ । भयवं पि [य] प्पभासो ११ रायगिहे गणहरो जाओ ॥८८॥
तुंगीया नगरीइं मेतार्यस्वामी वच्छभूमिकाई जन्म. भगवंत प्रभास नामि गणधर राजगृहनगरीइं गणधर जन्म्या. ॥८८॥
३१ - जन्मनक्षत्र
ट्ठा १ कित्तिय २ साई ३ सवणो ४ हत्थुत्तरा ५ महाओ य ६ । रोहिणी ७ उत्तरासाढा ८ मिगसिरि ९ तहय असण १० पुसो ११ ॥८९॥
३१-नक्षत्रनाम कहइ छइ. जयेष्टा नक्षत्रइ जन्म. कृत्तिकाई. स्वाति. श्रवण. उत्तराफाल्गुनी. मघानक्षत्रई. रोहिणी. उत्तराषाढानक्षत्रइ. मृगशिर तिमज
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अश्विनी. पुष्पनक्षत्र. ॥८९॥ ३२-पिता नाम -
वसुभूई ३ धणमित्ते ४ धमिल ५ धणदेव ६ मोरिए ७ चेव । देवे ८ वसू य ९ दत्ते १०. बले य ११ पियरो गणहराणं ॥९०||
३२-पिता नाम. वसुभूति प्रथम ३नो पिता. धनवंत मित्र. धम्मिल्ल ब्रा. धनदेव, मोरिय, निश्चइं. देवनाम, वसूनाम. दत्तनाम. बलनामि ए पिता गणधरोना. ॥९०|| ३३-माता नाम
पुहवी य ३ वारुणी ४ भद्दिला य ५ विजयादेवी ६ तहा जयंती य ८ । नंदा य ९ वरुणदेवी १० अइभद्दा य ११ मायरो ॥११॥
३३-माताना नाम कहइ छइ. पृथिवीमाता ३ नी माता. वारुणी. भद्दिलामाता. विजयादेवी माता. तथा जयंतीनामइ. नंदामाता. वारुणीदेवी, अतिभद्रामाता ए ११ गणधरनी माता. ॥११॥ ३४-गणधरगोत्र -
तिन्नि य गोयमगोत्ता ३ भारदा ४ अग्गिवेस ५ वासिट्ठा ६ ।
कासव ७ गोयम ८ हारीय ९ कोडिन्नदुगं च ११ गोत्ताई ॥९२।। ___ ३४-गणधर ११ ना गोत्र कहइ छइ. प्रथम त्रिणना गौतम गोत्र. भारदायन गोत्र. अग्निवैश्य गोत्र. वाशिष्ट गोत्र. काश्यपगोत्र. गौतम गोत्र. हारीत गोत्र. छेहला २ ना कौडिन्य गोत्र कहाओ. ॥९२।। ३५-गृहवासकालमान
पन्ना १ बायालीसा २ बायाला ३ होइ पनपन्ना य ४ । तेवण ५ पंचसट्ठी ६ अडयालीसा य ७ बायाला ८ ॥ ९३||
३५. घरमां केतला काल रह्या ते कहइ छइ. ५० वरस गौतम. बइतालीस वरस. बइतालीस वरस होइ. पंचावन वरस. त्रेपन्न वरस. पइंसट्ठि वरस. अडतालीस वरस. बइतालीस वरस. ॥१३॥
छत्तीसा १० सोलसग्गं ११ अगारवासो भवे गणहराणं । छउमत्थपरियागं अहकम्मं कित्तइस्सामि ॥९४।।
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छत्रीसवरस, सोलइवरस. एतलो घरमांहे रहवानो काल गणधरोनो. हिवइ छद्मस्थ प्रव्रज्या यथाक्रमइ कहिस्यउं ।।९४।। ३६-छद्मस्थकालमानतीसा १ बारस २ दसगं ३ बारस ४ बायाल ५ चउदसदुगं च ७ । नवगं ८ बारस ९ दस १० अट्ठगं च ११ छउमत्थपरियाओ ।।९५।।
३६-छद्मस्थ द्वार कहइ छइ. तीस वरस. बार वरस. दश वरस. बार वरस. बइतालीस वरस. छेवट्ठा-सातमानइं १४ वरस. नव वरस. बार वरस. दश वरस. आठ वरस. एतलो काल छद्मस्थपणइ रह्या. ॥९५।। ३७ केवलपर्यायप्रमाणं
बारस १ सोल २ अट्ठार ३ अट्ठारसेव ४ अद्वैव ५ सोलस ६ । सोलसि ७ गवासा ८ चउ-दस ९ सोले य १० सोले य ११ ॥९६।।
३७-केवलपर्याय द्वार कहइ छइ. बार वरस लगि. सोल वरस. अढार वरस. आठ वरसलगिं. आठ वरस. सोलइ वरस. सोलइ वरस. लगिं. इगवीस वरस लगई. चउदस वरस लगइं. सोलइ वरस लगि. सोलवरस लगइ. ॥९६।। ३८.-सर्वायु
बाणउई चउहत्तरि २ सत्तरि ३ ततो भवे असिईया ४ । एगं च सयं ५ ततो तेसीइ ६ पंचनउई य ७ ॥९७||
३८-सर्व आऊषो केतलो. बाणुं वरस पहिलानउ. चउत्तरि वरस. सत्तर वरस. तिवार पछी असी वरस. एकसो वरस. तिवार पछी त्र्यासी वरस. पंचाणु वरस सातमानो. ॥९७॥
अट्ठत्तरं च ८ वासा ततो बावत्तरिं च ९ वासाइं । बावट्ठी १० चत्त ११ खलु सव्वे गणहराऊय एय ॥९८।।
अट्ठहुत्तरि वरस. तिवार पछी बहुत्तरि वरस. बासट्ठि वरस. चालीस वरस निश्चइ. सर्वगणधरना आऊषो कह्या. ॥९८॥
सव्वे वि माहणा जच्चा सव्वे अज्झावया विऊ । सव्वे दुवालसंगी य सव्वे चउद(६)सपुव्विणो ॥९९।।
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अनुसन्धान ४४
सगलाई गणधर ब्राह्मण जातिना. सगलाई अध्यापक, पंडित. सगलाई बार अंगना जाण. चउदस पूर्वना जाण. ॥९९।।
परिनिव्वुया गणहरा जीवंते नायए नवजणाओ । इंदभूई सुहम्मे य रायगिहे निव्वुए वीरे ॥१००।।
सगलाई सीधा गणधर जीवतां न्यातिपुत्र वर्धमानने नव गणधर. इंद्रभूति सुधर्म राजगृह नगरइ सघलाइ मुक्ति पोहता. ॥१००।।
मासं पाओवगया सव्वे वि य सव्वलद्धिसंपन्ना । वज्जरिसहसंघयणा समचउरंसा य संठाणा ॥१०१॥
एकमासनो पादोपगमन संथारो कीधओ. सगलाई सर्वलबद्धिं करी सहित. सगलाई वज्रऋषभनाराच संघवणना धणी. समचउरंस संस्थानना धणी. ॥१०॥ ३९-हिवइ चक्रवर्तिनो स्वरूप कहूं. प्रथम नाम द्वार
भरहो १ सगरो २ मघवं ३, सणंकुमारो ४ रायसठूलो । संती ५ कुंथु य ६ अरो ६, हवई सुभूमो य ८ कौरवो(कोरव्वो) ॥१०२।।
___३९-वली चक्रवर्तिनओ द्वार कहइ छइ. पहिलो नाम द्वार. भरतचक्री. संगरचक्री. मघव. सनत्कुमार राजा शार्दूलनी उपमाइ. शांति. कुंथु. अरचक्री. होइ सुभूम कौरवजातिना. ॥१०२।।
नवमो य महापउमो ९ हरिसेणो १० चेव रायसठूलो । जयनामो य ११ नरवई बारसमो बंभदत्तो य १२ ॥१०३।।
नवमो महापद्मचक्री. हरिषेण १० निश्चइ राजाशार्दूल समान. जयनामा नरपती. बारमो ब्रह्मदत्तचक्री. ॥१०३।। ४०-चक्रीपिता
उसभे १ सुमितविजए २ समुद्दविजए य ३ अस(स्स)सेणे य ४ । तह विससेणे य ५ सूरे ६ सुदंसणे ७ कत्तवीरिए य ८ ॥१०४।।
४०. चक्री पिता द्वार. ऋषभ. सुमित्रविजय. समुद्रविजय. अश्वसेन राजा. तथा विश्वसेन राजा. सूर राजा. सुदर्शन. कार्तवीर्यराजा. ॥१०४।।
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पउमुत्तरे ९ महाहरि १० विजए राया ११ तहेव बंभे य १२ । उसप्पिणीइमीसे पिउनामा चक्कवट्टीणं ॥१०५।।
पदमोत्तर राजा. महाहरी राजा. विजय राजा. तिम ज ब्रह्मराजा. ए अवसर्पिणीनइ विषइ पितानाम चक्रवर्तिना. ॥१०५।। ४१-चक्रीमाता
सुमंगला १ जस्सवई २ भद्दा ३ सहदेवि ४ अइर ५ सिरि ६ देवी ७ । तारा ८ जाला ९ मेरा य १० वप्पगा ११ तह य चुलणी य १२ ॥१०६।।
८१. चक्रीनी माता. सुमंगला माता १. जसवती. भद्रा. सहदेवी. अचिरा ५. श्रीराणी ६. देवी ७. तारा ८. ज्वाला ९. मेरा माता १०. वप्रा राणी ११. तथा चुल्लणी राणी १२. ॥१०६।। ४२. चक्री आयु:
चउरासीई १ बावत्तरी य २ पुव्वाणं सयसहसाई । पंच य ३ तिन्नि य ४ एगं च ५ सयसहसाओ वासाणं ॥१०७।।
४२. चक्रीनो आऊषो कहइ छइ. चउरासी लाख पूर्व. बहुत्तरी लाख पूर्व. पूर्वलाख कहीइ एतला होइ. पांच लाख. त्रिणि लाख. एक लाख वरसनो आऊषो अनुक्रमि कहीइं ॥१०७।। पंचाणउई सहसा ६ चउरासीई य ७ अट्ठमे सट्ठी ८ । . . तीसा य ९ दुसय १० तिन्नि य ११ अप्पच्छिमे सत्तवाससया १२ ॥१०८।।
___ पंचाणुहजार वरस. चउरासी हजार वरस. आठमानो साठि हजार वरस. तीस हजार वरस. वीस हजार वरस. तीन हजार वरस. ब्रह्मदत्तनो सातसय वरसनओ आऊषओ. ॥१०८॥ ४३. चक्रीनगर
जम्मण विणीय १ ओज्झा २ सावत्थी ३ पंच हत्थिणपुरंमि ८ । वाणारसी ९ कंप्पिल्ले १० रायगिहे ११ चेव कंपिल्ले १२ ॥१०९।।
४३. चक्रीना नगरनाम कहइ छइ. विनीतानगरीइं जन्म भरतनओ १. अयोध्याइं. सावत्थीइं. पांच चक्रीनो जन्म हस्तिनागपुर नगरइं. वाणारसी जन्म.
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कंपिलपुरइ. राजगृहनगरइ. वली कंपिलपुरइ. ॥१०९।। ४४-देहवर्ण
सव्वे वि एगवण्णा निम्मलकणगप्पहा मुणेयव्वा । छखं(क्खं)डभरहसामी तेसिं पमाणं अओ वुच्छं ॥११०।।
४४. देहना वर्ण कहइ छइ. सर्व चक्रीना एक वर्ण निर्मला सौवर्णनी कांति सरीखा जाणिवा. छखंडनो भरतसामी. तेहना देहनो प्रमाण आगलिं कहस्यउं. ॥११०॥ ४५-चक्रीशरीर
पंचसय १ अद्धपंचम २ बायालीसा य ३ अद्धधणुयं च । इगुयालधणुसद्धं च ४ चउत्थे पंचमे चत्ता ५ ॥१११॥
४५. चक्रीना शरीरनो प्रमाण कहे. पांच सय धनुषनो भरत १. साढा ४०० सय धनुष ऊंचा. बइतालीस धनुष ऊंचा. ऊपरि वली आधो धनुष. साढा इंगतालीस धनुष ऊंचो चउथो चक्री. पांचमा ४० धनुष ऊंचा. ॥१११।।
पन्नत्तीसा ६ तीसा पुण ७ अट्ठावीसा य ८ वीस य ९ धणूणि । पन्नरस १० बारसेव य ११ अप्पच्छिमो सत्त य धणूणि १२ ॥११२।।
पइंत्रीस धनुष ऊंचा. त्रीस धनुष ऊंचा. वली अट्ठावीस धनुषना ऊंचा. वीस धनुषना ऊंचा. पनरइ धनुषना ऊंचा. बार धनुष ऊंचा. छेहलो चक्री सात सय धनुषना ऊंचा. ॥११२॥ ४६-चक्रीगोत्र
कासवगोत्ता सव्वे चउद्दसरयणाहिवा समक्खाया । देविदवंदिएहिं जिणेहिं जियरागदोसेहिं ॥११३।।
४६. चक्रीनी गोत्र कहइ छइ. काश्यपगोत्री सगलाई. चउद रत्नना अधिपती कह्या. देवता इंद्र शकेंद्रादिना वंदनीक तेणिं तीर्थंकरइ, जेण जीता राग-द्वेष. ॥११३।।
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४७-स्त्रीरत्ननाम
पढमा होइ सुभद्दा १ भद्द ३ सुनंदा ३ जया [य] ४ विजया य ५ । किण्हसिरी ६ सूरसिरी ७ पउमसिरी ८ वसुंधरा ९ देवी १० ॥ लच्छिमती ११ कुरुमती १२ इत्थीरयणाण नामाणि ॥११४||
४७. स्त्रीरत्न कहइ छइ. प्रथम स्त्री सुभद्रा १. भद्रा. सुनंदा. जया. विजया. कृष्णश्री. सूरश्री. पद्मश्री. वसुंधरा देवीनाम. लक्ष्मीवती. कुरुमती स्त्री. स्त्रीरत्नना ए १२ नाम कह्या. ॥११४॥ ४८. हिवइ वासुदेव-बलदेवादि अधिकारः
तिवि य१ दुव य २ सयंभू ३ पुरिसुत्तमे ४ पुरिससीहे य ५ । तह पुरिसपुंडरीए ६ दत्ते ७ नारायण(णे) ८ कण्हे ९ ॥११५।।
४८. हिवइ वासुदेवनओ अधिकार कहइ छइ. त्रिपृष्ट वासुदेव. द्विपृष्ट वासुदेव. स्वयंभू. पुरुषोत्तम. पुरुषसिंह वासुदेव. तथा पुरुषपुंडरीक. दत्तनाम. लखमणनाम. कृष्ण वासुदेव. ॥११५।। ४९. रामनाम
अयले १ विजए २ भद्दे ३ सुप्पभे य ४ सुदंसणे ५ आणंदे ६ । नंदणे ७ पउमे ८ रामे आवि ९ अपच्छिमे ॥११६॥
४९. बलदेवनाम. अचलनाम १. विजय. भद्द. सुप्रभनाम. सुदर्शननाम. आणंदनाम. नंदननाम. पद्मनाम. नवमो बलदेव[राम] नाम. ॥११६।। ५०-प्रतिवासुदेव
आसग्गीवे १ तारए २ मेरए ३ महु ४ केटवे ५ निसुंभे य ६ । बलिप(प्प)हराए ७ तह रावणए ८ नवमे जरासिंधू ।।११७।।
५०. तेहना वैरी प्रतिवासुदेव. अश्वग्रीव. तारकनाम. मेरक. मधु. कैटभ. निशुंभ. बलिप्रह्लाद. तथा रावण. नवमो जरासिंधु ॥११७।। ५१-नगरीनाम
पोय १ बारवई तिग ४ अस्सपुरं ५ तह य होइ चक्कपुरं ६ । वाणारसी ७ रायगिहं ८ अपच्छिमो जाओ महुराए ९ ॥११८।।
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अनुसन्धान ४४
५१. वासुदेव जन्मनगरी कहइ. पोतनपुर. बारवती नगरी त्रिणि वासुदेवनी. अश्वपुरनगर. तथा छइ चक्रपुरनगर. वाणारसीइं. राजगृहनगर छेहलो वासुदेव जन्म्यो मथुरानइ विषइ. ॥११८॥
५२ - पितानाम
हवइ पयावई १ बंभो २ रुद्दो ३ सोमो ४ सिवो ५ महसिवो ६ य । अग्गिसीहे ७ दड्ढरहे ८ नवमे भणिए य वसुदेवे ९ ॥ ११९ ॥
: ५२ - वासुदेव पिता छइ. प्रजापति ब्रह्म. रुद्र. सोम. शिव. महाशिव. अग्निसिंह. दशरथ. नवमो कह्यो वसुदेव ॥११९॥
५३- वासुदेव माता
मिगावई १ उमा चेव २ पुहवी ३ सीया य ४ अमया ५ लच्छिवई ६ । सेवई ७ गई ८ देवई य
॥१२०॥
५३. वासुदेवनी माता नाम. मृगावती. उमादेवी. पृथिवी. सीता. अमयानाम. लच्छिवती. शेषवती. केकई. देवकी. ॥१२०॥
५४. राममाता
भद्द १ सुभद्दा २ सुप्पभ ३ सुदंसणा ४ विजया ५ वेजयंती ६ । तह जयंती य ७ अपरा - जिया य ८ तह य रोहिणी चेव ॥१२१॥
५४. बलभद्रनी माता. भद्रा. सुभद्रा. सुप्रभा. सुदर्शना. विजया. वैजयंती. तथा जयंती. अपराजिता. तथा रोहिणी निश्च ॥ १२१ ॥
५५ - हरिपूर्वभव
वसुभूई १ पव्वइए २ धणदत्त ३ समुद्ददत्त ४ सेवाले ५ । पियमित्त ६ ललियमित्ते ७ पुणव (व्व) सू ८ गंगदत्ते य ९ ॥१२२॥
५५. वासुदेव पूर्वभव नाम कहई छइ वसुभूति पर्वत. धनदत्त. समुद्रदत्त. सैवाल. प्रियमित्र. ललियमित्र. पुनर्वसू. गंगदत्त. ॥१२२॥
एयाइं नामाइं पुव्वभवे आसि वासुदेवाणं
एत्तो बलदेवाणं जहक्क मि (क्कमं) कित्तइस्सामि ॥ १२३ ॥
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ए पूर्वोक्त नवनाम पूर्वभवइ हूया वासुदेवना नाम. हिवइ बलदेवनाम कहिस्यउं. जिम अनुक्रमइ कहूं छउं. ॥१२३।। ५६-राम पूर्वभवनाम
विसनंदी १ सुबंधूए २ सागरदत्ते ३ असोग ४ ललिए य ५ । वाराहे ६ धणसेणे ७ अपराइय ८ रायललिए य ९ ॥१२४॥
५६-नव बलदेवना पूर्वभव कहइ. विश्वनंदी नामइ. सुबंधुक. सागरदत्त. असोग. ललितांग. वाराह. धनुसेन. अपराजित. राजा ललितांग नामि ॥१२४।। ५७-हरि-राम पूर्वगुरु नाम
संभूय १ सुभद्द २ सुदंसणेय ३ सेयंस ४ कण्ह ५ गंगदत्ते य ६ । सागर ७ समुद्दनामे ८ दुमसेणे य ९ अपराइ पच्छिमे ॥१२५।।
५७-वासुदेव-बलदेव पूर्वभवना गुरु नाम. संभूत नामा आचार्य. सुभद्र. सुदर्शन. श्रेयांस. कृष्ण. गंगदत्त. सागरनाम. समुद्रनाम. द्रुमसेन. अपराजित नवमो. ॥१२५।।
एए पुव्वायरिया कित्तीपुरिसाण वासुदेवाणं । पुव्वभवे आसि(सी)या जत्थ नियाणाइ कासीय ॥१२६॥
ए पूर्वोक्त आचार्य कीर्तिवंतपुरुष वासुदेव पूर्वभवनइ विषइ जिहां रहीनइ जिहां नियाणा कीधा. ॥१२६।। ५८. नियाणाना ठाम
महुराए १ कणगवत्थु २ सावत्थी ३ पोयणं च ४ रायगिहं ५ । कायंदी ६ मिहिला वि य ७ वाणारसी ८ हत्थिणपुरं च ९ ॥१२७॥
५८. नियाणाना ठाम कहइ छइ. मथुरानगरी. कनकवस्तु. सावत्थी. पोतनपुर. राजगृहनगर. काकंदी. मिथिला नगरी. वाणारसी. हस्तिनागपुर नगर. ॥१२७॥ ५९. नियाणाकारणं
गावी १ जूए य २ संगामे ३ इत्थी ४ पाराईए य रंगंमि ५ ।
भज्जाणु ६ रागगुट्ठी ७ परइड्ढी ८ माउगाइ य ९ ॥१२८।। टि.१ सागर अने समुद्र बंने एकज नाम होय एम लागे छे.
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अनुसन्धान ४४
५९-नियाणाना कारण कहूं. गायनइ प्रयोगइ. जूयनइ प्रयोगि. संग्रामनइ प्रयोगि. स्त्रीना पगथी. भार्याना प्रयोगथी. रागनी गोष्टिनइ प्रयोग. पारकी ऋद्धि देखीनइ. माताना द्वेष थकी ॥ १२८ ॥
६०- आगति नाम
महसुक्का १ पाणय २ लं - तगाओ ३ सहसारओ य ४ माहिंदा ५ । बंभा ५ सोहम्म ७ सणं- कुमार ८ नवमो महासुक्को ९ ॥ १२९ ॥
६०-नव वासुदेव किहां थकी आव्या. महाशुक्र सातमाधी. प्राणत दशमाथी. लांतक छट्टाथी. सहस्रार ८मा हुंती. माहेंद्र चउथा हुंती. ब्रह्म हुंती. सुधर्म हुंती. सनत्कुमार हुंती. नवमो महाशुक्र हुंती. ॥ १२९ ॥
६१. राम पूर्वगति नाम
तिन्नेव अणुत्तरेहिं ३ तिन्नेव भवे तहा महासुक्का ६ । अवसेसा ३ बलदेवा अणंतरं बंभलोगचुया ९ ॥१३०॥
६१-बलदेवनी पूर्वगतिना किहां हुंती आव्या. प्रथम त्रिणि बलदेव अनुत्तर विमान हुंती. आगिला तीन बलदेव महाशुक्र देवलोक हुंती. शेष त्रिणि बलदेव आंतरा रहित ब्रह्मदेवलोक पांचमा हुंती आव्या. ॥१३०॥
६२
परियाओ पव्वया(ज्जा)भावाओ नत्थि वासुदेवाणं । होइ बलाणं सो पुण पढमाणुओगाओ नायव्वो ॥१३१॥
६२ - दीक्षानओ कालमान कहइ छइ. दीक्षा लेवाना अभाव माटइ न होइ वासुदेवनइ. अनइ बलभद्र दीक्षा कालिमान प्रथमाणुयोग पूर्वगति सूत्री जाणिवा. ॥१३१॥
६३ - वासुदेव गति नाम
एगो य सत्तमा १ पंच य छट्ठी ६ पंचमी एगो ७ ।
एगो य चत्थी ८ किण्हो पुण तच्चपुढवीए ९ ॥१३२॥
६३-वासुदेव ९ किहां गया ते कहइ छइ. प्रथम वासुदेव सातमी नरक गयओ. आगला पांच वासुदेव छट्ठी नरक. सातमो पांचमी नरक गयओ. आठमो
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वासुदेव चउथी नरक गयओ. कृष्ण वली त्रीजी नरक गयओ. ॥१३२॥ ६४ - बलदेवगति
अतकडा रामा एगो पुण बंभलोगकप्पंमि ।
उववन्नो तत्थ भोए भुत्तं अयरोपमा दसओ ॥ १३३॥
६४-बलदेव मरीनइ किहां गया ते कहुं. आठ बलभद्र मुक्ति पोहता. एक नवमो वली ब्रह्मलोकइ पोहतओ ऊपनो. तिहां भोग नइ भोगवीनइ सागर दशनो आऊषओ. ॥१३३॥
तत्तो य चइत्ताणं इहेव ओसप्पिणीइ भरहंमि ।
भवसिद्धिओ य भगवं सिज्झिस्सइ किण्हतित्थंमि ॥१३४॥
तिहांथी छांडीनइ एहज अवसप्पिणी भरतक्षेत्रनइ विषइ मुक्ति पामवा योग्य भगवंत सीझिस्यइ बलभद्र. ॥१३४॥
अनियाणकडा रामा सव्वे वि य केसवा नियाणकडा ।
उगामी रामा केसव सव्वे अहोगामी ॥ १३५ ॥
नियाणाना अकरणहार बलदेव सगलाई, सगलाई वासुदेव नियाणा कीधा. ऊंचीगतना जाणहार सगलाई बलदेव, वासुदेव सगलाई अधोगामी जाणिवा ॥ १३५ ॥
६५ - चक्री जे वारिं हूया ते कहूं
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उस भरहो १ अजिय सगरो २ मघवं सणकुमारो य ४ । धम्मस्स य संतिस्स य जिणंतरे चक्कवट्टिदुगं ॥ १३६॥
६५. चक्रवर्ति जेहनइ वारइ हूया ते कहइ छइ. ऋषभनइ वारइ भरतचक्रवर्ति. अजितनइ वारनइ सगर. मघवा चक्रवर्ति सनत्कुमार ए बे धर्मनाथ शांतिनाथ जिणनइ आंतरइ बे चक्रवर्ति हूया. ॥१३६॥
संती कुंथु अरो अरहंता चेव चक्कवट्टी य । अर-मल्लिअंतरे हवइ सुभूमो कौरवो (व्वो) ॥१३७॥
शांतिनाथ कुंथुनाथ अरनाथ तीर्थंकर निश्चइ हूया, अनइ चक्रवर्तिपणि हूया. अरनाथ अनइ मल्लिनइ अंतरइ वली होइ सुभूम आठमो चक्री कौरव ॥१३७||
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अनुसन्धान ४४
मुणिसुव्वए नर्मिमि य हुंति दुवे पउमनाम हरिषेणो। नमि-नेमीसु जयनामा अरिट्ठ-पासंतरे बंभो ॥१३८|| ___ मुनिसुव्रत वीसमा नमिनाथ इकवीसमा बिचइ होइ बे पद्मनाम चक्रवर्ति अनइ हरिषेण चक्रवर्ति. नमिनाथ-नेमिनाथ बिचइ जयनामा चक्रवर्ति हूया. नेमिनाथ अनइ पार्श्वनाथ बिचइ ब्रह्मदत्त चक्री हूया. ॥१३८।। ६६-वासुदेव जिननइ वारइ
पंचऽरहते वंदंति केसवा पंच आणुपुव्वीए । सिज्जंस तिविधइ (तिविट्ठाइ) धम्म पुरिससीहपेरंता ।।१३९।।
६६-वासुदेव जे जेहनइ वारइ हूया ते कहइ छइ. पांच अरिहंत ११माथी तेहनइ वारइ वासुदेव त्रिपृष्ठादि पांच अनुक्रमइ. धुरि श्रेयांस ११माथी मांडि त्रिपृष्ठादि वासुदेव धर्मनाथ लगइ अनइ पुरुषसिंघ लगि क्रमइ २ हूया. ॥१३९॥
अर-मल्लिअंतरं दुन्नि केसवा पुरिसपुंडरीय-दत्ता । • मुणिसुव्वय-नमिअंतरे नारायण कन्ह नेमिमि ॥१४०||
. अरनाथ मल्लिनाथनइ आंतरइ बि वासुदेव पुरुषपुंडरीक वासुदेव अनइ दत्त वासुदेव हूया. मुनिसुव्रत अनइ नमिनाथनइ आंतरइ लखमणवासुदेव हूया. कृष्णवासुदेव नेमिनइ सासनइ ॥१४०।।
चक्किदुगं २ हरिपणगं ५ पणगं ५ चक्कीण केसवो १ चक्की १ । केसव १ चक्की १ केसव १ दु चक्की २ केसव १ चक्की य १ ॥१४१||
प्रथम बे चक्री हूया. पछइ पांच वासुदेव अनुक्रमइ. पछइ पांच चक्रवति. वली वासुदेव. वली चक्रवर्ति. वली वासुदेव. वली चक्रवर्ति. वली वासुदेव. बे वली चक्रवर्ति. वली वासुदेव. वली चक्रवर्तिः ॥१४१।। ६७-ऐरवत्तक्षेत्र -
चंदाणणो १ सुचंदो २ तईओ तह आसि अग्गनिसेणो य ३ । तुरिओ य नंदसेणो ४ इसिदिन्नो ५ पंचमो वयहारी ६ ॥१४२।।
६७. हिवइ ऐरवतक्षेत्रना २४ जिन कहुं छु. चंद्रानन नामइ. सुचंद्र नामइ. त्रीजो तथा अग्निसेन नामइ. चउथओ नंदसेण. ऋषभदत्त पांचमओ. छट्ठो
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व्रतधारी. ॥१४२॥
सत्तमय सामचंदो ७ अट्ठमओ आसी ज्जु(जुज्ज)सेणो य । नवमो य अजियसेणो ९ सिवसेणो १० देवसेणो य ११ ॥१४३।।
सातमओ श्यामचंद्र नामि. आठमओ हूओ युक्तसेन नामइ. नवमो अजितसेन तीर्थंकर. शिवसेन दशमो. देवसेन इग्यारमओ. ॥१४३।।
नवरत्तं १२ सत्थसंजल १३ अणंत १४ उवसंत १५ गुत्तसेणो य १६॥ अतिपासो य १७ सुवासो १८ मरुदेव १९ धरो य २० वीसइमो ॥१४४।।
नक्षत्र. शस्त्रसंजल तेरमो. अनंत चउदमओ. उपशांत पनरमो. गुप्तसेन सोलमो तीर्थंकर. अतिवास नामइ सतरमो. सुपार्श्व अठारमओ. मरुदेव नामइ. धरनामइ वीसमओ. ।।१४४॥
इगवीस सामकोट्ठो २१ बावीसमो य अग्गिसेणो य २२ । तेवीसमग्गिउत्तो २३ चरिमो तह वारिसेणो य २४ ॥१४५॥
इकवीसमो श्यामकोष्टनामइ. बावीसमो अग्निसेन नामइ. त्रेवीसमा अग्निपुत्र नामा. छेहलो तिमज वारिषेन नामइ. ॥१४५॥
एए जिन चउवीसा ऐरवए आसी इहकाले य। ते वंदामि य सिरसा जरामरणविप्पमुक्का य ।।१४६।।
ए पूर्वोक्त जिन चउवीस ऐरवतक्षेत्रइ हूया वर्तमान कालइ. तेहनइ वांदू मस्तकइ करी. ते जिन जरामरणथी विप्रमुक्त हूया. ॥१४६।। ६८-आगली चउवीसी -
भरहे भावियजिणा महपउमो १ सुरादेव य २ सुपासो ३ । होज्ज सयंपभ ४ सव्वा-णुभूई ५ तह देवउत्तो य ६ ॥१४७||
६८-भरतक्षेत्रना आगामीया कालना २४ जिन कहं. भरतक्षेत्रि होसी २४ जिन. महापद्म. सुरादेव. सुपार्श्व होय. स्वयंप्रभ. सर्वानुभूति पांचमओ. तथा देवगुप्त • छट्ठो. ॥१४७॥
उदओ सत्तम ७ पेढालपुत्त ८ अट्ठमय जा पोट्टिल ९ सयसो १० । मुणिसुव्वय ११ अममो तह होज्ज बारसमो १२ ॥१४८।।
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अनुसन्धान ४४
उदक नामि सातमो. पेढालपुत्र नामि आठमओ. पोट्टिल. शतक दशमओ. मुनिसुव्रत. अममनाथ तथा होइ बारमो जिन. ॥१४८।।
तेरसम निक(क)साओ १३ चउद्दसमो निपु(प्पु)लाय बोधव्वो १४ । निम्मम १५ होज्ज पन्नरस सोलसमो चित्तउत्तो य १६ ॥१४९।।
तेरमो निःकषायनामि. चउदमो नि:पुलाकनामि जाणिवो. निर्ममनामइ छ। पनरमो. सोलमो चित्रगुप्त नामइ. ॥१४९।। होही समाहि १७ संवर १८ अनियट्टि १९ विजय २० होज्ज विमलो य । २१ देवोववाय २२ णंतो २३ भदंति २४. भावियभरहंमि ॥१५०।।
होसी समाधिनामि. संवरनामइ. अनिवृत्तनामि. विजयनामइ वीसमओ. होसी विमलनामइ. देवोपपात नामइ. अनंत नामइ. भद्रकृत चउवीसमो. होसी २४ जिन भरतक्षेत्रनइ. ॥१५०॥ ६९-ए २४ जिननाम पूर्वभवना
सेणिय १ सुपास २ उदओ ३ पोट्टिल य ४ दढाऊय ५ पंचमओ। कत्तिय ६ संखो य ७ तहा सुनंदो ८ चेव अट्ठमओ ॥१५१।।
६९. ए पूर्वोक्त चउवीसीना पूर्वभवना नाम कहइ छइ. श्रेणिकराजा. सुपास-वीरनो काको. उदक नामइ. पोट्टिल नामइ. दढआउयो पांचमओ. कार्तिकसेठ. संख सातमो. तथा सुनंद निश्चइ आठमो. ॥१५१।। सयओ ९ देवइ १० सेच्चई ११ बारसमो वासुदेव १२ बलदेवो १३ । रोहिणी १४ सुलसा १५ रेवई १६ तओ सिंगाली १७ तह भयाली य १८ ॥१५२।।
शतक नवमो. देवकी. सत्यकी विद्याघर. बारमो वासुदेव कृष्ण. तेरमो बलदेव. रोहिणी. सुलसा. रेवतीनो जीव. तिवार पछी सिंगाली. तथा भयाली नाम. ॥१५२।।
दीपायण च(णो य) १९ कण्हो २० नारय २१ अंबड २२ भवे य बावीसो । दारुय २३ सो वि य बुद्धो २४ पुव्वभवनामाई भविस्संति ॥१५३।।
द्वैपायननो जीव. कृष्ण. नारद. अंबडसंन्यासी होसी बावीसमो. दारुक. ते वली बुद्ध चउवीसमो तीर्थंकर होसी. पूर्वभवनां नाम २४ कह्या. ॥१५३।।
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७०-आगला १२ चक्रवर्तिनाम
भरह अणागयकाले बारस चक्की इमे भविस्संति । भरहोइ(य?) १ दीहदंतो २ सुगूढदंतो ३ भवे तईओ ॥१५४।।
७०. आगला १२ चक्रवर्तिना नाम कहइ छइ. भरतमध्ये अनागतकालनइ विषइ बार चक्रवर्ति आगलिं कहीस ते. होसी भरतनामिं प्रथम. दीर्घदंत. सुगूढदंत छइ त्रीजो. ॥१५४॥
तत्तो य सुद्धदंतो ४ सिरिउत्तो ५ होज्ज तह य सिरिभूई ६ । सिरिसोमो ७ पउमो वि य ८ महपउमो ९ विमलवाहणे चेव १० ॥१५५।।
तिवार पछी शुद्धदंत. श्रीगुप्त ५मो होइ. तथा श्रीभूति छट्ठो. श्रीसौम्य सातमो. पद्म आठमो. महापद्म. विमलवाहण निश्चइ. ॥१५५।।
इक्कारस विउलवाहणो य ११ रिट्ठो य बारसो १२ चेव । केसवनामाणि इत्तो अहकम्मं कित्तइस्सामि ॥१५६।।
इग्यारमओ विम(पु?)लवाहण चक्री. रिष्ट चक्री बारमो वली. हिवइ वासुदेवनाम कहइ छइ. तथा अनुक्रमइ कहिस्यउं. ॥१५६।। ७१-भरति आगलि वासुदेव
नंदो य १ नंदमित्तो २ तईओ तह होज्ज दीहबाहु य ३ । महाबाहु य ४ अइबलो ५ महब्बलो ६ होज्ज बलभद्दो ७॥१५७॥
७१-भरत आगलि ९ वासुदेव कहइ छइ. नंदनाम. नंदमित्र नाम. त्रीजो तथा छइ दीर्घबाहु. महाबाहु. अतिबल नामा वासुदेव. महाबल. छइ बलभद्र. ॥१५७।। अट्ठमओ य दुविठ्ठ ८ नवम तिविट्ठ ईओ य बलदेवा।
आठमो त्रि(द्वि)पृष्टवासुदेव. नवमो द्वि(त्रि)पृष्ट. हिवइ बलदेव कहिस्यउं. ७२-आगला बलदेवनामपढमो जयंतो १ विजओ २ भद्दो ३ सुपभो य ४ चउत्थो य ॥१५८॥
७२. आगला बलदेवनाम कहइ छइ. पहिलो जयंत. विजय. भद्र. सुप्रभ चउथो. ॥१५८॥
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अनुसन्धान ४४
पंचम होज्ज सुदंसण ५ आणंदो ६ नंदणो य ७ पउमो य ८ । संखसेणो य ९ पच्छिमओ पडिसत्तू भणामि इत्तो य ॥१५९॥
पांचमो छइ सुदर्शन. आणंद. नंदन. पद्म. संखसेन बलदेव नवमओ. हिवइ एहना वैरी प्रतिवासुदेव नाम कहइ छइ. ॥१५९।। ७३-भरतना आगला प्रतिवासुदेव
तिलओ य १ लोहजंघो २ तईओ तह होज्ज वयरजंघो य ३ । केसरि ४ पहराओ ५ खलु अवराइय ६ भीमसेणो य ७ ॥१६०॥
७३. आगला प्रतिवासुदेवनाम होसी ते. तिलक पहिलो. लोहजंघ. त्रीजओ तिमज छइ वज्रजंघ, केसरी, प्रह्लाद, निश्चइ. अपराजित. भीमसेन. ॥१६०।।
महभीमसेण ८ सुग्गीओ ९ पच्छिमओए होज्ज पडिसत्तू । भावी भरहे वासे अक्खाया जिणवरिंदेहिं ।।१६१॥
महाभीमसेन आठमओ. सुग्रीव नवमओ छेहलो छइ. वैरीराजा होसी भरतक्षेत्रनइ विषइ कह्या जिनवरेंद्रई ॥१६१।। ७४-ऐरवते आगला जिननाम
सुमंगले १ अत्थसिद्ध य २ निव्वाणे य ३ महाजसे ४ । धम्मज्झए ५[य] अरहा आगमिस्साण होक्खत्ति ॥१६२।।
७४-एरवत क्षेत्रइ आगला जिननाम कहइ छइ. सुमंगल नामइं. अर्थसिद्धनाम. निर्वाण नाम. महाजस. धर्मध्वज. अरिहंत आगलि उत्सर्पिणीयइं होसी. ॥१६२।।
सिरिचंदे पुप्फकेउ य महाचंदे य केवली । सुयसायरे य अरहा आगमिस्साण होक्खत्ति ॥१६३।।
श्रीचंद छट्ठो. पुप्फकेतु सातमो. महाचंद्र केवली. श्रुतसागर अरिहंत आगलि कालइ होसी. ॥१६३।।
सिद्धत्थे पुण(ण्ण)घोसे य महाघोसे य केवली। सव्वसेणे य अरहा अणंतविजएई य ।।१६४||
सिद्धार्थ नामा. पूर्णघोष. महाघोष केवली. सत्यसेन अरिहंत. अनंतविजय नामि. ॥१६४॥
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सूरसेणे महासेणे देवसेणे य केवली । सव्वाणंदे य अरहा देवदत्ते य होक्खत्ति ॥१६५।।
सूरसेन. महासेन. देवसेन. केवली. सर्वानंद नामइ अरिहंत. देवदत्त नामा होसी. ॥१६५॥
सुपासे सुव्वए अरहा महासुक्के य कोसले। देवाणंदे य अरहा अणंतविजएई य ॥१६६॥
सुपार्श्व. सुव्रत अरिहंत. महाशुक्र केवली. देवानंदा नाम अरिहंत. अनंतविजय ॥१६६॥
विमले उत्तरे अरहा अरहा य महाबले । देवोवाए अरहा आगमिस्साण होक्खत्ति ।।१६७।।
विमल आगलिं अरिहंत. महाबलनामइ. देवोपपात अरिहंत. आगलि कालइ होसी. ॥१६७॥
एए वुत्ता चउवीस एरवए वासंति केवली। आगमिस्साण होक्खत्ति धम्मतित्थोपदेसगा ॥१६८।।
ए पूर्वोक्त कह्या चउवीस एरवतक्षेत्रइ केवली आगलि कालइ होसी धर्मतीर्थना उपदेशक. ॥१६८।। ७५-महाविदेह वीसविहरमाण नाम
सीमंधरं तु पढमं १ जुगंधर २ बाहु ३ सुबाहु ४ सुजाए य ५ । सयंपभं ६ उषभाणण ७-मणंतवीरिय ८ ट्ठम चेव ॥१६९।।
७५-वीस महाविदेह विहरमानना नाम कहइ छइ. सीमंधर प्रथम जिन. जुगधर. बाहु. सुबाहु. सुजात. स्वयंप्रभ. ऋषभानन. अनंतवीर्य आठमो. ॥१६९।।
सूरपहं ९ विसालं च १० वइरधरं ११ चंदाणण १२ नमस्सामि । चंदबाहु १३ भुजंगम १४-मीसर १५ नेमिप्पहं १६ वीरं १७ ॥१७०।।
सूरप्रभ. विसालनामि. वज्रधर. चंद्रानन हुं वांदूं. चंद्राहु. भुजगंमनामा. ईसर. नेमिसर. वीरसेन. ॥१७०||
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अनुसन्धान ४४
महभदं १८ देवजसं १९ अजियवीरियं २० वीसइमं वंदे । एए उ विहरमाणा होंति लहुपए वि विदेहेसु ॥१७१।।
महाभद्र देवजस. अजितवीर्य वीसमानइ वांदूं. ए पूर्वोक्त विहरमान छ। जघन्यपदइ महाविदेहक्षेत्रइ. ॥१७१।।
७६-नारदनाम
भीमेय १ महाभीमे २ काल ३ महकाल ४ रुद्द ५ महारुद्दे ६ । चउम्मुह ७ नरमुह ८ अणमुह ९ कच्छूलनामा इमे भणिया ॥१७२।।
७६-नव नारद नाम कहइ. भीम. महाभीम. काल. महाकाल. रुद्र. महारुद्र. चतुर्मुख. नरमुख. अनिमुख. कुत्सित आचारना नारद नाम. ॥१७२।। ७७-११ रुद्र नाम
भीमावलि १ जियसत्तु २ रुद्दो ३ विसानलो ४ सुपइट्ठो य ५ । अयलो य ६ पुंडरीओ ७ अजियधरो ८ अजियनाभो य ९ ॥१७३३
७७-११ रुद्र नाम कहइ छइ. भीमावली. जितशत्रु. रुद्र. विश्वानल. प्रतिष्ठित. अचल. पुंडरीक. अजितधर. अजितनाभ नामा. ॥१७३।।
पेढालो ११ तह सच्चई ११ एए रुद्द एक्कारसंगधरा । उसहो १ जिय २ सुविहाई ८ अडजिण सिरिवीरतित्थभवा ।।१७४॥
पेढाल. तथा सत्यकी. ए पूर्वोक्त रुद्र ११ अंगना जाण. ऋषभनइ वारइ १ अजित वारइ २ सुविधिनइ वारइ वीर आदिदेई नइ शांति लगइ ८ रुद्र वीरनइ तीर्थइ ॥१७४।। ७८-वर्तमानकुलगर
पढमित्थ विमलवाहण १ चक्खुम २ जससमं ३ चउत्थमभिचंदे ४ । तत्तो य पसेणईए ५ मरुदेवे ६ चेव नाभी य ७ ॥१७५॥
७८-वर्तमान अवसर्पिणीना कुलगर. प्रथम विमलवाहन कुलगर. चक्षुषमान्. यशस्वी. चउथा अभिचंद्र. तिवार पछी प्रसेनजित. मरुदेव. नाभि कुलगर सातमो. ॥१७५॥
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७९-कुलगर अवगाहना
नवधणुसयाइं पढमो १ अट्ठय २ सत्त ३ अद्धसत्तमाइं च ४ ।
छच्चेव ५ अद्धछट्ठा ६ पंचसया ७ पणवीसा य ॥१७६।। ___७९-ए पूर्वोक्त कुलगरना शरीरनो मान कहूं छउं. नव सय धनुषनओ ऊंचो प्रथम कुलगर. आठ धनुष. सात धनुष. साढा छ सय धनुष. छ सय धनुष. साढा पांच सय धनुष. पांच सय धनुष ऊपरवली २५ धनुष ऊंचा. ॥१७६।। ८०-कुलगर वर्ण
चखुम १ जससमं च २ पसेणईए य ३ पियंगुवन्नाभा। अभिचंदो ४ ससिगोरो निम्मलकणयप्पहा सेसा ।।१७७।।
८०-ए ७नी देहमान कहइ छइ. चक्षुषमान बीजो. यशस्वी त्रीजो कुलगर. प्रसेनजित पांचमो एतला नीलइ वर्णइ. अभिचंद्र चउथो चंद्रवत् गोरो. शेष निर्मल सोनानइ वर्णइ. ॥१७७|| ८१. कुलगरभार्या -
चंदजस १ चंदकंता २ सरूव ३ पडिरूव ४ चखु(क्खु)कंता य५ । सिरिकंता ६ मरुदेवी ७ कुलगरपत्तीण नामाणि ॥१७८।।
८१-कुलगर ७नी स्त्रीना नाम कहइ छइ. चंद्रयशा १ चंद्रकान्ता २ सरूपा. प्रतिरूपा. चक्षुकान्ता. श्रीकान्ता. मरुदेवी. ए७ कुलगरनी स्त्रीना नाम कह्या. ।।१७८||
संघयणसंठाणं उच्चत्तं चेव कुलगरेहि समं। वनेण एगवन्ना सव्वाओ पियंगुवण्णाभा ॥१७९।।
__ संघयण तथा संस्थान ऊंचपणुं. वली कुलगरनी पर सरिखा जाणिवा. वर्णि करी सर्वनो एकवर्ण, सगलीनी नीलावर्णनी कांति. ॥१७९।। ८२-कुलगर आयुः
पलिओवमदसभागो पढमस्साओ तओ असंखिज्जा। ते आणुपुव्वी हीणा पुव्वा नाभिस्स संखिज्जा ॥१८०।।
८२-आउषानो प्रमाण कहइ छइ. पल्यनो दशमो भाग प्रथम कुलगरनो आउष. तिवार पछी असंख्याता पूर्व. तिहांथी अनुक्रमइ ओछा कहीइं पूर्वना नाभिनइ
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अनुसन्धान ४४
संख्याता जाणिवा. ॥१८०॥
जं चेव आउयं कुलगराणं तं चेव होइ तासंपि । जं पढमगस्स आउं तावईयं होइ हत्थिस्स ॥१८१॥
जेतलो आऊषो कुलगरनो कहाओ. तेतलो तेहनी स्त्रीनो. जे प्रथम आऊषो कहुं तेतलोज होइ हाथीनओ. ॥१८१।।
जं जस्स आउय खलु तं दशभाए समं विभईऊणं । मज्झिलट्ठतिभाए कुलगरकालं वियाणाहि ॥१८२।।
जेतलो जेहनो होइ आऊषो निश्चइ ते आउ दशभाग संघातइ विहिंचीइं. विचला ८ भाग कुलगरनो काल जाणिवो. ॥१८२॥ ८३-कुलगरगति -
दो चेव सुवन्नेसु २ उदधिकुमारेसु होंति दो चेव । दो दीवकुमारेसु एगो नागेसु उववन्नो ॥१८३।।
. ८३-कुलगर ७नी गति कहइ छइ. प्रथम २ कुलगर सुवर्णकुमार नइ विषइ गया. उदधिकुमार नइ गया बे कुलगर. बि कुलगर दीपकुमारनइ विषइ गया. एक कुलगर नागकुमार नइ विषइ गयो. ॥१८३॥ ८४-हस्ती तथा स्त्री गति
हत्थी छट्टित्थीओ नागकुमारेसु हुंति उववण्णा । एगा सिद्धि पत्ता मरुदेवी नाभिणो पत्ती ॥१८४।।
८४-हस्ती तथा स्त्रीनी गति कहइ छइ. हाथी ७ अनइ ६ प्रथम स्त्री नागकुमारनइ विषइ ऊपना. एक मरुदेवी सिद्धि पामी. मरुदेवी नाभि कुलगरनी स्त्री. ॥१८४॥
सिरिसमवायसुयाओ निउत्तिपमुहाओ णेगसत्थाओ। पिंडीकयाओ एसा अत्ताणं पड्ढणट्ठाए ॥१८५॥
श्रीसमवायसूत्रथी नियुक्ति अनेरा अनेक शास्त्रथी एकठी कीधी गाथा संघयणी. पोतनइ भणवानइ अर्थइ. ॥१८५॥
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विक्कमवच्छराओ य वसुअट्ठकालेण महुमासेणं । सियपक्खे तेरसी[ए] रइया उत्तमेण सुद्धेण ॥१८६।।
विक्रमादित्यना संवच्छर थकी ९-८. संवत १६८९ वर्षे चैत्रमासइ शुक्लपक्षनी तेरसनइ दिनइ उद्धरी ऋषि उत्तमइ, निर्दोष आचारनइ धणी, निर्दोष प्रणामइ करी. ॥१८६॥
___ इति श्रीशतपंचाशितिकासंग्रहणी आवश्यकादि-अनेकशास्त्रत उद्धारीकृताः।
इति श्रीशतपंचाशितिका संग्रहणी समाप्ता । ऋष्युत्तमेनाऽऽत्मार्थे कृता । ग्रंथाग्रं ६५१ श्लोकार्थः। लिखितम्-लद्धाजी. फतेपुरमध्ये. फागणसुदी ७.
C/o. जैन उपाश्रय पांजरापोल, रिलीफ रोड, अमदावाद- ३८०००१
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पाली (बौद्ध) आगमोमां चातुयाम - संवर
अनुसन्धान ४४
डॉ. हर्मन जेकोबीए पोताना एक महत्त्वपूर्ण शोधलेख ' Mahavira and His Predecessors' (Indian Antiquary 1880) ने प्रकाशित कर्ये १०० उपरांत वर्षो वीती गयां छे, छतां, सामञ्ञफलसुत्त ( दीघनिकायगत) मां निग्गंथ नातपुत्त अने तेमना पर (बौद्धो द्वारा) आरोपित चातुयाम - संवरना बौद्धग्रन्थीय सन्दर्भो उपरनां डॉ. जेकोबीनां निरीक्षणो, आजपर्यन्त महावीरना ऐतिहासिक प्रामाण्य अने चातुयाम संवरना उपदेशनी प्राचीनताने पुरवार करवामां पायानी गरज सारे छे.
- पद्मनाभ एस. जैनी
कोबी जैन आगमाना पोताना अनुवाद The Jain Sutras, Part 1 and 2 नी प्रस्तावनामां पोतानी केटलीक दलीलोनुं पुनरावर्तन करे छे. अहीं, तेओ उत्तराध्ययन सूत्रना केशि - गौतमीयअध्ययन (२३) मांथी एक नवुं - वधारानुं प्रमाण आपे छे. तेओ कहे छे के पाली - भाषीय शास्त्रो द्वारा निग्रन्थ ज्ञातपुत्र पर करायेलो चातुयाम-संवर (जैनागमोमां चाउज्जाम- धम्म) नो आरोप भ्रान्तिमूलक छे अने निर्गन्थोनो सिद्धान्त तो बुद्ध अने महावीर करतां पण प्राचीन छे. उत्तराध्ययननी साक्षी प्रमाणे तो तेनो उपदेश २३मा जिन पार्श्वनाथे करेलो छे.
हवे, सामञ्ञफलसुत्तमां चातुयाम संवरना चार यामो कया छे तेनो कोई निर्देश नथी. उत्तराध्ययनसूत्रमां कह्युं के पार्श्वनाथे चार महाव्रतो उपदेश्यां अने महावीरे पांच, पण ते व्रतो कयां, तेनो कोई उल्लेख नथी.
.
जेकोबी पछी, आज सुधी, चातुयाम संवर विशे ने उत्तरगामी संशोधनो थयां, ते बधां ज उपरोक्त बौद्ध अने जैन आगमगत प्रमाणोनो ज विस्तार छे. पांच महाव्रतो तो, स्थानाङ्ग सूत्र अने बीजा सूत्रोथी प्रमाणित ज छे, अने ते व्रतोनुं वर्णन पण, प्रत्येकनी पांच पांच भावनाओ साथे, विस्तारथी ते ते शास्त्रोमां करवामां आव्युं छे. व्रतो आ प्रमाणे छे : १. हिंसाथी विरमवु, २. असत्य बोलवाथी विरमवुं, ३.चौर्यथी विरमवुं, ४. अब्रह्मचर्यथी विरमवुं, अने ५. वस्तुओनी मूर्च्छाथी विरमवुं.
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भगवतीसूत्रमां, चाउज्जामथी आ व्रतोने भिन्न देखाडवा तेनो निर्देश पंचजाम - एवो कर्यो छे. आ सूत्रना २५मा शतकना ३जा उद्देशामां पांच संयमोनुं वर्णन करती पांच गाथाओ छे. तेमांनी प्रथम बे गाथाओ अहीं आपणा अभ्यास माटे प्रस्तुत छे. प्रथम संयम ते सामायिक संयम छे. आचाराङ्ग सूत्र प्रमाणे तेनी व्याख्या-सर्व सावद्य योगोथी विरमवुं - एवी छे, अने आवुं सामायिक भगवान महावीरे कर्तुं हतुं – “सव्वं मे अकरणिज्जं पावकम्मं ति कट्टु सामाइयं चरितं पटिवज्जइ ॥ "
भगवती सूत्रनी उपरोक्त पांच गाथामांथी प्रथम गाथामां कह्युं छे के "सामयिक पोते ज अनुत्तर चाउज्जाम धर्म छे. "१ हवे जो आवी वात होय तो अहीं एवं भासे के महावीरे दीक्षा ग्रहण करती वखते चाउज्जाम धर्म स्वीकार्यो हशे. जो के कोई पण श्वेताम्बर टीकाकारे आवुं विधान कर्तुं नथी.
बीजी गाथामा छेदोपस्थापन संयमनी व्याख्या करी छे. अहीं एम कह्युं छे के छेदोपस्थापन ते पंचजाम अर्थात पञ्चमहाव्रतवाळा संयम साथे सादृश्य धरावे छे. २
दिगम्बर परम्परामां, जो के, चाउज्जाम शब्द ज नथी, छतां सामायिक अने छेदोपस्थापन पदो प्राचीन दिगम्बर शास्त्र आचार्य वट्टकेर रचित मूलाचारमां छे. तेमां कह्युं छे के सर्व सावद्ययोगोथी विरतिरूप सामायिक संयमनो, क्यारेक अतिचार लागे तो तेना प्रतिक्रमण साधे, उपदेश २४मांथी २२ तीर्थकरो आप्यो छे. ज्यारे ऋषभदेव अने महावीर नामना प्रथम अने अन्तिम तीर्थङ्करो तो नित्य प्रतिक्रमण साथे छेदोपस्थापन चारित्रनो उपदेश आप्यो छे. ३ श्वेताम्बर पाठोमां सामायिक शब्दनुं चाउज्जाम साथे साम्य कई रीते बताव्युं छे ते तो एक रहस्य ज रहे छे. वली, कोई पण टीकाकारो पोतानी टीकामां आना विशे कोई खुलासो आपता नथी. जो के, चाउज्जाम शब्द तो बीजी जैन १. सामाइयंमि ३ कए चाउज्जामं अणुत्तरं धम्मं । तिविहेण फासयंतो सामाइयसंजमो स खलु ॥
२. छेत्तूण य परिपायं पोराणं जो ठवेइ अप्पाणं । धम्मंमि पंचजामे छेओवट्ठावणो स खलु ॥
मूलाचार - ५३५ गाथा ।
३.
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अनुसन्धान ४४
परम्परामां पण घणो प्रसिद्ध छे. कारण के आचार्य शिवार्ये (प्राय: दिगम्बरे) रचेल भगवती आराधना परनी यापनीयाचार्य अपराजितसूरिए रचेली विजयोदयाटीका(प्रायः दशमुं शतक)मां पण तेनो उल्लेख छे. त्यां साधुओना प्रतिक्रमण विशेना नियमोनी चर्चा करतां तेओ जणावे छे के प्रथम अने अन्तिम तीर्थङ्करो रोजना (नित्य) प्रतिक्रमण साथेना व्रतोना उपदेश आपे छे ज्यारे वचला २२ तीर्थंकरो दोष लागे तो ज करवारूप (नैमित्तिक) प्रतिक्रमण साथेना धर्मनो उपदेश आपे छे. आना सन्दर्भमां तेओ कहे छे के-आवो फेरफार प्रथम-अन्तिम तीर्थङ्करोना पञ्चयाम धर्म अने अन्यत्र चतुर्याम धर्मना कारण छे.
श्वेताम्बर आगमोमां महत्त्व, स्थान धरावतुं आ चाउज्जाम पद, श्वेताम्बर के दिगम्बर परम्परागत तत्त्वार्थसूत्रमा के तेनां भाष्य-टीका व.मां पण क्यांय जोवा मळतुं नथी ते घणुं चिन्तनीय छे. अलबत्त, पांच महाव्रतोनी वात तो त्यां आवे ज छे. आ व्रतना सूत्रनी व्याख्या करतां (दिगम्बर) सर्वार्थसिद्धिकार कहे छे के "मूलतः तो एक ज सामायिक व्रत छे, जे सर्व सावद्ययोगोथी विरमणरूप छे. आज एक व्रत छेदोपस्थापन सामायिकनी अपेक्षाए पांच भेदवालुं कर्तुं छे.'' परन्तु अहीं चाउज्जामशब्दनो कोई उल्लेख नथी.
____ अपराजितसूरिए दर्शावेल चतुर्याम-पञ्चयाम शब्दो भगवतीसूत्रमा वर्णवेल सामायिक तथा छेदोपस्थापन संयमने अनुसरे छे, छतां आश्चर्य तो अहीं ए वातनुं छे के चाउज्जामनी अन्तर्गत शुं शुं आवे छे ते तो भगवतीसूत्रमा के विजयोदया टीकामां क्यांय जणाव्यु नथी. तेथी स्थानाङ्गसूत्रमा वर्णित चार यामोनी सरखामणी करवा माटे तथा चोथा यामनो अर्थ स्पष्ट करवा माटे दुर्भाग्ये आपणी पासे कोई आधार रहेतो नथी.
स्थानाङ्गसूत्रना चतुर्थस्थानना २६६मा सूत्रमा चाउज्जामना चार यामो आ रीते कह्या छे : सर्वप्राणातिपात विरमण, सर्वमृषावाद विरमण, सर्वअदत्तादान विरमण अने सर्वथी बहिद्धादान बिरमण. आ चोथा बहिद्धादान विरमणनो अर्थ आज दिवस सुधी अस्पष्ट रह्यो छे. ज्यारे प्रथम त्रण यामो अत्यन्त स्पष्ट छे. बहिद्धादाननी एकथी वधारे अर्थच्छायाओ कहेवामां आवी छे. टीकाकार आचार्यो आपणने पार्श्वनाथे निरूपेल चतुर्थव्रतमां महावीरे उपदेशेल चतुर्थ तथा पञ्चम एम १. तत्त्वार्थसूत्र - ७-१. ।
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बन्ने व्रतोनो समावेश थाय छे - ए वातनी प्रतीति कराववामा अत्यन्त उद्यमवन्त छे.
स्थानाङ्गसूत्रनी वृत्तिमां अभयदेवसूरि बहिद्धा शब्दनो अर्थ मैथुनपरिग्रह विशेष अने आदान एटले अन्य परिग्रह - एम करे छे. आ रीते बे शब्दो भेगा करीने बनेखें पद महावीरे उपदेशेल बन्ने व्रतोने समावे छे, एवं तेओ समझे छे. तेओ कहे छे के, जो के आ वात त्यां स्पष्टतया समझावी नथी छतां, मैथुन ते परिग्रहमां अवश्य समाविष्ट थाय ज छे. कारण के जे स्त्री पोतानी मालिकीमा स्वीकाराई न होय ते स्त्री साथे मैथुन न थई शके, तेने बीजा कोई पण बाह्य पदार्थनी जेम छोडी देवी पडे.
अहींया कोईए एवं न विचारवू के शिष्योनी कक्षा जुदी जुदी होवाने कारणे बे तीर्थङ्करोना उपदेशमां मौलिक तफावत छे. अभयदेवसूरि स्पष्टता करे ज छे के अहीं देखातो तफावत जो के तेमना शिष्योनी परिस्थितिना कारणे छे, छतां मूळभूत रीते तो बधा ज तीर्थंकरो पांचेय महाव्रतोनो उपदेश आपे छे.
[अहींया ए नोंधq जोईए के भगवतीसूत्रना २०मा शतकना ८मा उद्देशामां तीर्थ-तीर्थङ्करनां वर्णनो, तेमना उपदेशो व. सर्व- निरूपण छे परन्तु चाउज्जाम अने पञ्चव्रत ए बन्ने विशे तेमां कोई वर्णन नथी.]
अभयदेवसूरि पोतानी वातने पुष्ट करवा माटे उत्तराध्ययन सूत्र (अध्य. २३, गाथा २६-२७) नो सन्दर्भ आपे छे, जेमां एक अनुक्तपूर्व विधान छे के प्रथम तीर्थङ्करना साधुओ ऋजु-जड छे, अन्तिम तीर्थङ्करना साधुओ वक्र-जड छे ज्यारे मध्यम तीर्थङ्करना साधुओ ऋजु-प्राज्ञ छे.
अमुक कालखण्डमां साधुओने बीजा कालखण्ड करतां. वधारे स्पष्ट रीते व्रतो आपवा जरूरी छे एवं उत्तराध्ययनसूत्रगत विधान दिगम्बरोने पण मान्य छे. मूलाचारमा (गाथा ६२८-६२९) कर्तुं छे के, प्रथम-अन्तिम तीर्थङ्करोना साधुओने प्रतिक्रमण फरजियात छे ज्यारे वचला तीर्थङ्करोना साधुओने तो ज्यारे सामायिक संयममां अतिचार लागे त्यारे ज प्रतिक्रमण करवं. प्रथम अने अन्तिम तीर्थङ्करना साधुओने छेदोपस्थापनीय चारित्र लेवू पडे छे तेनुं कारण ए छे के प्रथम तीर्थङ्करना साधुओने पोताना दोषो ओळखवा कठिन छे ज्यारे अन्तिम तीर्थङ्करना साधुओने पोतानां व्रतो पाळवां दुष्कर छे. बन्ने प्रकारना साधुओ कर्तव्याकर्तव्यनो के उचितानुचितनो विवेक नथी करी शकता.
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आनी टीका करतां वसुनन्दि कहे छे के प्रथम जिनना साधुओ स्वभावथी ज अत्यन्त भद्रिक तथा सरल हता त्यारे अन्तिम जिनना साधुओनो मोटो भाग वक्रस्वभावी छे.
मूलाचारनो हिन्दी अनुवाद करतां आर्या ज्ञानमती कहे छे युगलिकोनी भोगभूमिज परिस्थिति पूर्ण थई रही हती अने कर्मभूमिज परिस्थितिनी शरूआत हती तेथी लोकोने हजु व्रतोना पालननी पूर्ण समजण न हती, माटे तेओने अतिचार लाग्यो होय के न लाग्यो होय, छतां प्रतिक्रमण करवु आवश्यक हतुं. ज्यारे अन्तिम तीर्थङ्करना कालमां पञ्चमकाल-कलिकाल नजीकमां ज हतो अने जीवोनां चित्त वक्र होवाथी तेओ पोतानां दोषोने जोई शकता नहोता माटे तेओने माटे प्रतिक्रमण अनिवार्य गणायुं.
यापनीयों पण दिगम्बरोनी आ वात साथे सहमत छे एवं विजयोदय टीकाथी जणाय छे. अपराजितसूरि अन्ध अश्वनी चिकित्साना दृष्टान्तथी प्रतिक्रमणनो नियम समझावे छे. एक माणसनो घोडो बिमार हतो. वैद्ये तेने, नजीकना पर्वत पर ऊगती एक वनस्पति, चिकित्सारूपे घोडाने खवडाववानुं कडं. पण ते व्यक्तिने ते वनस्पतिनी ओळखाण नहोती. तेथी ते त्यां ऊगेली घणी वनस्पतिओ लई आव्यो अने ते बधी ज घोडाने खवडावी दीधी तो घोडो साजो थई गयो. अहीं प्रथम अने अन्तिम तीर्थङ्करना साधुओ माटे प्रतिक्रमण वनस्पतितुल्य छे. जो तमने खबर न होय के चोक्कस कया अतिचारोनुं प्रतिक्रमण करवू तो बधा ज शक्य मानसिक, वाचिक तथा कायिक अतिचारोनुं प्रतिक्रमण करी लेवू.
हवे, श्वेताम्बर-दिगम्बर शास्त्रोमां प्राप्त थतां प्रतिक्रमण तथा पञ्चव्रत विशेनां निरूपणो युक्त ज छे, छतां श्वेताम्बर शास्त्रोमां आपेल सामयिक संयम तथा चाउज्जाम ने आश्रयीने अहीं बे प्रश्नो ऊभा थाय छ :
१. बधां व्रतोने व्यापी जनार सामायिक संयमरूप एक ज व्रतने, वचला २२ तीर्थङ्करना साधुओ जो सारी रीते समझी जता हता तो ते व्रतना वधु विशदीकरणनी शी जरूर हती ? अने
२. विशदीकरण वखते पण, जो प्रथम तीर्थङ्करना साधुओ माटे पांच व्रतो राख्यां ज हतां तो २२ तीर्थङ्करना साधुओ माटे केम चार ज व्रत कह्यां ?
बीजा शब्दोमां कहीए तो, जो व्रतोनो विस्तार करवो ज हतो तो
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चाउज्जाम ना चोथा अङ्गरूपे पञ्चव्रतनां छेल्लां बे व्रतोनो बहिद्धादान-वेरमणंरूपे शा माटे समावेश कर्यो ?
आना अनुसन्धानमां एक अतिप्राचीन छतां प्रायः अप्रसिद्ध एवा इसिभासियाइं सूत्रने आश्रयीने काईक विचारीए. १९४२ना आ आगमना पोताना सम्पादनमां शुब्रिगे ध्यान दोर्यु छे के, ४५ प्रत्येकबुद्धोमांना प्रथम (प्रायः अनिर्ग्रन्थ) एवा नारद ऋषिना अधिकारमा तेमनां प्रथम त्रण व्रतो तो प्राणातिपात विरमण व.ज छे, परन्तु चोथु व्रत अब्बंभ-परिग्गह नामक कर्तुं छे. आ वात भगवान महावीर पहेलांनी चार व्रतोनी परम्पराने पुष्टि आपे छे.
__ आ ज सूत्रना ३१मा पासिज्ज-नामज्झयणं मां पार्श्व ऋषिना उपदेशोनो समावेश कर्यो छे. तेना बे पाठो छे. तेमां प्रथम पाठमां लोक-गति-कर्मविपाकादिनुं वर्णन छ ज्यारे बीजा पाठमां प्राणातिपातथी यावत् परिग्रह पर्यन्तनुं वर्णन छे परन्तु मैथुननी वात ज करवामां आवी नथी. तेथी एवो सन्देह थाय छे के ब्रह्मचर्य ते व्रतोमा समाविष्ट हतुं के नहि ? आना पछी एवं विधान छे के - जे निर्ग्रन्थ ज्ञानी अने चाउज्जामथी संवृत छे ते आठ कर्मोने फरी बांधतो नथी. अहीं शुब्रिग कहे छे के, '३१मा अध्ययनना बीजा पाठने अनुसारे तो इसिभासियाइं सूत्र ऐतिहासिक छे.'
परन्तु अहीं द्रष्टव्य ए छे के आ सर्वप्रथम आगमिकसूत्र छे जेमां चाउज्जामनो सम्बन्ध निर्ग्रन्थ साथे दर्शाववामां आव्यो छे अने ते पण पास नामना साधु साथे के जे कदाचित् २३मा तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ पण होई शके. ____ (हवे बौद्धग्रन्थोने आश्रयीने चर्चा करीए.) .
पूर्वे निर्दिष्ट सामञलफलसुत्तनी जेम दीघनिकायनां बीजां पण बे सूत्रो चातुयाम संवरना आपणा अभ्यास माटे उपयोगी छे. ते बन्नेनुं नाम सीहनादसुत्त छे. तेमनो विषय 'निर्वाणप्राप्ति माटे साधुजीवनमां कराता स्वनिग्रहना गुण-दोषो' छे.
अहीं, प्रथम कस्सपसीहनाद सुत्त (क्र.७)मां चातुयाम संवरनी कोई चर्चा नथी, परन्तु मात्र बुद्धे निग्रोधनामक भिक्षुनो अछडतो उल्लेख को छे जेनी कथा उदुम्बरिकासीहनाद सूत्र (क्र.२५)मां छे. आ सुत्तमां चातुयाम संवरनुं प्रायः तेवू ज वर्णन छे जेतुं स्थानाङ्गसूत्रमा छे, परन्तु तेमां निग्गंथ नातपुत्त के बीजा
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कोई उल्लेख नथी. आ सूत्र जेकोबीना ध्यानमां न आव्युं अने घणा समय सुधी उपेक्षित रह्युं तेनुं प्रायः आ ज कारण छे.
दीघनिकायमां बीजा क्रमे आवतुं सामञ्ञफलसुत्त, जो के उपरोक्त बन्ने सुतो करतां पूर्वतन लागे छतां तेवुं कदाच नथी. कारण के, आ सुत्त, पश्चात्तापथी बुद्ध पासे आवता पितृघातक राजा अजातशत्रुना सन्दर्भमां रचायुं छे. अने आ घटना तो बुद्धना जीवनना छेल्लां दशेक वर्षोमां घटी होय तेवुं जणाय छे.
प्रथम सीहनादसुत्तमां कस्सप नामे तपस्वी बुद्ध पासे आवीने पूछे छे के, 'शुं साचे ज बुद्ध तपश्चर्यानी उपेक्षा तथा गर्हा करे छे ? अने जुदां जुदां केशलुञ्चन, नग्नता, भिक्षाचर्या व कष्टकर जीवन जीवता श्रमणो जे श्रमणचर्या आचरे छे तेमां दोष जुए छे ?' आ संवादना छेडे बुद्ध निग्रोधनो उल्लेख करे छे के जे कस्सप जेवुं ज कष्टमय जीवन जीवतो हतो, तेणे ज्यारे बुद्धने जीवनना उच्च प्रकारना तप विशे प्रश्न पूछ्यो त्यारे पोते तेने पोतानो मत समजाव्यो हतो. बुद्ध कस्सपने पण ते बधां कष्टोनी व्यर्थता समजावे छे अने अष्ट आर्य सत्योनो उपदेश आपे छे. ते सांभली कस्सप बौद्ध भिक्षु बनी अर्हत-पद पामे छे. 'तपस्वी निग्रोधने पोते मळ्या हता' एवा बुद्धना शब्दो पर टीका करतां बुद्धघोष दीघनिकाय - अट्ठकहामां कहे छे के, 'ते निग्रोधनो वृत्तान्त उदुम्बरिकासीहनादसुत्त मां सङ्गृहीत थयेलो छे.'
अतिकठिन श्रमणचर्याने पाळनारो निग्रोधनामक परिव्राजक पोताना विशाल शिष्यगण साथे उदुम्बरिकोद्यानमां वसतो हतो. एक दिवस बुद्धने वन्दन करवा जतो एक बौद्ध उपासक मार्गमां निग्रोध पासे गयो अने तेनी सभामां तेणे बुद्धनी प्रशंसा करी. त्यारे निग्रोधे कह्युं के - 'ते (गौतम) तो एकान्तमां छुपाईने रह्यो छे. जो ते जाहेरमां आवीने मारी साथे वाद करे तो ते खुल्लो पडी जशे . ' बुद्धे पोताना अतीन्द्रिय ज्ञानथी आ हकीकत जाणी अने पोते ज तेना स्थानमां उपस्थित थया. निग्रोधे बुद्धने कठोर तप विशे, शिष्योनी तालीम विशे, शुद्धधर्म विशे पृच्छा करी. त्यारे बुद्धे तेने जे प्रतिभाव आप्यो ते आपणी चर्चामां उपयोगी छे.
'निग्रोध ! तुं मने तारा पोताना सिद्धान्तों विशे,
बुद्धे तेने कह्युं के
१. दीघनिकाय १:१७६ ।
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जीवनना उच्च तपो विशे, स्वदमनना फायदा गैरफायदाओ विशे प्रश्नो पूछ. ' त्यार पछी बुद्ध अने निग्रोध बच्चे घणो लांबो संवाद चाले छे जेमां बुद्ध तेने कस्सपसीहनादसुत्तमां वर्णवेल तप व नी निरर्थकता समजावे छे अने कहे छे के 'देहदमनना बधा ज प्रकारो दोषपूर्ण छे अने पवित्र उच्च जीवनरूपी वृक्षनी छालने पण तेओ स्पर्शी शकता नथी तो तेना सारने तो क्यांथी पामी शके ?'
निग्रोध पूछे छे उच्च कक्षा तथा तेना सारने पामी शके छे ?'
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'तो भदन्त ! कई रीते कोई साधु पवित्र जीवननी
बुद्ध कहे छे - 'कोई साधु तपस्वी चातुयाम संवरथी संवृत्त थाय छे. चातुयाम संवर एटले, ते साधु
२.
३. ते
१. कोइने मारे नहि, मरावे नहि, मारनारनी अनुमोदना पण न करे; ते अदत्त ले नहि, लेवडावे नहि लेनारनी अनुमोदना पण न करे; मृषा बोले नहि; बोलावे नहि, बोलनारनी अनुमोदना पण न करे; अने ते इन्द्रियोना विषयोने अभिलेष नहि, अभिलषावे नहि, अभिलाषा करनारनी अनुमोदना पण न करे.
४.
आ रीते ते साधु चातुयाम संवरथी संवृत्त थाय छे. १
अहीं ए नोंधवं जोइए के जैन परम्परामां हिंसा, मृषा, अदत्त - एवो क्रम छे ज्यारे अहीं हिंसा, अदत्त, मृषा...एवो क्रम छे. बीजुं, चोथा व्रतमां आवतो भावितं (नो भावितं आसीसति) शब्द बहु महत्त्वनो छे, अने आ सन्दर्भमां ते कोई जैन ग्रन्थमां जोवामां नथी आव्यो.
आ शब्द पर टीका करतां बुद्धघोष अट्ठकथामां कहे छे के - 'जेओ आ चातुयाम संवरमां माने छे तेओना मते भावितनो अर्थ पांच कामगुणो छे,
अर्थात् इन्द्रिय सम्बन्धी सुखना प्रकारो छे.' जो के, बौद्धोए अन्यत्र भावित शब्दनो
4
उपयोग कर्यो छे, छतां स्पष्टतया कहे छे के
' (कोइनो) राग होवो, अभिलाष होवो, तेनुं सतत चिन्तन होवुं ' व. अर्थोमां अहीं ते तेमनी परिभाषानो नथी. अहीं तो बुद्धघोष 'अहीं भावित शब्दनो अर्थ, जेओ चातुयाम संवरनो
१. दीघनिकाय - ३:४८ ।
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अभ्यास करे छे तेमना मते छे.' (तेसं सञ्ञाय).
.
आ सार्थक विधानथी ए साबित थाय छे के टीकाकार (बुद्धघोष ) चातुयाम संवरना अभ्यासीओ साथै सम्पर्कमां हशे अने तेमनी पासेथी ज तेने चोथा व्रतनो आवो अर्थ मळ्यो हशे आ अर्थ विश्वसनीय ज छे कारण के स्थानाङ्गसूत्रमां रहेल बहिद्धादान शब्दनो अर्थ जेवो सन्दिग्ध रहे छे (अर्थात्ते मैथुनपरक - परिग्रहपरक के बन्ने परक छे), तेवो ज सन्दिग्ध अर्थ अहीं पण छे. कारण के, इन्द्रियना सुखो एटले काम जेम स्त्री साथे तेम बाह्यवस्तुओ साथै पण जोडाई शके छे. परन्तु, अहीं दुर्भाग्ये मूळ पालीसुत्त के अट्ठकथा बेमांथी क्यांय आ चातुयाम संवरनी अभ्यासी व्यक्ति के परम्परानो निर्देश नथी.
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जो के, एक वस्तु तो अहीं निश्चित छे के बौद्धोए बीजा परिव्राजको के तापसोना देहदमनना अभ्यासो अने चातुयाम संवर वच्चे घणो तफावत जोयो छे, अने बुद्धे पोते पण आ चातुयाम संवरने तिरस्कार्यो के दूषित नथी कर्यो, एवं उपरोक्त संवादो जोतां जणाय छे.
आगल बुद्ध उमेरे छे के - 'जे तपस्वी चातुयाम संवरने पाळतो आगळ वधे छे ते ध्यान(ब्रह्मविहारो) ने पामी शके छे अर्थात् मैत्री - करुणा-मुदिताउपेक्खाने अनुभवी शके छे. परन्तु तेनाथी पण ते सर्वोच्च कक्षाए पहोंची शकतो नथी, ते वृक्षनी छालने ज पामी शके छे तेना सारने नहि. १
फरी निग्रोध द्वारा पूछाये छते बुद्ध कहे छे के 'त्यांथी पण आगळ वधीने ते मानसिक अवरोधोने दूर करीने पोताना सेंकडो-हजारो पूर्वभवोने जोवानी अतीन्द्रिय शक्तिने पण पामी शके छे. पण ते शक्ति पण वृक्षनी शिरा सुधी पहोंचाडी शके पण तेनो सार पमाडी शकती नथी. '
'त्यार पछी पण जे आगळ वधे ते दिव्वचक्खु अभिन्न तरीके ओळखाती दिव्य दृष्टि सुधी पहोंची शके छे, के जेनाथी ते विविध जीवोने तेमनां सारां- नरसां कर्मोने कारणे विविध गतिओमां जतां आवतां जोई शके छे. ' त्यारे निग्रोध पूछे छे - 'भगवन् ! शुं त्यारे ते तपस्वीनी तपस्या आ बधी वस्तुथी अत्यन्त शुद्ध थई जाय छे अने उच्च कक्षाने तथा वृक्षना सारने पामी ले छे ?' १. दीघनिकाय
३ : ४८-४९ ।
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ते समये बुद्ध जे जवाब आपे छे ते थोडो आश्चर्यजनक छे. तेओ कहे छे, 'हा निग्रोध ! आ रीतनी तपस्या उच्चकक्षा तथा सारने पमाडे छे.'
'अने तेथी ज निग्रोध ! ज्यारे तुं मने पूछे छे के - "तमे तमारा शिष्योने क्यां (कई कक्षाए) तालीम आपो छो ? तमारा कया शिष्यो तमे प्ररूपेल साधधर्मना सिद्धान्तोने स्वीकारे छे?" त्यारे हं कहं छं के - "ते घणी उच्चकक्षा छे ज्यां हुं मारा शिष्योने तालीम आपुं छु, अने ते मारा शिष्यो साधुधर्मना सिद्धान्तोनो स्वीकार करे छे. "१
एक बौद्धेतर पन्थ पर बुद्धे आपेलुं आ एक सङ्क्षिप्त प्रमाण छे, अने आश्चर्य तो ए वातनुं छे के सुत्तना सङ्कलनकारोए पण चातुयाम संवरने क्षतिरहित मानी पोताना सिद्धान्त जेवो ज गण्यो छे ! वळी, वधारे उच्च अने अनुत्तर निर्वाणना पन्थ विशे कशुं कह्या विना ज आ सुत्त पूर्ण थई जाय छे, ते तो एथी य वधारे विस्मयप्रेरक छे.
निग्रोध बुद्धनी निन्दा करवानो पोतानो अपराध स्वीकारी क्षमा मागे छे. त्यारे बुद्ध पण तेने कहे छे के - 'जे व्यक्ति प्रामाणिक, मेधावी अने सरल छे तेने हुं शिक्षण तथा मार्गदर्शन आपीश के जेनाथी ते अहीं अने अत्यारे ज उच्चधर्म अने परम ध्येयने पामी शके छे.' परन्तु निग्रोध के तेना शिष्योमांथी कोई पण आ पवित्र पन्थ पर चालवा तैयार नथी, कारण के, बुद्ध पोते ज कहे छे तेम 'प्रत्येक मूर्ख मनुष्य मार - दुष्ट तत्त्वथी आक्रान्त होय छे.' अने आ रीते बुद्ध एक पण व्यक्तिने प्रतिबोध्या विना नीकळी जाय छे, अने सत्र अहीं ज पूर्ण थई जाय छे, जाणे के चातुयाम संवरने बुद्धना अर्ध उपदेश तरीके कहीने अटकी जाय छे.
आनो उकेल आ संवादना आरम्भने जोइए तो मळी जाय छे के बुद्ध सिंहनादनी जेम निर्भीकपणे कयुं छे के - 'ते बीजाओ द्वारा पूछायेल तपश्चर्या विषयक प्रश्नोनो उत्तर, पोताना सिद्धान्तोनुं वर्णन कर्या पहेला ज आपशे.' बुद्धनो आ विश्वास मात्र पोतानी उच्च बौद्धिक शक्ति पर ज आधारित नथी परन्तु पोते पोताना पूर्व जीवनमां बोधिसत्त्वरूपे आवां कष्टानुष्ठानो करी अनुभव मेळवेल छे
१. दीघनिकाय ३:४९ ।
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अने ते अनुष्ठानोनी व्यर्थता पण जोई छे. अट्ठकथा चातुयाम संवर विशेना बुद्धना आवा असामान्य विधान माटे पण आने ज स्पष्टतया कारण माने छे. चातुयाम संवर सम्बद्ध सूत्रनी टीका करतां बुद्धघोष अट्ठकथामां कहे छे के -
'भगवाने आ जे कयुं छे ते तीथिकोना मते कडुं छे. तीथिको माने छे के - लाभ अने पूजा सत्कार वृक्षनां पर्णो जेवा छे, पांच व्रतो- पालन ते वृक्षना थड समान छे, अष्टविध ध्यानाभ्यास ते वृक्षनी त्वचा जेवो छे, पूर्वभवोनुं ज्ञान (अभिन्न) वृक्षनी शिराओ जेवू छे, दिव्य चक्षुः ने तेओ (तीथिको) अर्हतपणानुं उत्तम फल माने छे, तेथी तेनी प्रासि ते वृक्षना सार समान छे.'
परन्तु बुद्धना शासनमां तो, लाभ तथा पूजादि वृक्षनां पर्णो जेवा छे, नियमो वृक्षना काष्ठ (थड) जेवा छे, ध्याननिष्पत्ति ते वृक्षनी त्वचा जेवी छे, पूर्वज्भवोनुं ज्ञान वृक्षनी शिरा जेवू छे, परन्तु वृक्षनो खरो सार तो पवित्र मार्ग अने ते मार्गनुं फल - निर्वाण छे.२
अट्ठकथामां चातुयाम संवरनुं अध्यारोपण तीथिको पर कर्यु छे ते घj साकूत छे. सामञफलसुत्तमां तीथिको तरीके श्रमणोना छ अतिप्रसिद्ध सम्प्रदायोनुं वर्णन करवामां आव्युं छे. अहीं जे तीर्थिक शब्दनो उपयोग कर्यो छे ते तो निःशङ्कपणे नातपुत्तना नेतृत्ववाला निर्ग्रन्थोने उद्देशीने ज को छे, कारण के तेमना सिवाय बीजा कोई तीथिकोए चातुयाम संवरनुं निरूपण कयुं नथी.
निग्ग्रंथो (अर्थात् तीथिको) दिव्यचक्षुः नामक पूर्वोक्त अलौकिक सामर्थ्यने अर्हतपणुं माने छे एवं बौद्धोनुं विधान, वर्तमानकालीन जैनोनी जेम, निर्ग्रन्थोए पोते ज अवश्य नकारी काढ्युं होत. अहीं, बौद्धो पोताना प्रतिपक्षी श्रमणोनुं वर्णन करी रह्या छे अने तेओ तेमनी यौगिक क्षमताओने पोताना सिद्धान्तोना प्रकाशमां जोवा माटे बन्धायेला छे ए वातने बाजु पर राखीए तो; ए जोर्बु उचित थई पडशे के कोईक जैन आगमपाठे तेमने आq विधान करवा प्रेर्या होय. मने लागे छे के कल्पसूत्रनो एक फकरो (आचाराङ्ग सूत्र २-१५२६ नुं ज प्रायः प्रतिबिम्ब) भगवान महावीरे प्राप्त करेल अर्हतपणाने वर्णवे छे -
'ज्यारे श्रमण महावीर जिन थया, अर्हत थया त्यारे तेओ केवली थया,
१-२. दीघनिकाय-अट्ठकथा ३:५४-५७
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जून २००८
सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी थया, तेओए देव-मनुष्य- असुरलोकना सर्व पर्यायोने जाण्या तथा जोया, सर्व लोकमां सर्व जीवोना गति - अगति-स्थिति- च्यवन-उपपात व. सर्व भावोने जाण्या तथा जोया....'
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अने, कल्पसूत्रमां ज श्रमण महावीरने मळेल केवलज्ञानने वर्णववा माटे वपरायेला 'अनुत्तर ज्ञान अने दस्सण शब्दो तथा महासारोपमसुत्त (मज्झिमनिकाय-२९)मां बौद्धोए करेलो तेनो अर्थ जोईए तो बीजी सङ्गति पण कदाच मळे छे.
सुत्त कहे छे के 'पाखण्डीने प्राप्त थयेल जाण - दस्सन दिव्वचक्खु नामक अभिन्न तुल्य छे.' अहीं, जो के, वृक्षना सारने पामवाना उदाहरणमां सुत्त 'एक विवक्षित पुरुष' एवां पदो वापरे छे, छतां, मज्झिमनिकाय - अट्ठकथामां कह्युं छे के 'त्यां उल्लेखेल पुरुष ते देवदत्त छे, जेने सङ्घभेदना आरोपसर सङ्घथी बहार करवामां आव्यो.' सुत्त कहे छे के 'तेवो भिक्खु आण-दस्सन पामे तो य ते मात्र वृक्षना तन्तुओने ज स्पर्शी शके छे पण तेना सारने नहि. ' आणं च मे उदपादि, दस्सनं च मे उदपादि व वाक्यो बुद्ध अथवा अरहा द्वारा ज्यारे बोलाय त्यारे ते हंमेशा संसारना अन्तने व्यक्त करता खीणा मे जाति, नत्थि दानि पुनब्भवो... व. शब्दोथी सम्बद्ध अधिकारोथी अनुसराता होय छे. तेथी मज्झिमनिकाय अट्ठकथा कहे छे के - 'अहीं वर्तमान सन्दर्भमां (अर्थात् देवदत्तना) आण दस्सन कोई लोकोत्तर प्रासिनो निर्देश नथी करतां परन्तु (पांच लौकिक अभिन्नमांना) एक दिव्यचक्खु नामक एक अभिन्ननो निर्देश करे छे. १
जैन कल्पसूत्रना फकराओमां वर्णवेली जीवोनां जन्म-मरणोने जोवानी शक्ति तथा सर्व कांई जोवा - जाणवानी शक्ति, बौद्धोना दिव्वचक्खु अभिन्न साथै घणुं साम्य धरावे छे एवी अवधारणाए बौद्ध टीकाकारोने एवं विचारवा प्रेर्या होय के जैनो आ बधानी प्राप्तिने ज अर्हत्पणानी प्राप्तिरूप मानता हशे.
आ बन्ने (जैन बौद्ध) मतो वच्चेनो विरोध घणो प्रसिद्ध छे अने सामञ्ञफलसुत्त परनी बुद्धघोषनी अट्ठकथामां तेने विशे घणुं बधुं लखायेलुं छे. छतां, तेमांथी केटलाक अतिप्रसिद्ध शब्दो अहीं टांकवा अस्थाने नहि गणाय. निग्गंथो पर टीका करतां बुद्धघोष कहे छे के - 'निर्ग्रन्थो जो के तीर्थिको अर्थात् १. मज्झिमनिकाय २:१९६
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अनुसन्धान ४४
पाखण्डीओ छे, छतां तेओर्नु केटलुंक अनुष्ठानादि बौद्धमतने सम्मत पण छे. ते छतां पण, तेओनी अशुद्ध दृष्टिने कारणे तेओर्नु समग्र दर्शन ज मिथ्या छे.''
छेल्ले, घणा जैन आगमोना पाठो साथे सादृश्य धरावता आगळ कहेला पाली आगमना पाठो तथा तेनी टीकाओ-कदाच, बौद्ध साधुओ तथा जैन मुनिओना कोई गणो वच्चेना वास्तविक सम्पर्कने जणावे छे. में मारा १९९५ना लेखमां जणाव्युं ज छे के - टीकाकार धम्मपाले जैन साधुओनुं जे वर्णन कर्यु छे ते शिल्पोमां मळतां वर्णनो साथे सम्मत छे - ते जणावे छे के बौद्धो काञ्चीमां रहेता जैनमुनिओना गणोने जाणता हशे. वळी, बौद्ध टीकाकारोना समय सुधी पण थेरवादी बौद्धो, जैनोना पञ्च महाव्रतोनी वात न करतां चातुयाम संवरने ज स्वीकारे छे -- ते आपणने एवं विचारवा - तर्क करवा प्रेरे छे के दक्षिणमां रहेल बौद्धोने एवा जैन मुनिओनो सम्पर्क हशे के जेओ त्यारे पण चातुयाम संवरने पाळता होय.
WARSAW INDOLOGICAL STUDIES - VOLUME 2, Essays in Jaina Philosophy and Religion Catuyama - Samvara in the Pali Canon लेखनो अनुवाद.
अनुवाद : मुनि कल्याणकीर्तिविजय
Dept. of S&SE Asian Studies University of California
7303 Dwinelle Hall Bekeley, CA 94270-2540
१. दीघनिकाय अट्ठकथा १ : १६८ । २. Jaini, Padmanabh S. : JAIN MONKS FROM MATHURĀ: LITERARY EVIDENCE FOR THEIR IDENTIFICATION ON KUSANA SCULPTURES.' Bulletin of the School of Oriental and African Studies [University of LONDON] 58 (1995) 479-494.
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________________ / सं. १२४४नी धातुप्रतिमानो पृष्ठभाग