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________________ जून २००८ २५ जाणता अगहिल्ला कह भुल्लाइं दियालजियलोए । विसएहिं भोलिया अह मह वयणं ही कुणंतु कहं? ॥ ५ ॥ अज्जवि किंपि न नटुं जइ चेयसि हंदि किंपि अप्पाणं । विलवणमेत्तट्ठिओ पुण अरन्नरुन्नं समायरसि ॥ ६ ॥ कन्नि धरेविणु दिन्न मई इय सक्खिय लोइ ।। हं केणवि न हु जग्गविउ मन जंपसि परलोइ ॥ ७ ॥ चिंतहिं हियडं दज्झिसइ पच्छायावु करेसि । होसइ कांइवि नेव तुहु पर हत्थड़ा म लेसि ।। ८ ।। एएहिंवि वयणेहिं तह जिय ! मन्ने न भावसब्भावं । जा नेव पुलइयंगो रेल्लसि अंसूहि महिवलयं ॥ ९ ॥ जस्स मणदप्पणंमी भावत्थो फुरइ एयभणियस्स । सो देवाण वि पुज्जो कि पुण मणुयाण जियलोए ? ।। १० ॥ गिरिसिहरग्गिहि वरसियइ रहइ न पाणिउ जेव । पत्थर-सरिसह नीरसह कहिउ सुणिज्जह तेव ॥ ११ ॥ वयणेणं भणियमिणं तरामि नो सिक्खिउं च बेडाए । सिरि धम्मसूरि सीसो जंपइ एयं रयणसूरी ।। १२ ।। (६) संवेगचूलिका कुलकम् नारीण बाहिरंगे जह दिढे माणसं समुल्लसइ । तह अंतरसयलंगे जं दिढे होइ तं सुणह ॥ १ ॥ रणरणओ दीणत्तं महाभउव्वेय तास कलमलयं । एयं अणुहविऊणं अप्पा वि हु उड्डणं महइ ॥ २ ॥ विरलो च्चिय धावंतो धम्मो धम्मोत्ति कोवि मज्झम्मि । अप्पाणं रंजंतो जो मुंचइ विसयगहिलत्तं ॥ ३ ॥ ता नत्थि इह कहाओ ते दिटुंता न ताउ जुत्तीओ। संसारुव्वेयकरा मह कन्ने जा न पत्ताओ ॥ ४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520544
Book TitleAnusandhan 2008 06 SrNo 44
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages126
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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