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अनुसन्धान ४४
(३०) श्री संखेश्वर पार्श्वनाथ स्तवनम्
संखेसरि पुरि संठियह, पासह पाय जु झाइ । सो दूरिवि चिंतिउ लहइ, किं पुणु थुणइ जु जाइ ॥ १ ॥ संखेसरि पासह चरण, नमइ जु एक्कमणेण । तसु निच्छइं वंछिय सयल जायहि एक्कखणेण ॥ २ ॥ लग्गु त काई वि साहियं, संखेसरि तुहु देव ! । जिणि तिहुयणु सउ मोहियं, कुणइ तहारियसेव ॥ ३ ॥ महु मुहि एक्क जि जीहडिय, तुह गुण लहं न अंतु । किव संखेसरि पास पई, पाविस तोसु थुणंतु ।। ४ ।। संखेसरु कप्पे वि सरुपउमु व पासजिणिंदु । सो झाइज्जइ पइदियहु जसु पय नमइ फर्णिदु ।। ५ ।। पुन्निम केरउ चंदुलउ, भवियहु पासु करेहु । मणु पुणु जलहि छवेवि तउ पिउ लहरिहिं पूरेउ ॥ ६ ॥ संखेसरि पासह पुरउ जीविउ तुलह धरेहु । इगनिच्छइ जउ तुट्ठ तउ वरु भावंतु वरेहु ॥ ७ ॥ चिंतामणि चिंतिउ दियइ, पासु अचिंतिउ देइ । संखेसरि जो एक्कमणि, तसु पय पुणु वंदेइ ॥ ८ ॥ इय रयणसिंहपहुथुणिउ, संखेसरि जिणु पासु । मणवंछिउ पूरेवि जगि देउसु सिवपुरि वासु ॥ ९ ॥
- (३१) श्री संखेश्वर पार्थ स्तवनम् संखपुरेसरि वंदहु देउ, जो जग भत्तिहि जाणइ भेउ । कासुवि न तुल्लउ जासु न तेउ, तासु न वंछिउ दितह खेउ ।। १ ।। संखपुरेसरि पास जिणिंदु, उग्गउ लोयहु एक्कु दिसिंदु । किं नवु पुन्निम केरउ चंदू जेत्थु न अत्थु न कत्थवि फंदू ॥ २ ॥
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