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________________ २२ अनुसन्धान ४४ सयलंपि भवसरूवं नाऊणं गुरुमुहाउ मुणिणोवि। वटुंति जं अकज्जे अहह महामोहविप्फुरियं ! ॥ २१ ॥ भणसि मुहेणं सव्वं तत्तं अइसुंदरं तुमं जीव ! । जं न कुणसि कारणं तं मन्ने गरुयकम्मोसि ॥ २२ ॥ चिट्ठइ राई पासइ न कोइ हवउ जह तह वणुट्ठाणं । इय मूढ ! लोयरंजय ! कुणमाणो किं पि न लहेसि ।। २३ ॥ जइ एगो च्चिय रागो निग्गहिओ होज्ज जीव ! संसारे । अट्ठण्हवि कम्माणं ता उच्छेओ कओ झत्ति ।। २४ ॥ को दिव्वं लंघेउं अहवा सक्कइ वियाणमाणोवि । तह वि हु उज्जमसीलो होज्ज सया रायविजयम्मि ॥ २५ ॥ जो चिंतइ न परत्तं देइ कुबुद्धिं वयाउ भंसेइ । तेण समं संसग्गि वज्जह दूरेण मणसावि ।। २६ ॥ पाएण दूसमाए धम्मे संसग्गिया इह पमाणं । तेण सुमित्तेहिं समं संसरिंग कुणसु जा जीवं ॥ २७ ॥ जइ पुच्छह निच्छयओ न गिही साहूवि पावइ भवनं (न्तं)। भावेण केवलं पि हु लभ्रूणं जाइ निव्वाणं ॥ २८ ॥ गाहाण सिलोगाणं अत्थं नाऊण सव्वभंगेहिं । तत्थवि तं न हु नायं भावण-अमियं जओ झरइ ।। २९ ।। अवहियहियओ होउं खणे खणे अप्पयं विभावसु । कत्तो अहमायाओ गंतूण कहिं किमणु होहं ? ॥ ३० ॥ सव्वगुणाणं जोग्गं अप्पाणं जियपमाइणं नाउं । किं न भयंतो(भवत्तो?)विरमसि सत्तीए उज्जमं काउं? ॥ ३१ ॥ धम्मे परमरहस्सं रे जिय ! संवेगचोयणासारं । चूलियजुयलं झायसु जइ अ - - - - - ॥ ३२ ॥ एएणवि बीएणं कयावि धम्मुज्जवो(मो?) तुहं हुज्जा । अन्नह दुहसयबुड्डो पायालं जासि सत्तमयं ॥ ३३ ॥ कीयं आहाकम्मं नीआवासो गिहीसु पड़िबंधो । अमिओ परिग्गहो तह हुति जईणं इमे दोसा ।। ३४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520544
Book TitleAnusandhan 2008 06 SrNo 44
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages126
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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