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अनुसन्धान ४४
सासणदेवी निसुणउ अम्हं विन्नत्तियंति भणइ जणो । लहु दुक्खड़ाइं तुट्ठा जइ कह वि हु भावसाराए ॥ ७ ॥ ता जिणहरम्मि अम्हे पोसहसालाइ सयणवग्गंमि । आरुग्गं अब्भुदयं धणरिद्धि देउ सयकालं ।। ८ ।। को माहप्पं तुम्हं वन्नेउं तरइ देव (वि !) भुवणंमि । जइ जंपइ धरणिंदो अहव सुरिंदो अह गिरिंदो ॥ ९ ॥ इय रयणसिंहसूरी सासणदेवीए संथवण काउं । धम्मियजणाण भई रुद (?) कुणसु त्ति पच्छेइ ।। १० ॥
॥ इति शासनदेवी स्तोत्रं समाप्तं ।। छ ।
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