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________________ ६४ जिरि वयणविन्नाणि झत्ति कंपाविय पंडिय । जिरि वसुंधर सयल एह नियकित्तिहि मंडिय । अह धम्मसूरि परमेसरह किं वन्नणु इय गुणिहि तहि । उद्दाम करिंदेह केलिवणु भंजंतह थुइ कवण कहि ॥ ३ ॥ उवसमलच्छिहि पयडु कंठकंदलि विलसंतउ । नं सोहइ मोत्तियह हारु तेइण दिप्पंतउ || 'नं वइदेविहि देहमाणु जोयंतिय दप्पणु । नं पयडइ मल्हंतु एह देवहगुरु अप्पणु ॥ इ धम्मसूरि पेक्खेवि जगि कवणि कवणि न हु वंनियइ । इउ चिंतिवि सग्गि पुरंदरिण नं आणंदिहि नच्चियइ ॥ ४ ॥ कुमुयहुयासणु पज्जलंतु जलहरु जिंव तज्जइ । कामकरिंदह सिंहु जेव भंजणि कमु सज्जइ । देसणलहरिहि उच्छलंतु सायरु जिंव गज्जइ । वाइमडप्फरु निम्महंतु जो गुरु जिव छज्जइ । तसु धम्मसूरि जयसेहरह वियड भुवण रंगावणिहि उद्दाम परिहि हल्लप्फलिण नच्चि कित्तिनियंबिणिहिं ॥ ५ ॥ कप्पूरुज्जलगुणिहि जेण इह भुवणु चमक्किउ | दुद्दमवद्दियबिंदु जेण जुत्तिहि फुडु हक्किउ || पंडियवग्गिण नियवि झत्ति सुरगुरु जो संकिउ । तो तक्खणि पडिवक्खु सयलु नियहियइ धसक्किउ ॥ तसु धम्मसूरि मुणिराय ! तुहु फुडु जि विलंबं संथवणु तो हरिसवियंभिउ मज्झ मणु लहइ न निव्वुइ एक्कु खणु || ६ || अरिरि सुदुद्धरु जित्तु जेण वद्दिउ रायगणि अरिरि निवेसिउ नाउं जेण कोमुइ मयलंछणि । 11 अरिरि वियंभइ कित्ति जासु अइधवल दियंतरि अरिरि सरस्सइ वसइ जासु ससि [सिरिचंद] गच्छ चूडारयणु जिणसासणउन्नइकरणु । इय जयउ तित्थ [ यरतुल्ल धम्मसुरि] भवियहं सरणु ॥ ७ ॥ Jain Education International अनुसन्धान ४४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520544
Book TitleAnusandhan 2008 06 SrNo 44
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages126
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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