Book Title: Anusandhan 2008 06 SrNo 44
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 116
________________ जून २००८ १०९ बन्ने व्रतोनो समावेश थाय छे - ए वातनी प्रतीति कराववामा अत्यन्त उद्यमवन्त छे. स्थानाङ्गसूत्रनी वृत्तिमां अभयदेवसूरि बहिद्धा शब्दनो अर्थ मैथुनपरिग्रह विशेष अने आदान एटले अन्य परिग्रह - एम करे छे. आ रीते बे शब्दो भेगा करीने बनेखें पद महावीरे उपदेशेल बन्ने व्रतोने समावे छे, एवं तेओ समझे छे. तेओ कहे छे के, जो के आ वात त्यां स्पष्टतया समझावी नथी छतां, मैथुन ते परिग्रहमां अवश्य समाविष्ट थाय ज छे. कारण के जे स्त्री पोतानी मालिकीमा स्वीकाराई न होय ते स्त्री साथे मैथुन न थई शके, तेने बीजा कोई पण बाह्य पदार्थनी जेम छोडी देवी पडे. अहींया कोईए एवं न विचारवू के शिष्योनी कक्षा जुदी जुदी होवाने कारणे बे तीर्थङ्करोना उपदेशमां मौलिक तफावत छे. अभयदेवसूरि स्पष्टता करे ज छे के अहीं देखातो तफावत जो के तेमना शिष्योनी परिस्थितिना कारणे छे, छतां मूळभूत रीते तो बधा ज तीर्थंकरो पांचेय महाव्रतोनो उपदेश आपे छे. [अहींया ए नोंधq जोईए के भगवतीसूत्रना २०मा शतकना ८मा उद्देशामां तीर्थ-तीर्थङ्करनां वर्णनो, तेमना उपदेशो व. सर्व- निरूपण छे परन्तु चाउज्जाम अने पञ्चव्रत ए बन्ने विशे तेमां कोई वर्णन नथी.] अभयदेवसूरि पोतानी वातने पुष्ट करवा माटे उत्तराध्ययन सूत्र (अध्य. २३, गाथा २६-२७) नो सन्दर्भ आपे छे, जेमां एक अनुक्तपूर्व विधान छे के प्रथम तीर्थङ्करना साधुओ ऋजु-जड छे, अन्तिम तीर्थङ्करना साधुओ वक्र-जड छे ज्यारे मध्यम तीर्थङ्करना साधुओ ऋजु-प्राज्ञ छे. अमुक कालखण्डमां साधुओने बीजा कालखण्ड करतां. वधारे स्पष्ट रीते व्रतो आपवा जरूरी छे एवं उत्तराध्ययनसूत्रगत विधान दिगम्बरोने पण मान्य छे. मूलाचारमा (गाथा ६२८-६२९) कर्तुं छे के, प्रथम-अन्तिम तीर्थङ्करोना साधुओने प्रतिक्रमण फरजियात छे ज्यारे वचला तीर्थङ्करोना साधुओने तो ज्यारे सामायिक संयममां अतिचार लागे त्यारे ज प्रतिक्रमण करवं. प्रथम अने अन्तिम तीर्थङ्करना साधुओने छेदोपस्थापनीय चारित्र लेवू पडे छे तेनुं कारण ए छे के प्रथम तीर्थङ्करना साधुओने पोताना दोषो ओळखवा कठिन छे ज्यारे अन्तिम तीर्थङ्करना साधुओने पोतानां व्रतो पाळवां दुष्कर छे. बन्ने प्रकारना साधुओ कर्तव्याकर्तव्यनो के उचितानुचितनो विवेक नथी करी शकता. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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