Book Title: Anusandhan 2008 06 SrNo 44
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 115
________________ १०८ अनुसन्धान ४४ परम्परामां पण घणो प्रसिद्ध छे. कारण के आचार्य शिवार्ये (प्राय: दिगम्बरे) रचेल भगवती आराधना परनी यापनीयाचार्य अपराजितसूरिए रचेली विजयोदयाटीका(प्रायः दशमुं शतक)मां पण तेनो उल्लेख छे. त्यां साधुओना प्रतिक्रमण विशेना नियमोनी चर्चा करतां तेओ जणावे छे के प्रथम अने अन्तिम तीर्थङ्करो रोजना (नित्य) प्रतिक्रमण साथेना व्रतोना उपदेश आपे छे ज्यारे वचला २२ तीर्थंकरो दोष लागे तो ज करवारूप (नैमित्तिक) प्रतिक्रमण साथेना धर्मनो उपदेश आपे छे. आना सन्दर्भमां तेओ कहे छे के-आवो फेरफार प्रथम-अन्तिम तीर्थङ्करोना पञ्चयाम धर्म अने अन्यत्र चतुर्याम धर्मना कारण छे. श्वेताम्बर आगमोमां महत्त्व, स्थान धरावतुं आ चाउज्जाम पद, श्वेताम्बर के दिगम्बर परम्परागत तत्त्वार्थसूत्रमा के तेनां भाष्य-टीका व.मां पण क्यांय जोवा मळतुं नथी ते घणुं चिन्तनीय छे. अलबत्त, पांच महाव्रतोनी वात तो त्यां आवे ज छे. आ व्रतना सूत्रनी व्याख्या करतां (दिगम्बर) सर्वार्थसिद्धिकार कहे छे के "मूलतः तो एक ज सामायिक व्रत छे, जे सर्व सावद्ययोगोथी विरमणरूप छे. आज एक व्रत छेदोपस्थापन सामायिकनी अपेक्षाए पांच भेदवालुं कर्तुं छे.'' परन्तु अहीं चाउज्जामशब्दनो कोई उल्लेख नथी. ____ अपराजितसूरिए दर्शावेल चतुर्याम-पञ्चयाम शब्दो भगवतीसूत्रमा वर्णवेल सामायिक तथा छेदोपस्थापन संयमने अनुसरे छे, छतां आश्चर्य तो अहीं ए वातनुं छे के चाउज्जामनी अन्तर्गत शुं शुं आवे छे ते तो भगवतीसूत्रमा के विजयोदया टीकामां क्यांय जणाव्यु नथी. तेथी स्थानाङ्गसूत्रमा वर्णित चार यामोनी सरखामणी करवा माटे तथा चोथा यामनो अर्थ स्पष्ट करवा माटे दुर्भाग्ये आपणी पासे कोई आधार रहेतो नथी. स्थानाङ्गसूत्रना चतुर्थस्थानना २६६मा सूत्रमा चाउज्जामना चार यामो आ रीते कह्या छे : सर्वप्राणातिपात विरमण, सर्वमृषावाद विरमण, सर्वअदत्तादान विरमण अने सर्वथी बहिद्धादान बिरमण. आ चोथा बहिद्धादान विरमणनो अर्थ आज दिवस सुधी अस्पष्ट रह्यो छे. ज्यारे प्रथम त्रण यामो अत्यन्त स्पष्ट छे. बहिद्धादाननी एकथी वधारे अर्थच्छायाओ कहेवामां आवी छे. टीकाकार आचार्यो आपणने पार्श्वनाथे निरूपेल चतुर्थव्रतमां महावीरे उपदेशेल चतुर्थ तथा पञ्चम एम १. तत्त्वार्थसूत्र - ७-१. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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